राज्य द्वारा बनाई गयी विधियों पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव || Effect of Article 13 on the laws made by the State

 राज्य द्वारा बनाई गयी विधियों पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव || Effect of Article 13 on the laws made by the State


अनुच्छेद 13 का उपखंड (2) यह उपबंधित करता है कि राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनायेगा जो संविधान के इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गयी प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।  

पृथक्करणीयता का सिद्धांत

जब किसी अधिनियम का कोई भाग असंवैधानिक होता है तो प्रश्न यह उठता है कि क्या उस पूरी अधिनियम को ही शून्य घोषित कर दिया जाए या केवल उसके उसी भाग को ही अवैध घोषित किया जाए जो संविधान के उपबंधों से असंगत है। ऐसे मामलों में न्यायालय पृथक्करणीयता का सिद्धांत ( Dotrine of Severability ) लागू करते हैं। इस सिद्धांत का तात्पर्य यह है कि यदि किसी अधिनियम का असंवैधानिक भाग उसके शेष भाग से, बिना विधानमंडल के आशय को विफल किए या पूरे अधिनियम के मूल उद्देश्य को समाप्त किए, अलग किया जा सकता है, तब केवल मूल अधिकारों से असंगत वाला भाग ही अवैध घोषित किया जाएगा, पूरे अधिनियम को नहीं। अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त असंगत या विरोध की सीमा तक वाक्यांश से स्पष्ट है कि किसी अधिनियम के केवल वे भाग ही अवैध घोषित किए जाएंगे जो मूल अधिकारों से असंगत हैं या विरोध में हैं। पूर्ण अधिनियम को नहीं। 
         ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य के वाद में निवारक निरोध अधिनियम 1950 की धारा 14 की वैधता को चुनौती दी गई थी। उच्चतम न्यायालय ने धारा 14 को असंवैधानिक करार दिया और कहा कि इस धारा को अलग कर देने से उसकी प्रकृति, संरचना या उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं होगा। अतः धारा 14 को अवैध घोषित कर देने से अधिनियम के शेष भाग की वैधता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। प्
   बम्बई राज्य बनाम बालसरा  के मामले में मुंबई प्रांत मद्द्य-निषेध अधिनियम 1949 के कुछ उपबंधों को असंवैधानिक घोषित करने के बाद भी शेष अधिनियम पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा था और वह वैध बना रहा। 
    इसका एक अपवाद भी है। यदि अधिनियम का अवैध भाग वैध भाग से इस प्रकार अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है कि अवैध भाग को निकाल देने से अधिनियम का उद्देश्य विफल हो जाता है या शेष भाग का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रह जाता है तो न्यायालय पूरे अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर देगा। 

         किसी अधिनियम में विधानमंडल का आशय ही इस बात का निर्णायक तत्व है कि अवैध घोषित किए अंश पृथक किए जाने योग्य है अथवा नहीं। रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि जहां किसी विधि का आशय मूल अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने का प्राधिकार देना है, और वह ऐसी व्यापक भाषा में है, जो संविधान द्वारा निहित सीमाओं के अंदर और बाहर दोनों प्रकार के प्रतिबंधों में आती है, और जहां दोनों को पृथक करना संभव नहीं है, तो पूरी संविधि को ही रद्द कर दिया जाएगा, जब तक कि ऐसे प्रयोजनों के लिए, जो कि संविधान द्वारा अनुमोदित नहीं है, इसके लागू होने की संभावना को दूर नहीं कर दिया जाता, तब तक उस कानून को पूर्णत: असंवैधानिक घोषित किया जाना आवश्यक है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि किसी संविधि का एक अंश जो मूल अधिकारों से असंगत या विरोध में है, और यदि पूरी संविधि से बिना उसके मूल आशय को परिवर्तित किए, उसे पृथक नहीं किया जा सकता, तो ऐसी स्थिति में न्यायालय को पूरी विधि  को ही असंवैधानिक घोषित करना होगा। 

     पृथक्करणीयता का सिद्धांत आर.एम.डी.सी. बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष पुनः विचारार्थ  आया था। इस वाद में पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम की धारा (2)घ  की संवैधानिकता पर आपत्ति उठाई गई थी। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य जुआ-प्रकृति की प्रतियोगिता पर प्रतिबंध लगाने का था।  किंतु इसकी भाषा इतनी व्यापक थी कि उसके अंतर्गत ऐसी प्रतियोगिताएं, जिनमें कौशल भी शामिल था, आ जाती थी। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इस अधिनियम के उपबंध पृथक करने योग्य हैं, और केवल उन भागों को निकाल दिया जिनके अंतर्गत कौशल वाली प्रतियोगिताएं भी आ जाती थी। इस प्रकार न्यायालय ने रोमेश थापर के वाद में दिए गए अपने निर्णय को प्रभावी रूप से संशोधित कर दिया जिसमें यह कहा गया था कि जहां मूल अधिकारों से असंगत उपबंध ऐसी व्यापक भाषा में है कि उसके अंतर्गत संविधान द्वारा अनुमोदित सीमाओं के अंदर या बाहर दोनों प्रकार के प्रतिबंधों को शामिल करते हैं, और उन्हें संविधान द्वारा अनुमोदित सीमाओं के अंदर लागू नहीं किया जा सकता है, तो पूरे अधिनियम को शून्य घोषित करना आवश्यक होगा।


       संक्षेप में, आर.एम.डी.सी. बनाम भारत संघ के मामले में यह निर्णय था कि यदि अवैध अंश के निकाल देने के पश्चात जो शेष बचा रहता है वह एक अधिनियम बना रहता है तो पूरे अधिनियम को अमान्य घोषित करने की आवश्यकता नहीं है। इन मामलों में निर्णायक तत्व यह है कि विधानमंडल का आशय यह था कि किसी अधिनियम का वैध भाग अवैध घोषित किए गए भाग से पृथक किया जा सकता है अथवा नहीं। यदि शेष अधिनियम को बिना संशोधन के प्रवर्तित नहीं किया जा सकता तो पूरे अधिनियम को अवैध घोषित कर देना चाहिए। पृथक्करणीयता का सिद्धांत तथ्य का विषय है आकार का नहीं, और विधान मंडल के आशय को समझने के लिए विधि  निर्माण के इतिहास, उद्देश्य, शीर्षक और प्रस्तावना आदि बातों पर विचार करना आवश्यक है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है कर विधि। जब कुछ वस्तुओं पर कर लगाए जाते हैं और उसमें से कुछ को कर से भी विमुक्ति प्राप्त होती है, तो उसका केवल वहीं भाग अवैध घोषित किया जाएगा जो मूल अधिकारों से असंगत है पूरे कर विधान को नहीं। पृथक्करणीयता के सिंद्धांत को समझने के लिए स्टेट आफ मुंबई बनाम यूनाइटेड मोटर्स के मामले में भी देखा जा सकता है। 

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