समता का अधिकार | अनुच्छेद 17 | अस्पृश्यता का अन्त

समता का अधिकार | अनुच्छेद 17 | अस्पृश्यता का अन्त



        अनुच्छेद 17, अस्पृश्यता का अन्त: अस्पृश्यता का अन्त का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।        अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करता है और उसका किसी भी रूप में पालन करने का निषेध करता है। यह अस्पृश्यता से  उत्पन्न किसी अयोग्यता को लागू करने को दंडनीय अपराध घोषित करता है। इस प्रकार संविधान भारतीय समाज के परम्परागत रूप से चले आ रहे इस महान कलंक को केवल समाप्त करने की ही घोषणा नहीं करता, वरन् भविष्य में इसके किसी भी रूप में पालन करने को भी मना करता है।
        अनुच्छेद 17 और 35 के अधीन प्राप्त अपनी शक्ति के प्रयोग में संसद् ने सन् 1955 में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 पारित किया था। यह अधिनियम अस्पृश्यता के अपराध के लिए दंड की व्यवस्था करता है। इसके अनुसार अस्पृश्यता के अपराध के लिए अधिकतम 500 रुपया जुर्माना या 6 माह की सजा या दोनों सजायें साथ-साथ दी जा सकती हैं। 1955 के अस्पृश्यता अधिनियम में अस्पृश्यता (अपराध) संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा संशोधन करके अस्पृश्यता के पालन करने के लिए विहित दंड को और कठोर बना दिया गया है। इसके नाम को बदलकर प्रोटेक्शन आफ सिविल राइट एक्ट (Protection of Civil Rights Act) कर दिया गया है। इसके अधीन लोकसेवकों का यह कर्त्तव्य होगा कि उक्त अपराधों की जांच करें। यदि कोई लोकसेवक उक्त अधिनियम के अधीन किये गये अपराधों की जांच करने में जानबूझकर उपेक्षा करता है तो यह माना जायेगा कि वह ऐसे अपराध को उत्प्रेरित करता है।
        न तो अनुच्छेद 17 और न ही अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 में 'अस्पृश्यता' की कोई परिभाषा दी गयी है। किन्तु मैसूर उच्च न्यायालय ने अपने एक विनिश्चय में इसके अर्थ को स्पष्ट किया है। न्यायालय ने कहा है कि इस शब्द का शाब्दिक अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिये। शाब्दिक अर्थ में व्यक्तियों को कई कारणों से अस्पृश्य माना जा सकता है जैसे जन्म, रोग, मृत्यु एवं अन्य कारणों से उत्पन्न अस्पृश्यता। इसका अर्थ उन सामाजिक कुरीतियों से समझना चाहिये जो भारतवर्ष में जाति-प्रथा के संदर्भ में परम्परा से विकसित हुई हैं। अनुच्छेद 17 इसी सामाजिक बुराई का निवारण करता है जो जाति-प्रथा की देन है, न कि शाब्दिक अस्पृश्यता का। देखिये- देवराजी बनाम पद्मन्ना 1 का विनिश्चय।


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