मूल अधिकार: राज्य के विरुद्ध संरक्षण
मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध संरक्षण हैं-
मूल अधिकारों का जन्म जनता और राज्य शक्ति के बीच संघर्ष का परिणाम है। व्यक्ति अपने अधिकारों की संवैधानिक सुरक्षा राज्य शक्ति के विरुद्ध ही आवश्यक समझता है। राज्य शक्ति के समक्ष वह कमजोर होता है। भारतीय संविधान के भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकार राज्य शक्ति के विरुद्ध गारंटी किए गए हैं ना कि सामान्य व्यक्तियों के अवैध कृतियों के विरुद्ध। व्यक्तियों के अनुचित कृत्यों के विरुद्ध साधारण विधि में अनेक उपचार उपलब्ध हैं। इसके अलावा वह और दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध उतना असहाय और अशक्त नहीं होता है जितना कि राज्य-शक्ति के विरुद्ध। पी. डी. शामदासिनी बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के मामले में, सेंट्रल बैंक के अधिकारियों ने अपने एक कर्मचारी की संपत्ति जप्त करने का आदेश जारी किया। कर्मचारी ने संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय में एक याचिका प्रस्तुत की, जिसमें उसने यह कहा कि बैंक के कार्यों के फलस्वरुप वह अनुच्छेद 19 और 31 में दिए गए अपने संपत्ति के अधिकार से वंचित किया जा रहा है। अतः न्यायालय को समुचित लेख जारी करके बैंक को ऐसा करने से रोकना चाहिए। न्यायालय ने उसकी याचिका को खारिज कर दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 19 तथा 31 में निहित संरक्षण व्यक्तियों के अनुचित कार्यों के विरुद्ध नहीं प्राप्य हैं, वरन राज्य शक्ति के विरुद्ध प्राप्य हैं। किसी अन्य व्यक्ति द्वारा मूल अधिकारों के अतिलंघन करने का उपचार साधारण विधि में खोजे जाने चाहिए संविधान में नहीं। क्योंकि सेंट्रल बैंक एक व्यक्ति है, इसलिए उसके कार्यों के विरुद्ध उपचार साधारण विधि में खोजा जाना चाहिए। किंतु यदि किसी व्यक्ति का कार्य राज्य द्वारा समर्थित है, तो उससे पीड़ित व्यक्ति उस कार्य की संवैधानिकता को चुनौती दे सकता है।
राज्य ( The State ) शब्द की परिभाषा अनुच्छेद 12-
जैसा कि विदित है, संविधान के भाग 3 में निहित मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध प्राप्त हैं। अनुच्छेद 12 संविधान के भाग 3 के प्रयोजन के लिए राज्य शब्द की परिभाषा करता है। यह परिभाषा संविधान के अन्य अनुच्छेद में प्रयुक्त राज्य शब्द पर लागू नहीं होती है, जैसे- अनुच्छेद 31 में प्रयुक्त राज्य शब्द। अनुच्छेद 12 के अनुसार राज्य शब्द के अंतर्गत निम्नलिखित शामिल हैं:
1- भारत सरकार एवं संसद,
2- राज्य सरकार एवं विधान मंडल,
3- सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी जो भारत में है या भारत सरकार के अधीन है,
प्राधिकारी ( Authorities )-
साधारण अर्थ में प्राधिकारी शब्द का अर्थ उस व्यक्ति या निकाय से है, जो शक्ति का प्रयोग करते हैं। किंतु अनुच्छेद 12 के संदर्भ में, प्राधिकारी शब्द का अर्थ है जिन्हें विधि, उपविधि, आदेश, अधिसूचना आदि के निर्माण या जारी करने की शक्ति होती है और साथ ही प्रवर्तित करने की भी शक्ति होती है। यदि किसी अधिकारी को ऐसी शक्ति प्राप्त है तो वह राज्य शब्द की परिभाषा में के अंतर्गत आता है। उदाहरण के लिए, केशव बनाम लोक सेवा आयोग ऑफ मैसूर में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि लोक सेवा आयोग राज्य शब्द के अंतर्गत ऐसा प्राधिकारी नहीं है, क्योंकि वह राज्य सरकार द्वारा निर्दिष्ट किए बगैर स्वयं अपने निर्णय को कार्यान्वित करने की शक्ति नहीं रखता है। उसे संविधान के द्वारा ऐसी शक्ति प्राप्त नहीं है कि वह अपने कार्यों को स्वतंत्र रूप से कार्यान्वित कर सके।
स्थानीय प्राधिकारी ( Local Authorities ) -
स्थानीय प्राधिकारी शब्द के अंतर्गत नगर पालिकाएं, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, पंचायत, इंप्रूवमेंट ट्रस्ट, माइनिंग सेटेलमेंट बोर्ड, आदि संस्थाएं आती हैं। मोहम्मद यामीन बनाम टाउन एरिया कमेटी के वाद में शहर की न्यायपालिका ने थोक विक्रेताओं के ऊपर निश्चित बिक्रीकर लगाया, उसे एक उपविधि के अंतर्गत ऐसा प्राधिकार प्राप्त था। उच्चतम न्यायालय ने नगरपालिका को अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त राज्य शब्द के अंतर्गत माना और यह निर्णय दिया कि उसका कर लगाने का आदेश अवैध है, क्योंकि वह अनुच्छेद 19 1 (3) में दिए गए मूल अधिकार का अतिक्रमण करता है। इसी प्रकार श्रीराम बनाम दि नोटिफाइड एरिया कमिटी के वाद में न्यायालय ने उत्तर प्रदेश नगर पालिका अधिनियम 1916 की धारा 294 के अंतर्गत लगाए गए कर को अवैध घोषित कर दिया है।
अन्य प्राधिकारी ( Other Authorities ) -
अनुच्छेद 12 में प्रारंभ में कुछ प्राधिकारियों के उल्लेख करने के उपरांत अन्य प्राधिकारी पदावली का प्रयोग किया गया है। प्रारंभ में कई उच्च न्यायालयों ने इसकी बहुत ही संकुचित व्याख्या की थी और कहा था कि अन्य प्राधिकारी पदावली में उपर्युक्त वर्णित प्राधिकारियों की तरह अन्य प्राधिकारी सम्मिलित हैं। यूनिवर्सिटी आफ मद्रास बनाम शांताबाई के मामले में उपर्युक्त व्याख्या के आधार पर मद्रास उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अन्य प्राधिकारी पदावली में केवल वे प्राधिकारी ही शामिल किए जा सकते हैं, जो शासकीय या प्रभुता संपन्न शक्ति ( Sovereign Power ) का प्रयोग करते हैं। उक्त परिभाषा के अंतर्गत कोई भी प्राकृतिक अथवा विधिक व्यक्ति, जैसे कि एक विश्वविद्यालय नहीं आता है, जब तक कि वह राज्य द्वारा संचालित या सहायता नहीं प्राप्त करता हो। किंतु उच्चतम न्यायालय ने उज्जमा बाई बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा अन्य प्राधिकारी शब्द की संकुचित व्याख्या को मानने से अस्वीकार कर दिया और यह निर्णय दिया कि प्राधिकारियों की ऐसी कोई सामान्य श्रेणी नहीं है, जो अनुच्छेद 12 में उल्लिखित निकायों की श्रेणी में आते हो और न ही इनको निकायों की श्रेणी में रखना न्याय संगत होगा। इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड राजस्थान बनाम मदन लाल के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त अन्य प्राधिकारी शब्द में वे सभी अधिकारी सम्मिलित होंगे, जो संविधान या किसी अधिनियम द्वारा स्थापित किए जाएंगे और जिन्हें विधि, उपविधि, आदि निर्मित करने की शक्ति प्राप्त होगी। यह आवश्यक नहीं कि सांविधिक प्राधिकारी ( Statutory Authorities ) शासकीय प्रभुत्व संपन्न शक्ति का प्रयोग करते हैं। इस निर्वचन के अनुसार अन्य प्राधिकारी शब्द के अंतर्गत राजस्थान इलेक्ट्रिसिटी इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड कोचीन, देवासन बोर्ड, कोआपरेटिव सोसाइटियां जैसी संस्थाएं सम्मिलित होंगी जिन्हें को-ऑपरेटिव सोसाइटीज एक्ट 1911 के अंतर्गत उपविधियां बनाने की शक्ति प्राप्त है। उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश जब न्यायालय के अधिकारियों की नियुक्ति करता है, तथा राष्ट्रपति जब संविधान के अनुच्छेद 359 के अंतर्गत आदेश जारी करता है, अन्य प्राधिकारी शब्द के अर्थांतर्गत ही आते हैं। इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड राजस्थान के निर्णय ने एक तरह से मद्रास उच्च न्यायालय के इस निर्णय को उलट दिया कि विश्वविद्यालय राज्य शब्द के अंतर्गत नहीं आता है। उच्चतम न्यायालय का इस विषय पर कोई सीधा निर्णय नहीं है। किंतु उच्चतम न्यायालय के निर्णय का अनुसरण करते हुए पटना उच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया है कि विश्वविद्यालय राज्य शब्द के अंतर्गत आते हैं। उमेश बनाम बी. एन. सिंह वाद इसका अच्छा उदाहरण है।
सुखदेव सिंह बनाम भगतराम के मामले में उच्चतम न्यायालय ने इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड राजस्थान के मामले में उत्पादित कसौटी का अनुसरण करते हुए 4 -1 के बहुमत से यह अभिनिर्धारित किया है कि जीवन बीमा निगम, तेल और प्राकृतिक गैस आयुक्त तथा कारखाना वित्त निगम अनुच्छेद 12 के अंतर्गत अन्य प्राधिकारी पदावली में आते हैं और इसलिए वे राज्य हैं। अधिनियम इन संविधिक निगमों को संविधि के अधीन अपने कर्मचारियों की सेवा-शर्तों को विनियमित करने के लिए अधिनियमित अधिनियम ( Regulations ) बनाने की शक्ति प्राप्त है। इन निगमों द्वारा निर्मित नियम और विनियम ( Rules and Regulations ) को कानून का बल प्राप्त है। प्रस्तुत मामले में प्रश्न यह था, यदि निकायों द्वारा उनके सेवकों की पदच्युति का आदेश इन विनियमों का उल्लंघन करता है तो उन्हें अनुच्छेद 14 तथा 16 का संरक्षण प्राप्त है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि ऐसे आदेश भी नियमों का उल्लंघन करते हैं तो अवैध होंगे, परन्तु इन निकायों में कर्मचारियों की भर्ती की नीतियां तथा सेवा-शर्ते वही होंगी, जो संविधि ( Statute ) के अंतर्गत बने नियमों में उपस्थित हैं। वे इन सेवा-शर्तों को मानने के लिए बाध्य हैं और इनके उल्लंघन में की गई कोई भी पदच्युति अवैध होगी। न्यायाधिपति श्री मैथ्यू ने बहुमत से सहमत होते हुए अपने अलग निर्णय में यह मत व्यक्त किया कि वे एक विस्तृत कसौटी के पक्ष में हैं और जिसके अनुसार यदि निगम सार्वजनिक महत्व के कार्य में लगा है और सरकार के कार्यों से अभिन्न रूप से संबंधित है तो वह सरकार का अभिकर्ता अथवा अभिकरण होगी और अनुच्छेद 12 के अंतर्गत राज्य होगी।
अपने हाल के निर्णयों में उच्चतम न्यायालय ने सुखदेव सिंह के मामले में न्यायाधिपति श्री मैथ्यू द्वारा विहित विस्तृत कसौटी को प्राथमिकता दी है और अन्य प्राधिकारी पदावली के क्षेत्र को काफी विस्तृत कर दिया है। राज्य के कल्याणकारी स्वरूप को ध्यान में रखते हुए अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त अन्य प्राधिकारी शब्दावली के क्षेत्र को विस्तृत करना उचित ही है, क्योंकि अब राज्य मानव जीवन के हर पहलू में प्रवेश कर गया है और ऐसे अभिकरणों के माध्यम से कार्य कर रहा है जो ना तो संविधान है और ना ही किसी अधिनियम द्वारा सीधे स्थापित नहीं किए जाते हैं। एयरपोर्ट अथारिटी के वाद में न्यायाधीश श्री भगवती ने सुखदेव सिंह के वाद में न्यायाधीशों द्वारा प्रतिपादित विस्तृत कसौटी को स्वीकार किया और यह निर्धारित किया है कि एक विधिक व्यक्ति, जैसे कि एक सांविधिक निगम, एक सरकारी कंपनी या रजिस्टर्ड सोसाइटी सरकार की अभिकर्ता अथवा अभिकरण हो सकती है और अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त अन्य प्राधिकारी पदावली के अंतर्गत आ सकती है। यूपी वेयर हाउसिंग कारपोरेशन बनाम विजय नारायण के वाद में उच्चतम न्यायालय ने उक्त कसौटी को लागू करते हुए अभिनिर्धारित किया है कि उत्तर प्रदेश राज्य भंडार निगम राज्य है क्योंकि उसकी स्थापना एक संविधि के अधीन हुई है तथा राज्य के नियंत्रण और स्वामित्व में है। वह राज्य का एक अभिकरण है तथा अनुच्छेद 12 के अंतर्गत प्राधिकारी है।
शोम प्रकाश बनाम भारत संघ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने एयरपोर्ट और वेयरहाउसिंग कारपोरेशन के मामलों में प्रतिपादित विस्तृत कसौटी का अनुमोदन करते हुए यह अभिनिर्धारत किया कि भारत पेट्रोलियम कारपोरेशन अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त शब्दावली अन्य प्राधिकारी के अंतर्गत राज्य है क्योंकि उसे संविधि के अंतर्गत अधिकार और कर्तव्य प्रदान किए गए हैं। इस बात के निर्धारण के लिए कि क्या कोई निकाय राज्य की अभिकर्ता अथवा अभिकरण है ? न्यायालय ने निम्नलिखित कसौटियाँ विहित की हैं- 1- निकाय का विहित स्रोत क्या है अर्थात निगम की संपूर्ण पूँजी राज्य धारित किए है, 2- राज्य का निकाय पर व्यापक नियंत्रण है, 3- कार्य की प्रकृति सार्वजनिक महत्व की है और अभिन्न रूप से राज्य से सम्बद्ध है, 4- यदि कोई राजकीय विभाग निगम को हस्तांतरित कर दिया गया है, 5- क्या निगम को एकाधिकार की स्थित प्राप्त है जो राज्य और राज्य संरक्षित है। परन्तु न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि उक्त कसौटिंयां केवल दृष्टांत के लिए हैं। वे ही एकमात्र कसौटिंयां नहीं हैं।
अजय हसिया बनाम खालिद मजीद के वाद में उच्चतम न्यायालय ने उपर्युक्त वादों में वित्त कसौटी का अनुसरण करते हुए अभिनिर्धारित किया कि सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट 1898 के अधीन रजिस्टर्ड एक सोसाइटी केंद्रीय सरकार की एक अभिकरण है। अतः वह अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त अन्य प्राधिकारी पदावली के अंतर्गत राज्य है। सोसाइटी की रचना राज्य के प्रतिनिधि द्वारा निर्धारित की जाती है। उसका समस्त खर्चा केंद्रीय सरकार वहन करती है। सोसाइटी द्वारा निर्मित नियमों को केंद्रीय सरकार की पूर्व अनुमति से बनाया जाता है। सोसाइटी सरकार के सभी निर्देशों को मानने के लिए बाध्य है। इसके सदस्यों की नियुक्ति और पदच्युति की शक्ति केंद्र सरकार को प्राप्त है। इस प्रकार केंद्रीय सरकार का सोसाइटी पर पूर्ण नियंत्रण है। निगम या निकाय का सृजन कैसे किया जाता है ? यह आवश्यक कसौटी नहीं है कि निगम को एक संविधि द्वारा स्थापित किया जाता है, या कंपनी अधिनियम के तहत राजिस्टर्ड करके बनाया जा सकता है, अथवा सोसाइटीज एक्ट के तहत बनाया जा सकता है। यदि उसमें उपर्युक्त कसौटिंयां पाई जाती हैं, तो वह राज्य का अभिकरण होगा। सभाजीत तिवारी बनाम संघ के मामले में सोसाइटी को इन कसौटिंयों के आधार पर राज्य का अभिकर्ता या अभिकरण नहीं माना गया था और उसे राज्य की परिभाषा में शामिल नहीं किया गया था।
भारत सरकार के नियंत्रण में कार्य करने वाले प्राधिकारी-
भारत सरकार के नियंत्रण में रहने वाले प्राधिकारी का अर्थ है कि वह भारत क्षेत्र से बाहर के वे सभी क्षेत्र जो भारत के नियंत्रण में हैं या भविष्य में आ सकते हैं, जैसे मैंडेटरी या ट्रस्टी वाले भू-क्षेत्र। ऐसे क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय समझौते के द्वारा भारत के नियंत्रण में आ सकते हैं। इन क्षेत्रों में रहने वाले प्राधिकारियों के विरुद्ध भी मूल-अधिकार उपलब्ध होते हैं। ऐसे क्षेत्र संविधान के भाग 3 के अधीन है और इन क्षेत्रों के निवासी भी मूल-अधिकारों का दावा कर सकते हैं।
क्या न्यायपालिका राज्य शब्द के अंतर्गत आती है-
अमेरिका में यह सिद्धांत बड़ी दृढ़ता के साथ स्थापित हो चुका है कि संविधान के 14-वें संशोधन का संरक्षण न्यायपालिका के कार्यों के विरुद्ध भी प्राप्त है, अर्थात यदि न्यायालयों के किसी आदेश के फलस्वरूप किसी व्यक्ति के मूल-अधिकार का उल्लंघन होता है तो वह आदेश अवैध घोषित किया जा सकता है। डॉक्टर बी एन शुक्ल के मतानुसार अन्य प्राधिकारी शब्द के अंतर्गत न्यायपालिका को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए, भले ही अनुच्छेद 12 में इसका स्पष्ट रूप से उल्लेख न किया गया हो, क्योंकि न्यायालय संघ द्वारा स्थापित किए जाते हैं और उसके द्वारा प्रदत शक्तियों का प्रयोग करते हैं
यह प्रश्न की क्या न्यायपालिका राज्य शब्द की परिभाषा के अंतर्गत आती है या नहीं ? सर्वप्रथम नरेश बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के बाद में उच्चतम न्यायालय के समक्ष विचार आया था। न्यायालय ने इस पर कोई निश्चयायात्मक मत नहीं व्यक्त किया है। उसने केवल यह कहा कि यदि मान भी लिया जाए कि न्यायपालिका राज्य है तो भी उसके आदेशों के विरुद्ध अनुच्छेद 32 के अंतर्गत लेख नहीं जारी किए जा सकते हैं, क्योंकि ऐसे आदेशों से नागरिकों के मूल अधिकारों का अतिक्रमण होता है। इस निर्णय का निष्कर्ष यह है कि न्यायपालिका राज्य नहीं है। श्री एच. एन. सिरोही भी इस मत से सहमत हैं कि न्यायपालिका राज्य शब्द की परिभाषा के अंतर्गत शामिल है और एक न्यायाधीश, न्यायाधीश के रूप में उच्चतम न्यायालय के लेख-क्षेत्राधिकार के अधीन कार्य करता है। उसके आदेश के विरुद्ध लेख जारी किए जा सकते हैं। सरकार के अन्य अंगों की तरह न्यायपालिका की शक्ति भी संविधान के आदेशात्मक उपबंधों द्वारा पर सीमित है और इन्हें नागरिकों के मूल अधिकारों का अतिक्रमण करने की शक्ति प्रदान शक्ति नहीं प्रदान की गई है।
मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियां-
अनुच्छेद 13 (1) यह घोषणा करता है कि इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहले भारत के राज्यक्षेत्र में प्रवृत सभी विधियां उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस तक वे संविधान के भाग 3 के उपबंधों से असंगत हैं। इस अनुच्छेद का उपखंड ( 2 ) यह घोषित करता है कि राज्य कोेई ऐसी विधि नहीं बनायेगा जो संविधान के भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती हो या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में राज्य द्वारा बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी। उपखंड दो में प्रयुक्त विधि शब्द को बड़े विस्तृत अर्थों में प्रयुक्त किया गया है जिसके अंतर्गत भारत में विधि के समान प्रभावी कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, रूढ़ि अथवा प्रथा सम्मिलित होंगी। इस प्रकार से इस अनुच्छेद में उल्लिखित किसी भी विधि या उपविधि या कार्य-कारिणी के आदेश द्वारा यदि मूल-अधिकारों का अतिक्रमण होता है तो उसकी वैधता को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।
वस्तुतः अनुच्छेद 13 मूल अधिकारों का आधार स्तंभ है। यह न्यायालयों को वह शक्ति प्रदान करता है जिसके आधार पर न्यायलय मूल-अधिकारों से असंगत विधियों को अवैध घोषित करते हैं। यह उच्चतम न्यायालय को नागरिकों के मूल अधिकारों का प्रहरी बना देता है। न्यायालयों की इस शक्ति को न्यायिक-पुनर्विलोकन की शक्ति कहते हैं न्यायिक-पुनर्विलोकन की शक्ति का इतिहास बड़ा मनोरंजक है। न्यायालयों की न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति को समझना आवश्यक है।
अनुच्छेद 13 वस्तुतः न्यायालयों को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान करता है संविधान ने इस शक्ति को भारत के उच्चतम न्यायालय को प्रदान किया है। उच्चतम न्यायालय किसी भी विधि को जो मूल अधिकारों से असंगत है अवैध घोषित कर सकता है।
Hello
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