भारतीय संविधान की विशेषतायें

 भारतीय संविधान की विशेषतायें






संविधान में नम्यता और अनम्यता का अनोखा मिश्रण -
परिवर्तनशीलता भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता है।  संविधान की नम्यता औरअनम्यता उसके संशोधन की प्रक्रिया पर निर्भर करती है, तथा, जिस संविधान का संशोधन केवल एक विशेष प्रक्रिया के अनुसार ही किया जा सकता हो  जो प्रायः कठिन होती है, उसे अपरिवर्तनशील संविधान कहते हैं। संविधान देश का सर्वोच्च कानून माना जाता है इसलिए उसकी सर्वोच्चता को बनाए रखने के लिए संशोधन की प्रक्रिया भी कठिन होनी  ही चाहिए, परंतु इसका यह मतलब नहीं है कि, संविधान में किसी भी दशा में परिवर्तन हो ही नहीं सकता। संविधान किसी देश की जनता के लिए बनाया जाता है। देश की जनता की आवश्यकताओं के अनुसार संविधान में समय-समय पर परिवर्तन करना भी आवश्यक होता है। भारत का संविधान एक लिखित संविधान होते हुए भी काफी परिवर्तनशील संविधान है। संविधान में केवल कुछ ही उपबंध ऐसे हैं जिनमें परिवर्तन करने के लिए एक विशेष प्रक्रिया का अनुसरण किया जाता है, जबकि अधिकतर उपबंधों को संसद द्वारा साधारण बिल पारित करके ही परिवर्तित  किया जा सकता है। यहां तक कि संशोधन की विशेष प्रक्रिया भी विश्व के अन्य संघात्मक संविधान की अपेक्षा अत्यधिक सरल है। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने और अनम्यता के साथ-साथ आवश्यकतानुसार नम्यता को भी स्थान देख कर बड़ी ही सूझबूझ का कार्य किया है। संविधान के संशोधनऔर उसकी परिवर्तनशीलता के बारे में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि - हालांकि हम इस संविधान को इतना ठोस और अस्थाई नहीं बनाना चाहते हैं, जितना कि हम बना सकते हैं, फिर भी संविधान में कोई स्थायित्व नहीं है। संविधान में कुछ सीमा तक परिवर्तनशीलता होनी ही चाहिए। यदि आप किसी वस्तु को अपरिवर्तनशील और स्थाई बना देंगे तो आप राष्ट्र की प्रगति को रोक देंगे और इस प्रकार आप एक जीवित और संगठित राष्ट्र की प्रगति को भी रोक देंगे। किसी भी अवस्था में हम इस संविधान को इतना अनम्य नहीं बना सकते थे, कि यह बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार परावर्तित न हो सके। जबकि दुनिया एक संक्रांतिकाल  में है और हम परिवर्तन की अत्यंत ही तीव्र गति से गुजर रहे हैं, तब संभव है कि हम आज जो कुछ कह रहे हैं, कल वही पूरी तरह से लागू ना हो सके। 
भारतीय संविधान के निर्माताओं ने इसीलिए एक मध्यम मार्ग का अनुसरण किया है। इसीलिए भारत मे न  तो इंग्लैंड की भांति संविधान को अत्यंत ही नम्य बनाया गया है और न ही संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान की भांति अत्यंत ही और अनम्य या अपरिवर्तनशील बनाया गया है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि भारतीय संविधान  नम्यता और अनम्यता दोनों गुणों का अनोखा सम्मिश्रण है। 
 डॉक्टर जेनिंग्स ने भारतीय संविधान के संशोधन की जटिल प्रक्रिया को देखते हुए  कहा है कि - भारतीय संविधान को आवश्यकता से अधिक कठोर बना दिया गया है। भारतीय संविधान में हुए परिवर्तन को देखते हुए डॉक्टर जेनिंग्स का कथन गलत सिद्ध हो गया, क्योंकि 70  वर्षों के अंदर संविधान में लगभग 124 संशोधन किए जा चुके हैं, जिससे भारतीय संविधान की परिवर्तनशीलता भली-भांति परिलक्षित होती है। इसके विपरीत अमेरिका में संविधान के संशोधन की प्रक्रिया काफी कठिन एवं उलझी हुई है। भारतीय संविधान अतिवादी दृष्टिकोण से सर्वथा मुक्त है।

संघात्मक तथा केंद्रोन्मुखी संविधान- 
भारतीय संविधान की यह एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि संघात्मक होते हुए भी उसमें केंद्रीकरण की सरल विधि है। आपातकालीन परिस्थितियों में संविधान पूर्णतया एक एकात्मक संविधान का रूप धारण कर लेता है। यही नहीं संविधान में कुछ ऐसे भी उपबंध है, जो शांति काल में भी केंद्रीय सरकार को अधिक शक्ति प्रदान करते हैं। संघात्मक और एकात्मक दोनों व्यवस्थाओं की विशेषताएं भारतीय संविधान में मौजूद हैं। जहां तक संघात्मक संविधान का प्रश्न है, उन उपबंधों में परिवर्तन  केंद्र तथा राज्य दोनों सरकारों की सहमति से ही हो सकता है, परंतु भारत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तथा अन्य संविधानों के संचालन में हुई कठिनाइयों को देखकर हमारे संविधान निर्माताओं ने भारतीय संविधान में कुछ ऐसे उपबंधों का समावेश किया, जिससे निस्संदेह रूप से केंद्र को राज्यों की अपेक्षा अधिक शक्ति प्राप्त हो जाती है। अमेरिका। ऑस्ट्रेलिया, और कनाडा के संघात्मक संविधान में यद्यपि संघात्मक सिद्धांतों को बड़ी कठोरता से लागू किया गया था, परंतु आज इन सभी संविधानों में केंद्रीकरण की सबल प्रवृति स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। दोनों विश्व युद्धों में इन देशों के संविधानों के संचालन में जो कठिनाइयां उठी थी, उनका अनुभव हमारे संविधान निर्माताओं को भी था।  इसी कारणवश भारतीय संविधान में ऐसे संबंधों को समाविष्ट किया गया है, जिसके फलस्वरूप केंद्र, राज्यों से अधिक शक्तिशाली है। विभिन्न राज्यों के हितों की अपेक्षा समस्त देश का हित सर्वोपरि है। सारे देश की सुरक्षा तभी हो सकती है, जब देश की सारी शक्ति विभिन्न राज्य सरकारों में निहित ना होकर केंद्रीय सरकार में निहित हो। इस प्रकार भारतीय संविधान में संघात्मक संविधान के सिद्धांतों को अपनी परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तित करके अपनाया है जो सर्वथा उचित ही है। 

वयस्क मताधिकार का अधिकार - 
प्रजातांत्रिक सरकार जनता की सरकार होती है। देश का प्रशासन जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए संविधान देश के प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को मताधिकार का अधिकार प्रदान करता है, जिसका प्रयोग करके वह अपने प्रतिनिधियों को देश का प्रशासन चलाने के लिए संसद तथा राज विधान मंडलों में भेजता है। भारत का प्रत्येक वयस्क नागरिक, चाहे स्त्री हो अथवा पुरुष, यदि किसी व्यक्ति की आयु 18 वर्ष की हो चुकी है, तो उसे निर्वाचन में मतदान करने का अधिकार प्राप्त है।   अंग्रेजी शासन के समय में प्रचलित सामुदायिक मताधिकार प्रणाली को समाप्त करके हमारा संविधान बिना किसी भेदभाव के सभी को समान मताधिकार का अधिकार प्रदान करता है।  
                  जनता में दृढ़ विश्वास शासन के प्रति उत्पन्न करने के लिए सम्यक राजनीतिक चेतना का उद्बोधन कर शासन में जनता का सहयोग प्राप्त करना ही लोकतंत्र का आधार है। इस प्रकार देश के समस्त वयस्क नागरिकों को भारतीय संविधान ने मताधिकार का अधिकार प्रदान करके संसार के महान और सबसे यथार्थ लोकतंत्र की स्थापना का एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण कदम उठाया है।  
      इस प्रकार के मताधिकार की कड़ी आलोचना संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने भी की थी और कहा था कि भारत की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा निरक्षर है, जो इस मताधिकार के अधिकार का सही-सही प्रयोग करना नहीं जानता और उसका मानसिक स्तर इतना ऊँचा नहीं उठ सका है कि वह शासन के गठन में पूर्ण विवेक से कार्य कर सके। दूसरी ओर कुछ विद्वानों का मत है कि, अनेक बाधाओं के बावजूद भी भारतीय जनता ने हमें निराश नहीं किया है, और अपने इस अधिकार का उचित ढंग से उपयोग किया है।  इस अधिकार के अनुसार भारतवर्ष के तथाकथित निरक्षर और विवेकहीन व्यक्तियों ने देश के विभिन्न आम चुनावों में जो आचरण दिखाया है, उसने संविधान सभा द्वारा उठाए हुए साहस पूर्ण कदम का औचित्य सिद्ध कर दिया है। इस क्रम में सबसे उल्लेखनीय 1977 और 1980 का लोक सभा का निर्वाचन है। सन 1977 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी की जिसने आपात स्थिति लागू की थी और जनता पर अत्याचार किए थे, भारी पराजय हुई थी। इसी तरह 1980 का लोकसभा का मध्यावधि चुनाव भी एक अनोखा चुनाव था, जिसमें कांग्रेस पार्टी भारी बहुमत से विजयी हुई। जनता पार्टी अपने आपसी मतभेदों के कारण देश को एक स्वच्छ प्रशासन देने में असफल रही थी। इस संदर्भ में प्रोफेसर सूद का कथन अक्षरसः  सत्य है कि हमारी जनता निरक्षर हो सकती है, और संभव है कि इसमें अधिकांश व्यक्ति संसार की बहुत सी बातों को ना जानते हो, परंतु उनमें राजनीतिक सूझबूझ तथा सहज बुद्धि का अभाव नहीं है। हमारे मतदाता संप्रदाय तथा धर्म के विचारों से प्रभावित नहीं हो सकते हैं, किंतु यह वयस्क मताधिकार के विरुद्ध कोई तर्क नहीं है। यह तो भारत के लोगतंत्रवादियों को सतर्क रहने की एक चुनौती है। 

स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना - 
भारत में स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। संघात्मक राजव्यवस्था मे साधारणतया दोहरी न्याय प्रणाली होती है।  संयुक्त राज्य अमेरिका में संघात्मक संविधान के सिद्धांतों को कठोरता से लागू किया जाता है। अतः वहां पर दोहरी न्याय प्रणाली की स्थापना की गई है। एक संघ की न्यायपालिका और दूसरी राज्यों की न्यायपालिका। इसके विपरीत भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी सारे देश के लिए न्याय प्रशासन की एक ही व्यवस्था करता है, जिसके शिखर पर उच्चतम न्यायालय विराजमान है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय देश के समस्त न्यायालयों के ऊपर बाध्यकारी होते हैं। देश के कानूनों में एकरूपता, स्पष्टता तथा स्थिरता की दृष्टि से एकहरी  न्याय व्यवस्था के लाभों से इंकार नहीं किया जा सकता है। 
     भारतीय संघात्मक संविधान में स्वतंत्र न्यायपालिका का मुख्य कार्य केंद्र और राज्यों के बीच झगड़ों को निपटाना होता है, इसलिए उच्चतम न्यायालय को संविधान का संरक्षक कहा गया है। देश के विधान मंडलों द्वारा पारित कानून को यह  असंवैधानिक घोषित कर सकता है, यदि यह कानून संविधान के किसी के उपबंध के प्रतिकूल या असंगत हैं। उच्चतम न्यायालय द्वारा की गई संविधान के उपबंधों की व्याख्या ही अंतिम व्याख्या होती है। 
        स्वतंत्र न्यायपालिका का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा करना होता है।  भारतीय संविधान में नागरिकों को अनेक मूल अधिकार प्रदान किए गए हैं। संविधान में इन अधिकारों का उल्लेख महत्वहीन ही रहेगा, जब तक कि इनकी सुरक्षा के लिए कोई समुचित व्यवस्था न की गई हो। भारतीय संविधान में इस पुनीत कार्य को संपादित करने का कर्तव्य भारत के उच्चतम न्यायालय को सौंपा है। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय ना केवल संविधान का अपितु नागरिकों के मूल अधिकारों का भी संरक्षक तथा जागरूक पहरेदार है । जनता को समान न्याय देने के लिए न्यायपालिका का कार्यकारिणी के दबाव और नियंत्रण से स्वतंत्र होना अत्यंत आवश्यक है। स्वतंत्र न्यायपालिका प्रजातंत्र की आधारशिला है, अतः  संविधान में न्यायपालिका को बिल्कुल स्वतंत्र रखा गया है जिससे वह निष्पक्ष एवं निर्भयतापूर्ण न्याय दे सके। इसलिए न्यायपालिका को केंद्रीय तथा राज्य दोनों में से किसी एक के भी अधीन नहीं रखा गया है। इस दृष्टि से भारत की न्यायपालिका जिसके शिखर पर उच्चतम न्यायालय अधिष्ठित है, संसार की सभी न्यायपालिकाओं की अपेक्षा सुदृढ़ एवं शक्तिशाली है, तथा वह प्रजातांत्रिक व्यवस्था के सर्वथा अनुकूल है। 


भारतीय संविधान में एक नागरिकता-
 संघात्मक संविधान में साधारणतः  दोहरी नागरिकता होती है, एक संघ की और दूसरी राज्यों की। संयुक्त राज्य अमेरिका में दोहरी नागरिकता की व्यवस्था है एक संयुक्त राज्य की और दूसरी उस राज्य  की जिसमें कोई नागरिक स्थाई रूप से निवास करता है। दोनों प्रकार की नागरिकता के भिन्न-भिन्न अधिकार एवं कर्तव्य होते हैं।भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी केवल एक नागरिकता को मान्यता प्रदान करता है। भारत का प्रत्येक नागरिक केवल भारत का नागरिक है, न की किसी प्रांत का जिसमें वह रहता है। अतः प्रत्येक नागरिक को नागरिकता से उत्पन्न सभी अधिकार, विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तियां समान रूप से प्राप्त हैं। भारत की सांस्कृतिक परंपरा में अनेक भिन्नताओं के बीच एक तत्व की भावना रही है। देश भक्ति उस भावना का मूल आधार है, जिस पर राष्ट्र की एकता और अखंडता  निर्भर करती है, इसलिए सभी नागरिकों को केवल भारत के प्रति निष्ठावान रहने की प्रेरणा देने के उद्देश्य से एक नागरिकता का आदर्श अपनाया गया है। 

संविधान द्वारा धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना -
भारतीय संविधान भारत में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है, जिसमें राज्य का कोई अपना धर्म नहीं है। सरकार किसी विशेष धर्म का पोषण नहीं करती है। राज्य धर्म के मामले में पूरी तरह तटस्थ है। राज्य न तो किसी धर्म की घोषणा करता है और न ही किसी धर्म का अनादर, बल्कि, प्रत्येक धर्म का एक सामान आदर करता है।संविधान में प्रत्येक भारतीय नागरिक को अपने विश्वास के अनुसार किसी भी धर्म को मानने व किसी भी ढंग से ईश्वर की पूजा करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। धर्म स्वातंत्र्य केवल धार्मिक श्रद्धा एवं सिद्धांतों तक ही सीमित नहीं है अपितु उसके प्रचार एवं प्रसार करने का भी अधिकार इसमें सम्मिलित है। इसी उद्देश्य से संविधान में  राज्य पोषित शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा का प्रतिषेध है। किंतु सैन्य स्वतंत्रताओं की तरह राज्य इस स्वतंत्रता पर भी सार्वजनिक व्यवस्था और सदाचार को बनाए रखने के लिए युक्ति युक्त प्रतिबंध लगा सकता है। 

संविधान में नागरिकों के मूल कर्तव्य -
भारतीय संविधान के  42वे संशोधन अधिनियम-1976 द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद भाग 4 का जोड़ा गया, जिसके द्वारा संविधान में नागरिकों के 10 मूल कर्तव्यों का समावेश किया गया है।  मूल संविधान में केवल नागरिकों के मूल अधिकारों का ही उल्लेख किया गया था, उनके कर्तव्यों के बारे में कोई स्पष्ट उपबंध नहीं था। संविधान का 42वां संशोधन संविधान में इस कमी को दूर करने के उद्देश्य से पारित किया गया है कि संविधान के अधीन भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह संविधान का पालन करें, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करें, स्वतंत्रता आंदोलनों के आदर्शों को हृदय में सजाए रखें और उसका पालन करें, भारत की प्रभुता एकता और अखंडता की रक्षा करें, आवाहन करने पर सेना में भर्ती होकर देश की रक्षा करें, भारत के सभी लोगों में समरसता और भाईचारे का निर्माण करें, महिला विरोधी प्रथाओं  का त्याग करें, भारत की संस्कृत का परिरक्षण करें, प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और संवर्धन तथा प्राणिमात्र के प्रति दया भाव रखें, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद, ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें, सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा करें और व्यक्तिगत तथा सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का प्रयास करें।

1 टिप्पणियाँ:

Please do not enter any spam link in the comment box.