वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार | Grounds of reasonable restrictions on freedom of speech and expression I Indian Constitution | Right to freeom
इस लेख में आपको वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है? इस स्वतंत्रता की सीमाएं क्या हैं?, वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से आप क्या समझते हैं?, विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतीय संविधान के आधार मूल्य कैसे हैं टिप्पणी कीजिए?, स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति का अधिकार कैसे प्रतिबंधों के अधीन है समझाइए?, आप कैसे कह सकते हैं कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की आवश्यक विशेषताओं में से एक है?, लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का क्या महत्व है?, वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है? इस स्वतंत्रता की सीमाएं क्या हैं? आदि ऐसे अनेकों सवाल हैं जिसके बारे में आपको जानकारी मिलेगी
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में निम्नलिखित आधारों का उल्लेख है जिनके आधार पर नागरिकों की वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर युक्तियुक्त निर्बंन्धन लगाये जा सकते हैं-
1- राज्य की सुरक्षा,
2-विदेशी राज्यों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के हित में,
3- सार्वजनिक व्यवस्था,
4- शिष्टाचार या सदाचार के हित में,
5- न्यायालय अवमान,
6- मानहानि,
7- अपराध उद्दीपन के मामले में,
8- भारत की संप्रभुता एवं अखंडता,
1- राज्य की सुरक्षा के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
राज्य की सुरक्षा सर्वोपरि है। राज्य की सुरक्षा के हित में नागरिकों के वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं। रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मामले में प्रश्न यह था कि क्या ऐसे कार्य जिससे सार्वजनिक व्यवस्था भंग होती है, देश की सुरक्षा के लिए भी घातक हो सकते हैं। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि प्रत्येक लोक-अव्यवस्था राज्य की सुरक्षा को खतरा पहुँचाने वाली नहीं समझी जानी चाहिये। सार्वजनिक व्यवस्था को भंग करने वाले कृत्यों को कई श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। "राज्य-सुरक्षा" पदावली लोक-व्यवस्था के गम्भीर तथा बिगड़े हुए रूप को दर्शित करती है, जैसे आन्तरिक विक्षोभ या विद्रोह, राज्य के विरुद्ध युद्ध प्रारम्भ करना आदि, न कि लोक व्यवस्था तथा लोक-सुरक्षा के साधारण भंगों को, जैसे अवैध सभा, बलवा या हंगामा आदि। इस प्रकार ऐसे भाषण या अभिव्यक्तियाँ, जो कत्ल जैसे हिंसात्मक अपराध को उकसाती या प्रोत्साहित करती हैं, राज्य की सुरक्षा को खतरा पहुँचाने वाली समझी जायेंगी। सरकार की आलोचना मात्र या सरकार के प्रति अनादर एवं दुर्भावना उकसाना राज्य सुरक्षा को खतरे में डालने वाला नहीं माना जायेगा। नागरिकों के वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर तभी निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं जब उससे राज्य की सुरक्षा पर आघात पहुँचने की आशंका हो। प्रत्येक ऐसे कृत्य, जिससे लोक व्यवस्था या लोक सुरक्षा भंग होती है, किसी न किसी रूप में राज्य की सुरक्षा को आघात पहुँचाने वाले हो सकते हैं। चूंकि अनु० 19 (2) में 'लोक-व्यवस्था' निर्बन्धन के आधार के रूप में समाविष्ट नहीं किया गया था, अतएव इसके आधार पर नागरिकों की स्वतन्त्रता पर निर्बन्धन नहीं लगाया जा सकता था। उपर्युक्त मामले में दिये गये निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के लिए संविधान के प्रथम संशोधन (1951) द्वारा अनु० 19 (2) में 'लोक-व्यवस्था' के आधार को जोड़ा गया। संशोधन के परिणामस्वरूप अब लोक-व्यवस्था का साधारण भंगीकरण या अपराध करने के लिये उकसाना भी इस स्वतन्त्रता पर निर्बन्धन लगाने के उचित अधार हो सकते हैं। देखिये - बिहार राज्य बनाम शैलबाला' का निर्णय। संशोधित अनु० 19 (2) में 'राज्य - सुरक्षा' पदावली के पहले "उसके हित में" पदावली के प्रयोग का अर्थ यह है कि यदि किसी कार्य से राज्य सुरक्षा को खतरे की आशंका भी हो तो उस पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है, भले ही उस कार्य से वस्तुतः देश की सुरक्षा को कोई आघात न पहुँचता हो। इस प्रकार के सरकार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह को उकसाना, भले ही वह विफल हो जाय, राज्य-सुरक्षा को खतरा पहुँचाने वाला माना जायगा। देखिये- रामजी मोदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य " का निर्णय।
2-विदेशी राज्यों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के हित में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
विदेशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध से सम्बंधित निर्बन्धन का यह आधार संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा अनु० 19 (2) में जोड़ा गया है। संसद् में बहस के दौरान इस विधेयक की बड़ी आलोचना की गयी थी और यह कहा गया था कि इसका क्षेत्र बड़ा विस्तृत है और इसका प्रयोग सरकार की विदेशी नीतियों की उचित आलोचना के विरुद्ध भी किया जा सकता है।" सरकार की ओर से यह आश्वासन दिया गया था कि इस उपबन्ध का इस प्रकार प्रयोग करने का आशय नहीं है। इस खण्ड का अन्तर्निहित उद्देश्य केवल अपलेख और मानहानि के क्षेत्र को विस्तृत करना है और किसी व्यक्ति को ऐसी मिथ्या या झूठी अफवाहें फैलाने से रोकना है जिससे किसी विदेशी राज्य के साथ हमारे मंत्रीपूर्ण सम्बन्धों को आघात पहुँचता हो। संसार के किसी संविधान में इस प्रकार के उपबन्ध नहीं है। किन्तु प्रत्येक देश की साधारण विधि में इस प्रकार के उपबन्ध पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। भारतीय संविधान का यह उपबन्ध निश्चित ही बड़ा विस्तृत है। इसका प्रयोग सरकार की विदेशी नीतियों की वैध आलोचना को दबाने में किया भी जा सकता है। प्रेस आयोग ने भी इस बात की सिफारिश की है कि इस उपबन्ध का प्रयोग केवल उन्हीं मामलों तक सीमित रखा जाना चाहिये जिनमें मिथ्या या गलत अफवाहों का संचार किया जाता है जो विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को नष्ट करता है, न कि सत्य तथ्यों के कथन को, भले ही इसमें विदेशी राज्यों के साथ सम्बन्धों के बिगाड़ने की प्रवृत्ति हो। हम प्रेस कमीशन के विचार से सहमत हैं। आशा है सरकार अपने आश्वासन को नहीं भूलेगी। ध्यान रहे कि यह उपबन्ध केवल विदेशी राज्यों को लागू होता है। संविधान के प्रयोजन के लिये 'विदेशी राज्य' में कामनवेल्थ के सदस्य सम्मिलित नहीं हैं। पाकिस्तान चूंकि कामनवेल्थ का सदस्य है अतः इस प्रयोजन के लिये वह विदेशी राज्य नहीं माना जाता। अतएव इस आधार पर वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता कि वह पाकिस्तान या अन्य कामनवेल्थ के देशों के प्रतिकूल है। देखिये - जगन्नाथ बनाम भारत संघ का निर्णय।
3- सार्वजनिक व्यवस्था के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
'सार्वजनिक व्यवस्था' पद के अन्तर्गत विधि के हर प्रकार के व्यतिक्रम नहीं आते हैं। यदि किसी व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति पर मकान या किसी गली में हमला किया जाता है तो उससे अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है, किन्तु लोक-व्यवस्था नहीं उत्पन्न हो सकती क्योंकि लोक व्यवस्था एक ऐसी स्थिति है जिससे समुदाय या आम जनता पर प्रभाव पड़ता है। लोक व्यवस्था को कायम रखने के लिए सरकार अग्रिम कार्यवाही भी कर सकती है। उदाहरण के लिये, बाबू लाल पराटे बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 को जो मजिस्ट्रेट को जुलूसों और सभाओं पर प्रतिबन्ध लगाने की शक्ति प्रदान करती है, इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि वह अनुच्छेद 19 (1) (क) में दिये अधिकारों पर अयुक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाती है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उक्त धारा अनु० 19 (1) (क) का अतिक्रमण नहीं करती, क्योंकि इसके अन्तर्गत दिये गये आदेशों की प्रकृति बिल्कुल अस्थायी है और इसका प्रयोग उत्तरदायी मजिस्ट्रेटों द्वारा न्यायिक ढंग से किया जाता है।
4- शिष्टाचार या सदाचार के हित में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
ऐसे कथनों या प्रकाशनों पर, जिनसे लोक-नैतिकता एवं शिष्टता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है; सरकार प्रतिबन्ध लगा सकती है। प्रश्न यह है कि नैतिकता एवं शिष्टता की कसौटी क्या है? इस शब्दावली की परिभाषा न तो संविधान में दी गयी है और न किसी अन्य अधिनियम में। किन्तु भारतीय न्यायालयों ने एक आंग्ल वाद आर० बनाम हिकलिन में दी हुई परिभाषा को अपनाया है। आंग्ल विधि में उपर्युक्त दोनों शब्दों के स्थान पर एक ही शब्द 'अश्लील' का प्रयोग किया गया है। उपर्युक्त वाद में न्यायालय ने 'अश्लीलता' की परिभाषा निम्नलिखित शब्दों में की है- 'ऐसे कथन और प्रकाशन सामान्यतया अश्लील समझे जाते हैं, जो उन व्यक्तियों के मन में, जिनके हाथ में वे पड़ जाते हैं, अनैतिक व भ्रष्ट विचारों को पैदा करते हैं। इस प्रकार, ऐसे प्रकाशन जो उन व्यक्तियों के मन में जो उन्हें पढ़ते हैं, कामुक विचार और वासनामय इच्छा उत्पन्न करते हैं, अश्लील समझे जाते हैं। भारतीय दण्ड विधान की धारा 292 से लेकर 294 तक नैतिकता एवं शिष्टता के हित में वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध का उपबन्ध करती है। किसी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर ये धाराएं अश्लील प्रकाशनों को बेचने, प्रचार या प्रदर्शन करने, अश्लील कृत्यों को करने, अश्लील गानों या अश्लील भाषणों आदि का निषेध करती है। किन्तु भारतीय दंड विधान में 'अश्लीलता' की कोई कसौटी नहीं दी गई है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने अंग्रेजी निर्णय हिकालिन में प्रतिपादित अश्लीलता की कसौटी को स्वीकार किया है। इस कसौटी का अनेक भारतीय निर्णयों में अनुसरण किया गया है। रनजीत डी० उडेसी बनाम महाराष्ट्र राज्य" इस विषय पर उच्चतम न्यायालय का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय है। इस वाद में अपीलार्थी का धारा 292 के अन्तर्गत 'लेडी चैटर्लीज लवर' नामक पुस्तक जिसमें आधुनिक युग में लैंगिक समागम में निराशा का वर्णन किया गया है, के बेचने के अपराध में दण्डित किया गया था। उच्चतम न्यायालय ने इस पुस्तक के कुछ अंशों को हिकलिन की कसौटी के आधार पर अश्लील घोषित कर दिया और अपीलार्थी की सजा को बहाल रखा। यहाँ यह बता देना अनुचित न होगा कि उक्त कसोटी बड़ी पुरानी हो गई है और यह आधुनिक विचारों से मेल नहीं खाती है। न्यायालय ने इस वाद में हिकलिन कसौटी को स्वीकार करके एक बड़ी भूल की है। यह कसौटी आज से करीब सौ वर्ष पहले इंग्लैण्ड के न्यायालय द्वारा प्रतिपादित की गयी थी। तब और आज में नैतिक मूल्यों एवं विचारधाराओं में बड़े परिवर्तन हो चुके हैं। उक्त नियम अश्लीलता के निर्धारण का एक अस्पष्ट और मनमाना मानदण्ड निर्धारित करता है जिसमें नागरिकों के वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को कम करने की प्रवृत्ति मौजूद है। " क्या अनैतिक या अभद्र है, इसका कोई निश्चित मानदण्ड निर्धारित नहीं किया जा सकता है। नैतिकता का स्तर समय और स्थान के साथ-साथ बदलता रहता है। परिवार नियोजन, जो किसी समय भारत में अनैतिक समझा जाता था, आज आबादी की वृद्धि को नियंत्रित करने के साधन के रूप में उचित एवं नैतिक माना जाता है।
5- न्यायालय अवमान के संबंध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
न्यायालय अवमान की भी संविधान में कोई परिभाषा नहीं दी गयी है। संसद् ने न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 पारित करके इस कमी को पूरा कर दिया है। इस अधिनियम के अनुसार 'न्यायालय अवमान' शब्दावली के अन्तर्गत दीवानी और फौजदारी दोनों प्रकार के न्यायालयों का अवमान शामिल है। 'न्यायालय अवमान' का अर्थ है जानबूझ कर न्यायालय के फैसले, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट या उसकी किसी विधान प्रक्रिया की अवहेलना करना या न्यायालय को दिये हुए वचन को जानबूझ कर तोड़ना। 'फौजदारी अवमान' का अर्थ है, ऐसे प्रकाशनों (चाहे वे मौखिक या लिखित या किसी भी माध्यम से हों) से है, जो-
अ- न्यायालयों या न्यायाधीशों की निन्दा या निन्दा की प्रवृत्ति वाला या उसके प्राधिकार को कम करने वाला हो, या
ब- जो पक्षपात का लांछन लगाता हो, या न्यायिक कार्यवाहियों में हस्तक्षेप करता हो या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति वाला हो, या
स- किसी भी प्रकार से न्याय - प्रशासन के कार्य में हस्तक्षेप करता हो या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति वाला हो या इस कार्य में अवरोध करता हो या अवरोध की प्रवृत्ति वाला हो । किन्तु निम्नलिखित कृत्यों से न्यायालय का अवमान नहीं होता है-
1- निर्दोष प्रकाशन और उसका वितरण,
2- न्यायिक कार्यवाहियों का उचित और सही प्रकाशन;
3- न्यायिक कृत्य की उचित आलोचना,
4- न्यायाधीशों के विरुद्ध ईमानदारी से की हुई शिकायत;
5- वाद की न्यायिक कार्यवाहियों का सही प्रकाशन।
न्यायालय अवमान के लिये अधिनियम में 6 महीने की सजा या 2000 रुपये तक जुर्माना या दोनों दिया जा सकता है। अधिनियम के अधीन न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों या न्यायिक कृत्य करने वाले व्यक्तियों को भी अपने ही न्यायालय के लिये अवमान के साधारण व्यक्तियों की ही भाँति दंडित किया जा सकता है। वरदकांत बनाम रजिस्ट्रार, उड़ीसा के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि उच्च न्यायालय के प्रशासनिक कार्यों के सम्बन्ध में अवमानात्मक आरोप लगाना आपराधिक अवमान है। प्रशासनिक न्याय न्यायिक न्याय से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। न्यायालय को प्रशासन के लिये विविध कार्य करने होते हैं। इन कार्यों के निर्वहन में किये गये तनिक मात्र लोप होने से न्याय-प्रशासन आवश्यक रूप से प्रभावित होता है। न्यायालय की स्थापना ही न्याय सम्पादन के प्रयोजन के लिये की जाती है और एक न्यायाधीश का अपने सहायकों पर नियन्त्रण का उद्देश्य भी न्याय की शुद्धता को कायम रखना होता है। इसलिये उच्च न्यायालयों के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि वे अधीनस्थ न्यायालय के न्याय प्रशासन से सम्बन्धित आचरण के सम्बन्ध में सचेत रहें। पक्षकारों के मध्य विवादों का निर्णय ही न्याय-प्रशासन का सम्पूर्ण सार नहीं है। अनुशासनिक नियन्त्रण का कार्य भी समुचित न्याय प्रशासन में उतना ही सहायक है जितना कि विधि-स्थापना या पक्षकारों के मध्य न्याय निर्णयन। अनु० 235 के अधीन जहाँ उच्च न्यायालय अनुशासनिक हैसियत से कार्य करता है तो वह न्याय-प्रशासन की वृद्धि करता है। प्रस्तुत मामले में अपीलार्थी जो जिला न्यायाधीश द्वारा इसी आधार पर न्यायालय के अवमान के लिये दण्डित किया गया था कि उसने उच्च न्यायालय को लिखे गये पत्रों में न्यायालय के प्रशासनिक कार्यों के सम्बन्ध में अनेक अवमानात्मक आरोप लगाये थे।
6- मानहानि के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
कोई भी ऐसा कथन या प्रकाशन जो किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाता है, मानहानि कहलाता है। ऐसे कथन के प्रकाशन को मानहानि कहा जाता है जो किसी व्यक्ति को समाज में घृणा, हंसी या अपमान का पात्र बनाता है। उक्त कथन या प्रकाशन पर अनुच्छेद 19 (2) के अन्तर्गत युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 419 में मानहानि से सम्बन्धित विधि दी हुई है। इस धारा के अनुसार इंग्लैण्ड की भाँति अपलेख या अपवचन में कोई विभेद नहीं किया गया है। मानहानिकारी कथन, चाहे वह अपलेख हो या अपवचन, इस धारा के अन्तर्गत एक दण्डनीय अपराध है। न्यायालयों ने यह अभिनिर्धारित किया है कि यह धारा वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाती है। भारत में इस विषय से सम्बन्धित दीवानी-विधि अभी असंहिताबद्ध है और कुछ अन्तर के साथ आंग्ल सामान्य विधि का ही अनुसरण करती है।"
7- अपराध उद्दीपन के मामले में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
यह आधार संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा जोड़ा गया है। वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता किसी व्यक्ति को इस बात का अधिकार नहीं देती कि वे लोगों को अपराध करने के लिये भड़कायें या उकसायें। अपराध करने की उत्तेजना देने वाले भाषणों को विधि द्वारा रोका व दंडित किया जा सकता है। 'उकसाना' शब्द के अन्तर्गत क्या सम्मिलित है, इसका निर्धारण न्यायालय करेंगे, जो प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।
8- भारत की संप्रभुता एवं अखंडता के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
यह आधार अनुच्छेद 19 (2) में संविधान के सोलहवें संशोधन अधिनियम, 1963 द्वारा जोड़ा गया है। इसके अन्तर्गत ऐसे कथन या प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है, जिससे भारत की अखंडता एवं सम्प्रभुता पर किसी प्रकार की आंच आती हो या भारत के किसी भाग को संघ से पृथक् होने के लिये उकसाया जाता हो।
FAQ-
1- वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है? इस स्वतंत्रता की सीमाएं क्या हैं?
2- वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से आप क्या समझते हैं?
3- विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतीय संविधान के आधार मूल्य कैसे हैं टिप्पणी कीजिए?
4- स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति का अधिकार कैसे प्रतिबंधों के अधीन है समझाइए?
5- आप कैसे कह सकते हैं कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की आवश्यक विशेषताओं में से एक है?
6- लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का क्या महत्व है?
7- वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है? इस स्वतंत्रता की सीमाएं क्या हैं?
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