संघ या सहकारी सोसाइटी बनाने की स्वतंत्रता | Freedom to form unions or co-operative societies
इस लेख में आपको संघ या सहकारी सोसाइटी बनाने की स्वतंत्रता विषयक महत्वपूर्ण जानकारी मिलेगीअनुच्छेद 19 (1) (ग) भारत के समस्त नागरिकों को संस्था या संघ बनाने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। किन्तु इस अनुच्छेद का खंड (4) राज्य को इस अधिकार पर लोक व्यवस्था या नैतिकता के हित में युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाने की शक्ति भी प्रदान करता है। संघ या संस्था बनाने के अधिकार में संगठन या प्रबन्ध का अधिकार भी निहित है। यह स्थायी संस्था होती है। इस प्रकार की संस्था और उनके सदस्यों का उद्देश्य भी सामान्य होता है। इस प्रकार इसमें कम्पनी, सोसाइटी, साझेदारी, श्रमिक संघ और राजनैतिक दलों आदि के बनाने का अधिकार भी सम्मिलित है। इसमें केवल संघ या संस्था बनाने का ही नहीं, बल्कि उसे चालू रखने का भी अधिकार है। संक्षेप में, इस अधिकार में संस्था या संघ बनाने या न बनाने, उसे चालू रखने या न रखने, या उसमें शामिल होने या न होने की पूर्ण स्वतन्त्रता का अधिकार भी सम्मिलित है। दमयन्ती बनाम भारत संघ" इस विषय पर उच्चतम न्यायालय का आधुनिकतम निर्णय है। इस मामले में हिन्दी साहित्य सम्मेलन अधिनियम, 1962 की वैधता को चुनौती दी गयी थी। पिटीशनर संघ का एक सदस्य था। अधिनियम ने संघ संविधान में परिवर्तन करके नये सदस्यों को सम्मिलित करने का उपबन्ध किया। इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप मूल सदस्यों को, जिन्होंने संघ को स्थापित किया था, उन सदस्यों के साथ कार्य करना पड़ा जिनके ऊपर उनका कोई नियन्त्रण न था। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम संघ के मूल सदस्यों के अनुच्छेद 19 (1) (ग) में दिये गये अधिकार का अतिक्रमण करता है, अतः अवैध है। संघ बनाने के अधिकार में यह अधिकार भी शामिल है कि जिन लोगों ने संघ बनाया है, वे उन्हीं लोगों के साथ कार्य करें जिन्हें वे स्वेच्छा से संघ में शामिल करते हैं। कोई ऐसा कानून जो संघ के मूल सदस्यों की सहमति के बिना नये सदस्यों की भर्ती करता है या जो मूल सदस्यों की सदस्यता को समाप्त कर देता है, संघ बनाने के अधिकार का अतिक्रमण करता है। प्रस्तुत मामले में अधिनियम केवल संघ के मामलों का विनियमन ही नहीं करता, बल्कि उसके संगठन को ही परिवर्तित कर देता है। इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप मूल सदस्यों को ऐसे सदस्यों के साथ कार्य करना पड़ता है जिनको अधिनियम द्वारा उनके ऊपर जबर्दस्ती थोप दिया गया है और जिनकी सदस्यता में उनका कोई हाथ नहीं है। संघ के संविधान में परिवर्तन स्पष्टतया मूल सदस्यों के संघ में सदस्य बने रहने के अधिकार का अतिक्रमण करता है; अतः असंवैधानिक है।निर्बन्धन के आधार - अन्य अधिकारियों की भाँति इस अनुच्छेद के खंड (4) के अधीन राज्य को इस स्वतन्त्रता पर भी 'लोक-व्यवस्था' या नैतिक या देश की सम्प्रभुता के हित में युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाने की शक्ति प्राप्त है। खण्ड (4) इस विषय से सम्बन्धित वर्तमान विधियों की भी रक्षा करता है जो संघ या संस्था की स्वतन्त्रता से असंगत नहीं हैं।
कानून प्रशासन या शांति व्यवस्था में किसी प्रकार से बाधा उत्पन्न करती है या जन-शांति को खतरा पैदा करती है तो वह उसे सरकारी गजट में अधिसूचना जारी करके गैर-कानूनी घोषित कर सकती है। ऐसी प्रत्येक अधिसूचना को एक सलाहकारी बोर्ड के सामने प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है। बोर्ड के समक्ष ऐसी अधिसूचना के विरुद्ध लोगों को अभ्यावेदन का अधिकार प्राप्त है। यदि सलाहकारी बोर्ड यह विचार व्यक्त करता है कि संघ गैरकानूनी नहीं है तो राज्य सरकार को अपनी अधिसूचना रद्द कर देनी होगी।
उपर्युक्त अधिनियम की विधिमान्यता को मद्रास राज्य बनाम बी० जी० राव' के वाद में उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गयी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अधिनियम द्वारा लगाये गये प्रतिबन्ध अयुक्तियुक्त हैं। अधिनियम के अन्तर्गत लगाये गये प्रतिबन्धों की कसौटी सरकार के व्यक्तिगत निर्णय पर आधारित है। न्यायालय ने कहा कि सरकार को प्रतिबन्ध लगाने का अधिकार देना, किन्तु प्रतिबन्धों के आधार को न्यायालयों के विचार से अलग रखना सर्वथा अनुचित है। सलाहकार बोर्ड न्यायालयों का स्थान नहीं ले सकता है।
इसी प्रकार हाजी मोहम्मद बनाम डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, मालदा के वाद में कानून के अधीन नगरपालिका के शिक्षकों को राजनीति में भाग लेने के लिए जिला बोर्ड से पूर्व अनुमति प्राप्त करना आवश्यक था। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उपर्युक्त निर्बन्धन युक्तियुक्त है, क्योंकि यह शिक्षकों को राजनीति में भाग लेने से रोकता है, जो शिक्षण संस्थाओं के हित में है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि शिक्षक किसी संघ या संस्था का सदस्य नहीं हो सकता है। न्यायालय ने एक सरकारी आदेश को इसी आधार पर अवैध घोषित कर दिया क्योंकि उक्त आदेश नगरपालिका के शिक्षकों को सरकार द्वारा अनुमोदित संघों के अतिरिक्त दूसरे संघों में शामिल होने से मना करता था। इसी प्रकार, घोष बनाम जोजेफ के वाद में सेन्ट्रल सर्विस कन्डक्ट रूल्स का नियम 4 सरकारी नौकरों से यह अपेक्षा करता था कि सरकार द्वारा सरकारी कर्मचारी संघ की मान्यता के लौटा लेने या संघ बनने के 6 महीने के भीतर सरकार द्वारा मान्यता न दिये जाने पर वे उस संघ की सदस्यता को वापस ले लेंगे। उच्चतम न्यायालय ने इस नियम को अवैध घोषित कर दिया क्योंकि इसके अनुसार संघ बनाने का अधिकार सरकार द्वारा मान्यता देने या न देने पर आधारित था, जो इस अधिकार को प्रभावहीन और भ्रामक बना देता था। खंड (4) के अन्तर्गत संघ बनाने के अधिकार पर केवल लोक-हित में युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। प्रस्तुत वाद में लगाये गये प्रतिबन्ध युक्तियुक्त नहीं थे क्योंकि मान्यता देने को ऐसे आधारों पर इन्कार किया जा सकता था जिनका लोक-हित से कोई सम्बन्ध नहीं था।
बालाकोटया बनाम भारत संघ के वाद में प्रार्थी को एक सर्विस रूल के अनुसार कम्युनिस्ट पार्टी या श्रमिक संघ का सदस्य होने के कारण नौकरी से निकाल दिया गया था। प्रार्थी ने न्यायालय में यह दलील पेश की कि नौकरी से निकालकर वस्तुतः उसे उसके संघ बनाने के अधिकार को इन्कार किया जा रहा है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि पदच्युति आदेश अनुच्छेद 19 (1) का (ग) के विरुद्ध नहीं है क्योंकि आदेश प्रार्थी को कम्युनिस्ट बनाने या श्रमिक संघ का सदस्य बनाने से मना नहीं करता। प्रार्थी को निश्चय ही संघ बनाने का मूलाधिकार प्राप्त है किन्तु उसे सरकारी नौकरी में बने रहने का कोई मूल अधिकार नहीं प्राप्त है। संघ बनाने के अधिकार में सभी प्रकार के उद्देश्य प्राप्त करने के अधिकार शामिल नहीं है। उदाहरण के लिये, श्रमिक संघ को सामूहिक लाभ करने या हड़ताल करने या तालीबन्दी करने का कोई अधिकार नहीं है।
प्रतिरक्षा सेना संघ बनाने का अधिकार और—ओ० के० ए० नायर बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष मुख्य विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या प्रतिरक्षा प्रतिष्ठानों में नियुक्त सेवक जैसे रसोइये, चौकीदार, लश्कर, नाई, बढ़ई, मिस्त्री, जूता बनाने वाले, दर्जी आदि प्रतिरक्षा सेवा के सदस्य माने जा सकते हैं जिन्हें संघ बनाने का अधिकार नहीं है। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया उपर्युक्त व्यक्ति अनु० 33 के अधीन प्रतिरक्षा सेना के सदस्यों में शामिल हैं, अतः सेना अधिनियम की धारा 21 के अधीन केन्द्रीय सरकार उनके संघ बनाने के अधिकार को नियम बनाकर निर्बन्धित कर सकती है। इस प्रकार के सेवकों का कर्त्तव्य सेना के सदस्यों को सक्रिय सेवा पर जाने का अनुसरण करना या साथ रहना होता है। यद्यपि वे युद्ध में भाग नहीं लेते हैं, तथापि वे प्रतिरक्षा सेना के एक आवश्यक अंग हैं।
निर्बन्धन के आधार - अन्य अधिकारियों की भाँति इस अनुच्छेद के खंड (4) के अधीन राज्य को इस स्वतन्त्रता पर भी 'लोक-व्यवस्था' या नैतिक या देश की सम्प्रभुता के हित में युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाने की शक्ति प्राप्त है। खण्ड (4) इस विषय से सम्बन्धित वर्तमान विधियों की भी रक्षा करता है जो संघ या संस्था की स्वतन्त्रता से असंगत नहीं हैं।
कानून प्रशासन या शांति व्यवस्था में किसी प्रकार से बाधा उत्पन्न करती है या जन-शांति को खतरा पैदा करती है तो वह उसे सरकारी गजट में अधिसूचना जारी करके गैर-कानूनी घोषित कर सकती है। ऐसी प्रत्येक अधिसूचना को एक सलाहकारी बोर्ड के सामने प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है। बोर्ड के समक्ष ऐसी अधिसूचना के विरुद्ध लोगों को अभ्यावेदन का अधिकार प्राप्त है। यदि सलाहकारी बोर्ड यह विचार व्यक्त करता है कि संघ गैरकानूनी नहीं है तो राज्य सरकार को अपनी अधिसूचना रद्द कर देनी होगी।
उपर्युक्त अधिनियम की विधिमान्यता को मद्रास राज्य बनाम बी० जी० राव' के वाद में उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गयी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अधिनियम द्वारा लगाये गये प्रतिबन्ध अयुक्तियुक्त हैं। अधिनियम के अन्तर्गत लगाये गये प्रतिबन्धों की कसौटी सरकार के व्यक्तिगत निर्णय पर आधारित है। न्यायालय ने कहा कि सरकार को प्रतिबन्ध लगाने का अधिकार देना, किन्तु प्रतिबन्धों के आधार को न्यायालयों के विचार से अलग रखना सर्वथा अनुचित है। सलाहकार बोर्ड न्यायालयों का स्थान नहीं ले सकता है।
इसी प्रकार हाजी मोहम्मद बनाम डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, मालदा के वाद में कानून के अधीन नगरपालिका के शिक्षकों को राजनीति में भाग लेने के लिए जिला बोर्ड से पूर्व अनुमति प्राप्त करना आवश्यक था। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उपर्युक्त निर्बन्धन युक्तियुक्त है, क्योंकि यह शिक्षकों को राजनीति में भाग लेने से रोकता है, जो शिक्षण संस्थाओं के हित में है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि शिक्षक किसी संघ या संस्था का सदस्य नहीं हो सकता है। न्यायालय ने एक सरकारी आदेश को इसी आधार पर अवैध घोषित कर दिया क्योंकि उक्त आदेश नगरपालिका के शिक्षकों को सरकार द्वारा अनुमोदित संघों के अतिरिक्त दूसरे संघों में शामिल होने से मना करता था। इसी प्रकार, घोष बनाम जोजेफ के वाद में सेन्ट्रल सर्विस कन्डक्ट रूल्स का नियम 4 सरकारी नौकरों से यह अपेक्षा करता था कि सरकार द्वारा सरकारी कर्मचारी संघ की मान्यता के लौटा लेने या संघ बनने के 6 महीने के भीतर सरकार द्वारा मान्यता न दिये जाने पर वे उस संघ की सदस्यता को वापस ले लेंगे। उच्चतम न्यायालय ने इस नियम को अवैध घोषित कर दिया क्योंकि इसके अनुसार संघ बनाने का अधिकार सरकार द्वारा मान्यता देने या न देने पर आधारित था, जो इस अधिकार को प्रभावहीन और भ्रामक बना देता था। खंड (4) के अन्तर्गत संघ बनाने के अधिकार पर केवल लोक-हित में युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। प्रस्तुत वाद में लगाये गये प्रतिबन्ध युक्तियुक्त नहीं थे क्योंकि मान्यता देने को ऐसे आधारों पर इन्कार किया जा सकता था जिनका लोक-हित से कोई सम्बन्ध नहीं था।
बालाकोटया बनाम भारत संघ के वाद में प्रार्थी को एक सर्विस रूल के अनुसार कम्युनिस्ट पार्टी या श्रमिक संघ का सदस्य होने के कारण नौकरी से निकाल दिया गया था। प्रार्थी ने न्यायालय में यह दलील पेश की कि नौकरी से निकालकर वस्तुतः उसे उसके संघ बनाने के अधिकार को इन्कार किया जा रहा है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि पदच्युति आदेश अनुच्छेद 19 (1) का (ग) के विरुद्ध नहीं है क्योंकि आदेश प्रार्थी को कम्युनिस्ट बनाने या श्रमिक संघ का सदस्य बनाने से मना नहीं करता। प्रार्थी को निश्चय ही संघ बनाने का मूलाधिकार प्राप्त है किन्तु उसे सरकारी नौकरी में बने रहने का कोई मूल अधिकार नहीं प्राप्त है। संघ बनाने के अधिकार में सभी प्रकार के उद्देश्य प्राप्त करने के अधिकार शामिल नहीं है। उदाहरण के लिये, श्रमिक संघ को सामूहिक लाभ करने या हड़ताल करने या तालीबन्दी करने का कोई अधिकार नहीं है।
प्रतिरक्षा सेना संघ बनाने का अधिकार और—ओ० के० ए० नायर बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष मुख्य विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या प्रतिरक्षा प्रतिष्ठानों में नियुक्त सेवक जैसे रसोइये, चौकीदार, लश्कर, नाई, बढ़ई, मिस्त्री, जूता बनाने वाले, दर्जी आदि प्रतिरक्षा सेवा के सदस्य माने जा सकते हैं जिन्हें संघ बनाने का अधिकार नहीं है। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया उपर्युक्त व्यक्ति अनु० 33 के अधीन प्रतिरक्षा सेना के सदस्यों में शामिल हैं, अतः सेना अधिनियम की धारा 21 के अधीन केन्द्रीय सरकार उनके संघ बनाने के अधिकार को नियम बनाकर निर्बन्धित कर सकती है। इस प्रकार के सेवकों का कर्त्तव्य सेना के सदस्यों को सक्रिय सेवा पर जाने का अनुसरण करना या साथ रहना होता है। यद्यपि वे युद्ध में भाग नहीं लेते हैं, तथापि वे प्रतिरक्षा सेना के एक आवश्यक अंग हैं।
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