मूल अधिकार: न्यायालयों की न्यायिक-पुनर्विलोकन की शक्ति
वस्तुतः अनुच्छेद 13 न्यायालयों को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान करता है। संविधान ने इस शक्ति को भारत के उच्चतम न्यायालय को प्रदान किया है। उच्चतम न्यायालय किसी भी विधि को जो मूल अधिकारों से असंगत है, अवैध घोषित कर सकता है।
न्यायिक पुनर्विलोकन का अर्थ एवं आधार
प्रोफेसर कारविन के अनुसार, न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति न्यायालयों की वह शक्ति है जिसके अंतर्गत न्यायलय विधान मंडलों द्वारा पारित अधिनियमों की संवैधानिकता की जांच करते हैं तथा ऐसी किसी भी विधि को प्रवर्तित होने से इंकार कर सकते हैं जो संविधान के उपबंधों से असंगत है। यह कार्य न्यायालयों के साधारण क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आता है।
मानव के विकास का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब किसी व्यक्ति को असीमित शक्ति मिल जाती है तो वह भ्रष्ट हो जाता है और वह उस असीमित शक्ति के प्रयोग से समाज में अत्याचार, अराजकता और अव्यवस्था उत्पन्न कर देता है। मनुष्य की शक्ति को सीमित करने के लिए सर्वदा से प्रयास किया जाता रहा है और इसी उद्देश्य से ऐसी संस्थाओं की स्थापना की गई है जो इस शक्ति के प्रयोग पर अंकुश लगा सकें। समस्या तब और कठिन हो जाती है जब सरकार मनमाने ढंग से कार्य करने लगती है। मांटेस्क्यू ने सरकार के सभी अंगों के अबाधित और अनियंत्रित शक्ति के प्रयोग पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से ही शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका के सम्मिलित नाम को सरकार कहते हैं। सरकार के अंतर्गत यही तीनों शक्तियां होती हैं। इस सिद्धांत के अनुसार इन तीनों शक्तियों का पृथक्करण आवश्यक है। यह आवश्यक है कि राज्य की एक शक्ति दूसरी शक्ति के संचालन में हस्तक्षेप ना करें और प्रत्येक अंग अपनी अपनी सीमा में रहकर कार्य करें तथा सरकार के एक अंग में सारी शक्ति का केंद्रीकरण ना हो। इन शक्तियों में आपस में संतुलन स्थापित करके ही मनुष्य के निरंकुश स्वभाव पर अंकुश लगाया जा सकता है और संविधान प्रदत्त स्वतंत्रताओं की रक्षा की जा सकती है।
इस प्रकार न्यायिक पुनर्विलोकन विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों के प्रयोग पर नियंत्रण रखने की शक्ति है। न्यायिक पुनर्विलोकन की धारणा का उद्भव सीमित शक्ति वाली सरकार के सिद्धांत से हुआ है। इस सिद्धांत के अनुसार विधि दो प्रकार की होती है: एक- साधारण विधि और दूसरी- सर्वोच्च विधि अर्थात संविधान। देश की सर्वोच्च विधि अन्य सभी विधियों का आधार और स्रोत होती है। ऐसी कोई भी विधि जो संविधान के उपबंधों का उल्लंघन या अतिक्रमण करती है, असंवैधानिक मानी जाएगी। ऐसी दशा में किसी संस्था को उन विधियों को असंवैधानिक घोषित करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए और वह संस्था निसंदेह रूप से न्यायपालिका है।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के वाद में न्यायाधीश खन्ना ने न्यायिक पुनर्विलोकन के बारे में कहा है कि फेडरल प्रणाली में जहां विधायी शक्तियों का केंद्रीय विधान मंडल और राज्य विधान मंडल में बंटवारा होता है, ऐसे विवादों के निपटारे के लिए कि, क्या एक विधान मंडल ने दूसरे के विधान मंडल के क्षेत्र में अतिक्रमण किया है? न्यायालयों की व्यवस्था की गयी है और विधान मंडलों द्वारा पारित किए गए अधिनियम की विधि मान्यता का अवधारण करने के लिए न्यायालयों में न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति निहित की गई है। न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति केवल इस बात का विनिश्चय करने तक सीमित नहीं है कि, क्या अपेक्षित विधियां बनाने में विधान मंडलों ने अपने निश्चित विधायी सूचियों की परिधि के भीतर काम किया है बल्कि न्यायालय इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि, क्या विधियां संविधान के अनुच्छेदों के अनुरूप बनाई गई हैं और उनमें संविधान के अन्य उपबंधों का उल्लंघन तो नहीं होता है। इस प्रकार न्यायिक पुनर्विलोकन हमारी संविधानिक पद्धति का एक अभिन्न अंग बन गया है।
अमेरिका के संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन से संबंधित कोई स्पष्ट उपबंध नहीं है परन्तु अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की व्याख्या द्वारा विधान मंडल द्वारा निर्मित कानून की वैधता को जांचने की विस्तृत शक्ति को स्वयं धारण किया है। यह महत्वपूर्ण सिद्धांत मारवाड़ी बनाम मेडिसन के प्रमुख वाद में चीफ जस्टिस मार्शल द्वारा पारित किया गया था। न्यायालय का निर्णय सुनाते हुए उन्होंने कहा था कि, संविधान देश की सर्वोच्च विधि होता है। इसमें परिवर्तन एक विशेष प्रक्रिया द्वारा ही किया जा सकता है। अन्य सभी विधियां संविधान के अधीन होती हैं और उनमे आसानी से परिवर्तन किए जा सकते हैं। जिन लोगों ने लिखित संविधान की रचना की थी, उनकी निसंदेह रूप से यह धारणा थी कि संविधान देश की मूल और सर्वोच्च विधि हो। इस सिद्धांत का स्वाभाविक परिणाम होता है कि विधान मंडल द्वारा निर्मित वे विधियां जो संविधान के उपबंधों के विरुद्ध हैं, अवैध घोषित की जा सकती हैं। संविधान के विरुद्ध विधियों को अवैध घोषित करने की शक्ति किसे होगी ? इस बात पर न्यायालय ने कहा कि यह सत्य निसंदेह रूप से न्यायपालिका को ही होगी।
भारतीय संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन से संबंधित स्पष्ट संविधान में ही निहित है। इस दृष्टि से भारतीय संविधान अमेरिका के संविधान से निश्चय ही आगे है। मद्रास राज्य बनाम बी जी राव के वाद में मुख्य न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री ने कहा है कि हमारे संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन से संबंधित स्पष्ट उपबंध दिए गए हैं, जो संविधान के अनुकूल हैं। परन्तु यह अमेरिका से भिन्न है जहां कि सर्वोच्च न्यायालय ने 5वें और 14वें संशोधन में प्रयुक्त सम्यक विधि प्रक्रिया (The process of law ) पदावली की विस्तृत व्याख्या करके विधायिका द्वारा पारित अधिनियमों के न्यायिक पुनर्विलोकन की असीमित शक्ति धारण की है। यदि कभी इस देश के न्यायालयों के समक्ष ऐसा महत्वपूर्ण और कठिन प्रश्न आए तो, संविधान द्वारा न्यायालयों को प्रदत्त इस शक्ति का उद्देश्य विधायिका के प्राधिकार पर जानबूझकर आक्रमण की भावना से कूद पड़ने का नहीं है, बल्कि ऐसे समय उन्हें संविधान द्वारा दिए गए अपने कर्तव्य को सीधे-साधे ढंग से संपादित करना है। यह विशेष रूप से मूल अधिकारों के संबंध में सत्य है, क्योंकि संविधान ने उन अधिकारों पर न्यायालय को एक सजग प्रहरी के रूप में नियुक्त किया है।
संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन के उपबंध ना होने पर भी न्यायालय संविधान के उपबंधों का उल्लंघन करने वाली विधियों को अवैध घोषित करने में सक्षम रहे होते, क्योंकि न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति संविधानिक-विधि की प्रकृति में ही निहित है। ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य के वाद में मुख्य न्यायाधीश कानियाँ ने कहा है कि, संविधान निर्माताओं ने तो केवल चेतावनी के रूप में अनुच्छेद 13 में न्यायिक पुनर्विलोकन से संबंधित अभिव्यक्ति उपबंधों का समावेश किया है, अन्यथा इसके अभाव में भी न्यायालयों को ऐसी शक्ति सहज रूप से प्राप्त है। भारत में संविधान सर्वोच्च विधि है और एक कानून को वैध होने के लिए यह आवश्यक है कि वह सभी प्रकार से संविधान के उपबंधों के अनुरूप हो। कोई अधिनियम संवैधानिक है या नहीं इस बात का निर्णय करने का अधिकार न्यायपालिका को ही है। ,
यद्यपि भारतीय संविधान में विधायिका द्वारा पारित अधिनियमों पर न्यायिक पुनर्विलोकन का आधार अमेरिका के संविधान से अधिक सुदृढ स्थिति में है, किंतु अमेरिकन संविधान की तुलना में इसकी शक्ति बहुत सीमित है। ऐसा मुख्य रूप से दो कारणों से है, एक तो यह कि भारतीय संविधान बड़ा विस्तृत है और दूसरे यह कि इसमें संशोधन बड़ी सरलता से किया जा सकता है। इस दृष्टि से अमेरिका का संविधान भारतीय संविधान से कुछ भिन्न है। अमेरिका का संविधान छोटा तथा इसकी भाषा बड़ी सामान्य है और भारतीय संविधान की तुलना में उसके संशोधन की प्रक्रिया भी कठिन है। इन्हीं सब कारणों से वहां न्यायिक पुनर्विलोकन का क्षेत्र बड़ा विस्तृत है और अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय को इस संबंध में अबाधित शक्ति प्राप्त है।
इस प्रकार न्यायिक पुनर्विलोकन की इस शक्ति के अंतर्गत देश का उच्चतम न्यायालय सभी संविधान-पूर्व और संविधानोत्तर या भावी विधियों को यदि वे संविधान के भाग 3 के उपबंधों का अतिक्रमण करती हैं, असंवैधानिक घोषित कर सकता है।
न्यायिक पुनर्विलोकन का अपवर्जन
प्रथम अपवर्जन
इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के परिणाम स्वरूप न्यायिक पुनर्विलोकन का क्षेत्र काफी संकुचित हो गया। इंदिरा नेहरू गांधी के मामले में अपीलार्थी के निर्वाचन को उच्च न्यायालय ने चुनाव में भ्रष्ट आचरण के आधार पर शून्य घोषित कर दिया था। संसद ने संविधान में 39 वां संशोधन अधिनियम 1965 पारित कर उच्च न्यायालय के निर्णय को शून्य घोषित कर दिया और अपीलार्थी के निर्वाचन को विधिमान्य घोषित कर दिया। प्रत्यर्थी ने दलील दिया कि न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान के आधारभूत ढांचे का आवश्यक अंग है और निर्वाचन के मामले में न्यायिक पुनर्विलोकन को समाप्त कर संविधान के आधारभूत ढांचे को नष्ट कर दिया गया है। मुख्य न्यायाधिपति श्री ए एन राय ने यह निर्धारित किया कि संविधायी शक्ति (Constitutional Power) के अंतर्गत विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका शक्ति शामिल है। संविधायी शक्ति (Constitutional Power) संपूर्ण-प्रभुत्व-संपन्न है। संविधान के अनुच्छेद 31 (4), 31 (6), 33, 126 (2), 227 (4), 262 (2), और 329 के द्वारा न्यायिक पुनर्विलोकन अपवर्जित (Excluded) कर दिया गया है। अमेरिका में लागू शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत हमारे संविधान में लागू नहीं होता है। न्यायिक पुनर्विलोकन किसी अनुच्छेद पर आधारित नहीं है। संसद निर्वाचन विवादों के निपटारे के लिए ऐसा उपबंध कर सकती है। यह न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों के आधारों को परिवर्तित करके निर्णय को प्रभावित कर सकती है। ऐसा कार्य न्यायिक शक्ति में हस्तक्षेप नहीं कहा जा सकता है। मुख्य न्यायाधिपति के इस मत का न्यायाधिपति श्री बेग ने खंडन किया है कि संविधायी शक्ति न्यायिक कार्यों का भी संपादन कर सकती है।
द्वितीय अपवर्जन
42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा अनुच्छेद 13 और अनुच्छेद 368 में संशोधन करके संवैधानिक संशोधनों को न्यायिक पुनर्विलोकन से परे कर दिया गया है।
तृतीय अपवर्जन
अनुच्छेद 39 ब और 39 स में निहित नीति निदेशक तत्वों के कार्यान्वयन के लिए पारित विधियों को इस आधार पर न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वह अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 में प्रदत्त मूल अधिकारों से असंगत हैं या उनको छीनती हैं।
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