वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19(1)(क) | Freedom of speech and freedom of expression Article 19(1)(a)

 वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19(1)(क) | Freedom of speech and freedom of expression Article 19(1)(a)



 इस लेख में अनुच्छेद 19 में क्या लिखा हुआ है? अनुच्छेद 19 में कितने प्रकार की स्वतंत्रता है? भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 में क्या है? आदि प्रश्नो के उत्तर और वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ एवं उसका विस्तार क्षेत्र, समाचार पत्रों की स्वतंत्रता, स्वतंत्रताओं का क्षेत्र विस्तार, वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर  प्रतिबन्ध लगाने वाले कानून के प्रत्यक्ष प्रभाव की कसौटी, हड़ताल का अधिकार आदि तथा विभिन्न न्यायालयों के निर्णय देखने को मिलेंगे

1- वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अनु० 19 (1) (क)
वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था की आधारशिला है। प्रत्येक प्रजातान्त्रिक सरकार इस स्वतन्त्रता को बड़ा महत्व देती है। इसके बिना जनता की तार्किक एवं आलोचनात्मक शक्ति, जो प्रजातान्त्रिक सरकार के समुचित संचालन के लिए आवश्यक है, को विकसित करना सम्भव नहीं है।

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अर्थ एवं विस्तार-

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ है शब्दों, लेखों, मुद्रणों, चिह्नों या किसी अन्य प्रकार से अपने विचारों को व्यक्त करना, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में किसी व्यक्ति के विचारों को किसी ऐसे माध्यम से अभिव्यक्त करना सम्मिलित है जिससे वह दूसरों तक उन्हें संप्रेषित कर सके। इस प्रकार इनमें संकेतों, अंकों, चिह्नों तथा ऐसी ही अन्य क्रियाओं द्वारा किसी व्यक्ति के विचारों की अभिव्यक्ति सम्मिलित है। अनु० 19 में प्रयुक्त 'अभिव्यक्ति' शब्द इसके क्षेत्र को बहुत विस्तृत कर देता है। विचारों के व्यक्त करने के जितने भी माध्यम हैं 'अभिव्यक्ति' पदावली के अन्तर्गत आ जाते हैं। इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में प्रेस की स्वतन्त्रता भी सम्मिलित है। विचारों का स्वतन्त्र प्रसारण ही इस स्वतन्त्रता का मुख्य उद्देश्य है। यह भाषण द्वारा या समाचारपत्रों द्वारा किया जा सकता है। रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि वाक और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में विचारों के प्रसार की स्वतन्त्रता सम्मिलित है और वह स्वतन्त्रता विचारों के प्रसारण की स्वतन्त्रता द्वारा सुनिश्चित है। उस स्वतन्त्रता के लिए परिचालन की स्वतन्त्रता उतनी ही आवश्यक है जितनी कि प्रकाशन की स्वतन्त्रता। निस्संदेह परिचालन के बिना प्रकाशन का कोई महत्व ही नहीं होगा। वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता केवल अपने ही विचारों के प्रसार की स्वतन्त्रता तक सीमित नहीं है। इसमें दूसरों के विचारों के प्रसार एवं प्रकाशन की स्वतन्त्रता भी सम्मिलित है जो प्रेस की स्वतन्त्रता द्वारा ही सम्भव है।

समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता-
          समाचारपत्र विचारों के अभिव्यक्त करने का एक महत्वपूर्ण साधन है। राजनीतिक स्वतंत्रता तथा प्रजातन्त्र की सफलता के लिए समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता अपरिहार्य है। अमेरिका के प्रेस कमीशन ने प्रेस की स्वतन्त्रता के महत्व के बारे में निम्नलिखित विचार व्यक्त किये हैं- 'प्रेस की स्वतन्त्रता राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक है। जिस समाज में मनुष्य को अपने विचारों को एक दूसरे तक पहुँचाने की स्वतन्त्रता नहीं है वहाँ अन्य स्वतन्त्रताएं भी सुरक्षित नहीं रह सकती हैं। वस्तुतः जहाँ वाक्-स्वातन्त्र्य है वहीं स्वतन्त्र समाज का प्रारम्भ होता है और स्वतन्त्रता के बनाए रखने के सभी साधन मौजूद रहते हैं। इसीलिए वाक्-स्वातन्त्र्य को स्वतन्त्रताओं में एक अनोखा स्थान प्राप्त है         भारतीय प्रेस कमीशन ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किये हैं- "प्रजातन्त्र केवल विधानमंडल के सचेत देख-भाल में ही नहीं वरन् लोकमत में की और मार्गदर्शन के अन्तर्गत भी फलता-फूलता है । प्रेस की यही सबसे बड़ी विशिष्टता है कि उसके ही माध्यम से लोकमत स्पष्ट होता है।"         अमेरिका के संविधान की भाँति भारतीय संविधान में प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए कोई स्पष्ट उपबन्ध नहीं है। बाबासाहब डॉ० अम्बेदकर ने संविधान सभा में इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि "प्रेस को कोई ऐसे विशिष्ट अधिकार नहीं प्राप्त हैं जो एक साधारण नागरिक को नहीं प्रदान किये जा सकते हैं। उनके संपादक या मैनेजर समाचार-पत्रों द्वारा ही अपने अभिव्यक्ति के अधिकार का ही प्रयोग करते हैं। इसलिए इसके लिए संविधान में विशेष उपबन्ध की कोई आवश्यकता नहीं है।" न्यायिक निर्णयों में भी इस मत की पुष्टि हो चुकी है। उच्चतम न्यायालय ने साकल पेपर्स लिमिटेड बनाम भारत संघ के मामले में यह अभिनिर्धारित किया है कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में प्रेस की स्वतन्त्रता भी शामिल है, क्योंकि समाचार-पत्र विचारों को अभिव्यक्त करने के एक माध्यम मात्र ही हैं। प्रेस की स्वतन्त्रता एक साधारण नागरिक की स्वतन्त्रता से बढ़कर नहीं है और यह उन प्रतिबन्धों के अधीन है जो अनुच्छेद 19 (2) द्वारा नागरिकों के वाक् और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता पर लगाये गये हैं।         लार्ड मेन्ग्सफील्ड के अनुसार प्रेस की स्वतन्त्रता का अर्थ है बिना सरकारी अनुज्ञा के विचारों को प्रकाशित करना, बशर्ते कि देश की साधारण विधि का उल्लंघन न किया गया हो। प्रेस की स्वतन्त्रता केवल दैनिक समाचार-पत्रों और साप्ताहिक पत्रों तक ही सीमित नहीं है। इसके अन्तर्गत इसी प्रकार के प्रशासन सम्मिलित हैं जिनके द्वारा व्यक्ति अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचा सकता है, जैसे पत्रिका, पत्रक, परिपत्र आदि।         प्रेस की स्वतन्त्रता में सूचनाओं तथा समाचारों को जानने का अधिकार शामिल है। प्रेस को व्यक्तियों से इन्टरव्यू के माध्यम से सूचनाएं जानने की स्वतन्त्रता है। किन्तु जानने की स्वतन्त्रता अत्यधिक नहीं है और उसके ऊपर युक्तियुक्त निर्बंन्धन अधिरोपित किए जा सकते हैं। प्रेस की जानने की स्वतन्त्रता किसी व्यक्ति पर प्रेस को सूचना अथवा समाचार देने का कोई विधिक कर्त्तव्य अधिरोपित नहीं करती है। प्रेस नागरिकों से तभी सूचनाएं जान सकता है यदि वे प्रेस को अपनी स्वेच्छा से बताना चाहते हों। प्रभूदत्त बनाम भारत संघ' 1982 के मामले में यह निर्णय दिया गया है कि यदि मृत्यु दण्ड के अभियुक्त अपनी स्वेच्छा से कोई बात बताना चाहते हैं तो प्रेस को उनसे पूछने की अनुमति दी जानी चाहिए। यदि किसी मामले में उन्हें इन्टरव्यू करने की अनुमति नहीं दी जाती है तो उसके कारणों का लिखित उल्लेख किया जाना चाहिए। प्रस्तुत मामले में हिन्दुस्तान टाइम्स के चीफ रिपोर्टर द्वारा रंगा, बिल्ला को इन्टरव्यू करने की अनुमति देने से इन्कार कर दिया गया था जब कि दोनों सिद्धदोष अभियुक्त स्वेच्छा से इन्टरव्यू देना चाहते थे।

वाक् और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रताओं का क्षेत्र विस्तार-

        अनु० 19 द्वारा प्रदत्त स्वतन्त्रताओं को किसी भौगोलिक परिसीमा में बाँधा नहीं जा सकता है। इन अधिकारों का प्रयोग नागरिक के द्वारा भारत की सीमा के भीतर ही नहीं वरन् विश्व के किसी देश की भूमि पर किया जा सकता है। यदि राज्य किसी व्यक्ति द्वारा इन अधिकारों के प्रयोग पर देश की सीमा के आधार पर रोक लगाता है तो उससे अनु० 19 का अतिक्रमण होगा। आधुनिक काल में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को देश की सीमा में बाँधा नहीं जा सकता है। अभिव्यक्ति से तात्पर्य है किसी व्यक्ति से विचारों का आदान-प्रदान करना चाहे वह विश्व के किसी भाग में क्यों न निवास करता हो। उपर्युक्त सिद्धान्त मेनका गाँधी बनाम भारत संघ" के मामले में उच्चतम न्यायालय ने विहित किये हैं। इसमें वादी को विदेश जाने के लिये दिये गये पासपोर्ट को वापस करने का आदेश दिया गया था। वादी ने इस आदेश की वैधता को चुनौती दिया और यह तर्क दिया कि यदि उसका पासपोर्ट ले लिया जाता है तो वह एक पत्रकार के रूप में विदेश जाकर अपने भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकती है। संक्षेप में उसका तर्क था कि पासपोर्ट का अधिकार अनु० 19 के अधीन एक मूल अधिकार है।
            उच्चतम न्यायालय ने उसके इस तर्क को अस्वीकार कर दिया कि पासपोर्ट पाने का अधिकार अनु० 19 के अधीन एक मूल अधिकार है किन्तु यह अभिनिर्धारित किया कि अनु० 19 के अधिकारों का प्रयोग नागरिक केवल भारत में नहीं वरन् विदेश में भी कर सकता है। विदेश में उसके इस अधिकार पर वे सब निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं जो अनु० 19 (2) में उल्लिखित हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि यद्यपि पासपोर्ट का अधिकार अनु० 19 के अधीन एक मूल अधिकार नहीं है किन्तु यदि उसके ले लेने पर नागरिक के अनु० 19 के अधिकारों पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है तो उससे अनु० 19 का अतिक्रमण हो सकता है। यह तथ्य और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

वाक् और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता पर पूर्व अवरोध-         जैसा कि कहा गया है, प्रेस की स्वतन्त्रता का अर्थ है सरकार की बिना पूर्व अनुमति के अपने विचारों को प्रकाशित करना। अतः कोई भी कानून जो विचारों के प्रकाशन पर पूर्व-अवरोध / Censorship का प्रावधान करता है वह अनु० 19 (1) में दी हुई स्वतन्त्रता का अतिक्रमण करता है।             ब्रजभूषण बनाम दिल्ली राज्य के मामले में सर्वप्रथम प्रेस की स्वतन्त्रता पर पूर्व अवरोध की संवैधानिकता का प्रश्न उच्चतम न्यायालय के विचारार्थ आया। इस मामले में ईस्ट पंजाब पब्लिक सेफ्टी ऐक्ट, 1949 की धारा 7 के अन्तर्गत दिल्ली के चीफ कमिश्नर ने दिल्ली के एक साप्ताहिक समाचार-पत्र के विरुद्ध एक आदेश जारी किया; जिसके द्वारा उस पत्र के मुद्रक, प्रकाशक और सम्पादक को यह निदेश दिया गया था कि वे उस सभी प्रकार के साम्प्रदायिक मामलों या पाकिस्तान से सम्बन्धित समाचारों, चित्रों और हास्य चित्रों, जो सरकारी न्यूज एजेन्सियों द्वारा नहीं प्राप्त किये गये हैं, प्रकाशित करने के पहिले सरकारी परीक्षण के लिए भेजेंगे और उनकी पूर्व- अनुमति प्राप्त करने के पश्चात् ही उसे प्रकाशित करेंगे। उच्चतम न्यायालय ने उक्त आदेश को असंवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि किसी समाचार-पत्र पर पूर्व-अवरोध लगाना प्रेस की स्वतन्त्रता पर अनुचित प्रतिबन्ध है। वीरेन्द्र बनाम पंजाब राज्य" के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि “किसी समाचारपत्र को तत्कालीन महत्व के विषय पर अपने विचार प्रकाशित करने से रोकना वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर एक गम्भीर अतिक्रमण है।”         अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण विनिश्चय न्यूयार्क टाइम्स के मामले में पूर्व-अवरोध को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। इस मामले में अमेरिका के दो बड़े समाचार पत्रों में वियतनाम से सम्बन्धित कुछ गुप्त सरकारी, सूचनाएं, जिनके बारे में यह कहा गया था कि वे चोरी से प्राप्त की गयी थीं, प्रकाशित की गयी थीं। सरकार ने न्यायालय में यह दलील पेश किया कि इन सूचनाओं के प्रकाशन से देश की सुरक्षा को खतरे की सम्भावना है और प्रार्थना की कि इनके प्रकाशन को रोक दिया जाय। समाचारपत्रों के सम्पादकों की ओर से यह कहा गया कि इन सूचनाओं में केवल उन तथ्यों का वर्णन है जिस प्रकार अमेरिका को वियतनाम युद्ध में कूदना पड़ा और उसे जन, धन और प्रतिष्ठा की क्षति उठानी पड़ी। उन्होंने यह दावा किया कि इन सूचनाओं का प्रकाशन सार्वजनिक हित में है जिसके प्रकाशन पर सरकार को प्रतिबन्ध लगाने का कोई विधिक अधिकार संविधान में नहीं प्राप्त है। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत से यह अभिनिर्धारित किया कि सरकार को इन सूचनाओं के प्रकाशन पर पूर्व अवरोध लगाने का अधिकार नहीं है। सरकार यह सिद्ध करने में असफल रही है कि इन सूचनाओं के प्रकाशन से देश की सुरक्षा को वस्तुतः किसी खतरे की सम्भावना है।         एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसा कोई कानून, जो समाचारपत्रों पर पूर्व-अवरोध की व्यवस्था करता है या उनके परिचालन को कम करता है या उनके प्रारम्भ किये जाने को रोकता है या उनके चालू रहने के लिए सरकारी सहायता को आवश्यक बना देता है, वह अनुच्छेद 19 (1) (क) में प्रदान की गयी स्वतन्त्रता का अतिक्रमण करता है, अतः अवैध है। परिचालन की स्वतन्त्रता प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए उतनी ही आवश्यक है जितनी कि प्रकाशन की स्वतन्त्रता। निस्सन्देह बिना परिचालन की स्वतन्त्रता के प्रकाशन की स्वतन्त्रता का कोई महत्व नहीं है। इसी आधार पर उच्चतम न्यायालय ने अपने एक विनिश्चय में उस कानून को अवैध घोषित कर दिया है, जिसके द्वारा राज्य में एक दैनिक समाचार-पत्र के परिचालन पर रोक लगा दी गयी। देखिये- रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य का निर्णय।         साकल पेपर्स लि० बनाम भारत संघ के मामले में – दैनिक समाचारपत्र (कीमत एवं पृष्ठ) आदेश 1960, जिसके द्वारा अखबारों के पृष्ठ की अधिकतम संख्या और उनका मूल्य निर्धारित किया गया था, को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि इससे प्रेस की स्वतन्त्रता पर आघात पहुँचता है। उक्त व्यवस्था के अन्तर्गत पिटीशनर अपने समाचार-पत्नों का मूल्य तो बढ़ा सकते थे, लेकिन उनकी पृष्ठ संख्या को नहीं बढ़ा सकते थे। पिटीशनरों के अनुसार बिना पृष्ठ-संख्या के बढ़े दामों में वृद्धि हो जाने से उनका परिचालन कम हो जाता है, क्योंकि उनको कम लोग खरीदते हैं तथा पृष्ठ संख्या के घटा देने से उनमें समाचारों के प्रकाशन के लिए कम स्थान मिल पाता है। इस प्रकार सरकारी आदेश एक दुधारी छुरी का काम करता है। एक तरफ दाम बढ़ जाने से अखबारों का परिचालन कम होता है और दूसरी ओर पृष्ठों के कम होने से उनमें समाचारों, विचारों आदि के प्रकाशन के लिए स्थान की कमी हो जाती है। सरकार ने आदेश के पक्ष में तर्क दिया कि इसका उद्देश्य समाचारपत्रों में व्यापारिक विज्ञापन के स्थानों को विनियमित करना है तथा इस क्षेत्र में अनुचित प्रतियोगिता को रोकना और छोटे तथा नवचालित समाचारपत्रों को संरक्षण प्रदान करना है।         न्यायालय ने सरकार के इस तर्क को अस्वीकार करते हुए उक्त आदेश को अवैध घोषित कर दिया। उसने कहा कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को किसी नागरिक के व्यापारिक क्रियाकलाप पर प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से छीना नहीं जा सकता है। इन स्वतन्त्रताओं पर केवल अनुच्छेद 19 (2) में दिये गये आधारों पर ही प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। व्यापार करने की स्वतन्त्रता की भाँति इस पर 'लोकहित' के आधार पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि अनुच्छेद 19 (2) में इस आधार का कोई उल्लेख नहीं है। सरकार छोटे तथा नवचालित समाचार- पत्नों को संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य को पूरा करने की दृष्टि से दूसरे समाचारपत्रों की स्वतन्त्रता का अतिक्रमण नहीं कर सकती है। न्यायालय के अनुसार आदेश के परिणामस्वरूप अखबारों का परिचालन निश्चय ही कम हो जायेगा, क्योंकि उसे कम लोग खरीदेंगे और इस प्रकार उनकी स्वतन्त्रता का हनन होगा। यदि विज्ञापनों में कटौती करने से उनके विचार प्रसारण की स्वतन्त्रता पर सीधा आघात पहुँचता है तो वह असंवैधानिक होगा। निष्कर्ष यह है कि ऐसा कोई भी कानून जो समाचारपत्तों के माध्यम से विचार प्रसारण को किसी भी ढंग से प्रत्यक्षतः अथवा अप्रत्यक्षतः कम करता है, अनुच्छेद 19 (1) (क) का अति- क्रमण करता है और अवैध है।         बेन्नेट कोलमैन ऐण्ड कम्पनी लिमिटेड बनाम भारत संघ के मामले में सन् 1972-73 की अखबारी कागज नीति और अखबारी कागज नियन्त्रण आदेश, 1962 की वैधता को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि वह संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) और अनुच्छेद 14 का अति- क्रमण करता है, अतः असंवैधानिक है। अखबारी कागज नीति के अधीन पृष्ठों की अधिकतम संख्या 10 तक सीमित कर दी गयी थी और समान स्वामित्व यूनिट अपने प्राधिकृत कोटे के आपसी अदला-बदली की इजाजत नहीं थी । पिटीशनरों ने अखबारी कागज नीति को निम्न आधारों पर चुनौती दी। पहली, यह कि अखबारी कागज के प्राधिकृत कोटे के भीतर रहते हुए भी किसी समान स्वामित्व यूनिट द्वारा कोई नया अखबार या नया संस्करण नहीं आरम्भ किया जा सकता है। दूसरी, यह कि पृष्ठों की अधिकतम संख्या 10 तक परिसीमित' है जिसके कारण परिचालन कम हो जायगा। तीसरी, यह कि समान स्वामित्व यूनिट के विभिन्न अखबारों या एक ही अखबार के विभिन्न संस्करणों के बीच आपसी अदला-बदली की स्वीकृति नहीं दी गयी है। चौथी, यह कि 10 से कम पृष्ठ के अखबारों की पृष्ठ संख्या बढ़ाने की स्वीकृत दी गयी है। उक्त प्रतिबन्ध बेतुके, मनमाने और अयुक्तियुक्त हैं। सरकार की ओर से अखबारी कागज नीति के समर्थन में यह कहा गया है कि वह छोटे-छोटे अखबारों का विकास करने और बड़े-बड़े अखबारों के एकाधिकार के संगठन को रोकने में सहायता करने के लिए है। विधायन का मुख्य उद्देश्य अखबारी कागज के आयात एवं देश में उसके आबंटन को विनियमित करना है, भले ही उसके परिणामस्वरूप परिचालन के कम करने का आनुषंगिक प्रभाव होता है। आनुषंगिक (incidental) प्रभाव से प्रेस का मूल अधिकार कम नहीं होगा।

        उच्चतम न्यायालय ने पिटीशनरों की दलील को स्वीकार करते हुए अखबारी कागज नीति को असंवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि प्रेस की स्वतन्त्रता अनुच्छेद 19 (1) (क) में प्रदत्त वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का एक आवश्यक अंग है। प्रेस को प्रकाशन पर पूर्व -अवरोध के बिना निर्बाध प्रसार और परिचालन का अधिकार प्राप्त है। ऐसी विधि जिससे अखबारों के परिचालन पर प्रतिबन्ध लगे या कार्मिकों के चयन में स्वातन्त्र्य को कुण्ठित करे अखबारों के आरम्भ किये जाने को रोकेगा और प्रेस को सरकारी सहायता प्राप्त करने के लिए विवश करेगा। इससे अनु० 19 (1) (क) का अतिक्रमण होगा और वह अनु० 19 (2) में विहित संरक्षण की परिधि के बाहर हो जायेगा। अखबारी कागज नीति अनु० 19 (2) की परिधि के भीतर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध नहीं है। अखबारी कागज नीति पिटीशनरों के वाक् और अभिव्यक्ति के मूल अधिकार को कम करती है। अखबारों को परिचालन के अधिकार की अनुज्ञा नहीं दी गयी है। उन्हें पृष्ठों में वृद्धि करने का अधिकार नहीं दिया गया है। अखबारों के समान स्वामित्व यूनिट नये अखबार या नये संस्करण नहीं निकाल सकता। दस पृष्ठ के स्तर से अधिक पर निकलने वाले और दस पृष्ठ के स्तर से कम पर निकलने वाले अखबारों को, अखबारों की जरूरतों और आवश्यकताओं को निर्धारित करते समय उन अखबारों के बराबर माना गया है जो उनके बराबर नहीं हैं। जब एक बार कोटा नियत कर दिया जाता है और अखबारी कागज नीति के अनुसार कोटे के उपयोग के लिए निर्देश दे दिया जाता है तब बड़े- बड़े अखबारों को पृष्ठ संख्या में वृद्धि करने से रोका जाता है। वृद्धियों के लिए मूल कोटा और भत्ते की संगणना के लिए पृष्ठ संख्या और परिचालन दोनों सुसंगत हैं। अखबारी कागज के वितरण के आवरण में सरकार ने अखबारों के विकास और परिचालन को नियन्त्रित करने का प्रयास किया है। प्रेस स्वातन्त्र्य गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों प्रकार का है। स्वतन्त्रता, परिचालन और अन्तर्वस्तु अर्थात् दोनों में ही निहित है। जो अखबारी कागज नीति, अखबारों की पृष्ठ संख्या, पृष्ठ-क्षेत्र और अवधि घटाकर परिचालन को बनाने की अनुमति देता है, वह उन्हें परिचालन घटाकर पृष्ठ संख्या, पृष्ठ क्षेत्र और अवधि बढ़ाने से रोकता है। ये प्रतिबन्ध अखबारों को अपनी पृष्ठ संख्या, और परिचालन के बीच समायोजन करने के लिए विवश करते हैं। अखबारों पर सरकारी नीति का प्रभाव और परिणाम अखबारों के विकास और परिचालन को प्रत्यक्षतः नियन्त्रित करना है। प्रत्यक्ष प्रभाव अखबारों के विकास और परिचालन पर प्रतिबन्ध लगाना है। प्रत्यक्ष प्रभाव यह है कि अखबार विज्ञापन के अपने क्षेत्र से वंचित हो जाते हैं। प्रत्यक्ष प्रभाव यह है कि उन्हें आर्थिक हानि उठानी पड़ती है तथा वाक् और अभिव्यक्ति स्वातन्त्र्य का अतिलंघन होता है।         सरकार ने पृष्ठ स्तर के घटाने को न केवल अखबारी कागज की कमी के आधार पर बल्कि इस आधार पर भी न्यायोचित बताया कि बड़े-बड़े दैनिक अखबार बहुत अधिक स्थान का उपयोग विज्ञापनों के लिए करते हैं और यदि वे अपने विज्ञापन-स्थान में कुछ समायोजन कर लें तो पृष्ठों में की गई कटौती से उन्हें कोई हानि नहीं होगी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अखबारों के लिये आय का मुख्य स्रोत विज्ञापन है पृष्ठ स्तर में कटौती के परिणामस्वरूप न केवल अखबारों की आय घटेगी, वरन् पृष्ठ घटाने से उसका परिचलन भी घटेगा क्योंकि उनमें पाठकों के लिए अपेक्षित समाचारों और विचारों के लिए भी स्थान कम हो जायेगा जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी प्रतिबन्धित हो जाएगी। पृष्ठ घटाने के परिणामस्वरूप अखबारों को अपनी आमदनी के स्रोत के लिए विज्ञापनों को बढ़ाना पड़ेगा जिसके परिणामस्वरूप समाचारों के लिए स्थान कप होगा। विज्ञापनों की कमी होने पर अखबारों की अर्थ-व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जायेगी और उन्हें अपना प्रकाशन भी बन्द करना पड़ेगा। वाक् और अभिव्यक्ति स्वातन्त्र्य न केवल परिचलन की मात्रा में है, बल्कि समाचारों और विचारों की मात्रा में है।

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर  प्रतिबन्ध लगाने वाले कानून के प्रत्यक्ष प्रभाव की कसौटी-

      किसी कानून से किसी मूल अधिकार का अतिक्रमण हुआ है या नहीं, इसका निर्धारण उस मूल अधिकार पर पड़े प्रत्यक्ष और आवश्यक प्रभाव पर किया जायेगा न कि कानून के उद्देश्य या सारतत्व के आधार पर। प्रस्तुत मामले में अखबारी कागज का कोटा नियत करने का प्रत्यक्ष और अवश्यम्भावी प्रभाव समाचार-पत्रों का नियंत्रित करना है। राज्य की ओर से यह तर्क दिया गया था कि अखबारी कागज नीति का मुख्य उद्देश्य अखबारी कागज के आबंटन को विनियमित और नियन्त्रित करना था, अखबारों की स्वतन्त्रता को नियन्त्रित करना नहीं था। संक्षेप में तर्क यह था कि कानून की विषय-वस्तु पर ध्यान देना चाहिये उसके किसी विशेष अधिकार या प्रभाव पर ध्यान नहीं देना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने उक्त तर्क को अस्वीकार करते हुए प्रत्यक्ष प्रभाव की कसौटी का अनुमोदन किया और यह अभिनिर्धारित किया कि यदि आक्षेपित कानून प्रत्यक्षतः किसी मूल अधिकार पर आघात पहुंचाता है या उसे न्यून करता है तो उसके उद्देश्य या विषय-वस्तु पर ध्यान देना व्यर्थ होगा। प्रस्तुत मामले में यद्यपि अखबारी कागज नोति की विषय-वस्तु अखबारी कागज के आबंटन को नियन्त्रित करना था किन्तु उसका 'प्रत्यक्ष प्रभाव' प्रेस की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को नियन्त्रित करना था।

विज्ञापन- अभिव्यक्ति के एक साधन-

        विज्ञापन भी विचारों की अभिव्यक्ति के एक साधन हैं। किन्तु यदि विज्ञापन व्यापारिक प्रकृति के हैं तो उन्हें देश की सामान्य कर-विधि से विमुक्ति नहीं मिलेगी और सरकार उन पर यथोचित कर लगा सकती है। व्यापारिक विज्ञापनों में विचारों के प्रसार से अधिक व्यापार एवं वाणिज्य का तत्व प्रधान रहता है। हमदर्द दवाखाना बनाम भारत संघ के मामले में सरकार ने औषधि और जादू उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम का उद्देश्य औषधियों के विज्ञापन को नियंत्रित करना और बीमारियों को अच्छा करने के लिए जादु के गुणवाली औषधियों के विज्ञापन को निषिद्ध करना था। इस अधिनियम पर इस आधार पर आपत्ति उठायी गयी कि विज्ञापनों पर प्रतिबन्ध वाक स्वातन्त्र्य पर प्रतिबन्ध है। उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम को विधिमान्य घोषित करते हुए यह अवलोकन किया कि यद्यपि विज्ञापन अभिव्यक्ति का ही एक माध्यम है, तथापि प्रत्येक विज्ञापन वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से सम्बन्धित नहीं होता है। प्रस्तुत मामले में विज्ञापन विशुद्ध रूप से व्यापार एवं वाणिज्य से सम्बन्धित है, विचारों के प्रसार से नहीं। यह स्पष्ट है कि निषिद्ध औषधियों का विज्ञापन अनु० 19 (1) (क) के क्षेत्र से बाहर है, अतः ऐसे विज्ञापनों पर प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं।         प्रेस की स्वतन्त्रता औद्योगिक सम्बन्धों को विनियमित करने वाले कानूनों के अधीन है। चूंकि प्रेस भी एक कारखाना है, इसलिए ऐसे कानून जो उसमें काम करने वाले श्रमिकों और पत्रकारों की दशाओं के सुधार की दृष्टि से बनाये जाते हैं, अनुच्छेद 19 (1) (क) का उल्लंघन नहीं करते हैं।         अमेरिका में औद्योगिक सम्बन्धों को विनियमित करने वाला नेशनल लेबर रिलेशन ऐक्ट प्रेस में कार्य करने वाले कर्मचारियों और पत्रकारों पर भी लागू होता है। यह अधिनियम नियोक्ताओं को किसी कर्मचारी को उसके ट्रेड यूनियन में भाग लेने के कारण नौकरी से निकालने से मना करता है। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम को संवैधानिक घोषित कर दिया है। भारत में भी औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947, औद्योगिक नियोजन (स्थायी आदेश) अधि- नियम, 1946, कर्मकार प्राविडेण्ट फण्ड्स अधिनियम, 1952; वर्किंग जर्नलिस्ट ऐक्ट, 1955 आदि अधिनियम प्रेस में कार्य करने वाले कर्मचारियों पर लागू होते हैं। वर्किंग जर्नलिस्ट ऐक्ट, 1955 विशेष रूप से प्रेस कारखानों में कार्य करने वाले कर्मचारियों एवं पत्रकारों की सेवा शर्तों को सुधारने के लिए पारित किया गया है। यह उनकी ग्रेच्युटी, कार्य करने के समय तथा मजदूरी इत्यादि की व्यवस्था करता है। उच्चतम न्यायालय ने इस अधिनियम को संवैधानिक घोषित कर दिया है। देखिये – एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स बनाम भारत संघ का निर्णयइसी प्रकार प्रेस की स्वतन्त्रता संसदीय विशेषाधिकारों के भी अधीन है। सर्च लाइट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि कोई समाचारपत्र किसी सदस्य द्वारा विधानमण्डल में दिये गये भाषण को प्रकाशित नहीं कर सकता यदि उसे स्पीकर के आदेश द्वारा विधानमण्डल की कार्यवाही से निकाल दिया गया है।


धरना एवं प्रदर्शन- वाक् और अभिव्यक्ति का एक माध्यम-         धरना एवं प्रदर्शन भी अभिव्यक्ति के साधन हैं। किन्तु अनु० 19 (1) (क) केवल उन्हीं प्रदर्शनों या धरनों को संरक्षण प्रदान करता है जो निरायुध और शांतिपूर्ण हैं। देखिये – कामेश्वर सिंह बनाम स्टेट ऑफ बिहार '। हड़ताल करने का अधिकार अनु० 19 (1) (क) के अन्तर्गत कोई मूल अधिकार नहीं है, अतएव किसी भी व्यक्ति को हड़ताल करने से रोका जा सकता है। प्रदर्शन जब हड़ताल का रूप धारण कर लेता है तो वह विचारों के अभिव्यक्त करने का साधन मात्र नहीं रह जाता है। देखिए - ओ० के० घोष बनाम ई० एक्स० जोसेफ तथा राधेश्याम बनाम पी० । एम० जी० नागपुर के विनिश्चयों कोचलचित्रों पर पूर्व-अवरोध सांविधानिक है या असंवैधानिक-          भारत में इस विषय पर प्रस्तुत मामले के पहले कोई मामला न्यायालय के विचारार्थ नहीं आया था। चलचित्र प्रदर्शन भी वाक् और अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। के० ए० अब्बास बनाम भारत संघ' का मामला इस विषय पर पहला मामला है, जिसमें यह प्रश्न कि क्या अनु० 19 (2) के अन्तर्गत चलचित्रों पर पूर्व अवरोध लगाया जा सकता है, उच्चतम न्यायालय के समक्ष विचारार्थ आया। इस मामले में सिनेमैटोग्राफ ऐक्ट, 1952 की धारा 5 (ब) (2) की संवैधानिकता को चुनौती दी गयी थी। धारा 5 (ब) (2) केन्द्रीय सरकार को चलचित्रों के प्रदर्शन के लिए प्रमाण- पत्र देने वाले अधिकारियों के मार्गदर्शन के लिए ऐसे सिद्धान्तों को विहित करने का प्राधिकार देती है जिसे वह उचित समझे। इस अधिनियम के अधीन चलचित्रों को प्रदर्शन के पहले फिल्म ऑफ सेन्सर बोर्ड के समक्ष अनुमति प्राप्त करने के लिए भेजना पड़ता है, पिटीशनर ने अधिनियम के इस उपबन्ध को, जो चलचित्रों पर पूर्व-अवरोध लगाते हैं, को चुनौती दी और कहा कि यह अनु० 19 द्वारा प्रदत्त वाक् और अभिव्यक्ति के स्वातन्त्र्य का अतिक्रमण करता है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि चलचित्रों पर पूर्व-अवरोध (Precensorship) संवैधानिक हैं। चलचित्रों के निर्माण एवं प्रदर्शन पर पूर्व-अवरोध लोकहित में है। प्रश्नगत अधिनियम के उक्त उपबन्ध अनु० 19 (2) की परिधि के भीतर हैं, अतः संवैधानिक हैं। अमेरिका में चलचित्रों पर पूर्व-अवरोध को सांविधानिक माना गया है।

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