Indian Constitution लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Indian Constitution लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार | Grounds of reasonable restrictions on freedom of speech and expression I Indian Constitution | Right to freeom

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार | Grounds of reasonable restrictions on freedom of speech and expression  I Indian Constitution | Right to freeom



        इस लेख में आपको वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है? इस स्वतंत्रता की सीमाएं क्या हैं?, वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से आप क्या समझते हैं?, विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतीय संविधान के आधार मूल्य कैसे हैं टिप्पणी कीजिए?, स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति का अधिकार कैसे प्रतिबंधों के अधीन है समझाइए?, आप कैसे कह सकते हैं कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की आवश्यक विशेषताओं में से एक है?, लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का क्या महत्व है?, वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है? इस स्वतंत्रता की सीमाएं क्या हैं? आदि ऐसे अनेकों सवाल हैं जिसके बारे में आपको जानकारी मिलेगी 
        भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में निम्नलिखित आधारों का उल्लेख है जिनके आधार पर नागरिकों की वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर युक्तियुक्त निर्बंन्धन लगाये जा सकते हैं-
1- राज्य की सुरक्षा,
2-विदेशी राज्यों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के हित में,
3- सार्वजनिक व्यवस्था,
4- शिष्टाचार या सदाचार के हित में,
5- न्यायालय अवमान,
6- मानहानि,
7- अपराध उद्दीपन के मामले में,
8- भारत की संप्रभुता एवं अखंडता,

1- राज्य की सुरक्षा के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
        राज्य की सुरक्षा सर्वोपरि है। राज्य की सुरक्षा के हित में नागरिकों के वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं। रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मामले में प्रश्न यह था कि क्या ऐसे कार्य जिससे सार्वजनिक व्यवस्था भंग होती है, देश की सुरक्षा के लिए भी घातक हो सकते हैं। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि प्रत्येक लोक-अव्यवस्था राज्य की सुरक्षा को खतरा पहुँचाने वाली नहीं समझी जानी चाहिये। सार्वजनिक व्यवस्था को भंग करने वाले कृत्यों को कई श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। "राज्य-सुरक्षा" पदावली लोक-व्यवस्था के गम्भीर तथा बिगड़े हुए रूप को दर्शित करती है, जैसे आन्तरिक विक्षोभ या विद्रोह, राज्य के विरुद्ध युद्ध प्रारम्भ करना आदि, न कि लोक व्यवस्था तथा लोक-सुरक्षा के साधारण भंगों को, जैसे अवैध सभा, बलवा या हंगामा आदि। इस प्रकार ऐसे भाषण या अभिव्यक्तियाँ, जो कत्ल जैसे हिंसात्मक अपराध को उकसाती या प्रोत्साहित करती हैं, राज्य की सुरक्षा को खतरा पहुँचाने वाली समझी जायेंगी। सरकार की आलोचना मात्र या सरकार के प्रति अनादर एवं दुर्भावना उकसाना राज्य सुरक्षा को खतरे में डालने वाला नहीं माना जायेगा। नागरिकों के वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर तभी निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं जब उससे राज्य की सुरक्षा पर आघात पहुँचने की आशंका हो। प्रत्येक ऐसे कृत्य, जिससे लोक व्यवस्था या लोक सुरक्षा भंग होती है, किसी न किसी रूप में राज्य की सुरक्षा को आघात पहुँचाने वाले हो सकते हैं। चूंकि अनु० 19 (2) में 'लोक-व्यवस्था' निर्बन्धन के आधार के रूप में समाविष्ट नहीं किया गया था, अतएव इसके आधार पर नागरिकों की स्वतन्त्रता पर निर्बन्धन नहीं लगाया जा सकता था। उपर्युक्त मामले में दिये गये निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के लिए संविधान के प्रथम संशोधन (1951) द्वारा अनु० 19 (2) में 'लोक-व्यवस्था' के आधार को जोड़ा गया। संशोधन के परिणामस्वरूप अब लोक-व्यवस्था का साधारण भंगीकरण या अपराध करने के लिये उकसाना भी इस स्वतन्त्रता पर निर्बन्धन लगाने के उचित अधार हो सकते हैं। देखिये - बिहार राज्य बनाम शैलबाला' का निर्णय। संशोधित अनु० 19 (2) में 'राज्य - सुरक्षा' पदावली के पहले "उसके हित में" पदावली के प्रयोग का अर्थ यह है कि यदि किसी कार्य से राज्य सुरक्षा को खतरे की आशंका भी हो तो उस पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है, भले ही उस कार्य से वस्तुतः देश की सुरक्षा को कोई आघात न पहुँचता हो। इस प्रकार के सरकार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह को उकसाना, भले ही वह विफल हो जाय, राज्य-सुरक्षा को खतरा पहुँचाने वाला माना जायगा। देखिये- रामजी मोदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य " का निर्णय।

2-विदेशी राज्यों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के हित में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
        विदेशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध से सम्बंधित निर्बन्धन का यह आधार संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा अनु० 19 (2) में जोड़ा गया है। संसद् में बहस के दौरान इस विधेयक की बड़ी आलोचना की गयी थी और यह कहा गया था कि इसका क्षेत्र बड़ा विस्तृत है और इसका प्रयोग सरकार की विदेशी नीतियों की उचित आलोचना के विरुद्ध भी किया जा सकता है।" सरकार की ओर से यह आश्वासन दिया गया था कि इस उपबन्ध का इस प्रकार प्रयोग करने का आशय नहीं है। इस खण्ड का अन्तर्निहित उद्देश्य केवल अपलेख और मानहानि के क्षेत्र को विस्तृत करना है और किसी व्यक्ति को ऐसी मिथ्या या झूठी अफवाहें फैलाने से रोकना है जिससे किसी विदेशी राज्य के साथ हमारे मंत्रीपूर्ण सम्बन्धों को आघात पहुँचता हो। संसार के किसी संविधान में इस प्रकार के उपबन्ध नहीं है। किन्तु प्रत्येक देश की साधारण विधि में इस प्रकार के उपबन्ध पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। भारतीय संविधान का यह उपबन्ध निश्चित ही बड़ा विस्तृत है। इसका प्रयोग सरकार की विदेशी नीतियों की वैध आलोचना को दबाने में किया भी जा सकता है। प्रेस आयोग ने भी इस बात की सिफारिश की है कि इस उपबन्ध का प्रयोग केवल उन्हीं मामलों तक सीमित रखा जाना चाहिये जिनमें मिथ्या या गलत अफवाहों का संचार किया जाता है जो विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को नष्ट करता है, न कि सत्य तथ्यों के कथन को, भले ही इसमें विदेशी राज्यों के साथ सम्बन्धों के बिगाड़ने की प्रवृत्ति हो। हम प्रेस कमीशन के विचार से सहमत हैं। आशा है सरकार अपने आश्वासन को नहीं भूलेगी। ध्यान रहे कि यह उपबन्ध केवल विदेशी राज्यों को लागू होता है। संविधान के प्रयोजन के लिये 'विदेशी राज्य' में कामनवेल्थ के सदस्य सम्मिलित नहीं हैं। पाकिस्तान चूंकि कामनवेल्थ का सदस्य है अतः इस प्रयोजन के लिये वह विदेशी राज्य नहीं माना जाता। अतएव इस आधार पर वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता कि वह पाकिस्तान या अन्य कामनवेल्थ के देशों के प्रतिकूल है। देखिये - जगन्नाथ बनाम भारत संघ का निर्णय।

3- सार्वजनिक व्यवस्था के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
        'सार्वजनिक व्यवस्था' पद के अन्तर्गत विधि के हर प्रकार के व्यतिक्रम नहीं आते हैं। यदि किसी व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति पर मकान या किसी गली में हमला किया जाता है तो उससे अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है, किन्तु लोक-व्यवस्था नहीं उत्पन्न हो सकती क्योंकि लोक व्यवस्था एक ऐसी स्थिति है जिससे समुदाय या आम जनता पर प्रभाव पड़ता है। लोक व्यवस्था को कायम रखने के लिए सरकार अग्रिम कार्यवाही भी कर सकती है। उदाहरण के लिये, बाबू लाल पराटे बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 को जो मजिस्ट्रेट को जुलूसों और सभाओं पर प्रतिबन्ध लगाने की शक्ति प्रदान करती है, इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि वह अनुच्छेद 19 (1) (क) में दिये अधिकारों पर अयुक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाती है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उक्त धारा अनु० 19 (1) (क) का अतिक्रमण नहीं करती, क्योंकि इसके अन्तर्गत दिये गये आदेशों की प्रकृति बिल्कुल अस्थायी है और इसका प्रयोग उत्तरदायी मजिस्ट्रेटों द्वारा न्यायिक ढंग से किया जाता है।
4- शिष्टाचार या सदाचार के हित में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
        ऐसे कथनों या प्रकाशनों पर, जिनसे लोक-नैतिकता एवं शिष्टता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है; सरकार प्रतिबन्ध लगा सकती है। प्रश्न यह है कि नैतिकता एवं शिष्टता की कसौटी क्या है? इस शब्दावली की परिभाषा न तो संविधान में दी गयी है और न किसी अन्य अधिनियम में। किन्तु भारतीय न्यायालयों ने एक आंग्ल वाद आर० बनाम हिकलिन में दी हुई परिभाषा को अपनाया है। आंग्ल विधि में उपर्युक्त दोनों शब्दों के स्थान पर एक ही शब्द 'अश्लील' का प्रयोग किया गया है। उपर्युक्त वाद में न्यायालय ने 'अश्लीलता' की परिभाषा निम्नलिखित शब्दों में की है- 'ऐसे कथन और प्रकाशन सामान्यतया अश्लील समझे जाते हैं, जो उन व्यक्तियों के मन में, जिनके हाथ में वे पड़ जाते हैं, अनैतिक व भ्रष्ट विचारों को पैदा करते हैं। इस प्रकार, ऐसे प्रकाशन जो उन व्यक्तियों के मन में जो उन्हें पढ़ते हैं, कामुक विचार और वासनामय इच्छा उत्पन्न करते हैं, अश्लील समझे जाते हैं। भारतीय दण्ड विधान की धारा 292 से लेकर 294 तक नैतिकता एवं शिष्टता के हित में वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध का उपबन्ध करती है। किसी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर ये धाराएं अश्लील प्रकाशनों को बेचने, प्रचार या प्रदर्शन करने, अश्लील कृत्यों को करने, अश्लील गानों या अश्लील भाषणों आदि का निषेध करती है। किन्तु भारतीय दंड विधान में 'अश्लीलता' की कोई कसौटी नहीं दी गई है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने अंग्रेजी निर्णय हिकालिन में प्रतिपादित अश्लीलता की कसौटी को स्वीकार किया है। इस कसौटी का अनेक भारतीय निर्णयों में अनुसरण किया गया है। रनजीत डी० उडेसी बनाम महाराष्ट्र राज्य" इस विषय पर उच्चतम न्यायालय का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय है। इस वाद में अपीलार्थी का धारा 292 के अन्तर्गत 'लेडी चैटर्लीज लवर' नामक पुस्तक जिसमें आधुनिक युग में लैंगिक समागम में निराशा का वर्णन किया गया है, के बेचने के अपराध में दण्डित किया गया था। उच्चतम न्यायालय ने इस पुस्तक के कुछ अंशों को हिकलिन की कसौटी के आधार पर अश्लील घोषित कर दिया और अपीलार्थी की सजा को बहाल रखा। यहाँ यह बता देना अनुचित न होगा कि उक्त कसोटी बड़ी पुरानी हो गई है और यह आधुनिक विचारों से मेल नहीं खाती है। न्यायालय ने इस वाद में हिकलिन कसौटी को स्वीकार करके एक बड़ी भूल की है। यह कसौटी आज से करीब सौ वर्ष पहले इंग्लैण्ड के न्यायालय द्वारा प्रतिपादित की गयी थी। तब और आज में नैतिक मूल्यों एवं विचारधाराओं में बड़े परिवर्तन हो चुके हैं। उक्त नियम अश्लीलता के निर्धारण का एक अस्पष्ट और मनमाना मानदण्ड निर्धारित करता है जिसमें नागरिकों के वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को कम करने की प्रवृत्ति मौजूद है। " क्या अनैतिक या अभद्र है, इसका कोई निश्चित मानदण्ड निर्धारित नहीं किया जा सकता है। नैतिकता का स्तर समय और स्थान के साथ-साथ बदलता रहता है। परिवार नियोजन, जो किसी समय भारत में अनैतिक समझा जाता था, आज आबादी की वृद्धि को नियंत्रित करने के साधन के रूप में उचित एवं नैतिक माना जाता है।
5- न्यायालय अवमान के संबंध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
        न्यायालय अवमान की भी संविधान में कोई परिभाषा नहीं दी गयी है। संसद् ने न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 पारित करके इस कमी को पूरा कर दिया है। इस अधिनियम के अनुसार 'न्यायालय अवमान' शब्दावली के अन्तर्गत दीवानी और फौजदारी दोनों प्रकार के न्यायालयों का अवमान शामिल है। 'न्यायालय अवमान' का अर्थ है जानबूझ कर न्यायालय के फैसले, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट या उसकी किसी विधान प्रक्रिया की अवहेलना करना या न्यायालय को दिये हुए वचन को जानबूझ कर तोड़ना। 'फौजदारी अवमान' का अर्थ है, ऐसे प्रकाशनों (चाहे वे मौखिक या लिखित या किसी भी माध्यम से हों) से है, जो- अ- न्यायालयों या न्यायाधीशों की निन्दा या निन्दा की प्रवृत्ति वाला या उसके प्राधिकार को कम करने वाला हो, या ब- जो पक्षपात का लांछन लगाता हो, या न्यायिक कार्यवाहियों में हस्तक्षेप करता हो या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति वाला हो, या स- किसी भी प्रकार से न्याय - प्रशासन के कार्य में हस्तक्षेप करता हो या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति वाला हो या इस कार्य में अवरोध करता हो या अवरोध की प्रवृत्ति वाला हो । किन्तु निम्नलिखित कृत्यों से न्यायालय का अवमान नहीं होता है-     1- निर्दोष प्रकाशन और उसका वितरण,     2- न्यायिक कार्यवाहियों का उचित और सही प्रकाशन;     3- न्यायिक कृत्य की उचित आलोचना,     4- न्यायाधीशों के विरुद्ध ईमानदारी से की हुई शिकायत;     5- वाद की न्यायिक कार्यवाहियों का सही प्रकाशन।         न्यायालय अवमान के लिये अधिनियम में 6 महीने की सजा या 2000 रुपये तक जुर्माना या दोनों दिया जा सकता है। अधिनियम के अधीन न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों या न्यायिक कृत्य करने वाले व्यक्तियों को भी अपने ही न्यायालय के लिये अवमान के साधारण व्यक्तियों की ही भाँति दंडित किया जा सकता है। वरदकांत बनाम रजिस्ट्रार, उड़ीसा के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि उच्च न्यायालय के प्रशासनिक कार्यों के सम्बन्ध में अवमानात्मक आरोप लगाना आपराधिक अवमान है। प्रशासनिक न्याय न्यायिक न्याय से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। न्यायालय को प्रशासन के लिये विविध कार्य करने होते हैं। इन कार्यों के निर्वहन में किये गये तनिक मात्र लोप होने से न्याय-प्रशासन आवश्यक रूप से प्रभावित होता है। न्यायालय की स्थापना ही न्याय सम्पादन के प्रयोजन के लिये की जाती है और एक न्यायाधीश का अपने सहायकों पर नियन्त्रण का उद्देश्य भी न्याय की शुद्धता को कायम रखना होता है। इसलिये उच्च न्यायालयों के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि वे अधीनस्थ न्यायालय के न्याय प्रशासन से सम्बन्धित आचरण के सम्बन्ध में सचेत रहें। पक्षकारों के मध्य विवादों का निर्णय ही न्याय-प्रशासन का सम्पूर्ण सार नहीं है। अनुशासनिक नियन्त्रण का कार्य भी समुचित न्याय प्रशासन में उतना ही सहायक है जितना कि विधि-स्थापना या पक्षकारों के मध्य न्याय निर्णयन। अनु० 235 के अधीन जहाँ उच्च न्यायालय अनुशासनिक हैसियत से कार्य करता है तो वह न्याय-प्रशासन की वृद्धि करता है। प्रस्तुत मामले में अपीलार्थी जो जिला न्यायाधीश द्वारा इसी आधार पर न्यायालय के अवमान के लिये दण्डित किया गया था कि उसने उच्च न्यायालय को लिखे गये पत्रों में न्यायालय के प्रशासनिक कार्यों के सम्बन्ध में अनेक अवमानात्मक आरोप लगाये थे।
6- मानहानि के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
        कोई भी ऐसा कथन या प्रकाशन जो किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाता है, मानहानि कहलाता है। ऐसे कथन के प्रकाशन को मानहानि कहा जाता है जो किसी व्यक्ति को समाज में घृणा, हंसी या अपमान का पात्र बनाता है। उक्त कथन या प्रकाशन पर अनुच्छेद 19 (2) के अन्तर्गत युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 419 में मानहानि से सम्बन्धित विधि दी हुई है। इस धारा के अनुसार इंग्लैण्ड की भाँति अपलेख या अपवचन में कोई विभेद नहीं किया गया है। मानहानिकारी कथन, चाहे वह अपलेख हो या अपवचन, इस धारा के अन्तर्गत एक दण्डनीय अपराध है। न्यायालयों ने यह अभिनिर्धारित किया है कि यह धारा वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाती है। भारत में इस विषय से सम्बन्धित दीवानी-विधि अभी असंहिताबद्ध है और कुछ अन्तर के साथ आंग्ल सामान्य विधि का ही अनुसरण करती है।"
7- अपराध उद्दीपन के मामले में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
        यह आधार संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा जोड़ा गया है। वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता किसी व्यक्ति को इस बात का अधिकार नहीं देती कि वे लोगों को अपराध करने के लिये भड़कायें या उकसायें। अपराध करने की उत्तेजना देने वाले भाषणों को विधि द्वारा रोका व दंडित किया जा सकता है। 'उकसाना' शब्द के अन्तर्गत क्या सम्मिलित है, इसका निर्धारण न्यायालय करेंगे, जो प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।
8- भारत की संप्रभुता एवं अखंडता के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-

        यह आधार अनुच्छेद 19 (2) में संविधान के सोलहवें संशोधन अधिनियम, 1963 द्वारा जोड़ा गया है। इसके अन्तर्गत ऐसे कथन या प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है, जिससे भारत की अखंडता एवं सम्प्रभुता पर किसी प्रकार की आंच आती हो या भारत के किसी भाग को संघ से पृथक् होने के लिये उकसाया जाता हो। FAQ- 1- वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है? इस स्वतंत्रता की सीमाएं क्या हैं? 2- वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से आप क्या समझते हैं? 3- विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतीय संविधान के आधार मूल्य कैसे हैं टिप्पणी कीजिए? 4- स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति का अधिकार कैसे प्रतिबंधों के अधीन है समझाइए? 5- आप कैसे कह सकते हैं कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की आवश्यक विशेषताओं में से एक है? 6- लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का क्या महत्व है? 7- वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है? इस स्वतंत्रता की सीमाएं क्या हैं?

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19(1)(क) | Freedom of speech and freedom of expression Article 19(1)(a)

 वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19(1)(क) | Freedom of speech and freedom of expression Article 19(1)(a)



 इस लेख में अनुच्छेद 19 में क्या लिखा हुआ है? अनुच्छेद 19 में कितने प्रकार की स्वतंत्रता है? भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 में क्या है? आदि प्रश्नो के उत्तर और वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ एवं उसका विस्तार क्षेत्र, समाचार पत्रों की स्वतंत्रता, स्वतंत्रताओं का क्षेत्र विस्तार, वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर  प्रतिबन्ध लगाने वाले कानून के प्रत्यक्ष प्रभाव की कसौटी, हड़ताल का अधिकार आदि तथा विभिन्न न्यायालयों के निर्णय देखने को मिलेंगे

1- वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अनु० 19 (1) (क)
वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था की आधारशिला है। प्रत्येक प्रजातान्त्रिक सरकार इस स्वतन्त्रता को बड़ा महत्व देती है। इसके बिना जनता की तार्किक एवं आलोचनात्मक शक्ति, जो प्रजातान्त्रिक सरकार के समुचित संचालन के लिए आवश्यक है, को विकसित करना सम्भव नहीं है।

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अर्थ एवं विस्तार-

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ है शब्दों, लेखों, मुद्रणों, चिह्नों या किसी अन्य प्रकार से अपने विचारों को व्यक्त करना, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में किसी व्यक्ति के विचारों को किसी ऐसे माध्यम से अभिव्यक्त करना सम्मिलित है जिससे वह दूसरों तक उन्हें संप्रेषित कर सके। इस प्रकार इनमें संकेतों, अंकों, चिह्नों तथा ऐसी ही अन्य क्रियाओं द्वारा किसी व्यक्ति के विचारों की अभिव्यक्ति सम्मिलित है। अनु० 19 में प्रयुक्त 'अभिव्यक्ति' शब्द इसके क्षेत्र को बहुत विस्तृत कर देता है। विचारों के व्यक्त करने के जितने भी माध्यम हैं 'अभिव्यक्ति' पदावली के अन्तर्गत आ जाते हैं। इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में प्रेस की स्वतन्त्रता भी सम्मिलित है। विचारों का स्वतन्त्र प्रसारण ही इस स्वतन्त्रता का मुख्य उद्देश्य है। यह भाषण द्वारा या समाचारपत्रों द्वारा किया जा सकता है। रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि वाक और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में विचारों के प्रसार की स्वतन्त्रता सम्मिलित है और वह स्वतन्त्रता विचारों के प्रसारण की स्वतन्त्रता द्वारा सुनिश्चित है। उस स्वतन्त्रता के लिए परिचालन की स्वतन्त्रता उतनी ही आवश्यक है जितनी कि प्रकाशन की स्वतन्त्रता। निस्संदेह परिचालन के बिना प्रकाशन का कोई महत्व ही नहीं होगा। वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता केवल अपने ही विचारों के प्रसार की स्वतन्त्रता तक सीमित नहीं है। इसमें दूसरों के विचारों के प्रसार एवं प्रकाशन की स्वतन्त्रता भी सम्मिलित है जो प्रेस की स्वतन्त्रता द्वारा ही सम्भव है।

समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता-
          समाचारपत्र विचारों के अभिव्यक्त करने का एक महत्वपूर्ण साधन है। राजनीतिक स्वतंत्रता तथा प्रजातन्त्र की सफलता के लिए समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता अपरिहार्य है। अमेरिका के प्रेस कमीशन ने प्रेस की स्वतन्त्रता के महत्व के बारे में निम्नलिखित विचार व्यक्त किये हैं- 'प्रेस की स्वतन्त्रता राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक है। जिस समाज में मनुष्य को अपने विचारों को एक दूसरे तक पहुँचाने की स्वतन्त्रता नहीं है वहाँ अन्य स्वतन्त्रताएं भी सुरक्षित नहीं रह सकती हैं। वस्तुतः जहाँ वाक्-स्वातन्त्र्य है वहीं स्वतन्त्र समाज का प्रारम्भ होता है और स्वतन्त्रता के बनाए रखने के सभी साधन मौजूद रहते हैं। इसीलिए वाक्-स्वातन्त्र्य को स्वतन्त्रताओं में एक अनोखा स्थान प्राप्त है         भारतीय प्रेस कमीशन ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किये हैं- "प्रजातन्त्र केवल विधानमंडल के सचेत देख-भाल में ही नहीं वरन् लोकमत में की और मार्गदर्शन के अन्तर्गत भी फलता-फूलता है । प्रेस की यही सबसे बड़ी विशिष्टता है कि उसके ही माध्यम से लोकमत स्पष्ट होता है।"         अमेरिका के संविधान की भाँति भारतीय संविधान में प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए कोई स्पष्ट उपबन्ध नहीं है। बाबासाहब डॉ० अम्बेदकर ने संविधान सभा में इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि "प्रेस को कोई ऐसे विशिष्ट अधिकार नहीं प्राप्त हैं जो एक साधारण नागरिक को नहीं प्रदान किये जा सकते हैं। उनके संपादक या मैनेजर समाचार-पत्रों द्वारा ही अपने अभिव्यक्ति के अधिकार का ही प्रयोग करते हैं। इसलिए इसके लिए संविधान में विशेष उपबन्ध की कोई आवश्यकता नहीं है।" न्यायिक निर्णयों में भी इस मत की पुष्टि हो चुकी है। उच्चतम न्यायालय ने साकल पेपर्स लिमिटेड बनाम भारत संघ के मामले में यह अभिनिर्धारित किया है कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में प्रेस की स्वतन्त्रता भी शामिल है, क्योंकि समाचार-पत्र विचारों को अभिव्यक्त करने के एक माध्यम मात्र ही हैं। प्रेस की स्वतन्त्रता एक साधारण नागरिक की स्वतन्त्रता से बढ़कर नहीं है और यह उन प्रतिबन्धों के अधीन है जो अनुच्छेद 19 (2) द्वारा नागरिकों के वाक् और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता पर लगाये गये हैं।         लार्ड मेन्ग्सफील्ड के अनुसार प्रेस की स्वतन्त्रता का अर्थ है बिना सरकारी अनुज्ञा के विचारों को प्रकाशित करना, बशर्ते कि देश की साधारण विधि का उल्लंघन न किया गया हो। प्रेस की स्वतन्त्रता केवल दैनिक समाचार-पत्रों और साप्ताहिक पत्रों तक ही सीमित नहीं है। इसके अन्तर्गत इसी प्रकार के प्रशासन सम्मिलित हैं जिनके द्वारा व्यक्ति अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचा सकता है, जैसे पत्रिका, पत्रक, परिपत्र आदि।         प्रेस की स्वतन्त्रता में सूचनाओं तथा समाचारों को जानने का अधिकार शामिल है। प्रेस को व्यक्तियों से इन्टरव्यू के माध्यम से सूचनाएं जानने की स्वतन्त्रता है। किन्तु जानने की स्वतन्त्रता अत्यधिक नहीं है और उसके ऊपर युक्तियुक्त निर्बंन्धन अधिरोपित किए जा सकते हैं। प्रेस की जानने की स्वतन्त्रता किसी व्यक्ति पर प्रेस को सूचना अथवा समाचार देने का कोई विधिक कर्त्तव्य अधिरोपित नहीं करती है। प्रेस नागरिकों से तभी सूचनाएं जान सकता है यदि वे प्रेस को अपनी स्वेच्छा से बताना चाहते हों। प्रभूदत्त बनाम भारत संघ' 1982 के मामले में यह निर्णय दिया गया है कि यदि मृत्यु दण्ड के अभियुक्त अपनी स्वेच्छा से कोई बात बताना चाहते हैं तो प्रेस को उनसे पूछने की अनुमति दी जानी चाहिए। यदि किसी मामले में उन्हें इन्टरव्यू करने की अनुमति नहीं दी जाती है तो उसके कारणों का लिखित उल्लेख किया जाना चाहिए। प्रस्तुत मामले में हिन्दुस्तान टाइम्स के चीफ रिपोर्टर द्वारा रंगा, बिल्ला को इन्टरव्यू करने की अनुमति देने से इन्कार कर दिया गया था जब कि दोनों सिद्धदोष अभियुक्त स्वेच्छा से इन्टरव्यू देना चाहते थे।

वाक् और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रताओं का क्षेत्र विस्तार-

        अनु० 19 द्वारा प्रदत्त स्वतन्त्रताओं को किसी भौगोलिक परिसीमा में बाँधा नहीं जा सकता है। इन अधिकारों का प्रयोग नागरिक के द्वारा भारत की सीमा के भीतर ही नहीं वरन् विश्व के किसी देश की भूमि पर किया जा सकता है। यदि राज्य किसी व्यक्ति द्वारा इन अधिकारों के प्रयोग पर देश की सीमा के आधार पर रोक लगाता है तो उससे अनु० 19 का अतिक्रमण होगा। आधुनिक काल में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को देश की सीमा में बाँधा नहीं जा सकता है। अभिव्यक्ति से तात्पर्य है किसी व्यक्ति से विचारों का आदान-प्रदान करना चाहे वह विश्व के किसी भाग में क्यों न निवास करता हो। उपर्युक्त सिद्धान्त मेनका गाँधी बनाम भारत संघ" के मामले में उच्चतम न्यायालय ने विहित किये हैं। इसमें वादी को विदेश जाने के लिये दिये गये पासपोर्ट को वापस करने का आदेश दिया गया था। वादी ने इस आदेश की वैधता को चुनौती दिया और यह तर्क दिया कि यदि उसका पासपोर्ट ले लिया जाता है तो वह एक पत्रकार के रूप में विदेश जाकर अपने भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकती है। संक्षेप में उसका तर्क था कि पासपोर्ट का अधिकार अनु० 19 के अधीन एक मूल अधिकार है।
            उच्चतम न्यायालय ने उसके इस तर्क को अस्वीकार कर दिया कि पासपोर्ट पाने का अधिकार अनु० 19 के अधीन एक मूल अधिकार है किन्तु यह अभिनिर्धारित किया कि अनु० 19 के अधिकारों का प्रयोग नागरिक केवल भारत में नहीं वरन् विदेश में भी कर सकता है। विदेश में उसके इस अधिकार पर वे सब निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं जो अनु० 19 (2) में उल्लिखित हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि यद्यपि पासपोर्ट का अधिकार अनु० 19 के अधीन एक मूल अधिकार नहीं है किन्तु यदि उसके ले लेने पर नागरिक के अनु० 19 के अधिकारों पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है तो उससे अनु० 19 का अतिक्रमण हो सकता है। यह तथ्य और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

वाक् और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता पर पूर्व अवरोध-         जैसा कि कहा गया है, प्रेस की स्वतन्त्रता का अर्थ है सरकार की बिना पूर्व अनुमति के अपने विचारों को प्रकाशित करना। अतः कोई भी कानून जो विचारों के प्रकाशन पर पूर्व-अवरोध / Censorship का प्रावधान करता है वह अनु० 19 (1) में दी हुई स्वतन्त्रता का अतिक्रमण करता है।             ब्रजभूषण बनाम दिल्ली राज्य के मामले में सर्वप्रथम प्रेस की स्वतन्त्रता पर पूर्व अवरोध की संवैधानिकता का प्रश्न उच्चतम न्यायालय के विचारार्थ आया। इस मामले में ईस्ट पंजाब पब्लिक सेफ्टी ऐक्ट, 1949 की धारा 7 के अन्तर्गत दिल्ली के चीफ कमिश्नर ने दिल्ली के एक साप्ताहिक समाचार-पत्र के विरुद्ध एक आदेश जारी किया; जिसके द्वारा उस पत्र के मुद्रक, प्रकाशक और सम्पादक को यह निदेश दिया गया था कि वे उस सभी प्रकार के साम्प्रदायिक मामलों या पाकिस्तान से सम्बन्धित समाचारों, चित्रों और हास्य चित्रों, जो सरकारी न्यूज एजेन्सियों द्वारा नहीं प्राप्त किये गये हैं, प्रकाशित करने के पहिले सरकारी परीक्षण के लिए भेजेंगे और उनकी पूर्व- अनुमति प्राप्त करने के पश्चात् ही उसे प्रकाशित करेंगे। उच्चतम न्यायालय ने उक्त आदेश को असंवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि किसी समाचार-पत्र पर पूर्व-अवरोध लगाना प्रेस की स्वतन्त्रता पर अनुचित प्रतिबन्ध है। वीरेन्द्र बनाम पंजाब राज्य" के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि “किसी समाचारपत्र को तत्कालीन महत्व के विषय पर अपने विचार प्रकाशित करने से रोकना वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर एक गम्भीर अतिक्रमण है।”         अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण विनिश्चय न्यूयार्क टाइम्स के मामले में पूर्व-अवरोध को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। इस मामले में अमेरिका के दो बड़े समाचार पत्रों में वियतनाम से सम्बन्धित कुछ गुप्त सरकारी, सूचनाएं, जिनके बारे में यह कहा गया था कि वे चोरी से प्राप्त की गयी थीं, प्रकाशित की गयी थीं। सरकार ने न्यायालय में यह दलील पेश किया कि इन सूचनाओं के प्रकाशन से देश की सुरक्षा को खतरे की सम्भावना है और प्रार्थना की कि इनके प्रकाशन को रोक दिया जाय। समाचारपत्रों के सम्पादकों की ओर से यह कहा गया कि इन सूचनाओं में केवल उन तथ्यों का वर्णन है जिस प्रकार अमेरिका को वियतनाम युद्ध में कूदना पड़ा और उसे जन, धन और प्रतिष्ठा की क्षति उठानी पड़ी। उन्होंने यह दावा किया कि इन सूचनाओं का प्रकाशन सार्वजनिक हित में है जिसके प्रकाशन पर सरकार को प्रतिबन्ध लगाने का कोई विधिक अधिकार संविधान में नहीं प्राप्त है। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत से यह अभिनिर्धारित किया कि सरकार को इन सूचनाओं के प्रकाशन पर पूर्व अवरोध लगाने का अधिकार नहीं है। सरकार यह सिद्ध करने में असफल रही है कि इन सूचनाओं के प्रकाशन से देश की सुरक्षा को वस्तुतः किसी खतरे की सम्भावना है।         एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसा कोई कानून, जो समाचारपत्रों पर पूर्व-अवरोध की व्यवस्था करता है या उनके परिचालन को कम करता है या उनके प्रारम्भ किये जाने को रोकता है या उनके चालू रहने के लिए सरकारी सहायता को आवश्यक बना देता है, वह अनुच्छेद 19 (1) (क) में प्रदान की गयी स्वतन्त्रता का अतिक्रमण करता है, अतः अवैध है। परिचालन की स्वतन्त्रता प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए उतनी ही आवश्यक है जितनी कि प्रकाशन की स्वतन्त्रता। निस्सन्देह बिना परिचालन की स्वतन्त्रता के प्रकाशन की स्वतन्त्रता का कोई महत्व नहीं है। इसी आधार पर उच्चतम न्यायालय ने अपने एक विनिश्चय में उस कानून को अवैध घोषित कर दिया है, जिसके द्वारा राज्य में एक दैनिक समाचार-पत्र के परिचालन पर रोक लगा दी गयी। देखिये- रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य का निर्णय।         साकल पेपर्स लि० बनाम भारत संघ के मामले में – दैनिक समाचारपत्र (कीमत एवं पृष्ठ) आदेश 1960, जिसके द्वारा अखबारों के पृष्ठ की अधिकतम संख्या और उनका मूल्य निर्धारित किया गया था, को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि इससे प्रेस की स्वतन्त्रता पर आघात पहुँचता है। उक्त व्यवस्था के अन्तर्गत पिटीशनर अपने समाचार-पत्नों का मूल्य तो बढ़ा सकते थे, लेकिन उनकी पृष्ठ संख्या को नहीं बढ़ा सकते थे। पिटीशनरों के अनुसार बिना पृष्ठ-संख्या के बढ़े दामों में वृद्धि हो जाने से उनका परिचालन कम हो जाता है, क्योंकि उनको कम लोग खरीदते हैं तथा पृष्ठ संख्या के घटा देने से उनमें समाचारों के प्रकाशन के लिए कम स्थान मिल पाता है। इस प्रकार सरकारी आदेश एक दुधारी छुरी का काम करता है। एक तरफ दाम बढ़ जाने से अखबारों का परिचालन कम होता है और दूसरी ओर पृष्ठों के कम होने से उनमें समाचारों, विचारों आदि के प्रकाशन के लिए स्थान की कमी हो जाती है। सरकार ने आदेश के पक्ष में तर्क दिया कि इसका उद्देश्य समाचारपत्रों में व्यापारिक विज्ञापन के स्थानों को विनियमित करना है तथा इस क्षेत्र में अनुचित प्रतियोगिता को रोकना और छोटे तथा नवचालित समाचारपत्रों को संरक्षण प्रदान करना है।         न्यायालय ने सरकार के इस तर्क को अस्वीकार करते हुए उक्त आदेश को अवैध घोषित कर दिया। उसने कहा कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को किसी नागरिक के व्यापारिक क्रियाकलाप पर प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से छीना नहीं जा सकता है। इन स्वतन्त्रताओं पर केवल अनुच्छेद 19 (2) में दिये गये आधारों पर ही प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। व्यापार करने की स्वतन्त्रता की भाँति इस पर 'लोकहित' के आधार पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि अनुच्छेद 19 (2) में इस आधार का कोई उल्लेख नहीं है। सरकार छोटे तथा नवचालित समाचार- पत्नों को संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य को पूरा करने की दृष्टि से दूसरे समाचारपत्रों की स्वतन्त्रता का अतिक्रमण नहीं कर सकती है। न्यायालय के अनुसार आदेश के परिणामस्वरूप अखबारों का परिचालन निश्चय ही कम हो जायेगा, क्योंकि उसे कम लोग खरीदेंगे और इस प्रकार उनकी स्वतन्त्रता का हनन होगा। यदि विज्ञापनों में कटौती करने से उनके विचार प्रसारण की स्वतन्त्रता पर सीधा आघात पहुँचता है तो वह असंवैधानिक होगा। निष्कर्ष यह है कि ऐसा कोई भी कानून जो समाचारपत्तों के माध्यम से विचार प्रसारण को किसी भी ढंग से प्रत्यक्षतः अथवा अप्रत्यक्षतः कम करता है, अनुच्छेद 19 (1) (क) का अति- क्रमण करता है और अवैध है।         बेन्नेट कोलमैन ऐण्ड कम्पनी लिमिटेड बनाम भारत संघ के मामले में सन् 1972-73 की अखबारी कागज नीति और अखबारी कागज नियन्त्रण आदेश, 1962 की वैधता को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि वह संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) और अनुच्छेद 14 का अति- क्रमण करता है, अतः असंवैधानिक है। अखबारी कागज नीति के अधीन पृष्ठों की अधिकतम संख्या 10 तक सीमित कर दी गयी थी और समान स्वामित्व यूनिट अपने प्राधिकृत कोटे के आपसी अदला-बदली की इजाजत नहीं थी । पिटीशनरों ने अखबारी कागज नीति को निम्न आधारों पर चुनौती दी। पहली, यह कि अखबारी कागज के प्राधिकृत कोटे के भीतर रहते हुए भी किसी समान स्वामित्व यूनिट द्वारा कोई नया अखबार या नया संस्करण नहीं आरम्भ किया जा सकता है। दूसरी, यह कि पृष्ठों की अधिकतम संख्या 10 तक परिसीमित' है जिसके कारण परिचालन कम हो जायगा। तीसरी, यह कि समान स्वामित्व यूनिट के विभिन्न अखबारों या एक ही अखबार के विभिन्न संस्करणों के बीच आपसी अदला-बदली की स्वीकृति नहीं दी गयी है। चौथी, यह कि 10 से कम पृष्ठ के अखबारों की पृष्ठ संख्या बढ़ाने की स्वीकृत दी गयी है। उक्त प्रतिबन्ध बेतुके, मनमाने और अयुक्तियुक्त हैं। सरकार की ओर से अखबारी कागज नीति के समर्थन में यह कहा गया है कि वह छोटे-छोटे अखबारों का विकास करने और बड़े-बड़े अखबारों के एकाधिकार के संगठन को रोकने में सहायता करने के लिए है। विधायन का मुख्य उद्देश्य अखबारी कागज के आयात एवं देश में उसके आबंटन को विनियमित करना है, भले ही उसके परिणामस्वरूप परिचालन के कम करने का आनुषंगिक प्रभाव होता है। आनुषंगिक (incidental) प्रभाव से प्रेस का मूल अधिकार कम नहीं होगा।

        उच्चतम न्यायालय ने पिटीशनरों की दलील को स्वीकार करते हुए अखबारी कागज नीति को असंवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि प्रेस की स्वतन्त्रता अनुच्छेद 19 (1) (क) में प्रदत्त वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का एक आवश्यक अंग है। प्रेस को प्रकाशन पर पूर्व -अवरोध के बिना निर्बाध प्रसार और परिचालन का अधिकार प्राप्त है। ऐसी विधि जिससे अखबारों के परिचालन पर प्रतिबन्ध लगे या कार्मिकों के चयन में स्वातन्त्र्य को कुण्ठित करे अखबारों के आरम्भ किये जाने को रोकेगा और प्रेस को सरकारी सहायता प्राप्त करने के लिए विवश करेगा। इससे अनु० 19 (1) (क) का अतिक्रमण होगा और वह अनु० 19 (2) में विहित संरक्षण की परिधि के बाहर हो जायेगा। अखबारी कागज नीति अनु० 19 (2) की परिधि के भीतर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध नहीं है। अखबारी कागज नीति पिटीशनरों के वाक् और अभिव्यक्ति के मूल अधिकार को कम करती है। अखबारों को परिचालन के अधिकार की अनुज्ञा नहीं दी गयी है। उन्हें पृष्ठों में वृद्धि करने का अधिकार नहीं दिया गया है। अखबारों के समान स्वामित्व यूनिट नये अखबार या नये संस्करण नहीं निकाल सकता। दस पृष्ठ के स्तर से अधिक पर निकलने वाले और दस पृष्ठ के स्तर से कम पर निकलने वाले अखबारों को, अखबारों की जरूरतों और आवश्यकताओं को निर्धारित करते समय उन अखबारों के बराबर माना गया है जो उनके बराबर नहीं हैं। जब एक बार कोटा नियत कर दिया जाता है और अखबारी कागज नीति के अनुसार कोटे के उपयोग के लिए निर्देश दे दिया जाता है तब बड़े- बड़े अखबारों को पृष्ठ संख्या में वृद्धि करने से रोका जाता है। वृद्धियों के लिए मूल कोटा और भत्ते की संगणना के लिए पृष्ठ संख्या और परिचालन दोनों सुसंगत हैं। अखबारी कागज के वितरण के आवरण में सरकार ने अखबारों के विकास और परिचालन को नियन्त्रित करने का प्रयास किया है। प्रेस स्वातन्त्र्य गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों प्रकार का है। स्वतन्त्रता, परिचालन और अन्तर्वस्तु अर्थात् दोनों में ही निहित है। जो अखबारी कागज नीति, अखबारों की पृष्ठ संख्या, पृष्ठ-क्षेत्र और अवधि घटाकर परिचालन को बनाने की अनुमति देता है, वह उन्हें परिचालन घटाकर पृष्ठ संख्या, पृष्ठ क्षेत्र और अवधि बढ़ाने से रोकता है। ये प्रतिबन्ध अखबारों को अपनी पृष्ठ संख्या, और परिचालन के बीच समायोजन करने के लिए विवश करते हैं। अखबारों पर सरकारी नीति का प्रभाव और परिणाम अखबारों के विकास और परिचालन को प्रत्यक्षतः नियन्त्रित करना है। प्रत्यक्ष प्रभाव अखबारों के विकास और परिचालन पर प्रतिबन्ध लगाना है। प्रत्यक्ष प्रभाव यह है कि अखबार विज्ञापन के अपने क्षेत्र से वंचित हो जाते हैं। प्रत्यक्ष प्रभाव यह है कि उन्हें आर्थिक हानि उठानी पड़ती है तथा वाक् और अभिव्यक्ति स्वातन्त्र्य का अतिलंघन होता है।         सरकार ने पृष्ठ स्तर के घटाने को न केवल अखबारी कागज की कमी के आधार पर बल्कि इस आधार पर भी न्यायोचित बताया कि बड़े-बड़े दैनिक अखबार बहुत अधिक स्थान का उपयोग विज्ञापनों के लिए करते हैं और यदि वे अपने विज्ञापन-स्थान में कुछ समायोजन कर लें तो पृष्ठों में की गई कटौती से उन्हें कोई हानि नहीं होगी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अखबारों के लिये आय का मुख्य स्रोत विज्ञापन है पृष्ठ स्तर में कटौती के परिणामस्वरूप न केवल अखबारों की आय घटेगी, वरन् पृष्ठ घटाने से उसका परिचलन भी घटेगा क्योंकि उनमें पाठकों के लिए अपेक्षित समाचारों और विचारों के लिए भी स्थान कम हो जायेगा जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी प्रतिबन्धित हो जाएगी। पृष्ठ घटाने के परिणामस्वरूप अखबारों को अपनी आमदनी के स्रोत के लिए विज्ञापनों को बढ़ाना पड़ेगा जिसके परिणामस्वरूप समाचारों के लिए स्थान कप होगा। विज्ञापनों की कमी होने पर अखबारों की अर्थ-व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जायेगी और उन्हें अपना प्रकाशन भी बन्द करना पड़ेगा। वाक् और अभिव्यक्ति स्वातन्त्र्य न केवल परिचलन की मात्रा में है, बल्कि समाचारों और विचारों की मात्रा में है।

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर  प्रतिबन्ध लगाने वाले कानून के प्रत्यक्ष प्रभाव की कसौटी-

      किसी कानून से किसी मूल अधिकार का अतिक्रमण हुआ है या नहीं, इसका निर्धारण उस मूल अधिकार पर पड़े प्रत्यक्ष और आवश्यक प्रभाव पर किया जायेगा न कि कानून के उद्देश्य या सारतत्व के आधार पर। प्रस्तुत मामले में अखबारी कागज का कोटा नियत करने का प्रत्यक्ष और अवश्यम्भावी प्रभाव समाचार-पत्रों का नियंत्रित करना है। राज्य की ओर से यह तर्क दिया गया था कि अखबारी कागज नीति का मुख्य उद्देश्य अखबारी कागज के आबंटन को विनियमित और नियन्त्रित करना था, अखबारों की स्वतन्त्रता को नियन्त्रित करना नहीं था। संक्षेप में तर्क यह था कि कानून की विषय-वस्तु पर ध्यान देना चाहिये उसके किसी विशेष अधिकार या प्रभाव पर ध्यान नहीं देना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने उक्त तर्क को अस्वीकार करते हुए प्रत्यक्ष प्रभाव की कसौटी का अनुमोदन किया और यह अभिनिर्धारित किया कि यदि आक्षेपित कानून प्रत्यक्षतः किसी मूल अधिकार पर आघात पहुंचाता है या उसे न्यून करता है तो उसके उद्देश्य या विषय-वस्तु पर ध्यान देना व्यर्थ होगा। प्रस्तुत मामले में यद्यपि अखबारी कागज नोति की विषय-वस्तु अखबारी कागज के आबंटन को नियन्त्रित करना था किन्तु उसका 'प्रत्यक्ष प्रभाव' प्रेस की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को नियन्त्रित करना था।

विज्ञापन- अभिव्यक्ति के एक साधन-

        विज्ञापन भी विचारों की अभिव्यक्ति के एक साधन हैं। किन्तु यदि विज्ञापन व्यापारिक प्रकृति के हैं तो उन्हें देश की सामान्य कर-विधि से विमुक्ति नहीं मिलेगी और सरकार उन पर यथोचित कर लगा सकती है। व्यापारिक विज्ञापनों में विचारों के प्रसार से अधिक व्यापार एवं वाणिज्य का तत्व प्रधान रहता है। हमदर्द दवाखाना बनाम भारत संघ के मामले में सरकार ने औषधि और जादू उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम का उद्देश्य औषधियों के विज्ञापन को नियंत्रित करना और बीमारियों को अच्छा करने के लिए जादु के गुणवाली औषधियों के विज्ञापन को निषिद्ध करना था। इस अधिनियम पर इस आधार पर आपत्ति उठायी गयी कि विज्ञापनों पर प्रतिबन्ध वाक स्वातन्त्र्य पर प्रतिबन्ध है। उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम को विधिमान्य घोषित करते हुए यह अवलोकन किया कि यद्यपि विज्ञापन अभिव्यक्ति का ही एक माध्यम है, तथापि प्रत्येक विज्ञापन वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से सम्बन्धित नहीं होता है। प्रस्तुत मामले में विज्ञापन विशुद्ध रूप से व्यापार एवं वाणिज्य से सम्बन्धित है, विचारों के प्रसार से नहीं। यह स्पष्ट है कि निषिद्ध औषधियों का विज्ञापन अनु० 19 (1) (क) के क्षेत्र से बाहर है, अतः ऐसे विज्ञापनों पर प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं।         प्रेस की स्वतन्त्रता औद्योगिक सम्बन्धों को विनियमित करने वाले कानूनों के अधीन है। चूंकि प्रेस भी एक कारखाना है, इसलिए ऐसे कानून जो उसमें काम करने वाले श्रमिकों और पत्रकारों की दशाओं के सुधार की दृष्टि से बनाये जाते हैं, अनुच्छेद 19 (1) (क) का उल्लंघन नहीं करते हैं।         अमेरिका में औद्योगिक सम्बन्धों को विनियमित करने वाला नेशनल लेबर रिलेशन ऐक्ट प्रेस में कार्य करने वाले कर्मचारियों और पत्रकारों पर भी लागू होता है। यह अधिनियम नियोक्ताओं को किसी कर्मचारी को उसके ट्रेड यूनियन में भाग लेने के कारण नौकरी से निकालने से मना करता है। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम को संवैधानिक घोषित कर दिया है। भारत में भी औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947, औद्योगिक नियोजन (स्थायी आदेश) अधि- नियम, 1946, कर्मकार प्राविडेण्ट फण्ड्स अधिनियम, 1952; वर्किंग जर्नलिस्ट ऐक्ट, 1955 आदि अधिनियम प्रेस में कार्य करने वाले कर्मचारियों पर लागू होते हैं। वर्किंग जर्नलिस्ट ऐक्ट, 1955 विशेष रूप से प्रेस कारखानों में कार्य करने वाले कर्मचारियों एवं पत्रकारों की सेवा शर्तों को सुधारने के लिए पारित किया गया है। यह उनकी ग्रेच्युटी, कार्य करने के समय तथा मजदूरी इत्यादि की व्यवस्था करता है। उच्चतम न्यायालय ने इस अधिनियम को संवैधानिक घोषित कर दिया है। देखिये – एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स बनाम भारत संघ का निर्णयइसी प्रकार प्रेस की स्वतन्त्रता संसदीय विशेषाधिकारों के भी अधीन है। सर्च लाइट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि कोई समाचारपत्र किसी सदस्य द्वारा विधानमण्डल में दिये गये भाषण को प्रकाशित नहीं कर सकता यदि उसे स्पीकर के आदेश द्वारा विधानमण्डल की कार्यवाही से निकाल दिया गया है।


धरना एवं प्रदर्शन- वाक् और अभिव्यक्ति का एक माध्यम-         धरना एवं प्रदर्शन भी अभिव्यक्ति के साधन हैं। किन्तु अनु० 19 (1) (क) केवल उन्हीं प्रदर्शनों या धरनों को संरक्षण प्रदान करता है जो निरायुध और शांतिपूर्ण हैं। देखिये – कामेश्वर सिंह बनाम स्टेट ऑफ बिहार '। हड़ताल करने का अधिकार अनु० 19 (1) (क) के अन्तर्गत कोई मूल अधिकार नहीं है, अतएव किसी भी व्यक्ति को हड़ताल करने से रोका जा सकता है। प्रदर्शन जब हड़ताल का रूप धारण कर लेता है तो वह विचारों के अभिव्यक्त करने का साधन मात्र नहीं रह जाता है। देखिए - ओ० के० घोष बनाम ई० एक्स० जोसेफ तथा राधेश्याम बनाम पी० । एम० जी० नागपुर के विनिश्चयों कोचलचित्रों पर पूर्व-अवरोध सांविधानिक है या असंवैधानिक-          भारत में इस विषय पर प्रस्तुत मामले के पहले कोई मामला न्यायालय के विचारार्थ नहीं आया था। चलचित्र प्रदर्शन भी वाक् और अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। के० ए० अब्बास बनाम भारत संघ' का मामला इस विषय पर पहला मामला है, जिसमें यह प्रश्न कि क्या अनु० 19 (2) के अन्तर्गत चलचित्रों पर पूर्व अवरोध लगाया जा सकता है, उच्चतम न्यायालय के समक्ष विचारार्थ आया। इस मामले में सिनेमैटोग्राफ ऐक्ट, 1952 की धारा 5 (ब) (2) की संवैधानिकता को चुनौती दी गयी थी। धारा 5 (ब) (2) केन्द्रीय सरकार को चलचित्रों के प्रदर्शन के लिए प्रमाण- पत्र देने वाले अधिकारियों के मार्गदर्शन के लिए ऐसे सिद्धान्तों को विहित करने का प्राधिकार देती है जिसे वह उचित समझे। इस अधिनियम के अधीन चलचित्रों को प्रदर्शन के पहले फिल्म ऑफ सेन्सर बोर्ड के समक्ष अनुमति प्राप्त करने के लिए भेजना पड़ता है, पिटीशनर ने अधिनियम के इस उपबन्ध को, जो चलचित्रों पर पूर्व-अवरोध लगाते हैं, को चुनौती दी और कहा कि यह अनु० 19 द्वारा प्रदत्त वाक् और अभिव्यक्ति के स्वातन्त्र्य का अतिक्रमण करता है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि चलचित्रों पर पूर्व-अवरोध (Precensorship) संवैधानिक हैं। चलचित्रों के निर्माण एवं प्रदर्शन पर पूर्व-अवरोध लोकहित में है। प्रश्नगत अधिनियम के उक्त उपबन्ध अनु० 19 (2) की परिधि के भीतर हैं, अतः संवैधानिक हैं। अमेरिका में चलचित्रों पर पूर्व-अवरोध को सांविधानिक माना गया है।

भारत के संविधान में स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 19-22: बोलने की स्वतंत्रता आदि के संबंध में कुछ अधिकारों का संरक्षण | Right to freedom, Article 19, Protection of certain rights regarding freedom of speech, etc.

भारत के संविधान में स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 19-22: बोलने की स्वतंत्रता आदि के संबंध में कुछ अधिकारों का संरक्षण | Right to freedom, Article 19, Protection of certain rights regarding freedom of speech, etc.



इस पोस्ट में आपको अनुच्छेद 19 में क्या लिखा हुआ है? अनुच्छेद 19 में कितने प्रकार की स्वतंत्रता है? अनुच्छेद 19 कब निलंबित होता है? भारतीय संविधान के भाग 19 में क्या है? अनुच्छेद 19 में कितने अधिकार है? आदि इन सब प्रश्नो के उत्तर जानने को मिलेंगे

स्वतन्त्रता का अधिकार: वैयक्तिक स्वतन्त्रता के अधिकार का स्थान मूल अधिकारों में सर्वोच्च माना जाता है। "स्वतन्त्रता ही जीवन है" इस अधिकार के अभाव में मनुष्य के लिए अपने व्यक्तित्व का विकास करना सम्भव नहीं है। भारतीय संविधान के अनु० 19 से 22 तक में भारत के नागरिकों को स्वतन्त्रता सम्बन्धी विभिन्न अधिकार प्रदान किये गये हैं। ये चारों अनुच्छेद दैहिक स्वतन्त्रता के अधिकार-पत्र स्वरूप हैं। उपर्युक्त स्वतन्त्रताएँ मूल अधिकारों के आधार स्तम्भ हैं। इनमें से सात मूलभूत स्वतन्त्रताओं का स्थान सर्वप्रमुख है। अनु० 19 भारत के सब 'नागरिकों' को निम्नलिखित सात स्वतन्त्रताएँ प्रदान करता है- (क) वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रताः (ख) सभा करने की स्वतन्त्रता; (ग) संघ बनाने की स्वतन्त्रताः (घ) भ्रमण की स्वतन्त्रता; (ङ) आवास की स्वतन्त्रता (च) सम्पत्ति अर्जन, धारण और व्ययन की स्वतन्त्रता (44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा निरस्त) (छ) पेशा, व्यवसाय, वाणिज्य एवं व्यापार की स्वतन्त्रता। 

अनु० 19 द्वारा प्रदत्त अधिकार केवल 'नागरिकों' को प्राप्त हैं- अनुच्छेद 19 में 'नागरिक' शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इसमें प्रदत्त स्वतन्त्रताएँ केवल भारत के नागरिकों को ही उपलब्ध हैं; किसी विदेशी को नहीं।'  इसी प्रकार एक कम्पनी भी नागरिक नहीं है अतएव वह अनु० 19 में प्रदत्त अधिकारों का दावा नहीं कर सकती है। 'नागरिक' शब्द से केवल मनुष्य मात्र का बोध होता है, कृत्रिम व्यक्ति का नहीं जैसे कि कम्पनी।
जैसा कि विदित है, उपर्युक्त स्वतन्त्रताएँ आत्यन्तिक (absolute) नहीं है। किसी भी देश में नागरिकों के अधिकार असीमित नहीं हो सकते हैं। एक व्यवस्थित समाज में ही अधिकारों का अस्तित्व हो सकता है। नागरिकों को ऐसे अधिकार नहीं प्रदान किये जा सकते जो समस्त समुदाय के लिए अहितकर हों। यदि व्यक्तियों के अधिकारों पर समाज अंकुश न लगाये तो उसका परिणाम विनाशकारी होगा। स्वतन्त्रता का अस्तित्व तभी सम्भव है जब वह विधि द्वारा संयमित हो। अपने अधिकारों के प्रयोग में हम दूसरों के अधिकारों पर आघात नहीं पहुँचा सकते हैं। ए० के० गोपालन के मामले में न्यायाधिपति श्री पतंजलि शास्त्री ने यह अवलोकन किया है कि "मनुष्य एक विचारशील प्राणी होने के नाते बहुत सी चीजों के करने की इच्छा करता है, लेकिन एक नागरिक समाज में उसे अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित करना पड़ता है और दूसरों के अधिकारों का आदर करना पड़ता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए संविधान के अनु० 19 (2) से (6) तक में युक्तियुक्त निर्बन्धन की व्यवस्था की गयी है। इनके अस्तर्गत यदि राज्य लोकहित में आवश्यक समझता है तो नागरिकों की स्वतन्त्रताओं पर निर्बन्धन लगा सकता है, लेकिन शर्त यह है कि निर्बन्धन युक्तियुक्त हो। युक्तियुक्त निर्बन्धन के लिए दो शर्तें आवश्यक हैं-

1-निर्बन्धन केवल अनु० 19 के खंड (2) से (6) के अन्तर्गत उल्लिखित आधारों पर ही लगाये जा सकते हैं। 2- निर्बन्धन युक्तियुक्त होना चाहिये। युक्तियुक्त निर्बन्धन की कसौटी (Reasonable Restriction): 'युक्तियुक्त' निर्बन्धन क्या है, यह एक कठिन प्रश्न है। निर्बन्धनों की युक्तियुक्तता का निर्धारण करना न्यायालयों का कार्य है। इस प्रकार 'युक्तियुक्त' शब्द न्यायालयों के पुनर्विलोकन की शक्ति को अत्यन्त विस्तृत कर देता है। इस प्रश्न पर विधानमण्डल का निर्णय अंतिम नहीं है। वह न्यायिक निरीक्षण के अधीन है। किन्तु निर्वन्धनों की युक्तियुक्तता को जाँचने के लिए कोई निश्चित कसौटी नहीं है। इस बात का निर्णय प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर ही किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने कुछ सामान्य नियम स्थापित किये हैं जिनके आधार पर निर्बन्धनों की युक्तियुक्तता की जाँच की जाती है। वे इस प्रकार हैं- (1) कोई निर्बन्धन युक्तियुक्त है या नहीं, इस प्रश्न पर अन्तिम निर्णय देने की शक्ति न्यायालयों को है, विधानमण्डल को नहीं।"

2- नागरिकों के अधिकारों पर लगाये गये निर्बन्धन अन्यायपूर्ण या सामान्य जनता के हितों में जितना अपेक्षित हैं उससे अधिक नहीं होना चाहिए। व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास होना चाहिए। आवश्यक है कि लगाये गये निर्बन्धनों और उस उद्देश्य में तर्कसंगत सम्बन्ध हो जिसे कानून बनाकर विधानमण्डल प्राप्त करना चाहता है।" यह कानून को स्वेच्छाचारी और आवश्यकता से अधिक निर्बन्धन लगाने की अनुमति देता है, अतः अवैध घोषित किया जा सकता है।

(3) युक्तियुक्तता का कोई निश्चित या सामान्य मानदण्ड निर्धारित नहीं किया जा सकता जो सभी मामलों में सामान्य रूप से लागू हो सके। इसका निर्धारण प्रत्येक वाद के तथ्यों के आधार पर ही किया जाता है। यह मानदण्ड उस अधिकार की प्रकृति जिसका उल्लंघन किया गया है, लगाये गये निर्बन्धनों के अन्तर्निहित प्रयोजन, बुराई की मात्रा और उसके दूर करने की अनिवार्यता, निर्बन्धन लगाने के अनुपात में भिन्नता, समकालीन परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। न्यायिक निर्णय के लिए इन सभी बातों पर विचार करना आवश्यक है।

(4) निर्बन्धनों को मौलिक विधि और प्रक्रियात्मक विधि दोनों दृष्टिकोण से युक्तिसंगत होना चाहिये। इसलिए न्यायालय को प्रतिबन्धों की केबल अवधि और मात्रा ही नहीं, वरन् उनकी परिस्थितियों और उनको लागू करने के लिए प्राधिकृत किये गये ढंग पर भी विचार करना चाहिये।

(5) राज्य की नीति के निदेशक तत्वों में निहित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए लगाये गये निर्वन्धन युक्तियुक्त निर्बन्धन माने जा सकते हैं।
(6) निर्बन्धनों की युक्तियुक्तता के निर्धारण में न्यायालयों का दृष्टिकोण वस्तुनिष्ठ (objective) होना चाहिए, व्यक्तिनिष्ठ (subjective) नहीं। युक्तियुक्तता का मानदण्ड एक औसत विवेकशील व्यक्ति का मानदण्ड है, न कि जिसे न्यायालय युक्तियुक्त मानता है। उच्चतम न्यायालय ने इसी दृष्टि से न्यायाधीशों की युक्तियुक्तता के निर्धारण में अपनी सामाजिक और आर्थिक विचारधारा प्रेरित न होने की चेतावनी दी है। न्यायालय ने कहा है कि यद्यपि इस बात के निर्धारण करने में कि क्या युक्तियुक्त है, न्यायाधीशों के व्यक्तिगत, सामाजिक दर्शन और मान्यताओं का बहुत बड़ा हाथ होता है इन मामलों में वे अपनी दायित्व की भावना और आत्मनियंत्रण द्वारा वैधानिक निर्णय में हस्तक्षेप को सीमित कर सकते हैं। उन्हें यह भली-भाँति समझना चाहिये कि संविधान केवल उनको विचारधारा वाले लोगों के लिए नहीं बनाया गया है वरन् सभी के लिये बनाया गया है और जनता के प्रतिनिधियों ने प्रतिवन्धों को युक्तियुक्त समझकर ही लगाया होगा।

(7) निर्बन्धनों को युक्तिसंगत बनाने के लिए उनमें और उस उद्देश्य में जिसे विधायिका कानून बनाकर प्राप्त करना चाहती है, एक विवेकपूर्ण सम्बन्ध होना चाहिए।

8) अनुच्छेद 19 (1) में दिये गये अधिकारों पर लगाये गये प्रतिवन्ध केवल अनुच्छेद 19 के खंड (2) से (6) के अन्तर्गत उल्लिखित आधारों पर हो लगाये जा सकते हैं। इससे अन्य किसी आधार पर लगाये गये प्रतिबन्ध असंवैधानिक होंगे।

(9) न्यायालयों का कार्य केवल निर्बन्धनों की युक्तियुक्तता का निर्माण करना है, कानून की युक्तियुक्तता का निर्धारण करना नहीं। न्यायालय को केवल यही देखना है कि नागरिकों के अधिकारों पर लगाये गये प्रतिबन्ध युक्तियुक्त है या नहीं। उनका कार्य यह देखना नहीं है कि अधिनियम में कार्यपालिका अधिकारियों को दिये गये अधिकारों के दुरुपयोग के विरुद्ध समुचित संरक्षण की व्यवस्था है या नहीं। कार्यपालिका अधिकारियों द्वारा अपनी शक्ति के दुरुपयोग की सम्भावना मात्र ही प्रतिबन्धों की युक्तियुक्तता के निर्धारण की कसौटी नहीं है।*

(10) युक्तियुक्त निर्बन्धन "निषेधात्मक (prohibitive) भी हो सकते हैं। कुछ विशेष परिस्थितियों में नागरिकों के अधिकार पर पूर्ण रोक केवल युक्तियुक्त निर्वन्धन माना जाता है। इस प्रकार खतरनाक व्यापारों के मामले में, जैसे शराब, नशीले पौधे उगाना, औरत का व्यापार करना, उस पूरे ब्यापार को देना युक्तियुक्त प्रतिबन्ध होगा। प्रत्येक नागरिक को किसी भी विधिपूर्ण वाणिज्य या व्यापार करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। किन्तु इन अधिकारों का प्रयोग उसे युक्तियुक्त प्रतिबन्धों के अधीन करना होता है और उन पर ऐसे प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं जिसे सरकार समाज को सुरक्षा, शान्ति-व्यवस्था एवं नैतिकता इत्यादि के लिये आवश्यक समझती है। लेकिन जहाँ प्रतिवन्ध निषेध की सीमा तक पहुँच जाता है, वहाँ न्यायालयों को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि युक्तियुक्त निर्वन्धन के मानदंड को पूरा किया गया है या नहीं।

FAQ:
    Q. अनुच्छेद 19 में क्या लिखा हुआ है?
    Q. अनुच्छेद 19 में कितने प्रकार की स्वतंत्रता है?
    Q. अनुच्छेद 19 कब निलंबित होता है?
    Q. भारतीय संविधान के भाग 19 में क्या है?
    Q. अनुच्छेद 19 में कितने अधिकार है?

                                                                                                                                                क्रमशः.......

समता का अधिकार, अनुच्छेद 18, उपाधियों का अन्त | Article 18 of Indian Constitution in Hindi

समता का अधिकार, अनुच्छेद 18, उपाधियों का अन्त | Article 18 of Indian Constitution in Hindi



अनुच्छेद 18 राज्य के किसी भी व्यक्ति, चाहे वह नागरिक हो या विदेशी, की उपाधियाँ प्रदान करने से मना करता है। इस प्रकार यह अनुच्छेद भारत में ब्रिटिश शासनकाल में प्रचलित सामंतशाही परम्परा का अन्त करता है। किन्तु अनु० 18 सेना या विद्या सम्बन्धी उपाधियों को प्रदान करने की अनुमति देता है, क्योंकि उनसे व्यक्तियों में देश की सैनिक शक्ति को मजबूत करने तथा देश की प्रगति के लिए आवश्यक वैज्ञानिक विकास करने का प्रोत्साहन मिलता है।


इस अनुच्छेद का खंड (2) भारत के किसी नागरिक को किसी विदेशी सरकार से कोई उपाधि स्वीकार करने से मना करता है। खंड (3) के अनुसार कोई विदेशी व्यक्ति जो राज्य के अधीन किसी विश्वसनीय पद पर है, बिना राष्ट्रपति की सम्मति के किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता है। यह राज्य प्रशासन से सम्बन्धित मामलों पर से सभी प्रकार के विदेशी प्रभाव को समाप्त करता है और व्यक्ति में भारत के प्रति निष्ठा की भावना का सृजन करता है।

खण्ड (4) यह उपबन्धित करता है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह नागरिक हो या विदेशी जो राज्य के अधीन किसी विश्वसनीय पद पर है, किसी विदेशी राज्य से बिना राष्ट्रपति की सम्मति के कोई उपहार, उपाधि, वृत्ति अथवा पद स्वीकार नहीं कर सकता है।

भारत सरकार प्रत्येक वर्ष गणतन्त्र दिवस पर अपने नागरिकों को 'भारत रत्न', पद्म विभूषण', 'पद्मश्री' आदि उपाधियों से विभूषित करती है। ये उपाधियां उन्हें जीवन के विभिन्न क्षेत्र में विशिष्ट योगदान देने पर प्रदान की जाती हैं।

अनुच्छेद 18 के उपबन्धों की अवहेलना करने वालों के लिए संविधान में किसी दंड व्यवस्था का उपबन्ध नहीं है। यह अनुच्छेद केवल निदेशात्मक है, आदेशात्मक नहीं। किन्तु संसद् को कानून बनाकर इन उपबन्धों की अवहेलना करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था करने की पूर्ण शक्ति प्राप्त है।