भारतीय संविधान की प्रस्तावना


भारतीय संविधान की प्रस्तावना 




प्रत्येक अधिनियम के प्रारंभ में प्रायः एक प्रस्तावना रहती है। अधिनियम की प्रस्तावना में उन उद्देश्यों का उल्लेख किया जाता है, जिनकी प्राप्ति के लिए कोई अधिनियम पारित किया जाता है। न्यायाधिपति श्री सुब्बा राव के शब्दों में “ प्रस्तावना किसी अधिनियम के मुख्य आदर्शों एवं आकांक्षाओं का उल्लेख करती है” यह एक प्रकार से अधिनियम की भूमिका होती है और विधानमंडल के उद्देश्य एवं नीतियों को समझने में सहायक होती है।  भारतीय संविधान के प्रारंभ में भी एक प्रस्तावना दी गई है। प्रस्तावना में संविधान की रचना का मुख्य उद्देश्य निहित है।  उच्चतम न्यायालय के अनुसार - प्रस्तावना संविधान निर्माताओं के विचारों को जानने की कुंजी है।  संविधान की रचना के समय संविधान निर्माताओं का क्या उद्देश्य था, या वे कि किन उद्देश्यों की प्रतिस्थापना भारतीय संविधान में करना चाहते थे, इन सब को जानने का माध्यम प्रस्तावना होती है। हमारे संविधान की प्रस्तावना में जो उद्देश्य समाविष्ट किए गए हैं वह इस प्रकार हैं -


                        “ हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, लोकतंत्रात्मक, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी गणराज्य बनाने के लिए, तथा, उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय 

विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता 

प्रतिष्ठा और अवसर की समता, 

प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की

गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता 

बढ़ाने के लिए दृढ़-संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 ईस्वी को

एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित  करते हैं।” 


भारतीय संविधान के  उपबंधों में में प्रस्तावना का महत्व -

प्रस्तावना को संविधान में कोई विधिक महत्व प्रदान नहीं किया गया है। बेरूबारी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया था कि प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है। इन-री इन्डो-पाकिस्तान एग्रीमेंट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि प्रस्तावना को संविधान का प्रेरणा तत्व भले ही कहा जाए किंतु उसे संविधान का आवश्यक भाग नहीं कहा जा सकता है इसके ना रहने से संविधान के मूल उद्देश्य में कोई अंतर नहीं पड़ता है यह ना तो सरकार को शक्ति प्रदान करने का स्रोत है और ना ही उस शक्ति को किसी भी भांति निर्बंधित नियंत्रित या संकुचित करती है। किंतु केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने बेरुबारी के मामले में दिए गए निर्णय को बदल दिया है और यह अभिनिर्धारित किया है कि प्रस्तावना संविधान का एक भाग है। 

 प्रस्तावना का महत्व केवल तब होता है जब संविधान की भाषा अस्पष्ट या संदिग्ध हो। ऐसी अवस्था में संविधान के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए प्रस्तावना का सहारा लिया जा सकता है। जहां संविधान की भाषा असंदिग्ध है प्रस्तावना की सहायता लेना आवश्यक नहीं है। मेसर्स बुराकर कोल कंपनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि यद्यपि किसी अधिनियम में प्रयुक्त उपबंधों में निहित अर्थ को समझने के लिए प्रस्तावना की सहायता ली जा सकती है, फिर भी किसी विधेयक के स्पष्ट उपबंधों को भले ही वे प्रस्तावना की शर्तों के विरुद्ध प्रतीत होते हों,  प्रभावकारिता प्रदान की जानी चाहिए। संक्षेप में, अधिनियम के स्पष्ट उपबन्ध प्रस्तावना पर प्रभावी होते हैं। 


 प्रस्तावना और राज्य के नीति निदेशक तत्व -

सृजनात्मक भारतीय संदर्भ में कानूनी निर्वचन का पथ प्रदर्शन संविधान के भाग 4, अर्थात अनुच्छेद 39 (क) और (ग), तथा अनुच्छेद 43 का बहुत ही  प्रमुख स्थान है। न्यायालय के सामने जब दो न्यायिक विकल्प हों तो अधिमान (Preference) उसी अर्थान्यवन को दिया जाना चाहिए जो भाग 4 के सामाजिक दर्शन के अनुकूल हों। 

 प्रस्तावना से लाभ-

यद्यपि संविधान में प्रस्तावना को कोई विधिक महत्व नहीं प्रदान किया गया है, फिर भी उसका बहुत बड़ा महत्व है। संविधान निर्माताओं के अनुसार प्रस्तावना निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति करती है-

1 -  संविधान का स्रोत अर्थात भारत के लोग2 -  संविधान का उद्देश्य अर्थात उन महान अधिकारों तथा स्वतंत्रता की घोषणा, जिन्हें भारत के लोगों ने सभी नागरिकों के लिए सुनिश्चित बनाने की इच्छा की थी। 3 -  प्रस्तावना में संविधान के प्रवर्तन की विधि का उल्लेख 


 संविधान का स्रोत अर्थात भारत के लोग -

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त शब्द हम भारत के लोग.........इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं, पदावली से यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान का स्रोत भारत की जनता है, और भारतीय जनता ने अपनी संप्रभुता को इस संविधान के माध्यम से व्यक्त किया है। इसका तात्पर्य यह है कि, जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की सभा द्वारा संविधान का निर्माण किया गया है। कुछ लोग इस बात से सहमत नहीं है, क्योंकि संविधान निर्माण सभा के प्रतिनिधियों का चुनाव जनता के वयस्क मताधिकार द्वारा नहीं किया गया था। इस सभा के प्रतिनिधियों को जनता का समर्थन नहीं प्राप्त था। संविधान निर्मात्री सभा की स्थापना ब्रिटिश संसद के एक अधिनियम द्वारा की गई थी। इसलिए यह एक संप्रभु संस्था नहीं कही जा सकती है। सिद्धांततः  पर इस बात के तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन व्यवहारतः भारत की जनता ने दिखा दिया है कि सारी शक्ति भारत की जनता में  निहित है। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही देश का शासन चलाते हैं। 



प्रभुत्व संपन्न-

संविधान के अनुसार भारत के लोगों ने भारत को एक प्रभुता-संपन्न, लोकतंत्रात्मक, धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य बनाने का निश्चय किया है। प्रभुत्व-संपन्न शब्द इस बात का द्योतक है कि, भारत आंतरिक अथवा बाह्य दृष्टि से किसी भी विदेशी सत्ता के अधीन नहीं है। यह संप्रभुता भारत की जनता में निहित है। भारत अपनी विदेशी नीति के मामले में पूर्णतया स्वतंत्र है। वह किसी देश से मित्रता और संधि कर सकता है। स्वतंत्रता के पश्चात भी भारत कामनवेल्थ का सदस्य है, किंतु यह सदस्यता भारत की संप्रभुता पर अंश मात्र भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालती है। भारत ने इसकी सदस्यता को अपनी इच्छा से स्वीकार किया है और वह जब चाहे इसकी सदस्यता से अपने को अलग कर सकता है। 


 लोकतंत्रात्मक -

यह शब्द इस बात का परिचायक है कि भारत की सरकार की शक्ति का स्रोत भारत की जनता है। प्रजातंत्रात्मक सरकार जनता की, जनता के लिए, तथा जनता के द्वारा, स्थापित सरकार है। जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि देश का शासन चलाते हैं। ये प्रतिनिधि जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। प्रत्येक पांच वर्ष बाद जनता को अपने प्रतिनिधियों को चुनने का अवसर मिलता है। विश्व में मुख्यतः दो प्रकार की प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली प्रचलित है, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष प्रजातांत्रिक प्रणाली में विधिक राजनीतिक संप्रभुता का प्रयोग जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि करते हैं। भारत में अप्रत्यक्ष प्रतिनिधि प्रणाली को अपनाया गया है। 


 धर्म धर्मनिरपेक्ष -

धर्मनिरपेक्ष शब्द को संविधान की प्रस्तावना में संविधान के 42वे  संशोधन अधिनियम-1976 द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया है। धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा संविधान में प्रयुक्त विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता की पदावली में पहले ही अंतर्निहित है। प्रस्तुत संशोधन द्वारा उसे स्पष्ट कर दिया गया है कि धर्मनिरपेक्ष राज्य से तात्पर्य ऐसे राज्य से है, जो किसी विशेष धर्म को राजधर्म के रूप में मान्यता नहीं प्रदान करता है, बल्कि सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करता है, और उन्हें समान संरक्षण प्रदान करता है। धर्म को मानने में. आचरण करने तथा प्रचार करने में प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वतंत्र है। 


 समाजवाद -

समाजवाद शब्द को भी संविधान की प्रस्तावना में 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम-1976 द्वारा  जोड़ा गया है। प्रस्तावना में प्रयुक्त आर्थिक न्याय पदावली मे समाजवाद की उपधारणा अंतर्निहित है। संविधान निर्माताओं ने इस आर्थिक न्याय पदावली की कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी है। देश में किस प्रकार की आर्थिक व्यवस्था की स्थापना की जाए, इसको सरकार बनाने वाले लोगों पर छोड़ दिया गया था। प्रस्तुत संशोधन इस आर्थिक न्याय को एक निश्चित दिशा देता है। समाजवाद शब्द की कोई निश्चित परिभाषा देना कठिन है। कम्युनिस्ट और प्रजातांत्रिक दोनों प्रकार के संविधान में इस शब्द का खुलेआम प्रयोग किया जाता है, किंतु इतना तो स्पष्ट ही है की समाजवादी व्यवस्था में उत्पादन के मुख्य साधनों पर सरकार का नियंत्रण होता है। नियंत्रण की मात्रा कितनी अधिक या कितनी कम है, इस आधार पर समाजवाद के वास्तविक स्वरूप का अवधारण किया जाता है। भारतीय संविधान में इस दिशा में एक बीच का मार्ग अपनाया गया है। इसे मिश्रित अर्थव्यवस्था कहते हैं। भारतीय समाजवाद, लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना के प्रयास में अग्रसर है। प्रस्तावना में समाजवादी शब्द के साथ-साथ लोकतांत्रिक शब्द के प्रयोग से यह स्पष्ट है। लोकतंत्र और समाजवाद के इस अनोखे सामंजस्य के प्रयास की परिकल्पना इस दिशा में एक नवीन कदम है। 


अखंडता -

अखंडता शब्द को भी संविधान की प्रस्तावना में 42 वें संशोधन अधिनियम-1976 द्वारा समाविष्ट किया गया है। इस शब्द का समावेश पृथकतावादी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए किया गया है। यह अवधारणा संविधान की संघात्मक प्रवृति में ही निहित है। अनुच्छेद 1 में प्रयुक्त भारत राज्यों का एक संघ होगा पदावली का प्रयोग संविधान के जनकों ने इसी उद्देश्य से किया था। इससे यह स्पष्ट है कि भारतीय संघ से किसी भी राज्य को अलग होने का अधिकार नहीं है। यही नहीं संविधान किसी भी व्यक्ति को देश की अखंडता के विरुद्ध कुछ भी कहने या ऐसा करने के लिए प्रेरित करने से वर्जित करता है। अनुच्छेद 19 के अंतर्गत राज्य को नागरिकों की स्वतंत्रता ऊपर देश की अखंडता के आधार पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाने की शक्ति प्राप्त है। 


 गणतंत्र -

गणतंत्र शब्द से यह स्पष्ट है कि भारत में वंशानुगत राजा की परंपरा का अंत हो गया है। भारत का राज्य-अध्यक्ष जनता का अप्रत्यक्ष चुना हुआ प्रतिनिधि होता है। भारत का राष्ट्रपति एक निश्चित अवधि, 5 वर्ष के लिए चुना जाता है। देश की समस्त कार्यकाल का कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है, किंतु वह उसका प्रयोग मंत्रिमंडल के परामर्श के अनुसार ही करता है। 


संविधान का उद्देश्य - संविधान का मुख्य उद्देश्य भारतीय जनता को निम्नलिखित अधिकार दिलाना है। 

1 -  न्याय - सामाजिक आर्थिक व राजनीतिक क्षेत्रों में  

2 -  स्वतंत्रता - विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना  के लिए 

3 -  समता - प्रतिष्ठा एवं अवसर के लिए 

4 - बंधुत्व - व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता की अखंडता के लिए 


 एक तरफ जहां संविधान व्यक्ति के विकास के लिए अधिकारों को प्रदान करता है, वहीं दूसरी ओर उसका लक्ष्य देश की एकता को अक्षुण बनाए रखना भी है। व्यक्ति का उत्कर्ष कहीं संपूर्ण राष्ट्र के उत्कर्ष में बाधक न बन जाए, इसलिए संविधान में बंधुता की भावना पर अधिक बल दिया गया है। प्रजातंत्र तभी सफल हो सकता है, यदि वह जन-जन के मन में बंधुत्व की भावना को जागृत करने में सफल हो सके। प्रत्येक व्यक्ति यह समझे कि वह एक ही मातृभूमि की संतान है, और उन्हें एक दूसरे के प्रति स्नेह, साहचर्य और सहयोग की भावना के साथ रहना चाहिए। बंधुत्व के इस उदात्त और मानवीय सिद्धांत को संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार-घोषणा पत्र में भी समाविष्ट किया गया है। मानव-अधिकार-घोषणा पत्र का अनुच्छेद 1 यह कहता है कि प्रत्येक मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है, और उसे प्रतिष्ठा और अधिकार समान रूप से प्राप्त हैं। यह एक विवेकशील प्राणी है और उसे प्राणि-मात्र के प्रति बंधुत्व की भावना रखनी चाहिए। बंधुता की उदात्त भावना को भारतीय संविधान की प्रस्तावना में प्रतिस्थापित किया गया है। उपाधियों का अंत (अनुच्छेद 18), अस्पृश्यता निवारण (अनुच्छेद 17), और भारतीय समाज की अनेक कुरीतियों को दूर करके इस भावना को मूर्त रूप प्रदान करने का प्रयास संविधान में स्पष्ट रूप से किया गया है। 

  समता, स्वतंत्रता, और बंधुता जिसे संविधान द्वारा भारत वासियों को प्रदान करने का प्रयास किया गया है। सामाजिक आर्थिक राजनीतिक न्याय का मुख्य लक्ष्य है। व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित के बीच सामंजस्य स्थापित करना ही इस न्याय का मुख्य उद्देश्य है। हमारे संविधान निर्माताओं के समक्ष भारत में एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का उद्देश्य था। यद्यपि संविधान की प्रस्तावना में “एक कल्याणकारी राज्य” इस शब्द का कहीं उल्लेख नहीं किया गया है तथापि उसमें अंतर्निहित भावना से संबंधित, संविधान निर्माताओं का उद्देश्य स्पष्ट परिलक्षित होता है कि वह भारत में एक समाजवादी व्यवस्था की स्थापना करना चाहते थे, जिसका उद्देश्य बहुजन हिताय बहुजन सुखाय हो। जिन आदर्शों की ओर संविधान लक्ष्य करता है, वे राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों में स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं। इन सिद्धांतों के अनुसार कार्य करके ही एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का उद्देश्य साकार किया जा सकता है। हमारे महान राष्ट्र नायक एवं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भारत के इसी चित्र की परिकल्पना की थी। 


 प्रस्तावना में संशोधन -

क्या अनुच्छेद 368 के अधीन संविधान की प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है ? यह प्रश्न सर्वप्रथम केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के बाद में उच्चतम न्यायालय के समक्ष विचारार्थ आया था। सरकार की ओर से यह तर्क दिया गया कि चूँकि प्रस्तावना भी संविधान का एक भाग है, इसलिए अनुच्छेद 368 के अंतर्गत उसमे भी संशोधन किया जा सकता है। अपीलार्थी की ओर से यह कहा गया कि अनुच्छेद 368 द्वारा प्रदत्त संशोधन की शक्ति सीमित है, और प्रस्तावना स्वयं संशोधन की शक्ति पर विवक्षित परिसीमा लगाती है। प्रस्तावना में संविधान का आधारभूत ढांचा निहित है, जिसको संशोधन करके नष्ट नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यदि उनमें से कोई भी निकाल दिया जाए तो संविधानिक ढांचे का गिर जाना निश्चित है। 

   यद्यपि उच्च न्यायालय ने बहुमत से निर्धारित किया कि प्रस्तावना संविधान का भाग है, तथापि इस प्रश्न पर   न्यायाधीशों में मतैक्य नहीं था कि “क्या इसमें संशोधन किया जा सकता है या नहीं “। न्यायाधिपतियों के बहुमत का विचार इस पक्ष में है कि प्रस्तावना में अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संशोधन नहीं किया जा सकता है।  न्यायाधीश शेलट और ग्रोवर ने यह अवलोकन किया कि प्रत्यर्थियों की ओर से ली गई इस दलील का कि स्वयं प्रस्तावना में फेर-फार या परिवर्तन अथवा उसका निरसन किया जा सकता है, एक असाधारण स्थिति है। साधारण कानूनों के बारे में यह सही हो सकती है किन्तु ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तथा उद्देश्यों के संकल्प के प्रकाश में, जो कि  प्रस्तावना का आधार गठित करते हैं, जिसके कारण संविधान में प्रस्तावना को एक विशेष महत्त्व का स्थान प्रदान किया गया है, प्रस्तावना के बारे में यह संभव नहीं है। यह भारत के इतिहास में एक युगांतकारी घटना है और उन ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख करती है, जिसे भारत के लोगों ने अपनी भावी विधि को ढालने के लिए संकल्प किया था। यह सोचा भी नहीं जा सकता है कि संविधान निर्माताओं ने कभी इस बात की कल्पना भी की थी कि स्वयं प्रस्तावना को ही निराकृत अथवा विलुप्त करने की मांग की जाएगी। 

संविधान के 42 में संशोधन अधिनियम-1976 द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि, संसद को प्रस्तावना में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त है। इस प्रकार संशोधन द्वारा केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में दिए गए निर्णय से उत्पन्न कठिनाई को दूर करने का प्रयास किया गया है, जिसमें निश्चय किया गया था कि प्रस्तावना के उस भाग में जो मूल ढांचे से संबंधित है संशोधन नहीं किया जा सकता है, किंतु जब तक केशवानंद भारती का विनिश्चय उलट नहीं दिया जाता है, प्रस्तावना में किए गए संशोधन को कभी भी न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है कि वह उसमें एक आधारभूत ढांचे में परिवर्तन करता है, अतः असंवैधानिक है। 




1 टिप्पणियाँ:

  1. If you're looking to lose weight then you need to jump on this brand new custom keto diet.

    To produce this service, certified nutritionists, fitness trainers, and cooks joined together to develop keto meal plans that are efficient, convenient, price-efficient, and satisfying.

    From their first launch in 2019, 100's of clients have already remodeled their body and well-being with the benefits a great keto diet can offer.

    Speaking of benefits: in this link, you'll discover 8 scientifically-confirmed ones offered by the keto diet.

    जवाब देंहटाएं

Please do not enter any spam link in the comment box.