समता का अधिकार | अनुच्छेद 15 | धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध

समता का अधिकार | अनुच्छेद 15 | धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध




        जैसा कि विदित है, अनु० 15, अनु० 14 में निहित समता के सामान्य नियम का उदाहरण है । जो विधि अनु० 15 के अन्तर्गत अवैध है, वह अनु० 14 के अन्तर्गत करण के सिद्धान्त के आधार पर वैध नहीं घोषित की जा सकती है । ऐसे कानून द्वारा किये गए  वर्गीकरण की युक्तियुक्तता पर अनु० 14 के अन्तर्गत तभी विचार किया जायेगा जब असमानता अनु० 15 में दिये गये किसी एक आधार पर आधारित हो।


        अनुच्छेद 15 में दिये गये अधिकार केवल नागरिकों को ही प्रदान किये गए हैं विदेशियों को नहीं, जब कि अनु० 14 के अधिकार नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों को समान रूप से प्राप्त हैं।


        अनुच्छेद 15 का प्रथम खंड राज्य को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान अथवा इनमें से किसी आधार पर किसी नागरिक के विरुद्ध असमानता का व्यवहार करने से रोकता है। अनुच्छेद 15 का दूसरा खंड यह उपबन्धित करता है कि केवल धर्म, जाति, लिंग अथवा जन्म- स्थान के आधार पर कोई नागरिक दुकानों, होटलों, मनोरंजन-स्थानों, कुओं, तालाब, घाटों, सड़कों एवं अन्य सार्वजनिक स्थान जो जनता के उपयोग के लिए समर्पित कर दिये गये हैं, अथवा पूर्ण या आंशिक रूप से राज्य-निधि द्वारा घोषित हैं, के उपयोग के सम्बन्ध में किसी शर्त, प्रतिबन्ध, उत्तर- दायित्व व अयोग्यता से प्रभावित न होगा। प्रथम खंड उन आधारों पर विभेद का प्रतिषेध करता है जो राज्य के नियन्त्रण में हैं और दूसरा खंड राज्य और निजी व्यक्तियों, दोनों को सार्वजनिक। से अधिक स्थानों के सम्बन्ध में विभेद करने का निषेध करता है। इस अर्थ में खंड (2), खंड (1) विस्तृत है। इस अनुच्छेद का तीसरा खंड राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिये विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति प्रदान करता है। चौथा खंड 1951 में संविधान के प्रथम संशोधन द्वारा जोड़ा गया है जो राज्य को सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों एवं आदिवासियों के लिये विशेष व्यवस्थाओं के करने की अनुमति देता है । उपर्युक्त सभी खंडों पर अब अलग-अलग विचार किया जायेगा।


अनुच्छेद 15 (1)- राज्य द्वारा किसी नागरिक के विरुद्द केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान या इनमे से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा 

        इस अनुच्छेद का प्रथम खंड केवल धर्म, जाति, वर्ण, लिंग, जन्म-स्थान अथवा इनमें से किसी आधार पर नागरिकों के विरुद्ध कोई विभेद करने से राज्य को निषिद्ध करता है। 'विभेद' शब्द का तात्पर्य किसी व्यक्ति के साथ दूसरों की तुलना में प्रतिकूल व्यवहार करना है। यदि कोई कानून उक्त किसी भी आधार पर असमानता बरतता है तो वह शून्य होगा। इसके कुछ उदाहरण निम्न- लिखित हैं-नैनसुख बनाम स्टेट ऑफ यू० पी० " के वाद में उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार के एक कानून को इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया कि वह विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के लिए पृथक् निर्वाचक-मंडल का प्रावधान करता था जो अनु० 15 (1) द्वारा वर्जित है। प्रताप सिंह बनाम राजस्थान राज्य के मामले में सरकार ने पुलिस अधिनियम, 1861 के अधीन एक अधिसूचना जारी करके राज्य के कुछ क्षेत्रों को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया था। इस क्षेत्र में शांति- व्यवस्था बनाये रखने के लिये अतिरिक्त पुलिस दल रखे गये थे। इस अतिरिक्त पुलिस के खर्चे को पूरा करने के लिये इन क्षेत्रों में रहने वाले निवासियों पर अतिरिक्त कर लगाया गया। किन्तु हरिजनों और मुसलमान निवासियों को इस कर से छूट प्रदान की गयी थी। यह छूट केवल जाति और धर्म के आधार पर दी गयी थी और इसलिये अनु० 15 (1) का अतिक्रमण करती थी। न्यायालय ने उक्त सरकारी अधिसूचना को अवैध एवं असंवैधानिक घोषित कर दिया।         इस अनुच्छेद में 'केवल' शब्द का प्रयोग ध्यान देने योग्य है। इसका तात्पर्य यह है कि विभेद केवल उपर्युक्त आधारों पर वर्जित है, अर्थात् यदि अन्य बातें एक समान हैं तो जाति, धर्म, लिंग आदि किसी के लिये योग्यता व अयोग्यता का आधार नहीं बनाया जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि यदि कोई विभेद उपर्युक्त आधारों में से किसी एक पर न होकर किसी दूसरे आधार पर भी आधारित है, तो वह अनु० 15 (1) द्वारा प्रभावित नहीं होगा। उदाहरण के लिए अनु० 15 (1) जन्म-स्थान पर असमानता को वर्जित करता है, किन्तु यदि विभेद आवास-स्थान के आधार पर किया जाता है तो वह मान्य होगा, क्योंकि यह अनु० 15 में उल्लिखित आधारों में से नहीं है।         डी० पी० जोशी बनाम मध्य प्रदेश के वाद में मध्य प्रदेश मेडिकल कालेज के एक नियम के अनुसार मध्य प्रदेश से बाहर रहने वाले छात्रों को अतिरिक्त प्रवेश शुल्क देना पड़ता था, किन्तु मध्य प्रदेश में रहने वाले छात्रों को ऐसा कोई प्रवेश शुल्क नहीं देना पड़ता था। पेटीशनर ने इस नियम की वैधता को चुनौती दी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त नियम वैध है क्योंकि विभेद 'जन्म-स्थान' के आधार पर नहीं, वरन् आवास के आधार पर किया गया था जो उचित है। 'जन्म-स्थान' 'आवास-स्थान' से भिन्न होता है। अनु० 15 केवल 'जन्म-स्थान' के आधार पर विभेद को वर्जित करता है, न कि 'आवास-स्थान' के आधार पर किये गये विभेद को, बशर्ते कि इसके लिये उचित कारण हो। सरकारी नौकरियों में जाने के इच्छुक व्यक्तियों के लिये क्षेत्रीय भाषा में परीक्षण का नियम अनु० 15 का उल्लंघन नहीं करता है, क्योंकि परीक्षण राज्य की नौकरियों में जाने वाले सभी व्यक्तियों के लिये आवश्यक है। 2 इसी निष्क्रान्त सम्पत्ति (evacuee property) के सम्बन्ध में बनाया गया कानून अनु० 15 (1) का अतिलंघन नहीं करेगा, यद्यपि इससे प्रभावित होने वाले लोगों में से अधिकतर मुसलमान ही हैं क्योंकि यदि कोई गैर-मुस्लिम व्यक्ति भी “निष्क्रान्त" ( evacuee) की परिभाषा के अन्तर्गत आता है तो उसको भी वह समान रूप से लागू होगा। यह कानून केवल धर्म के आधार पर हिन्दू-मुसलमान में विभेद नहीं करता, वरन् एक अन्य आधार पर विभेद करता है जो विशेष परिस्थितियों में आवश्यक और उचित है । देखिये - एम० बी० नमाजी बनाम डिप्टी कस्टोडियन ऑफ इवैक्यूई प्रापर्टी का निर्णय।


अनुच्छेद 15 (2)- कोई नागरिक केवल धर्म मूलवंश जाति लिंग जन्म स्थान या इनमे से किसी के आधार पर,
क- दुकानों, सार्वजानिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजानिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश, या
ख- पूर्णतः या भागतःराज्य-निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग के सम्बन्ध में किसी भी निर्योग्यता, दायित्व, निर्बन्धन या शर्त के अधीन नहीं होगा

        यह अनुच्छेद अनु० 15 (1) में दिये गये सामान्य नियम का विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। अनु० 15 (2) के अनुसार केवल धर्म, जाति, वर्ण, लिंग अथवा जन्म-स्थान के आधार पर किसी नागरिक को दूकानों, होटलों, मनोरंजन-स्थानों, कुओं, तालाब, स्नान घाटों, सड़कों एवं अन्य सार्व- जनिक स्थानों (Places of Public resort), जो जनता के उपयोग के लिए समर्पित कर दिये गये हैं अथवा पूर्ण या आंशिक रूप से राज्य-निधि द्वारा पोषित हैं, के उपयोग के सम्बन्ध में किसी शर्त, प्रतिबन्ध, उत्तरदायित्व या अयोग्यता के अधीन न होगा। 'सार्वजनिक स्थान' उसे कहते हैं जहाँ लोग प्रायः जाते आते हैं, जैसे सार्वजनिक पार्क, सड़क, बसें, पटरी, रेलगाड़ियाँ, अस्पताल आदि। दूसरा खण्ड पहले खण्ड से अधिक विस्तृत है क्योंकि यह राज्य के साथ-साथ निजी व्यक्तियों को भी उक्त आधारों पर विभेद का प्रतिषेध करता है।         अनुच्छेद 15 (2) का मुख्य उद्देश्य हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करके भारत में एक नये समाज की स्थापना का है। संविधान में विहित आदर्श को मूर्त रूप देने के उद्देश्य से ही मद्रास सरकार ने मद्रास रिमूवल ऑफ सिविल डिस-एबिलिटीज ऐक्ट पारित किया है जिसके अधीन सामाजिक कुरीतियों को अपराध माना गया है। किसी भी कानून, रूढ़ि अथवा प्रथा के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति अधिनियम में उल्लिखित सार्वजनिक स्थानों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और निम्न वर्ग के लोगों को जाने से नहीं रोक सकता है।


अनु० 15 (3)- इस अनुच्छेद की कोई बात स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी,

        अनुच्छेद 15 (3), अनु० 15 (1) और (2) में दिये गये सामान्य नियम का अपवाद है। यह अनुच्छेद यह उपबन्धित करता है कि अनु० 15 की कोई बात राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष प्रावधान बनाने से नहीं रोकेगी। स्त्रियों और बालकों की स्वाभाविक प्रकृति ही ऐसी होती है जिसके कारण उन्हें विशेष संरक्षण की आवश्यकता होती है। भारत में स्त्रियों की दशा बड़ी शोचनीय थी। वे अपनी सामाजिक कुरीतियों, जैसे बाल-विवाह, बहु-विवाह आदि की शिकार थीं और पूर्णरूप से पुरुषों पर आश्रित थीं। इसी कारण राज्य को उनके लिए विशेष कानून बनाने का अधिकार प्रदान करना उचित है। स्त्रियों के प्रति इस वैधानिक सहानुभूति के आधार के बारे में अमेरिका के न्यायालय ने मूलर बनाम ओरेगन' के वाद में कहा है कि 'अस्तित्व के संघर्ष स्त्रियों की शारीरिक बनावट तथा उनके स्त्रीजन्य कार्य उन्हें दु:खद स्थिति में कर देते हैं। अतः उनकी शारीरिक कुशलता का संरक्षण जनहित का उद्देश्य हो जाता है जिससे जाति, शक्ति और निपुणता को सुरक्षित रखा जा सके। इस प्रकार अनु० 42 के अन्तर्गत स्त्रियों को विशेष प्रसूति अवकाश (maternity relief) प्रदान किया जा सकता है और इससे सम्बन्धित कानून द्वारा अनु० 15 (1) का अतिक्रमण नहीं होता है। राज्य केवल स्त्रियों के लिए शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कर सकता है तथा अन्य ऐसी संस्थाओं में उनके लिए स्थान भी आरक्षित कर सकता है । देखिये- दत्तात्रेय बनाम स्टेट" का विनिश्चय। यूसुफ अब्दुल अजीज बनाम बम्बई राज्य के मामले में भारतीय दण्ड विधान की धारा 497 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। इस धारा के अधीन जारकर्म (adultery) के अपराध के लिए केवल पुरुष ही दण्डनीय होता है, स्त्री नहीं। प्रार्थी को भारतीय दंड विधान की धारा 497 के अन्तर्गत जारकर्म के अपराध के लिए दंडित किया गया था। उसने उच्चतम न्यायालय में रिट प्रस्तुत करके धारा 497 को संविधान के अनु० 15 (1) के विरुद्ध बताया क्योंकि धारा 497 के अन्तर्गत इस अपराध के लिए केवल पुरुष मुख्य अभियुक्त के रूप में दण्डनीय है, किन्तु व्यभिचारिणी को गौण अभियुक्त (abettor) के रूप में भी दण्डित नहीं किया जाता, अतः विभेद केवल लिंग के आधार पर आधारित है और अनुचित है। उच्चतम न्यायालय ने धारा 497 को वैध माना, क्योंकि वर्गीकरण केवल 'लिंग' के आधार पर नहीं, बल्कि समाज में स्त्रियों की विशेष स्थिति के आधार पर किया गया था। इस कानून में अब परिवर्तन कर दिया गया है। संशोधित दण्डविधि के अनुसार अब स्त्री को भी समान दण्ड दिया जायगा यदि वह अपराध को उकसाने में हिस्सा लेती है।         इसी प्रकार बच्चों के लिये भी विशेष उपबन्ध किये जा सकते हैं, जैसे बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा या उनके शोषण से संरक्षण के उद्देश्य से बनाये प्रावधान अनु० 15 (1) के अनुकूल होंगे। किन्तु यह ध्यान रहे कि अनु० 15 (3) स्त्रियों और बालकों के कल्याण के लिए केवल विशेष प्रावधान बनाने की अनुमति देता है, प्रत्येक बात में पुरुषों के समान सुविधा देने का उपबन्ध नहीं करता है। देखिये - अंजनराय राय बनाम सेक्रेटरी वेस्ट बंगाल राज्य का निर्णय।

अनु० 15 (4) सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिये विशेष प्रावधान | इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड 2 की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्ही वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवृत नहीं करेगी

        अनुच्छेद 15 (4), अनु० 15 (1) और (2) के सामान्य नियम का दूसरा अपवाद है। यह खंड संविधान में संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा जोड़ा गया है। यह संशोधन मद्रास राज्य बनाम चम्पाकम दोराई राजन के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के परिणाम स्वरूप जोड़ा गया था। इस मामले में मद्रास सरकार ने एक साम्प्रदायिक राजाज्ञा जारी करके राज्य के मेडिकल और इन्जीनियरिंग कालेजों में विभिन्न जातियों और समुदायों के विद्यार्थियों के लिए कुछ स्थानों का निश्चित अनुपात नियत किया था। स्थानों का आरक्षण धर्म, वर्ण और जाति पर आधारित था, क्योंकि ब्राह्मणों के लिए कुछ ही स्थान थे जिनके पूरे होने के कारण इस के योग्यतम विद्यार्थियों को भी प्रवेश नहीं मिल सकता था, जब कि दूसरे समुदाय के अपेक्षा- समुदाय कृत कम योग्यता रखने वाले विद्यार्थियों को स्वतः प्रवेश मिल जाता था। सरकार ने उक्त कानून को इस आधार पर न्यायोचित बताया कि इसका उद्देश्य जनता के सभी वर्गों के लिये सामाजिक न्याय प्रदान करना था, जैसा कि राज्य के नीति-निदेशक तत्वों के अनु० 45 के अन्तर्गत अपेक्षित है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि राजाज्ञा असंवैधानिक है, क्योंकि इसमें किया गया वर्गीकरण धर्म, मूलवंश और जाति के आधार पर किया गया था, विद्यार्थियों की योग्यता पर नहीं। राज्य के नीति-निदेशक तत्व नागरिकों के मूल अधिकारों पर प्रभावी नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार बम्बई उच्च न्यायालय ने एक मामले में राज्य द्वारा हरिजन कालोनी बनाने के लिए भूमि के अधिग्रहण को अनु० 15 (1) के अन्तर्गत शून्य घोषित कर दिया।

        इन दो निर्णयों के प्रभाव को दूर करने के लिए संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 द्वारा अनु० 15 संशोधित किया गया। अनु० 15 (4) के अन्तर्गत राज्य किन्हीं सामाजिक तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों एवं अनुसूचित जातियों और आदिवासियों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान कर सकती है।

        ध्यान रहे कि खंड (4) केवल राज्य को उक्त वर्गों के लिए उपबन्ध करने के लिए सक्षम बनाता है, न कि उस पर विशेष कार्यों को करने के लिए कोई दायित्व आरोपित करता है। यह राज्य को केवल विवेकीय शक्ति प्रदान करता है, अर्थात् यदि राज्य उचित समझे तो पिछड़े वर्गों के नागरिकों के लिए विशेष प्रावधान बना सकता है बशर्ते कि वह विशेष वर्ग सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ हो। प्रश्न समाज का कौन-सा वर्ग उक्त श्रेणी के अन्तर्गत आता है ? सामाजिक और शैक्षिक पिछड़े वर्ग करने की शक्ति राज्य को है, किन्तु इस मामले में राज्य का निर्णय अंतिम नहीं है। उचित मामलों में न्यायालय को हस्तक्षेप करने और इस प्रयोजन के लिए राज्य द्वारा निर्धारित मापदण्डों के जाँचने की पूर्ण शक्ति प्राप्त है। पिछड़े' और 'अधिक पिछड़े वर्ग' में वर्गीकरण असंवैधानिक है:         बालाजी बनाम मैसूर राज्य के मामले में सरकार ने अनु० 15 (4) के अन्तर्गत मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों में प्रवेश हेतु पिछड़े वर्गों के लिए स्थानों का आरक्षण किया था जो इस प्रकार था : पिछड़े वर्गों के लिए 28 प्रतिशत, अधिक पिछड़े वर्गों के लिए 22 प्रतिशत, अनुसूचित जातियों और आदिवासियों के लिए 18 प्रतिशत । इस प्रकार कुल मिलाकर 68 प्रतिशत स्थान उपर्युक्त वर्गों के लिए आरक्षित थे। कुछ योग्यतम प्रत्याशियों ने उक्त राजाज्ञा की वैधता को चुनौती दी क्योंकि उसके अनुसार कम अंक पाने वाले पिछड़े वर्ग के प्रत्याशियों को स्वतः प्रवेश मिल जाता था, जब कि अधिकतम अंक प्राप्त करने के पश्चात् भी इस राजाज्ञा के कारण उन्हें प्रवेश नहीं मिल पाता था। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि 'पिछड़े वर्गों' और 'अधिक पिछड़े वर्गों' के बीच किया गया उप-वर्गीकरण अनु० 15 (4) के अन्तर्गत न्यायोचित नहीं माना जा सकता है। अनु० 15 (4) सामाजिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से पिछड़ेपन की परिकल्पना करता है, न कि केवल सामाजिक या केवल आर्थिक। कोई विशेष वर्ग पिछड़ा वर्ग है या नहीं, इनके निर्धारण के लिए व्यक्ति की जाति ही एक मात्र कसौटी नहीं हो सकती है। गरीबी, पेशा और निवास स्थान आदि बातों पर भी विचार किया जाना चाहिए। प्रस्तुत राजाज्ञा में किसी वर्ग के पिछड़ेपन को निर्धारित करने के लिए केवल जाति को आधार बनाया गया है। मैसूर राज्य द्वारा अपनाये गये तरीके के परिणामस्वरूप पिछड़े वर्गों की सूची में उन सभी जातियों और समुदायों को सम्मिलित किया गया था जिनके विद्यार्थियों की संख्या का औसत प्रति हजार सरकारी औसत से कुछ ही ऊपर या उसके लगभग था। इस व्यवस्था का मुख्य दोष यह था कि इसके अन्तर्गत पिछड़े वर्गों की सूची में राज्य की 90 प्रतिशत जनसंख्या सम्मिलित हो गयी थी और इससे भी विचित्र बात यह थी कि इसमें से 68 प्रतिशत स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित कर दिये गये थे।         उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि इस प्रकार राज्य की जनसंख्या के अधिकतम भाग को पिछड़े वर्गों में शामिल करना न्यायोचित नहीं है और यह अनु० 15 (4) का सरासर अतिक्रमण करता है। शिक्षण संस्थाओं में पिछड़े वर्गों के लिए 68 प्रतिशत स्थान आरक्षित करना संविधान के साथ कपट ( fraud ) करने के समान है। अनुच्छेद 15 (4) पिछड़े वर्गों के लिए केवल विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति देता है, किन्तु उनके लिए अनन्य रूप से प्रावधान बनाने की शक्ति नहीं देता। राज्य द्वारा पिछड़े वर्गों की उन्नति करने के उत्साह में समाज के शेष वर्गों की उन्नति की उपेक्षा करना न्यायोचित नहीं। यदि योग्य और कुशल विद्यार्थियों को उच्चतम शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश पाने से वंचित किया जायेगा तो राष्ट्रपति हित की क्षति होगी। न्यायालय ने यह कहा कि इस प्रकार के विशेष प्रावधान राज्य की कुल जनसंख्या 50 प्रतिशत से अधिक लोगों के लिए नहीं होना चाहिए।         जनार्दन सुब्बाराया बनाम मैसूर राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि बालाजी के मुकदमे में दिया गया निर्णय केवल सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिये गये आरक्षणों को लागू होता है, अतएव मैसूर सरकार की राजाज्ञा द्वारा अनुसूचित और आदिवासियों के लिए किया गया आरक्षण उस निर्णय से प्रभावित नहीं है।         आन्ध्र प्रदेश बनाम यू० एस० वी० दलराम' के मामले में आन्ध्र प्रदेश सरकार ने एक आदेश द्वारा सरकारी मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए नियम बनाये। इन नियमों के अधीन मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए एक प्रतियोगी परीक्षा का प्रावधान किया गया। इसमें बैठने के लिए यह अनिवार्य था कि अभ्यर्थी या तो प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स पास हो या हायर सेकेंडरी कोर्स। प्रतियोगी परीक्षा में प्रवेश उच्चतम अंक पाने वाले व्यक्तियों को योग्यतानुसार दिया जाना था। 40 प्रतिशत स्थान हायर सेकेंड्री कोर्स पास अभ्यर्थियों के लिए आरक्षित थे। सरकार ने एक दूसरे आदेश द्वारा 25 प्रतिशत स्थान पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थियों के लिए आरक्षित कर दिया। पिछड़े वर्गों की सूची बँकवर्ड क्लासेज कमीशन की रिपोर्ट पर आधारित थी। प्रत्यर्थी ने, जो प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स पास था, अभ्यर्थियों के बीच उन योग्यताओं (प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स और हायर सेकेंडरी कोर्स) के आधार पर किये गये वर्गीकरण पर हायर सेकेंडरी कोर्स के लिए 40 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने पर तथा पिछड़े वर्गों के लिए 25 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने पर आपत्ति की। उसका कहना था कि उक्त नियम अनु० 14 का अतिक्रमण करते हैं। उसने दलील दी कि उसने प्रतियोगी परीक्षा में हायर सेकेंडरी कोर्स पास अभ्यर्थी से कहीं अधिक अंक प्राप्त किये हैं, फिर भी उसे प्रवेश नहीं मिल रहा है।         न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जब प्रवेश के लिए आधार प्रतियोगी परीक्षा बनाई गयी थी तो परीक्षा के लिए पात्र होने के लिए विहित शैक्षिक योग्यताओं के बीच अन्तर करना और उनमें से किसी वर्ग में आने वाले लोगों के लिए स्थानों का आरक्षण किसी भी दृष्टि से न्यायोचित नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसे आरक्षण का परिणाम यह होगा कि एक वर्ग को (प्री-यूनिवर्सटी कोर्स पास विद्यार्थी) को उस दशा में भी प्रवेश प्राप्त न हो सकेगा जब कि उसके अंक द्वितीय वर्ग (हायर सेकेंडरी कोर्स पास विद्यार्थी) के अभ्यर्थी से अधिक हों। अतः प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स और हायर सेकेंडरी कोर्स के आधार पर अभ्यिर्थयों का वर्गीकरण मनमाना वर्गीकरण है क्योंकि इन दो प्रकार के अभ्यर्थियों के बीच किया गया अन्तर किसी भी दृष्टि के नियम के उद्देश्य (मेडिकल कालेज के लिए योग्यतम व्यक्तियों का चयन) से युक्तियुक्त सम्बन्ध नहीं रखता है। उक्त नियम अनु० 14 का अतिक्रमण करते हैं, अतः असंवैधानिक हैं।         पिछड़े वर्गों के 25 प्रतिशत आरक्षण के बारे में न्यायालय ने कहा कि उस आदेश को अनु० 15 (4) का संरक्षण प्राप्त है। पिछड़े वर्गों की ऐसी सूची तैयार करने की शक्ति सरकार को है जिसके लिए वह आधार निश्चित करेगी। किन्तु जाति को आधार बनाने के लिए व्यक्तियों के आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक, निवास, उपजीविका आदि के स्तर को आधार बनाना सरकार के लिए अधिक श्रेयस्कर है। विचारणीय मुख्य प्रश्न यह है कि सरकार ने उक्त सूची किन-किन बातों को ध्यान में रखकर बनाई है। सम्बन्धित व्यक्तियों की वर्गों की रूढ़ियों, समाज के अन्य वर्गों से उसका सम्बन्ध, उनकी सभी प्रकार की समस्याओं को ध्यान में रखकर तैयार की गई सूची निश्चय ही एक युक्तियुक्त सूची मानी जायेगी। प्रस्तुत मामले में जो सरकारी आदेश निकाला गया है, वह बँकवर्ड क्लासेज कमीशन की रिपोर्ट पर आधारित है। उसने राज्य के सभी जिलों का दौरा किया है, विभिन्न जातियों के प्रतिनिधियों को साथ लिया है। उनके निवास स्थान पर जाकर उनसे जानकारी प्राप्त की है। निवास की समस्याओं पर ध्यान दिया है। उनके रहन-सहन के स्तर का विश्लेषण किया है। समाज में उनके बारे में अन्वेषण किया है। शिक्षण-संस्थाओं में उनकी संख्या तथा तत्सम्बन्धी आँकड़े प्राप्त करके उनके शैक्षिक स्तर के बारे में जानकारी प्राप्त की है और उनकी रूढ़ियों आदि को भी ध्यान में लिया है। इन सबसे प्रकट होता है कि आयोग की रिपोर्ट विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है जिसे युक्तियुक्त एवं विश्वसनीय माना जाना चाहिए। प्रस्तुत मामले में सरकार द्वारा तैयार की गई सूची आयोग की कुशल रिपोर्ट पर आधारित है, अतः विधिमान्य है और उसे अनु० 15 (4) का संरक्षण प्राप्त है।         जहाँ तक आरक्षण की सीमा का प्रश्न है, यह सुस्थिर सिद्धान्त है कि आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। चूंकि प्रस्तुत मामले में आरक्षण कुल 43 प्रतिशत है, अतः युक्तियुक्त एवं न्यायोचित है। उच्चतम न्यायालय ने यह अवलोकन किया है कि यद्यपि किसी वर्ग या समुदाय को केवल जाति के आधार पर पिछड़ा वर्ग नहीं माना जा सकता है तथापि यदि सम्पूर्ण जाति ही सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी हुई पायी जाती है तो ऐसी जाति को उसके नाम से ही पिछड़े वर्गों की सूची में सम्मिलित किया जा सकता है और ऐसा करने से अनुच्छेद 15 (4) का अतिक्रमण नहीं होगा क्योंकि स्वयं जाति भी नागरिक का एक वर्ग है। ऐसी जाति के लिए अनु० 15 (4) के अधीन आरक्षण सांविधानिक होगा। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि यदि एक जाति को एक बार पिछड़े वर्गों की सूची में सम्मिलित कर लिया गया है तो वह सर्वदा उस सूची में बनी रहेगी। न्यायालय ने यह सलाह दी कि सरकार को इस बात पर समय-समय पर विचार करते रहना चाहिए और यदि सरकार यह समझती है कि कोई जाति, जिसे पिछड़े वर्गों की सूची में सम्मिलित किया गया था, उन्नति के ऐसे स्तर पर पहुँच गयी है जिसके आधार पर यह माना जा सकता है कि उसे सांविधानिक संरक्षण की आवश्यकता नहीं है; तो सरकार को पिछड़े वर्गों की सूची का समुचित पुनर्विलोकन करना चाहिए और उस जाति को उस सूची से निकाल देना चाहिये। इस मामले में सरकार द्वारा लिया गया निर्णय एक वाद योग्य विषय होगा।         उत्तर प्रदेश राज्य बनाम प्रदीप टण्डन' के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार ने एक सरकारी राजाज्ञा द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों, पहाड़ी क्षेत्रों और उत्तराखंड क्षेत्रों के अभ्यर्थियों के लिए प्रदेश के मेडिकल कालेजों में दाखिले के लिए स्थानों का आरक्षण किया। सरकार की ओर से दलील दी गयी कि इन क्षेत्रों के लोग सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं, अतः यह आरक्षण आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ग्रामीण क्षेत्रों के अभ्यर्थियों के लिए मेडिकल कालेज में प्रवेश हेतु स्थानों का आरक्षण असंवैधानिक है, किन्तु पहाड़ी और उत्तराखंड के अभ्यर्थियों के लिए पदों का आरक्षण विधिमान्य है। ग्रामीण क्षेत्रों के आरक्षण को सामाजिक शैक्षिक पिछड़े वर्ग के आधार पर मान्य नहीं ठहराया जा सकता है। आरक्षण राज्य की जनसंख्या के बहुमत के लिये किया जाता है। राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों की 80 प्रतिशत जनसंख्या एक सजातीय वर्ग नहीं हो सकती है। वे एक प्रकार के लोग नहीं हैं । उनके पेशे विभिन्न हैं। उनका जीवन-स्तर विभिन्न है। जनसंख्या को स्वयं एक वर्ग नहीं माना जा सकता है। गाँवों में रहने से कोई एक वर्ग का नहीं हो जाता है। गाँवों में डाक्टरों की विशेष आवश्यकता होना वहाँ के लोगों को सामाजिक एवं आर्थिक पिछड़े वर्गों के नागरिक नहीं बना देता है। ग्रामीण क्षेत्रों की गरीबी भी उनके वर्गीकरण का आधार नहीं हो सकती है जिसके आधार पर उनके लिए स्थानों का आरक्षण किया जा सकता हो। गरीबी तो सारे भारतवर्ष में है।         पहाड़ी एवं उत्तराखंड के अभ्यर्थियों के आरक्षण को विधिमान्य बताते हुए न्यायालय ने कहा कि इन क्षेत्रों के नागरिक सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं। पिछड़ेपन को आर्थिकआधार पर जांचा जाना चाहिये कि प्रत्येक भाग को कितने मनुष्यों को सम्भावित रूप से भरण- पोषण करने की क्षमता है। उनका जीवन-स्तर क्या है और उनकी सम्पत्ति की सीमा क्या है। आर्थिक दृष्टि से ऐसे लोगों को एक पिछड़ा वर्ग माना जायेगा यदि वे उपलब्ध साधनों का प्रभावी ढंग से उपयोग नहीं कर पाते हैं। जहाँ काफी भूमि खाली पड़ी है, अव्यवस्थित है, लोग अनपढ़ हैं और जिनके पास नाममात्र की सम्पत्ति है, यह सब सामाजिक पिछड़ेपन की निशानी है। आवागमन और तकनीकी प्रक्रिया के उपलब्ध न होने से इन क्षेत्रों में प्रभावी विशेषज्ञता सम्भव नहीं है। यहाँ लोग सामाजिक रूप से पिछड़े हैं। पहाड़ी और उत्तराखंड के लोग शैक्षिक रूप से भी पिछड़े वर्ग के नागरिक हैं क्योंकि शैक्षिक सुविधाओं के न होने से उनके विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है और न तो उन्हें शिक्षा के अर्थ और महत्व का ज्ञान होता है और न उसके प्रति वे जागरूक ही रहते हैं। जहाँ सामाजिक परिवेश या पेशे सम्बन्धी बाधाओं के कारण लोगों में शिक्षा के प्रति परम्परागत उदासीनता है। यह एक शैक्षिक पिछड़ेपन का उदाहरण है। पहाड़ी और उत्तराखंड क्षेत्र दुर्गम क्षेत्र हैं। उनमें शिक्षण संस्थाओं की कमी है।         कुमारी के० एस० जयश्री बनाम केरल राज्य के मामले में पिटीशनर केरल राज्य में इजहावा समुदाय की थी। यद्यपि वह आरक्षणों की कोटि के अन्तर्गत आती थी तथापि उसे इस आधार पर स्थानीय मेडिकल कालेज में प्रवेश पाने नहीं दिया गया कि उसके कुटुम्ब की आय विहित सीमा से अधिक थी। राज्य सरकार द्वारा यह सीमा उस आयोग की सिफारिश के आधार पर विहित की गई थी जो कि सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों के लिए शिक्षण संस्थानों के आरक्षण का अवधारण करने के लिए नियुक्त किया गया था। आयोग इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि आरक्षण की वर्तमान पद्धति का फायदा मुख्य रूप से केवल जाति या समुदाय के आधार पर ही था और इसका लाभ धनाढ्य लोगों को मिल रहा था, न कि निर्धन लोगों को। अतएव आयोग ने यह सुझाव दिया कि वर्गीकरण के लिये साधन एवं जाति या समुदाय की कसौटी अपनाई जानी चाहिये जिससे निर्धन और योग्य व्यक्तियों को शामिल किया जा सके। आयोग ने इस दृष्टि से आय के स्तर को आधार माना और यह निष्कर्ष निकाला कि जिनकी आय सभी स्रोतों से 10,000 रुपये से कम है वे सामाजिक एवं शिक्षात्मक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्ग में आते हैं। पिटीशनर के कुटुम्ब की आय 10,000 रुपये से अधिक थी, अतएव उसका नाम मेडिकल कालेज में प्रवेश के लिए अपवर्जित कर दिया गया।         उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि आय के आधार पर पिटीशनर के अपवर्जन से अनुच्छेद 15 का अतिक्रमण नहीं होता है। अनुच्छेद 15 (4) के अधीन पिछड़ापन सामाजिक एवं शिक्षात्मक होना चाहिये। किसी नागरिक वर्ग के सामाजिक पिछड़ेपन को अभिनिश्चित करने के लिए किसी नागरिक की जाति मुख्य कसौटी नहीं हो सकती है। जिस प्रकार कोई जाति एकमात्र अथवा मुख्य कसोटी नहीं होती, उसी प्रकार सामाजिक पिछड़ेपन के लिए निर्धनता निश्चयात्मक और अवधारक तत्व नहीं होती है। सामाजिक पिछड़ापन काफी हद तक निर्धनता का परिणाम होता है। निर्धनता के परिणामस्वरूप होने वाले सामाजिक पिछड़ेपन के बारे में सम्भाव्य है कि वह उनकी जाति के कारण और तीव्र बन जाये। इससे यह दर्शित होता है कि नागरिकों के पिछड़ेपन का अवधारण करने में जाति और निर्धनता दोनों ही सुसंगत हैं। निर्धनता स्वयं सामाजिक पिछड़ेपन का अवधारक तत्व नहीं है। निर्धनता सामाजिक पिछड़ेपन के सन्दर्भ में सुसंगत होती है। सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछड़े वर्ग का निर्धारण कोई आसान बात नहीं है।         इसका अवधारण राज्य का काम है। न्यायालय की अधिकारिता इस बात का विनिश्चय करने से सम्बन्धित है कि क्या लागू की गई कसौटियाँ विधिमान्य हैं। यदि यह दिखाई देता है कि जो कसौटियाँ लागू की गई हैं, वे उचित और विधिमान्य हैं तो इन कसौटियों के आधार पर सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों का वर्गीकरण अनुच्छेद 15 (4) की अपेक्षाओं के अनुकूल होगा।         मध्य प्रदेश राज्य बनाम निवेदिता जैन' (1981) का मामला उच्चतम न्यायालय के अनु० 15 (4) पर आधुनिकतम और एक महत्वपूर्ण मामला है। इस मामले में न्यायालय ने राज्य सरकार के एक कार्यपालिक आदेश को विधिमान्य घोषित किया है जिसके अधीन राज्य के प्री-मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए मेडिकल परीक्षा में अनुसूचित जाति और अनु- सूचित जनजाति के अभ्यर्थियों के लिए अर्हता अंक सम्बन्धी शर्तों को पूर्णरूप से समाप्त कर दिया गया था। राज्य के 6 मेडिकल कालेजों में MBBS कोर्स के लिए कुल स्थान 720 थे जिसमें से 15 स्थान अनुसूचित जाति/अनु० जनजाति के लिए आरक्षित थे। विनियम 20 के अधीन प्रवेश के लिए न्यूनतम अर्हता अंक 50% कुल अंक का और 33% प्रत्येक विषय में विहित किया गया था। किन्तु अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों के लिये यह केवल 40% और 30% ही विहित किये गये थे। विनियम के अधीन राज्य सरकार को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अभ्यिर्थयों के लिए न्यूनतम अर्हता अंक में छूट देने की शक्ति प्राप्त थी। प्रवेश परीक्षा में कुल 9400 छात्र शामिल हुए जिनमें से 623 अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के छात्र थे। प्रवेश परीक्षा के आधार पर अनुसूचित जाति के 108 में से केवल 18 और अनुसूचित जनजाति के 108 में से केवल 2 छात्र न्यूनतम अर्हता अंक पाकर उत्तीर्ण हुए। इसके पश्चात् परीक्षा समिति ने इन वर्गों के लिए अर्हता अंक में 5% की छूट प्रदान की। इस छूट के बावजूद अनुसूचित जाति के केवल 25 और अनुसूचित जनजाति के केवल 3 स्थान भरे जा सके। इस दूसरी बार छूट के बावजूद में इन वर्गों के लिए आरक्षित स्थानों में से काफी स्थान रिक्त रह गये। तत्पश्चात् राज्य सरकार ने प्रश्नास्पद कार्यपालिक आदेश जारी करके इन दो वर्गों के लिए न्यूनतम अर्हता अंक की शर्त को बिल्कुल समाप्त कर दिया। राज्य के उच्च न्यायालय ने अनु० 15 (4) के अतिक्रमण करने के आधार पर इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया। किन्तु अपील में उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया और कार्यपालिक आदेश द्वारा न्यूनतम अर्हता अंक प्राप्त करने की शर्त को घटाने के आदेश को संवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि मेडिकल परिषद् का विनियम 2 जो न्यूनतम अर्हता अंक की शर्त विहित करता है, वह आदेशात्मक नहीं वरन् केवल निदेशात्मक है अतः कार्यपालिक आदेश उसका अतिक्रमण नहीं करता है और इस अर्हता को बदला जा सकता है। अनु० 15 (4) के अधीन राज्य का सांविधानिक दायित्व है कि वह इन वर्गों की उन्नति के लिए हर सम्भव प्रयास करे और वह मेडिकल कालेजों और अन्य टेकनिकल शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश के लिए स्थानों का आरक्षण कर सकती है। राज्य आरक्षण को प्रभावी बनाने के लिए शर्तें लगा सकती है। विशेष परिस्थितियों में यदि आरक्षण को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक हो तो राज्य सरकार प्रवेश सम्बन्धी अर्हता और शर्तों में यथोचित परिवर्तन कर सकती है। विनियम 20 के अधीन राज्य को न्यूनतम अर्हता अंक में आवश्यकतानुसार छूट प्रदान करने की शक्ति प्राप्त है। इस प्रकार सरकार द्वारा इन वर्गों के अभ्यर्थियों को न्यूनतम अर्हता अंक की शर्त में पूर्ण छूट देना अयुक्तियुक्त नहीं है और इससे अनु० 15 (4) का उल्लंघन नहीं होता है। उच्चतम न्यायालय ने बिहार उच्च न्यायालय द्वारा अमलेन्दु कुमार बनाम बिहार राज्य के निर्णय को उलट दिया जिसमें यह निर्णय दिया गया था कि उक्त वर्ग के लोगों के लिए अर्हता अंक को कार्यपालिक आदेश से कम करना असंवैधानिक है और वह अनु० 15 (4) का अतिक्रमण करता है। क्या ऐसे माता-पिता से उत्पन्न व्यक्ति जो पहले अनुसूचित जाति के थे किन्तु बाद में ईसाई धर्म में संपरिवर्तित हो गये थे, द्वारा पुनः संपरिवर्तित करके अनुसूचित जाति का सदस्य बन जाने पर धारा 15 और 29 के अधीन मेडिकल कालेज में प्रवेश के लिए पदों के आरक्षण का दावा किया जा सकता है ?         यह प्रश्न प्रधानाचार्य गुण्टूर मेडिकल कालेज बनाम वाई मोहन राव" के मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष उठाया गया था। इस मामले में प्रत्यर्थी के माता-पिता प्रारम्भ से अनुसूचित जाति के थे। वे दोनों किसी समय ईसाई धर्म में संपरिवर्तित हो गये थे। प्रत्यर्थी अपने माता-पिता के सम्परिवर्तन के पश्चात् पैदा हुआ था। आन्ध्र प्रदेश राज्य में मेडिकल कालेज में प्रवेश के प्रयोजन के लिए ईसाई धर्म में संपरिवर्तित जाने वालों को पिछड़ी जाति का माना जाता है। प्रत्यर्थी ने प्रवेश के लिए दिये आवेदन में अपने को पिछड़े वर्ग का सदस्य उल्लिखित किया। किन्तु वह प्रवेश पाने में सफल न हो सका। तत्पश्चात् वह हिन्दू धर्म में संपरिवर्तित हो गया और "हिन्दू धर्म की अनुसूचित जाति में उसे पुनः स्वीकार कर लिया गया था।" पर उसने मेडिकल कालेज में प्रवेश के लिए इस आधार पर आवेदन किया कि वह अनुसूचित जाति गुण्टूर का सदस्य था। उसका चयन कर लिया गया। किन्तु बाद में कालेज के प्रधानाचार्य द्वारा उसके चयन को इस आधार पर रद्द कर दिया गया कि वह जन्म से हिन्दू नहीं था। प्रधानाचार्य ने इसके लिए आन्ध्र सरकार के एक आदेश का अवलम्बन किया। प्रत्यर्थी ने अपने प्रवेश को रद्द करने की विधिमान्यता को न्यायालय में चुनौती दी।         उच्चतम न्यायालय ने प्रत्यर्थी के पिटीशन को स्वीकार करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि जब किसी जाति के सदस्य, जिस जाति से उस व्यक्ति के माता-पिता ईसाई धर्म में संपरिवर्तित हुए थे, उस व्यक्ति को पुनः उस जाति के सदस्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं तो वह पुन: उस जाति का सदस्य बन जाता है, और उस जाति का सदस्य होने के नाते जो कि अनुसूचित है; वह मेडिकल कालेज में पदों के आरक्षण के लिए दावा कर सकता है। इस बात का विनिश्चय करना उस जाति के सदस्यों का काम है कि वे उस जाति के अन्तर्गत उस व्यक्ति को स्वीकार करते हैं अथवा नहीं। चूँकि जाति व्यक्तियों का एक सामाजिक संगठन है जो कि उनके रीति-रिवाजों में शासित होता है, अतः वे यदि उनके रीति-रिवाजों में यह व्यवस्था हो, तो उसी प्रकार से किसी नए सदस्य को सम्मिलित कर सकते हैं जिस प्रकार वे किसी विद्यमान सदस्य का बहिष्कार कर सकते हैं। अतएव आन्ध्र प्रदेश सरकार द्वारा प्रवेश पाने के लिये जारी किए गये नियम में यह उपबन्ध कि अनुसूचित जाति का सदस्य होने के लिए जन्म से हिन्दू या सिक्ख होना चाहिए, अवैध हैं क्योंकि आदेश के खण्ड 3 के अनुसार किसी व्यक्ति को अनुसूचित जाति का सदस्य होने के लिए जन्म से हिन्दू या सिक्ख होना आवश्यक नहीं है, बल्कि सुसंगत समय पर हिन्दू या सिवख धर्म का मानने वाला होना चाहिए।         जगदीश सरन बनाम भारत संघ' के मामले में प्रत्यर्थी मद्रास विश्वविद्यालय का एक मेडिकल स्नातक था। उसके पिता का स्थानान्तरण दिल्ली हो गया। प्रत्यर्थी ने चर्म-चिकित्सा में स्नातकोत्तर डिग्री के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए आवेदन किया। प्रवेश परीक्षा में प्रत्यर्थी को प्रवेश के लिए पर्याप्त अंक मिले किन्तु फिर भी उसे इसलिए प्रवेश नहीं मिला क्योंकि एक नियम के अधीन 60% प्रतिशत स्थान दिल्ली के स्नातकों के लिए आरक्षित कर दिये गये थे। 35% प्रतिशत स्थान सामान्य प्रत्यर्थियों के लिए, जिसमें दिल्ली भी शामिल था, प्रत्यर्थी ने उक्त नियम की विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती दी कि इससे अनु० 14 और 15 का अतिक्रमण होता था। रेस्पान्डेण्ट की ओर से उक्त नियम को दो आधारों पर उचित बताया गया। प्रथम यह कि अन्य विश्वविद्यालय भी ऐसी नीति का अनुसरण करते हैं और दूसरे यह कि छात्रों के आन्दोलन के कारण ऐसा करना पड़ा। न्यायालय ने सर्वसम्मति से यह निर्णय दिया कि किसी विशेष विश्वविद्यालय में उसी के छात्रों के लिए प्रवेश के लिए स्थानों का आरक्षण अनु० 15 का अतिक्रमण करता है। संस्थागत आरक्षण शिक्षात्मक एवं सामाजिक तथ्यों पर आधारित होना चाहिये। राजनैतिक उद्देश्य के आधार पर नहीं। दिल्ली शिक्षात्मक या आर्थिक दृष्टि से देश के अन्य भाग की अपेक्षा पिछड़ा क्षेत्र नहीं है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण योग्यता के आधार पर होना चाहिये। दिल्ली विश्वविद्यालय में चिकित्सा विज्ञान में स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए आरक्षण छात्रों के आन्दोलन के आधार पर नहीं किया जा सकता है। अतः 60% प्रतिशत का आरक्षण अत्यधिक होने के कारण असंवैधानिक है। न्यायालय ने कहा कि संस्थागत आरक्षण किया जा सकता है यदि किसी क्षेत्र विशेष में विशिष्ट परिस्थितियाँ विद्यमान हैं जैसे असन्तुलन दूर करना या पिछड़ापन आदि।         आरती बनाम जम्मू एण्ड काश्मीर' 1981 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के आधार पर सरकार के मेडिकल कालेजों में एम० बी० बी० एस० पाठ्यक्रम में प्रवेश के आरक्षण को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया कि वर्गीकरण अस्पष्ट और मनमाना है क्योंकि उन क्षेत्रों का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है जिनमें असन्तुलन है अतः वह अनु० 15 (4) का अतिक्रमण करता है। राज्य सरकार ने कुल 50 स्थानों में से 25% स्थान राज्य के विभिन्न भागों में व्याप्त क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के लिए आरक्षित कर दिया था। एक अधिसूचना जारी करके क्षेत्रीय असन्तुलन के सिद्धान्त को लागू करने के उद्देश्य से कुछ गाँवों का विवरण दिया गया था जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े थे। न्यायालय ने निर्णय दिया कि इन गांवों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े मानने के लिए कोई ठोस आधार नहीं था अतः इन गाँवों और अन्य गाँवों के बीच किया गया वर्गीकरण विभेदकारी और असंवैधानिक था।

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

Please do not enter any spam link in the comment box.