कोई भी वृत्ति, उपजीविका, व्यापार, पेशा, व्यवसाय, कारबार एवं वाणिज्य की स्वतन्त्रता | to practice any profession or to carry on any occupation, trade or business
अनुच्छेद 19 (1) (छ) सभी नागरिकों को कोई भी वृत्ति, उपजीविका, व्यापार, पेशा, व्यवसाय, कारबार एवं वाणिज्य करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है। इस अधिकार पर राज्य युक्तियुक्त निर्बन्धन लगा सकता है। खंड (6) के अधीन निम्नलिखित आधारों पर राज्य को निर्बन्धन लगाने की शक्ति प्राप्त है-
1- साधारण जनता के हित में,
2- विशेष प्रकार के व्यवसायों के लिए आवश्यक अर्हताएं निर्धारित कर,
3- नागरिकों को पूर्ण या आंशिक रूप में किसी भी व्यापार या व्यवसाय से बहिष्कृत करके।
व्यापार करने के अधिकार में व्यापार को बन्द कर देने का अधिकार भी शामिल है। राज्य किसी व्यक्ति को व्यापार करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता है। किन्तु अन्य अधिकारों की भाँति व्यापार को बन्द करने का अधिकार भी एक आत्यन्तिक अधिकार नहीं है और सार्वजनिक हित के लिये इसे निर्बन्धित विनियमित और नियन्त्रित किया जा सकता है। व्यापार प्रारम्भ करने का अधिकार व्यापार बन्द करने के अधिकार से अधिक महत्वपूर्ण अधिकार है। किसी व्यक्ति को किसी व्यापार के प्रारम्भ करने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता है। किन्तु यदि किसी व्यक्ति ने व्यापार प्रारम्भ कर दिया है तो उसे उसके बन्द करने का आत्यन्तिक अधिकार नहीं होता है। सार्वजनिक हित में उसे व्यापार को बन्द करने से रोका जा सकता है। उपर्युक्त सिद्धान्तों को इक्सेल वियर बनाम भारत के वाद में प्रतिपादित किया गया है। इस वाद में वादी एक रजिस्टर्ड फर्म थी जो निर्यात के लिये सिले हुए वस्त्रों को बनाती थी। गम्भीर श्रमिक विवाद के कारण फर्म का कारखाना घाटे में चल रहा था। वादी ने सरकार से कारखाने को बन्द करने की अनुमति माँगी जिसे सरकार ने श्रमिक विवाद अधिनियम की धारा 25 (O) और 25 (R) के अधीन इन्कार कर दिया। धारा 25 (O) अनुमति लेने का उपबन्ध करती है और 25 (R) धारा 25 (O) के उल्लंघन के लिये दण्ड का उपबन्ध करती है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि धारा 25 (O) पूर्णरूपेण और धारा 25 (R) का वह भाग जो दण्ड विहित करता है, असंवैधानिक है, क्योंकि यह अनु० 19 (1) (छ) का अतिक्रमण करती है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि कोई व्यक्ति अपने श्रमिकों को मजदूरी नहीं दे सकता तो उसे व्यापार करने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसी स्थिति में उसे कारबार बन्द कर देना चाहिये। किसी व्यक्ति को जो श्रमिकों की मजदूरी नहीं दे सकता उसे कारबार बन्द करने की अनुमति न देना अनु० 19 (6) के अधीन सार्वजनिक हित में युक्तियुक्त निर्बन्धन नहीं कहा जा सकता है। किन्तु हड़ताल और तालाबन्दी को रोकना एक अलग बात है। राज्य जनहित में, जिससे सार्वजनिक उपयोग की सेवायें चलती रहें, हड़ताल या तालाबन्दी करने पर प्रतिबन्ध लगा सकता है।
युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
इस अनुच्छेद के खंड (6) के अन्तर्गत राज्य पेशा, व्यवसाय और वाणिज्य के अधिकार पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगा सकता है। किन्तु शर्त यह है कि प्रतिबन्ध 1- युक्तियुक्त हों और 2- लोकहित में हों। लोकहित के आधार पर प्रतिबन्धों की युक्तियुक्तता का निर्धारण करने के लिये देश, काल, व्यवसाय की प्रकृति और उसमें मौजूद सभी तत्वों पर ध्यान देना आवश्यक है। यह स्पष्ट है कि प्रत्येक व्यवसाय में ये तत्व भिन्न-भिन्न होते हैं और ऐसे नियम नहीं बनाये जा सकते जो सभी व्यापारों में सामान्य रूप से लागू होते हों। अतः व्यापार पर लगाये गये प्रतिबन्ध के औचित्य पर विचार करते समय न्यायालयों को उक्त सभी बातों पर विचार करना चाहिये।"
अनुच्छेद 19 (1) (छ) किसी व्यक्ति को अवैध या अनैतिक पेशा करने का अधिकार नहीं प्रदान करता है। व्यवसाय का अर्थ है वैध व्यवसाय। अवैध व्यवसाय के सम्बन्ध में किसी व्यक्ति को कोई अधिकार नहीं प्राप्त है। सरकार को इस प्रकार के अवैध, अनैतिक या जनता के स्वास्थ्य और कल्याण को क्षति पहुँचाने वाले पेशा या व्यापार को करने से रोकने का अधिकार प्राप्त है। इस प्रकार खतरनाक वस्तुओं के व्यापार जैसे विषयुक्त दवाएँ, शस्त्र आदि; मिलावट वाले खाद्य पदार्थ, स्त्रियों का व्यापार आदि पर राज्य जनहित के आधार पर पूर्ण रोक लगा सकता है। ऐसे व्यापार जो अवैध नहीं हैं और जनता के स्वास्थ्य या नैतिकता को क्षति नहीं पहुँचाते, रोके नहीं जा सकते हैं। किन्तु उनको विनियमित किया जा सकता है और उनके बुरे प्रभावों को कम किया जा सकता है। कुछ व्यवसाय स्वभावतः शोर-गुल और खतरनाक प्रकृति के होते हैं, इसलिए उनके करने के स्थान, समय और ढंग को विनियमित करने की आवश्यकता होती है। किसी भी नागरिक को यह अधिकार नहीं हैं कि वह जिस स्थान पर चाहे अपना व्यापार करे या जिस प्रकार चाहे अपना व्यापार करे। यदि उसके कार्य से जनस्वास्थ्य को क्षति या किसी प्रकार की असुविधा होती है तो राज्य उस पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।
लखन लाल बनाम उड़ीसा राज्य के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मादक द्रव्यों में व्यापार या कारोबार करने का किसी व्यक्ति को कोई मूल अधिकार नहीं हैं। मादक पेय; जैसे शराब, गाँजा, भाँग आदि के व्यापार करने का राज्य को एकाधिकार प्राप्त है और वह जन- हित में नागरिकों को इस व्यापार से पूर्ण बहिष्कृत कर सकता है। शराब आदि के बनाने, रखने या बेचने का राज्य को एकाधिकार प्राप्त है। वह किसी व्यक्ति को इन पदार्थों के व्यापार करने के लिए लाइसेन्स ऐसी शर्तों या निर्बन्धनों के अधीन प्रदान कर सकता है जिसे वह लोकहित में उचित समझे। युक्तियुक्त निर्बंन्धन पूर्ण निषेध के रूप में भी हो सकते हैं। इस प्रकार राज्य ऐसे निर्बन्धन भी लगा सकता है जो किसी व्यापार या पेशा को करने पर पूर्ण रोक लगाते हों। 'निषेध' एक प्रकार का निर्बन्धन ही है। देखिये - नरेन्द्र कुमार बनाम भारत संघ का निर्णय।
युक्तियुक्त निर्बन्धन के कुछ उदाहरण:
1- कोई कानून जो सरकार को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह बस स्टैण्डों, सिनेमाघरों या शराब की दुकानों आदि को स्थापित करने के लिये एक निश्चित स्थान निर्धारित करे, एक उचित प्रतिबन्ध है।
2- न्यूनतम मजदूरी अधिनियम सरकार को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह किसी कारखाने में कार्य करने वाले मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी निर्धारित कर सके। विजय काटन मिल्स बनाम अजमेर राज्य' के वाद में उक्त अधिनियम पर यह आपत्ति उठायी गयी कि वह अनु० 19 (1) (छ) का उल्लंघन करता है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अधिनियम द्वारा लगाये गये प्रतिबन्ध युक्तियुक्त हैं, क्योंकि ये जनहित में लगाये गये हैं। ग्यायालय ने कहा कि भारत एक अविकसित देश है जहाँ बेकारी की बड़ी गम्भीर समस्या वर्तमान है। ऐसी स्थिति में सम्भव है कि मजदूर ऐसी मजदूरी पर काम करने पर तैयार हो जायें जिनसे उनकी जीविका चलाना भी कठिन हो। अधिनियम का उद्देश्य है मजदूरों का नियोजकों द्वारा शोषण रोकना।
3- ऐसा कानून जो जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं का अधिकतम मूल्य निर्धारित करता है या उनके उत्पादन, विभाजन और विक्रय पर नियन्त्रण रखने का उपबन्ध करता है, व्यवसाय की स्वतन्त्रता पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध है। दि एसेन्शियल सप्लाईज ऐक्ट, 1946 और एसेन्शियल कमोडिटीज ऐक्ट के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार को उक्त अधिकार प्राप्त हैं। इन कानूनों का उद्देश्य यह है कि आवश्यक सामग्रियां सभी को समान रूप से और उचित मूल्य पर उपलब्ध हो सकें। उक्त सभी अधिनियमों को उच्चतम न्यायालय ने संवैधानिक घोषित किया है। देखिए -राजस्थान राज्य बनाम नाथमल तथा द्वारिका प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के निर्णयों को।
4- दी पंजाब ट्रेड इम्पलाईज ऐक्ट, 1949 यह उपबन्धित करता है कि राज्य की सभी दूकानें सप्ताह में एक दिन बन्द रहेंगी। एक दूकानदार ने इस अधिनियम पर आपत्ति किया और कहा कि वह उसके ऊपर लागू नहीं होता है, क्योंकि उसने अपनी दूकान में अन्य व्यक्तियों को नियोजित नहीं किया है और वह अपनी दूकान का काम स्वयं ही करता है। उच्चतम न्यायालय ने प्रार्थी की दलील को अस्वीकार करते हुए यह निर्णय दिया कि प्रतिबन्ध युक्तियुक्त है, क्योंकि वह जनहित में है। यह अधिनियम श्रमिकों के स्वास्थ्य और कार्य क्षमता को सुधारने के उद्देश्य से पारित किया गया है जो समाज के अभिन्न अंग हैं और जिनके कल्याण में समुदाय की पूर्ण दिलचस्पी रहती है। इस प्रकार सामाजिक नियन्त्रण की व्यवस्था केवल उन्हीं लोगों के हित में नहीं है जो दूकानों में नियोजित हैं, बल्कि उन लोगों के कल्याण के लिए भी है जो उसमें लगे हुए हैं, भले ही वे स्वयं मालिक ही क्यों न हों। देखिये -मनोहर लाल बनाम पंजाब राज्य का निर्णय। इसी प्रकार श्रमिकों की दशा सुधारने के उद्देश्य से यदि सरकार मिल मालिकों पर यह शर्त लगा देती है कि उन्हें मजदूरों को भविष्य में किये कार्य के लिए बोनस देना पड़ेगा तो यह जनहित में एक युक्तियुक्त प्रतिबन्ध होगा। देखिए- उत्तर प्रदेश राज्य बनाम बस्ती चीनी मिल का निर्णय।
5- यदि किसी व्यापार के लिए लाइसेन्स लेने के लिए कोई शर्त विहित की गई है तो यह एक युक्तियुक्त प्रतिबन्ध होगा, लेकिन शर्त को उचित होना चाहिये तथा ऐसा नहीं होना चाहिये जो लाइसेन्स देने वाले प्राधिकारी को मनमाने अधिकार प्रदान करता हो। लाइसेन्स या परमिट पाने के लिए शुल्क देना अयुक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि यह न तो कर है और न तो लाइसेन्स देने के लिए अयुक्तियुक्त शर्त। देखिये - राम बख्श चतुर्भुज बनाम राजस्थान राज्य' का निर्णय।
6- कोई भी नागरिक किसी व्यापार के सम्बन्ध में एकाधिकार का दावा नहीं कर सकता है। कुंवरजी बनाम इक्साइज कमिश्नर के वाद में एक कानून, जो कुछ लोगों को शराब बेचने का एकाधिकार प्रदान करता था, न्यायालय द्वारा अवैध घोषित किया गया है। न्यायालय ने कहा है कि नशीले द्रव्यों को बेचने का अधिकार सभी को नहीं प्रदान किया जा सकता है। जनहित यह अपेक्षा करता है कि इस प्रकार की वस्तुओं का व्यापार सीमित व्यक्तियों के ही हाथ में रहे।
7- 'युक्तियुक्त प्रतिबन्ध' में 'निषेध' भी सम्मिलित है। नान- फेरस मेटल आर्डर, 1958 (Non Ferrous Metal Order, 1958) के अन्तर्गत व्यापारियों को आयात की गयी कहवा (Coffee) के व्यापार से पूर्ण रूप से बहिष्कृत कर दिया गया था। नरेन्द्र कुमार बनाम भारत संघ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने इसे जनहित में एक युक्तियुक्त प्रतिबन्ध माना है। न्यायालय ने कहा कि 'निषेध' एक प्रकार का प्रतिबन्ध ही है, बशर्ते कि वह युक्तियुक्तता के मानदण्ड को पूरा करता हो।
8- श्री मीनाक्षी मिल्स बनाम भारत संघ के वाद में कॉटन टैक्सटाइल्स (कन्ट्रोल) आर्डर, 1948 की संवैधानिकता को चुनौती दी गयी थी। इस आदेश का मुख्य उद्देश्य सूत की उचित कीमत नियत करना तथा उसके उत्पादन और वितरण पर नियन्त्रण करना था। आदेश द्वारा यह निदेश दिया गया कि सूत का प्रत्येक उत्पादक उसमें वर्णित वितरण के केवल पाँच माध्यमों द्वारा ही सूत का विक्रय करेगा या परिदान करेगा। प्रत्येक व्यापारी अधिसूचना में विनिर्दिष्ट व्यक्तियों को ही ऐसे परिमाण में, जो जिलाधीश द्वारा अवधारित किया जाये, सूत बेचेगा या परिदत्त करेगा। विनिर्दिष्ट व्यक्ति हैं, प्रथम राज्य सरकार के नाम-निर्देशिती और द्वितीय अन्य व्यक्ति, जो वस्त्र आयुक्त द्वारा निर्दिष्ट किये जायें। पिटीशनरों ने यह दलील दी कि आदेश कुछ विनिर्दिष्ट व्यक्तियों के पक्ष में सूत के व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान करता है और अनु० 19 (1) (च) और (छ) में प्रदत्त उनके मूल अधिकार पर अयुक्तियुक्त निर्बन्धन लगाता है, अतः अवैध है।
उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि आदेश द्वारा लगाये गये निर्बन्धन युक्तियुक्त हैं और लोकहित में हैं। सूत के वितरण का माध्यमीकरण (चैनेलाइजेशन) युक्तियुक्त दरों या माल की उपलब्धता की समस्याओं को हल करने के लिए यह कीमत तथा वितरण नियंत्रण लगाये गये हैं। पिटीशनरों ने यह भी दलील दी थी कि दामों को मनमाने ढंग से नियत किया गया है और ऐसा सूत के उत्पादन की लागत में हुए परिवर्तन पर ध्यान दिये बिना किया गया है।
न्यायालय ने कहा कि केवल यह सुझाव कि उत्पादन की लागत में परिवर्तन होने के कारण समायोजन के लिए कोई उपबन्ध नहीं किया गया है, अनु० 19 में प्रदत्त अधिकार का अतिक्रमण करने की कोटि में नहीं आता है। ऐसा कोई कारण नहीं है जो यह दर्शित करे कि सूत की कीमतों में वृद्धि उत्पादन की लागत के कारण हुई थी। नियन्त्रित कीमत नियत करना उस तारीख को, जिसको नियत किया गया है, उत्पादन के लिये उचित कीमत नियत करने से कहीं अधिक है। नई कपास की फसल की कीमतें कीमत नियन्त्रण के समय ज्ञात नहीं हैं। यदि वे ज्ञात भी हो जायँ तो भी पिटीशनरों को सूत का उत्पादन करने में प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के मिश्रण के प्रति निर्देश से कपास की कीमतों का उस प्रवर्ग के सूत के उत्पादन की लागत पर प्रभाव को दर्शित करना होगा। इसके अतिरिक्त, यदि कपास की कीमतों में वृद्धि हो गई हो, तो भी पिटीशनर उसको आमेलित कर सकते हैं क्योंकि जो नियन्त्रित कीमत नियत की गई है, वह उत्पादक के लिए अधिक उचित है। यदि उसे कुछ समय के लिए अभिकथित हानि होती भी है तो यह एक युक्तियुक्त निर्बन्धन होगा, क्योंकि कीमत नियन्त्रण का उद्देश्य कीमत रेखा को बनाये रखना या कीमतों को सामान्य स्तर पर वापस ले आना है और सूती धागे को हथकरघा और पावरलूम बुनकरों के लिए उचित कीमत पर उपलब्ध कराना है जिससे कि वे मिल में निर्मित कपड़े के साथ प्रतियोगिता करने में सफल हो सकेँ। यहाँ यह नहीं दिखाया गया है कि नियन्त्रित कीमत इतनी अपर्याप्त है कि इससे न केवल अत्यधिक हानियाँ होती हैं, बल्कि सूत के प्रदाय की स्थिति के लिये भी भय उत्पन्न होता हैं। नियन्त्रित कीमत तो मूल आवश्यकताओं के न्यायोचित वितरण के लिए सम्पूर्ण देश के हित में है। नियन्त्रित कीमत न तो मनमानी है और न अनुचित निर्बन्धन ही है।
9- विष्णु दयाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में सरकार ने उत्तर प्रदेश कृषि उत्पादन मण्डी अधिनियम, 1964 के अधीन एक आदेश जारी करके पिटीशनरों के लिए यह आवश्यक बना दिया कि वे उत्पादकों को बाजार को जाने वाले कृषि उत्पादनों को रखने के लिए भंडार गृहों की सुविधा प्रदान करें। पिटीशनरों ने आदेश पर इस आधार पर आपत्ति उठाई कि यह उनके व्यापार करने के अधिकार पर अयुक्तियुक्त निर्बन्धन है, अतः अवैध है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उक्त निर्बन्धन युक्तियुक्त है, अतः वैध है। कृषि उत्पादनों की विक्रय की रीति विहित करना जिससे उत्पादकों को उनके उत्पादनों का उचित मूल्य मिल सके व्यापार के अधिकार पर अयुक्तियुक्त निर्बंन्धन नहीं है। नीलाम द्वारा मालों को बेचने की रीति विक्रय की सर्वविदित रीति है जिसके माध्यम से उत्पादक अपनी वस्तुओं के अधिकतम मूल्य प्राप्त कर सकते हैं जिनके हित की सुरक्षा के लिए अधिनियम पारित किया गया है।
10- चन्द्रकान्त माह बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने राइस मिलिंग इण्डस्ट्री (रेगुलेशन) ऐक्ट, 1958 की धारा 5 और 6 को जिसके अधीन वर्तमान राइस मिलों के मालिकों को धान कूटने के लिए नई मशीन लगाने के लिए लाइसेन्स लेना आवश्यक है, इस आधार पर विधिमान्य घोषित किया कि वह व्यापार और कारबार के अधिकार पर युक्तियुक्त निर्बंन्धन लगाता है। पिटीशनरों का अभिकथन था कि उपर्युक्त उपबन्ध उनके कारबार करने के अधिकार को नष्ट करते हैं क्योंकि लाइसेन्स प्राप्त किये बिना वे अपनी मिलों में धान कूटने की मशीन नहीं लगा सकते हैं। किन्तु न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उपर्युक्त उपबन्ध विनियमात्मक प्रकृति के हैं और सार्वजनिक हित में और अधिनियम के उद्देश्यों के लिए (अर्थात्, धान उगाने वालों के देशीय और हाथ से धान काटने के कारबार को सुरक्षित रखने के लिए, कारबार के अधिकार पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाते हैं। अधिनियम के अधीन लाइसेन्स प्रदान करने वाले अधिकारी को लाइसेन्स देने या न देने का विवेकाधिकार नहीं दिया गया है। यदि अधिनियम द्वारा विहित शर्तों का अनुपालन किया गया है तो धारा 6 (3) के अधीन वह लाइसेन्स देने के लिए बाध्य होगा। धारा 7 में उन आधारों का उल्लेख किया गया है जिन पर लाइसेन्सिंग अधिकारी किसी व्यक्ति के लाइसेन्स को रद्द या निलम्बित कर सकता है। इस प्रकार अधिनियम में लाइसेन्सिंग अधिकारी द्वारा अपनी शक्तियों के प्रयोग के लिए समुचित मार्गदर्शक सिद्धान्त निहित किये गये हैं, अतएव अधिनियम वैध है।खटकी अहमद बनाम लुण्डा नगरपालिका' के मामले में पिटीशनर ने नगरपालिका के एक उपनियम की वैधता को न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी कि वह उसके कारबार के आधार पर अयुक्तियुक्त निर्बन्धन लगाता है अतः अविधिमान्य है। उपर्युक्त उपविधि के अधीन नगरपालिका ने पिटीशनर को मांस बेचने की दूसरी दुकान खोलने के लिए लाइसेन्स देने से इन्कार कर दिया था क्योंकि उस क्षेत्र में पहले से ही तीन मांस के बेचने की दुकानें थीं जिनमें से एक पिटीशनर के पिता की दुकान थी। ऐसी दशा में उसी व्यक्ति को उसी छोटे से क्षेत्र में एक और दुकान खोलने की अनुमति देना उचित नहीं था। इसके अतिरिक्त उस क्षेत्र के लोगों में भी इसके लिये विरोध की भावना थी जिससे शान्ति व्यवस्था की समस्या उत्पन्न होने की आशंका थी। न्यायालय इन बातों की उपेक्षा नहीं कर सकता है। यह अभिनिर्धारित किया गया कि किसी व्यक्ति को किसी विशेष स्थान पर ही दुकान खोलने का कोई अधिकार नहीं है। इस बात का निर्णय करने का अधिकार कि किसी व्यक्ति को किसी विशेष स्थान पर मांस बेचने की दुकान खोलने का लाइसेन्स दिया जाये अथवा नहीं, नगरपालिका अधिकारियों को है क्योंकि वे क्षेत्रीय समस्याओं से पूर्णरूपेण अवगत हैं। नगरपालिका ने जिन आधारों पर पिटीशनर को लाइसेन्स देने से इन्कार किया है वे आधार अनुचित नहीं कहे जा सकते हैं और कारबार के अधिकार पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाते हैं। अतः उपर्युक्त उपविधि विधिमान्य एवं संवैधानिक है।
अयुक्तियुक्त निर्बन्धन के कुछ उदाहरण:
1- एक कानून सरकार को यह अधिकार देता था कि वह एक विशेष क्षेत्र के सभी लोगों को खेती के मौसम में बीड़ी बनाने का कार्य करने से रोक दे। उक्त कानून का उद्देश्य बीड़ी बनाने वाले क्षेत्र में खेती के कार्य के लिए पर्याप्त मजदूर सुलभ करना था। चिन्तामणि राव बनाम मध्य प्रदेश राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने उक्त अधिनियम को अवैध घोषित कर दिया, क्योंकि यह बीड़ी निर्माण व्यापार पर अयुक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाता है। यह खेती के मौसम में बीड़ी बनाने के अधिकार को पूर्ण रूप से निलम्बित कर देता है। निषेध की प्रकृति मनमाने ढंग की है जिसे विधान पूरा करना चाहता है। यह न केवल उन्हीं लोगों को दूसरे धन्धे करने से रोकता है जो खेती के कामों में लगे हुए हैं, बल्कि उन लोगों को भी बीड़ी के कारोबार करने से मना करता है जो खेती के कार्य से सम्बन्ध नहीं रखते, जैसे कमजोर, अपंग, व्यक्ति, बूढ़ी औरतें या बच्चे जो खेती के कार्य के लिये सक्षम नहीं हैं। ऐसे व्यक्तियों को बीड़ी का कारोबार करके अपने जीविकोपार्जन करने से रोकना जनहित के प्रतिकूल है। यह व्यापार की स्वतन्त्रता पर अयुक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाता है, अतः अवैध है।
2- कोई ऐसा कानून जो सरकार को या सरकारी प्राधिकारियों को बिना कोई कारण बताये या लाइसेन्सधारी को सुने जाने का बिना अवसर दिये लाइसेन्सों को अस्वीकार करने, रद्द करने, निलम्बित करने, संशोधन करने की शक्ति देता है; नागरिकों के व्यापार के अधिकार पर अयुक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाता है। द्वारका दास बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने दी यू० पी० कोल कण्ट्रोल आदेश, 1953 को इसी आधार पर अवैध घोषित कर दिया क्योंकि उसके अन्तर्गत लाइसेन्स देने वाले अधिकारी को अनियन्त्रित स्वविवेकीय शक्ति प्रदान की गई थी। (3) अवध सुगर मिल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ 2 के मामले में बाम्बे एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट ऐक्ट, 1939 की धारा 4-क की वैधता को चुनौती दी गई थी। इस अधिनियम के अधीन सरकार ने एक आदेश जारी करके एक विशेष स्थान को बाजार का मुख्य क्षेत्र घोषित किया जो पहले स्थान से भिन्न था। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उक्त आदेश पिटीशनरों के व्यापार और वाणिज्य के अधिकार पर अयुक्तियुक्त निर्बंन्धन लगाता है, अत: असंवैधानिक है। व्यापारीगण को 10 दिन के अन्दर पुराने बाजार के क्षेत्र से अपने कारोबार को नये बाजार-क्षेत्र को ले जाने का आदेश देना उनके व्यापार करने के अधिकार पर अनुचित निर्बन्धन लगाता है।
कर-विधि अयुक्तियुक्त निर्बन्धन नहीं है:
नागरिकों के व्यापार या व्यवसाय के अधिकार को कर से छूट नहीं दी गयी है। सरकार विधिपूर्वक किसी भी पेशा, व्यवसाय या वाणिज्य पर कर लगा सकती है। कर-विधि इस अधिकार पर प्रतिबन्ध नहीं है। देखिये – कैलाश नाथ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य का निर्णय।
पेशा और व्यवसाय सम्बन्धी अर्हताए:
राज्य विशेष प्रकार के व्यवसायों या पेशों के लिए आवश्यक व्यावसायिक और तकनीकी अर्हताएँ निर्धारित कर सकता है; जैसे, इन्जीनियरों के लिये इन्जीनियरिंग डिग्री, डाक्टरों के लिये डाक्टरी डिग्री, वकीलों के लिये वकालत की डिग्री इत्यादि। लेकिन आवश्यक यह है कि एक प्रकार का पेशा या व्यवसाय करने वाले व्यक्तियों के लिये एक तरह की अर्हता विहित की गयी हो। पेशा और व्यवसाय सम्बन्धी अर्हता वाले कुछ मुख्य अधिनियमों के नाम इस प्रकार हैं-
1. एडवोकेट ऐक्ट,
2. बार काउन्सिल ऐक्ट,
3. लीगल प्रैक्टिशनर्स ऐक्ट,
4. इण्डियन मेडिकल डिग्रीज ऐक्ट,
5. मेडिकल कौन्सिल ऐक्ट,
6. फारमेसी ऐक्ट,
7. प्राविन्शियल मनीलेन्डर्स ऐक्ट,
8. दी बंगाल टाउट्स ऐक्ट,
9. दी बंगाल डेन्टिस्ट ऐक्ट।
राज्य-व्यापार और राष्ट्रीयकरण:
अनुच्छेद 19 का खंड (6) राज्य को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह नागरिकों को पूर्ण या आंशिक रूप से बहिष्कृत करके कोई भी व्यापार या वाणिज्य स्वयं कर सकता है। यह खंड अनु० 19 में संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा जोड़ा गया था। यह संशोधन मोती लाल बनाम उ० प्र० के निर्णय के कारण आवश्यक हो गया था। इस वाद में उत्तर प्रदेश सरकार ने सड़क पर चलने वाली निजी गाड़ियों के स्वामियों को परमिट देने से इन्कार कर दिया, ताकि सरकार सड़क-यातायात को अपने नियन्त्रण में ले सके। मोटर ह्वीकिल्स ऐक्ट के अन्तर्गत सड़क यातायात के निजी स्वामियों को क्षेत्रीय प्राधिकारी से परमिट लेना आवश्यक था। किन्तु सरकार के लिए ऐसा परमिट लेना आवश्यक नहीं था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यदि राज्य कोई व्यापारिक कार्य करता है तो वह किसी प्रकार के विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकता। राज्य द्वारा अन्य व्यक्तियों को परमिट देने से इन्कार करना अनु० 14 में दिये गये समान संरक्षण का अतिक्रमण करना है। राज्य के पक्ष में एकाधिकार को न तो सड़क यातायात को विनियमित करने के आधार पर औचित्यपूर्ण ठहराया जा सकता है, न अनु० 19 (6) के अन्तर्गत प्रतिबन्ध लगाने के आधार पर ही। ऐसा केवल जनहित के आधार पर ही किया जा सकता है, जिसका अधिकार राज्य को प्रदान नहीं किया गया है। राज्य अधिनियम में दिये गये निर्देशों का दुरुपयोग करके और मनमाने ढंग से परमिट को अस्वीकार करके अप्रत्यक्ष तरीके से सड़क यातायात का राष्ट्रीयकरण नहीं कर सकता है।
संशोधित अनु० 19 (6) के अन्तर्गत राज्य किसी भी व्यापार या वाणिज्य का राष्ट्रीय-करण करने में सक्षम है। यह खंड किसी वर्तमान कानून को भी संरक्षण प्रदान करता है जिसमें ऐसे उपबन्ध हैं। इन संशोधनों के बाद राज्य को किसी व्यापार में एकाधिकार को नागरिकों के व्यापार के अधिकार पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध के रूप में औचित्यपूर्ण सिद्ध करना आवश्यक नहीं है। कोई नागरिक इसके विरुद्ध आपत्ति नहीं कर सकता कि राज्य ने किसी व्यापार से उसे पूर्ण या आंशिक रूप में बहिष्कृत कर दिया है। देखिये- रामचन्द्र बनाम उड़ीसा राज्य का निर्णय। राज्य के पक्ष में एकाधिकार की सृष्टि नागरिकों को व्यापार या पेशा करने के अधिकार से वंचित करना नहीं माना जायगा, न ही किसी ऐसे कानून को जो राज्य के पक्ष में किसी व्यापार में एकाधिकार की सृष्टि करता है या राष्ट्रीयकरण की अनुमति देता है, की वैधता पर इस आधार पर आपत्ति की जा सकती है कि यह अयुक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाता है या यह जनहित में नहीं है, देखिये – सगीर अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य का निर्णय। इस प्रकार नागरिकों के पेशा, व्यवसाय या वाणिज्य का अधिकार राज्य की राष्ट्रीयकरण की शक्ति के अधीन कर दिया गया है। केन्द्रीय सरकार ने अपनी इसी शक्ति के प्रयोग में देश के 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया है यद्यपि बैङ्क नेशनलाइजेशन ऐक्ट को उच्चतम न्यायालय ने एक दूसरे आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया है, तथापि न्यायालय ने कहा है कि संसद् को किसी व्यापार के राष्ट्रीयकरण या एकाधिकार को सृजित करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है।