भारतीय संविधान : 1919-1947

भारतीय संविधान : 1919-1947 


मांटफोर्ड सुधार 

     
इस  अधिनियम में निम्नलिखित मुख्य प्रावधान गए थे -

1 - केंद्रीय सरकार - इस अधिनियम ने प्रांतों में एक उत्तरदायी सरकार की स्थापना तो जरूर की परन्तु इसके  सिद्धांतों
को केंद्रीय सरकार में लागू नहीं किया गया। केंद्रीय सरकार पहले की तरह ही ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी बनी रही। गवर्नर
जनरल की परिषद की सदस्यता का अधिकतम प्रतिबंध हटा दिया गया। भारतीय सदस्यों की संख्या बढाकर तीन कर दी गयी
थी। इनका कार्यकाल 5 वर्ष का होता था। समस्त कार्यपालिका शक्ति गवर्नर जनरल में निहित थी। कार्यकारिणी परिषद सेक्रेटरी
ऑफ़ स्टेट के प्रति उत्तरदायी थी न कि केंद्रीय विधान परिषद के प्रति। 

2 - केंद्रीय विधानमण्डल - केंद्रीय विधान मंडल दो सदनों से मिलकर बना था, पहला- विधानसभा और दूसरा राज्य
परिषद। विधानसभा के कुल सदस्यों की संख्या 144 होती थी। इस सभा के 104 सदस्य निर्वाचन द्वारा चुनकर आते थे।
शेष 40 सदस्य मनोनीत किये जाते थे। विधानसभा का कार्यकाल 3 वर्ष का होता था परन्तु गवर्नर जनरल विधानसभा को 3 वर्ष
के पहले भी भंग कर सकता था। राज्य परिषद के सदस्यों की अधिकतम सीमा 60 थी। राज्य परिषद की कुल सदस्य संख्या
में से 30 सदस्य निर्वाचन द्वारा तथा 25 सदस्य मनोनीत करके नियुक्त किये जाते थे। मतदान का अधिकार बहुत ही सीमित
तथा संकुचित होता था। संपत्ति के आधार पर मतदान की योग्यता का निर्धारण किया जाता था। महिलाये न तो मतदान कर
सकती थीं और न ही परिषदों के सदस्य के रूप में चुनी जा सकतीं थीं। केंद्रीय विधान मण्डल के दोनों सदनों को एक सामान
अधिकार प्रदान किया गया था। दोनों सदन केंद्रीय सूची में वर्णित सभी विषयों पर विधेयक पारित कर सकते थे। केंद्रीय
विधान मण्डल द्वारा पारित किसी भी विधेयक पर किसी भी न्यायलय में वाद नहीं चलाया जा सकता था। किसी विषय पर केंद्र
और प्रांतों के विवाद या मतभेद का निर्णय करने का अधिकार गवर्नर जनरल में निहित था। गवर्नर जनरल ही यह निर्णय
करता था कि विवादित विषय पर कानून बनाने का शक्ति केंद्रीय विधान मंडल की है या प्रांतीय विधान मंडल की। केंद्रीय
विधान मंडल कानून बनाने की शक्ति गवर्नर के ही अधीन थी। कुछ विशेष विषयों से सम्बंधित विधेयक गवर्नर जनरल की
अनुमति बिना विधान मंडल के किसी भी सदन में नहीं लाये जा सकते थे। गवर्नर जनरल विधान मंडलों द्वारा पारित विधेयकों
को अपने विशेषाधिकार के प्रयोग द्वारा निरस्त कर सकता था या/और  ऐसे किसी विधेयक को मंजूर कर सकता था जिसको
परिषद ने अस्वीकार कर दिया हो या/और उस विधेयक को सम्राट के समक्ष पुनः विचारार्थ रख सकता था। गवर्नर जनरल
द्वारा स्वीकार किये गए विधेयक विधान मंडल द्वारा पारित विधेयकों के समान ही प्रभावशाली होते थे। आपातकाल में
अध्यादेश जारी करने का अधिकार गवर्नर जनरल को था। इस प्रकार देश की समस्त शक्ति केंद्रीय विधान मंडल और गवर्नर
जनरल में निहित कर दी गयी थी और भारत की सरकार एक एकात्मक सरकार ही बनी रही। 

3 - प्रांतीय सरकार - द्विशासन पद्धति की स्थापना -
भारत सरकार अधिनियम -1919 द्वारा प्रांतों में आंशिक उत्तरदायित्वपूर्ण सरकार की स्थापना की गयी इस सरकार की
स्थापना दोहरी शासन प्रणाली लागु करके की गयी थी। दोहरी शासन प्रणाली द्वारा सरकार स्थापित करने का मकसद
भारतीय लोगों को स्वयं अपनी सरकार चलाने का प्रशिक्षण देना था। विषयों पर कानून बनाने के अधिकार क्षेत्रों को दो
भागों ( केंद्रीय सरकार और प्रांतीय सरकार ) में बाँट दिया गया। किसी विषय पर कानून बनाने का अधिकार केंद्रीय सरकार
को होगा या प्रांतीय सरकार को, इसका निर्धारण कर दिया गया। केंद्रीय विषयों पर कानून बनाने का क्षेत्राधिकार केंद्रीय
सरकार का तथा प्रांतीय विषयों पर कानून बनाने का क्षेत्राधिकार प्रांतीय सरकार का होता था। प्रांतीय सरकारों के कानून
बनाने विषयक प्रांतीय क्षेत्राधिकार को पुनः दो भागों में विभाजित कर दिया गया था। 1  रक्षित विषय तथा 2 . हस्तांतरित
विषय। अधिक महत्वपूर्ण विषय रक्षित विषय की श्रेणी में आते थे जैसे - वित्त, न्याय, पुलिस, जेल, सिंचाई आदि। इन विषयों
पर प्रशासन गवर्नर जनरल अपनी कार्यपालिका शक्ति के माध्यम से करता था जो प्रांतीय विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी
नहीं थी। गवर्नर जनरल इन विषयों के प्रति राज्य सचिव के माध्यम से ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी होता था। हस्तांतरित
विषयों की श्रेणी में कम महत्व के विषय आते थे, जैसे - स्थानीय स्वायत्त शासन, खेती, शिक्षा आदि। गवर्नर जनरल हस्तांतरित
विषयों का प्रशासन अपने भारतीय मंत्रियों की सलाह से करता था जो प्रांतीय विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी होते थे।
मंत्रियों तथा कार्यपालिका दोनों द्वारा किये गए निर्णयों को गवर्नर जनरल रद्द कर सकता था। प्रांतीय विधान परिषद की
कानून बनाने की शक्ति अत्यंत अल्प थी और उस पर अनेक निर्बंधन लगे थे। अन्य कई विषयों पर पहले गवर्नर जनरल की
पूर्व अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होता था। गवर्नर जनरल किसी विधेयक पर विचार किये जाने को बीच में ही स्थगित कर
सकता था। उसके पास विधान परिषद की सहमति के बिना भी रक्षित विषयों पर कानून बनाने का प्राधिकार था। वह किसी
भी विधेयक को नामंजूर कर सकता था। जबकि प्रांतीय विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या काफी बढ़ा दी गयी
थी, फिर भी मुसलमानो के लिए पृथक निर्वाचक मण्डल यथावत बना रहा। 
मांटफोर्ड सुधार की त्रुटियां -
सन 1919 के अधिनियम द्वारा भारतीय नेताओं की उत्तरदायित्वपूर्ण सरकार को पूरा नहीं किया जा सका।
भारतीय नेताओं ने पूर्ण स्वराज्य की मांग की तथा आंदोलन ने बड़ा रूप धारण कर लिया। मांटफोर्ड सुधार में निम्नलिखित
प्रमुख त्रुटियां थीं- 
अ -उत्तरदायित्वपूर्ण सरकार की मांग का पूरा न होना-

       प्रांतों में आंशिक उत्तरदायित्वपूर्ण की स्थापना होने के बावजूद भी केंद्रीय सरकार का स्वरुप एकात्मक ही बना रहा।
राज्य सचिव के द्वारा केंद्रीय सरकार ब्रिटिश संसद के प्रति ही उत्तरदायी बनी रही। कोई विषय केंद्रीय क्षेत्राधिकार में है या
प्रांतीय क्षेत्राधिकार में है, इस विषय पर अंतिम निर्णय देने का अधिकार गवर्नर जनरल को प्राप्त था। ऐसे विषयों पर अंतिम
निर्णय देने का अधिकार न्यायपालिका के पास नहीं रखा गया था। अनेक विषय ऐसे थे, जिन पर विचार करने से पूर्व प्रांतीय
विधान मंडलों को गवर्नर जनरल की पूर्व अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होता था। गवर्नर जनरल अनुमति न देकर प्रांतीय
विधान सभाओं द्वारा पारित विधेयकों को भी रद्द कर सकता था। इस प्रकार सारी प्रशासनिक एवं विधायिनी शक्तियां केंद्र में
ही निहित थीं तथा प्रांतों में उत्तरदायित्वपूर्ण एवं सरकारों की स्थापना एक दिखावा मात्र थी।


ब - दोहरे शासन की असफलता -

इस अधिनियम द्वारा प्रांतों में स्थापित की गई दोहरी शासन प्रणाली पूर्णरूप से असफल  हो गई। सर एलेग्जेंडर मूडीमैन की अध्यक्षता में दोहरे शासन की कार्यप्रणाली की जांच के लिए  गठित एक समिति ने अपनी रिपोर्ट में दोहरी शासन प्रणाली की असफलता के निम्नलिखित कारण बताए थे -

1 -  प्रशासन के दोनों अंगों में कानून बनाने क विषयों के वर्गीकरण में कोई निश्चित सीमांकन नहीं था अतः  एक दूसरे के क्षेत्रों में हस्तक्षेप किए जाने की संभावना अधिक थी

2 -  प्रशासन के दोनों अंगों में सहयोग नहीं था। मंत्रीगण जनता के प्रतिनिधि होते थे, जबकि कार्यपालिका के सदस्य सरकारी  वर्ग के होते थे। इन दोनों वर्गों में सदा ही तनाव बना रहता था इसलिए प्रशासन का कार्य सुचारू रूप से चलना असंभव था। गवर्नर हमेशा कार्यपालिका के सदस्यों का पक्षपात किया करता था। 

3 -  मंत्रियों का उत्तरदायित्व संयुक्त नहीं था इसलिए उनकी स्थिति कमजोर थी। मंत्रियों की नियुक्ति गवर्नर करता था वही उनको पद से हटा भी सकता था। अपने पद को बनाए रखने के लिए मंत्री लोग सर्वदा गवर्नर को ही समर्थन करते थे। गवर्नर प्रशासन के कार्य में हस्तक्षेप करता रहता था और मंत्री लोग अपने विभाग में स्वतंत्र रुप से कार्य नहीं करते थे। 

4 - हस्तांतरित विषयों पर वित्त विभाग का अत्यधिक नियंत्रण भी दोहरी शासन प्रणाली की असफलता का एक मुख्य कारण था। यह विभाग कार्यपालिका के ही सदस्यों के हाथों में रहता था ना कि भारतीय मंत्रियों के। कार्यपालिका के सदस्य रक्षित विषयों को ही वरीयता देते थे और भारतीय मंत्रियों के हस्तांतरित विषयों की उपेक्षा करते रहते थे। नई योजना के लिए उनके द्वारा की गयी धन की मांग को  वित्त विभाग कभी स्वीकार नहीं करता था। वित्त सचिव भारतीय सिविल सर्विस का सदस्य होने के नाते भारतीय मंत्रियों के साथ सहयोग नहीं करता था तथा वित्त विभाग पर मंत्रियों का कोई नियंत्रण नहीं था।
5- भारतीय प्रशासन सेवा के सदस्य भारतीय मंत्रियों का साथ सहयोग नहीं करते थे। भारतीय मंत्रियों को अपनी नीतियों को कार्यान्वित करने के लिए इन्हीं लोगों पर निर्भर रहना पड़ता था।  दोहरी शासन प्रणाली का सुचारु रूप से चलना तभी संभव था जब यह लोग अपना पूर्ण सहयोग देते थे। किंतु उनकी नियुक्ति, पदच्युति, तथा स्थान्तरण का अधिकार राज्य सचिव के हाथों में था इसलिए यह लोगराज्य सचिव  के प्रति ही उत्तरदाई थे और हर मामले में भारतीय मंत्रियों की उपेक्षा करते रहते थे।
साइमन कमीशन का आगमन :
1919 के अधिनियम द्वारा  निर्माण की गई दोहरी शासन पद्धति व्यवस्था पूर्ण रूप से असफल हो गई थी।  यह अधिनियम भारत में एक उत्तरदायित्वपूर्ण सरकार की स्थापना करने में पूरी तरह विफल  हो गया था। भारतीय जनता को जल्द ही यह मालूम हो गया मालूम हो गया कि ब्रिटिश सरकार से आजादी हासिल करना इतना आसान काम नहीं है।  इसलिए भारतीय जनता ने स्वतंत्रता आंदोलन को और देश कर दिया। इसी समय महात्मा गांधी ने भारतीय राजनीति में कदम रखा। उनके नेतृत्व में  स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी जाने लगी। गांधी जी के नेतृत्व में अंग्रेजों से आजादी हासिल करने के लिए भारतीय जनता का असहयोग आंदोलन संपूर्ण देश में  फैल गया। भारतीय जनता ने गांधी जी के नेतृत्व में पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की। इस विशाल आंदोलन ने अंग्रेजों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया और इस प्रकार 8 नवंबर सन 1927 को सर जॉन साइमन के नेतृत्व में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने एक कमीशन की नियुक्ति की जिसे साइमन कमीशन के नाम से जाना जाता है। इस कमीशन की व्यवस्था भारत सरकार अधिनियम 1919 के अंतर्गत ही कर दी गई थी कि 10 वर्ष पश्चात ऐसा कमीशन नियुक्त किया जाएगा जो यह जांच करेगा कि भारत सरकार अधिनियम 1919  से कितनी प्रगति हुई है। इस कमीशन में 7 सदस्य थे और उनमें से एक भी भारतीय नहीं था। इसलिए इस कमीशन का भारत के सभी राजनीतिक दलों ने बहिष्कार किया। बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने साइमन कमीशन का विरोध  कमीशन का विरोध नहीं किया बल्कि जब साइमन कमीशन मुंबई पहुंचा तो उन्होंने वेलकम साइमन कर कर उसका स्वागत किया। साइमन कमीशन के सभी सदस्य अंग्रेज होने के कारण भारतीय जनता ने इस कमीशन को श्वेत  कमीशन (White Commission ) का नाम दिया। साइमन कमीशन का मुख्य कार्य यह था कि वह इस बात की जांच करे कि क्या भारत के लोगों को संवैधानिक अधिकार दिए जाएं और यदि दिए जाँय तो उनका स्वरूप क्या हो। साइमन कमीशन की श्वेत रिपोर्ट से  यह स्पष्ट है कि वह भारत में उत्तरदाई केंद्र सरकार की स्थापना के विरुद्ध था।
               

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