भारतीय संविधान की विशेषतायें


भारतीय संविधान की विशेषतायें




 प्रभुत्व संपन्न गणराज्य की स्थापना -  
बाहरी नियंत्रण से  सर्वथा मुक्त और अपनी आंतरिक  तथा विदेशी नीतियों को स्वयं निर्धारित करने वाले राज्य प्रभुत्व संपन्न राज्य कहते हैं। इस संबंध में भारत पूर्णतया स्वतंत्र और प्रभुता संपन्न राज्य है। यह आंतरिक एवं बाह्या,  सभी मामलों में पूर्णतया स्वतंत्र है। भारत की सरकार आंतरिक तथा बाय मामलों में अपनी इच्छा अनुसार आचरण करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है। यह संप्रभुता अब किसी विदेशी सत्ता में नहीं बल्कि  भारत की जनता में निहित है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी भारत कामनवेल्थ और संयुक्त राष्ट्र संघ का एक सदस्य है। कामनवेल्थ की सदस्यता की कुछ लोगों ने आलोचना की है कि इससे भारत की संप्रभुता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। उन लोगों ने यह भी सुझाव दिया था कि भारत को उसकी सदस्यता से अपने आप को पृथक कर लेना चाहिए परंतु यह सदस्यता किसी प्रकार से भारत की संप्रभुता पर कोई विपरीत विधिक प्रभाव नहीं डालती और न ही भारत इसके कारण किसी विदेशी सत्ता के अधीन हो जाता है। भारत ने  स्वयं इसकी सदस्यता को स्वीकार किया है और अपनी इच्छा के अनुसार वह इस सदस्यता को त्याग भी सकता है। 10 मई 1949 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ब्रिटिश कामनवेल्थ में भारत की स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा था कि बहुत समय पहले हमने पूर्ण स्वराज प्राप्त करने का व्रत लिया था, वह स्वराज्य हमें प्राप्त हो चुका है। क्या कोई देश दूसरे देश से मैत्री करने से अपनी स्वतंत्रता खो देता है। संधि अथवा मैत्री शब्द का सामान्य अर्थ पारस्परिक वचनबद्धता से होता है। प्रभुता संपन्न कामनवेल्थ राष्ट्रों की यह स्वतंत्र संस्था इस प्रकार की किसी वचनबद्धता से युक्त नहीं है। हम लोगों ने सम्राट को स्वतंत्र संस्था का प्रतीकात्मक प्रधान माना है परन्तु  सम्राट का इसमें कोई कृत्य संबद्ध नहीं है। जहां तक भारतीय संविधान का प्रश्न है, सम्राट का उसमें कोई स्थान नहीं है और हम उसके प्रति निष्ठा के लिए बाध्य नहीं हैं। 

लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना -
लोकतंत्रात्मक शब्द का तात्पर्य ऐसी सरकार से है जिसका समूचा प्राधिकार जनता में निहित होता है, जो जनता के लिए तथा जनता द्वारा स्थापित की जाती है। देश का प्रशासन सीधे जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है। ये  प्रतिनिधि अपने प्रशासकीय कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदाई होते हैं। प्रत्येक 5 वर्ष के बाद जनता प्रतिनिधियों को निर्वाचित करती है। इस उद्देश्य के लिए संविधान प्रत्येक वयस्क नागरिक को मताधिकार का प्रदान करता है। प्रजातंत्रात्मक सरकार के निर्माण के लिए मताधिकार अपरिहार्य है। मताधिकार का सही प्रयोग करके प्रजातंत्रात्मक सरकार के निर्माण के लिए, सरकार को सफल बनाने के लिए नागरिकों का शिक्षित होना भी अति आवश्यक है। ऐसी प्रजातांत्रिक सरकार का परम कर्तव्य समानता, स्वतंत्रता, बंधुता और न्याय की भावना का सृजन करके एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। हमारे संविधान की प्रस्तावना भी उसी पुनीत उद्देश्य की प्राप्ति का आवाहन करती है। 

धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की स्थापना -
संविधान के 42 में संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा धर्मनिरपेक्ष शब्द को जोड़ा गया।  धर्मनिरपेक्ष शब्द का तात्पर्य ऐसे राज्य से है जो किसी विशेष धर्म को राजधर्म के रूप में मान्यता नहीं प्रदान करता करता हो  बल्कि सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करता हो। धर्मनिरपेक्षता की उपधारणा संविधान की विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता शब्दावली में विवक्षित है। इस संशोधन द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है उच्चतम न्यायालय ने अपने विनिश्चय संत जेवियर कॉलेज बनाम गुजरात राज्य में निम्नलिखित अवलोकन किया है यद्यपि संविधान में धर्म निरपेक्ष राज्य शब्दों को अभिव्यक्त रूप में उल्लिखित नहीं किया गया है तथापि इस बाबत कोई संदेह नहीं हो सकता कि हमारे संविधान निर्माता ऐसा राज्य स्थापित करना चाहते थे, तदनुसार ही संविधान में अनुच्छेद 25 से 28 तक के उपबंध शामिल किए गए हैं। 

समाजवादी गणराज्य की स्थापना -
समाजवादी  शब्द की कोई निश्चित परिभाषा देना कठिन है। इस शब्द का प्रयोग समाजवादी तथा जनतांत्रिक दोनों प्रकार के संविधान के लिए किया जाता है। साधारणतया इस शब्द से तात्पर्य ऐसी व्यवस्था से है जिसमें उत्पादन के मुख्य साधन या तो राज्य के हाथ में होते हैं या उसके नियंत्रण में होते हैं परन्तु भारतीय संविधान में समाजवाद शब्द के साथ लोकतंत्रात्मक शब्द को भी रखा गया है, इसलिए इससे यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान एक लोकतंत्रात्मक समाजवाद की स्थापना की परिकल्पना करता है, न कि समाजवादी समाजवाद की। हमारे महान नेता भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने इसी समाजवाद की परिकल्पना की थी। 


मूल अधिकार -
संविधान के भाग 3 में भारतीय नागरिकों के लिए मूल अधिकारों की घोषणा की गई है। मूल अधिकारों की घोषणा प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था में संविधान की एक प्रमुख विशेषता होती है। नागरिकों के बहुमुखी विकास के लिए जिन अधिकारों का होना आवश्यक है, उन अधिकारों को मूल अधिकार कहा जाता है। मूल अधिकार ही  नागरिकों के बहुमुखी विकास और उनकी स्वतंत्रता की आधारशिला है। विश्व के लगभग सभी संविधानों में मूल अधिकारों के लिए उपबंध किया गया है। संविधान जनता के मूल अधिकारों का संरक्षक होता है तथा नागरिकों के मूल अधिकार ही लोकतंत्र की आधारशिला है। संविधान निर्माताओं ने मूल अधिकारों की प्रेरणा अमेरिकी संविधान से ली है। मूल अधिकार राज्य की शक्ति पर प्रतिबंध लगाते हैं। जिस  कानून से नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन होता हो, संविधान, राज्य को ऐसे कानून बनाने पर प्रतिबंध लगाता है। संविधान में केवल मूल अधिकारों की घोषणा करने का कोई महत्व नहीं होता, जब तक की उन अधिकारों के संरक्षण के लिए उपाय ना प्रदान किए जाएं। भारतीय संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा का जिम्मा सर्वोच्च न्यायालय को प्रदान किया गया है तथा मूल अधिकारों के संरक्षण के लिए सर्वोच्च न्यायालय को उपयुक्त एवं शीघ्र उपाय की व्यवस्था करने के लिए  बंदी-प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेरण और अधिकार-पृच्छा आदि रिटें जारी करने की शक्ति प्रदान की गई है।  
                याद रखने योग्य बात यह है कि मूल अधिकार  अत्यंतिक अधिकार नहीं है। इन अधिकारों पर जनहित में प्रतिबंध भी लगाए जा सकते हैं। किसी भी समाज व्यवस्था में व्यक्ति और समाज  के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि नागरिकों के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाए जाएं। अमेरिकी संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों की घोषणा तो की गई थी, परंतु उन अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने के प्रावधान नहीं किए गए थे, जिसके कारण अमेरिकी सरकार को  काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था तथा मूल अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने का कार्य अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की सहायता से बहुत बाद में संभव हो सका। भारतीय संविधान निर्मातागण अमेरिकी संविधान के संचालन में आई कठिनाइयों से भली-भांति परिचित थे, इसलिए उन्होंने भारतीय संविधान में मूल अधिकारों की घोषणा के साथ-साथ विभिन्न परिस्थितियों में इन अधिकारों पर प्रतिबंध लगाए जाने की भी व्यवस्था कर दी है। भारतीय संविधान में व्यक्तिगत तथा सामाजिक हित  के संबंध में सामंजस्य स्थापित करने का भरसक प्रयत्न किया गया है। संविधान की इस प्रकार की व्यवस्था प्रस्तावना में निहित एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के उद्देश्य के अनुकूल ही है। संविधान का 42वां संविधान संशोधन-1976 मुख्य रूप से इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया गया था। 


राज्य के नीति निदेशक तत्व -
सविधान के भाग 4 में राज्यों के लिए ऐसे निदेशों का उल्लेख किया गया है,  जिन निदेशों को पूरा करना राज्यों का परम कर्तव्य माना गया है। इन्हीं देशों को राज्य के नीति निदेशक तत्व कहते हैं। भारतीय संविधान में राज्य के नीति निदेशक तत्वों को उपबंधित करने की प्रेरणा मुख्य रूप से आयरलैंड के संविधान से ली गई है। यह उपबंध निदेशकों के रूप में विधान मंडल तथा कार्यकारिणी के मार्गदर्शन के लिए  भारतीय संविधान में उपबंधित किए गए हैं। लोक कल्याणकरी राज्य की उन्नति के लिए राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था करेगा जिसमें सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक, समता स्वतंत्रता, बंधुता और न्याय की स्थापना पर बल दिया जाएगा। नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत मुख्य रूप से धन तथा उत्पादन के साधनों का न्यायोचित वितरण, बालकों के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा, नागरिकों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाना,  कार्यपालिका और न्यायपालिका के क्षेत्राधिकार का पृथक्करण, अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा का प्रयास तथा ग्राम पंचायतों का संगठन आदि शामिल है। राज्य इन्ही नीति निदेशक तत्वों का पालन करके संविधान की प्रस्तावना में परिकल्पित एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना कर सकता है। ऐसी सामाजिक व्यवस्था में ही नागरिकों को अपना विकास करने का सुअवसर प्राप्त होगा, जिससे देश का बहुमुखी विकास होगा हो सकेगा।    ग्लोविन आस्टिन ने राज्य के नीति निदेशक तत्वों को राज्य की आत्मा का दर्जा दिया है। 
   स्मरणीय है कि राज्य के नीति निदेशक तत्वों के द्वारा नागरिकों को कोई कानूनी अधिकार नहीं दिए गए हैं, जबकि मूल अधिकारों को यह श्रेय प्राप्त है।  दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, यदि राज्य नीति निदेशक तत्व को पूरा करने में असफल रहता है, या, उसे पूरा करने का प्रयास नहीं करता है, तो किसी भी नागरिक को यह अधिकार नहीं है, कि, नीति निदेशक तत्वों को मनवाने के लिए, या, करवाने के लिए न्यायालयों से आदेश प्राप्त कर सके। वास्तव में, ये उपबंध संविधान में नैतिक आदर्शों के रूप में उपबंधित है, और राज्य से  यह आशा की जाती है कि वह इन निर्देशों का पालन करना अपना परम कर्तव्य समझेगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि इन निदेशों का पालन करना राज्यों की इच्छा पर निर्भर करता है। इसीलिए नीति निदेशक तत्वों की आलोचना भी की गई है कि इनका पालन करने के लिए कोई ऐसी शक्ति निहित नहीं है, जिसके भय से राज्य इन नीति निदेशक तत्वों का पालन करने के लिए बाध्य होंगे। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता का न्यायालय  ही सर्वोच्च उच्चतम न्यायालय होता है, जिसके प्रति जनता के प्रतिनिधि उत्तरदायी होते हैं। यदि राज्य, नीति निदेशक तत्वों की अवहेलना करता है, तो राज्य की जनता अपने मताधिकार का समुचित प्रयोग करके उस सरकार को बदल सकती है। इसका ज्वलंत उदाहरण भारत की वर्तमान केंद्रीय सरकार तथा अनेक राज्य सरकारों के कार्यों से मिलता है। 
संविधान के 24 वें और 42 वें संविधान संशोधनों द्वारा राज्य के नीति निदेशक तत्वों के महत्त्व को और अधिक बढ़ा दिया गया है, और उन्हें नागरिकों के मूल अधिकारों पर सर्वोच्चता प्रदान कर दी गई है। अब ऐसी किसी विधि को, जो नीति निदेशक तत्वों को कार्यान्वित करने के लिए पारित की जाती है, उस विधि को इस आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है, कि, वह विधि अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 में प्रदत्त नागरिकों के मूल अधिकारों से असंगत है या या उन्हें छीनती है। 




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