भारतीय संविधान की प्रकृति



भारतीय संविधान की प्रकृति



 भारत का संविधान संघात्मक प्रकृति का संविधान है 
संविधान विशेषज्ञों ने विश्व में प्रचलित संविधानों को मुख्यतः दो वर्गों, पहला संघात्मक संविधान तथा दूसरा  एकात्मक संविधान, में विभाजित किया है। जिस संविधान के अंतर्गत सारी शक्तियां एक ही सरकार में निहित होती हैं, जो प्रायः केंद्रीय सरकार होती है, उसे एकात्मक संविधान कहते है। इसके अंतर्गत  प्रांतों को केंद्रीय सरकार के अधीन रहना पड़ता है। इसके विपरीत संघात्मक संविधान वह संविधान है, जिसमें शक्तियों का केंद्र एवं राज्यों में विभाजन रहता है, और दोनों अपने-अपने क्षेत्र में सर्वोपरि होते हैं। 
 भारतीय संविधान की प्रकृति के सम्बन्ध में विधि-वेत्ताओं  में काफी मतभेद रहा है, संविधान निर्माताओं के अनुसार भारतीय संविधान संघात्मक संविधान है।  संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अंबेडकर ने कहा है कि - मेरे इस विचार से सभी सहमत हैं, यद्यपि हमारे संविधान में ऐसे उपबंधों का समावेश है, जो केंद्र को ऐसी शक्ति प्रदान कर देते हैं, जिनसे प्रांतों को स्वतंत्रता समाप्त सी हो जाती है, फिर भी वह संघात्मक संविधान है। इससे संविधान निर्माताओं का एकमत स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। किंतु कुछ संविधान-वेत्ताओं को भारतीय संविधान को संघात्मक मानने में आपत्ति है, जिनमें से प्रमुख है - प्रोफेसर व्हीयर और प्रोफेसर जेनिंग्स।  कोई भी संविधान संघात्मक है या नहीं, इस बात को जानने से पहले हमें देखना है कि वे कौन से आवश्यक तत्व हैं, जिनकी उपस्थिति होने से कोई संविधान संघात्मक कहा जाता है, और फिर हम यह देखें कि क्या भारतीय संविधान में वे सब तत्व मौजूद हैं।

  संघीय सिद्धांत का संविधान - 

प्रोफेसर व्हीयर के अनुसार संघीय सिद्धांत के अंतर्गत और संघऔर इकाइयों में शक्तियों का विभाजन होता है, और यह विभाजन ऐसे ढंग से किया जाता है जिससे प्रत्येक अपने - अपने क्षेत्र में पूर्णतया स्वतंत्र हों , और साथ-साथ एक-दूसरे के सहयोगी भी हों ना कि एक दूसरे के अधीन हों। 
 अमेरिका के संविधान को सर्वसम्मति से एक संघात्मक संविधान माना जाता है। यह संविधान  संघीय और प्रांतीय दो सरकारों की स्थापना करता है। इसमें दोनों सरकारों की शक्तियों का विभाजन है जो अपने अपने क्षेत्र में सार्वभौम है। इस प्रकार संघीय सिद्धांत का सार है स्वतंत्रता एवं समन्वयकारिता। प्रोफेसर व्हीयर संघीय सिद्धांत की अपनी उक्त परिभाषा देने के पश्चात संसार के विभिन्न संविधानों  को स्वयं इस कसौटी पर जांचते हैं। वे कहते हैं, क्या हमें संविधान के इन रूपों तक सीमित रहना चाहिए जिनमें संघीय सिद्धांत पूर्ण रूप से एवं बिना किसी अपवाद के लागू होते हैं ? ऐसा कहना तर्कसंगत नहीं होगा। स्वयं अमेरिका के मूल संविधान में संघीय सिद्धांत का एक महत्वपूर्ण अपवाद निहित था। सीनेट का गठन प्रांतीय विधान-मंडलों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से होता था। इस प्रकार संघ सरकार कुछ हद तक प्रांतीय सरकारों पर आश्रित थी। यह व्यवस्था 1913 तक बनी रहने के बावजूद भी सन 1781 से 1913 तक अमेरिका का संविधान संघात्मक संविधान ही बना रहा, क्योंकि उसमे संघीय सिंद्धांत की ही प्रधानता थी। यही संघात्मक संविधान की मुख्य कसौटी है। हमें देखना चाहिए कि किसी संविधान में संघात्मक सिद्धांत प्रधान है या गौण। यदि किसी संविधान में संघात्मक सिद्धांतों की प्रधानता है तो उसे संघात्मक संविधान कहा जाना चाहिए, दूसरी ओर यदि किसी संविधान में ऐसे उपबंध मौजूद हैं जिनमें संघीय सिद्धांत गौण हो जाएं तो वह संविधान संघात्मक संविधान नहीं रह जाता।  संघीय संविधान पदावली का प्रयोग इसी अर्थ में सबसे अधिक तर्कसंगत जान पड़ता है। संघीय सिद्धांत की कठोर परिभाषा देना तो आवश्यक है, किंतु, उसके प्रयोग में संकीर्णता बरतना आवश्यक नहीं। इस प्रकार प्रोफेसर व्हीयर यह स्वीकार करते हैं कि संघीय सिद्धांत के कुछ अपवाद हो सकते हैं, बशर्ते कि संविधान में संघीय सिद्धांतों की प्रधानता बनी रहे। 

 संघीय संविधान के आवश्यक तत्व 

एक संघात्मक संविधान में सामान्यतया निम्नलिखित आवश्यक तत्व पाए जाते हैं, 1 - संविधान में शक्तियों का विभाजन, 2 -  संविधान की सर्वोच्चता, 3 - लिखित संविधान, 4 - संविधान की परिवर्तनशीलता, और 5 - संविधान में न्यायपालिका का प्राधिकार

1 - संविधान में  शक्तियों का विभाजन 

केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन संघात्मक संविधान की एक परम आवश्यकता है।  यह विभाजन संविधान के द्वारा ही किया जाता है। प्रत्येक सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में सार्वभौम होती हैं, और दूसरे के अधिकारों एवं शक्तियों पर अतिक्रमण नहीं कर सकती।  इस प्रकार से संघवाद में राज्य की शक्तियों का अनेक सहयोगी संस्थाओं में विकेंद्रीकरण होता है। सरकार के सभी अंगो का स्रोत स्वयं संविधान होता है, जो उसकी शक्तियों के प्रयोग पर नियंत्रण रखता है। 

2 -   संविधान की सर्वोच्चता 

  संविधान सरकार के सभी अंगों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का स्रोत होता है। उसके स्वरूप संगठन और शक्तियों की पूर्ण व्यवस्था संविधान ही में निहित होती है। संविधान उनके कार्य क्षेत्र की सीमा निर्धारित करता है, जिनके भीतर ही वे कार्य करती हैं। सभी संस्थाएं संविधान के अधीन और उसके नियंत्रण में कार्य करती हैं। संघीय व्यवस्था में संविधान देश की सर्वोच्च विधि माना जाता है। प्रोफेसर व्हीयर के अनुसार संघीय सरकार के लिए संविधान की सर्वोच्चता का होना अति आवश्यक है, और उसके सुचारू रूप से कार्य करने के लिए संविधान का लिखित होना भी आवश्यक है। केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान मंडलों की विधायिनी शक्ति  का स्रोत संविधान ही है, और उनके द्वारा पारित कानून संविधान के अधीन ही होते हैं। संविधान के उपबंधों में किसी प्रकार की असंगति होने पर उन्हें न्यायालय अवैध घोषित कर सकता है। इसी प्रकार उन्हें संविधान द्वारा प्रदत्त अपने सभी अधिकारों और शक्तियों का प्रयोग संविधान द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर ही करना होता है। 

3 -  लिखित संविधान

संघात्मक संविधान आवश्यक रूप से लिखित संविधान होता है। संघ राज्य की स्थापना एक जटिल संविदा द्वारा स्थापित होती है, जिसमें संघ में शामिल होने वाली इकाइयां कुछ शर्तों पर ही संघ में शामिल होती हैं। इन शर्तों का लिखित होना आवश्यक होता है, अन्यथा संविधान की सर्वोच्चता को अक्षुण बनाये रखना असंभव हो जाता है। इस प्रकार की व्यवस्था को समझौता एवं परंपरा पर आधारित करना निश्चित ही संदेह और मतभेद उत्पन्न करता है। संविधान के लिखित होने से केंद्रीय एवं प्रांतीय दोनों सरकारों को अपने अपने अधिकारों के बारे में स्पष्ट रूप से ज्ञात रहता है, और वे एक दूसरे पर विश्वास रखकर कार्य करती हैं। 

4 -  संविधान की परिवर्तन शीलता 

लिखित संविधान स्वभवतः अनम्य  होता है। संविधान जो देश की सर्वोच्च विधि है, उसका अनम्य होना आवश्यक भी है। संविधान की नम्यता  और अनम्यता उसके संशोधन की प्रक्रिया पर निर्भर करती है। जिस संविधान में संशोधन की प्रक्रिया कठिन होती है उसे अनम्य संविधान कहा जाता है, और जिसमें संशोधन सरलता से किए जा सकते हैं, उसे नम्य संविधान कहा जाता है। किसी भी देश का संविधान एक स्थाई दस्तावेज होता है। यह देश की सर्वोच्च विधि कहा जाता है। संविधान की सर्वोपरिता को बनाए रखने के लिए संशोधन की प्रक्रिया का कठिन होना आवश्यक है। इसका यह अर्थ नहीं है कि संविधान परिवर्तनशील हो बल्कि केवल यह है कि संविधान में वही परिवर्तन किए जा सकें जो समय और परिस्थितियों के अनुसार आवश्यक हो। 


5 - संविधान में न्यायपालिका का प्राधिकार 

संघीय सिद्धांत के अनुसार  एक संघीय संविधान में केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन रहता है। यह विभाजन एक लिखित संविधान द्वारा किया जाता है। इसलिए यह आवश्यक है कि  इस शक्ति विभाजन को बनाए रखा जाए और केंद्रीय एवं राज्य सरकारें एक दूसरे के कार्य क्षेत्र में अतिक्रमण न कर सकें। उनकी सरकार की शक्तियों का विभाजन एक लिखित दस्तावेज द्वारा किया जाता है, इसलिए भी संभव है कि विभिन्न सरकारें संविधान के उपबंधों का अपने अपने पक्ष में व्यवस्था कर सकती हैं। ऐसी दशा में उनकी सही सही व्याख्या करने के लिए एक ऐसी संस्था की आवश्यकता होती है, जो  स्वतंत्र और निष्पक्ष हो। संघीय संविधान में यह कार्य न्यायपालिका को सौंपा गया है। संविधान केउपबंधों की व्याख्या के संबंध में अंतिम निर्णय देने का अधिकार न्यायपालिका को ही प्राप्त है। यह संस्था किसी भी सरकार के अधीन नहीं होती है। यह सरकार के अंग के रूप में एक पूर्ण स्वतंत्र एवं निष्पक्ष संस्था के रूप में रहकर अपने कार्यों का संपादन करती है। संघीय व्यवस्था में संविधान की सर्वोपरिता को सुरक्षित रखने का महान कार्य न्यायपालिका के ऊपर ही रहता है। न्यायपालिका द्वारा किया गया संविधान का निर्वचन  सभी अधिकारियों पर बंधनकारक होता है।  
 संघीय संविधान के सम्बन्ध में वर्णन किए गए उपर्युक्त सभी आवश्यक तत्व भारतीय संविधान में विद्यमान हैं। यह दोहरी राज्य प्रणाली की स्थापना करता है। एक स्तर पर केंद्रीय सरकार और दूसरे स्तर पर राज्य की सरकारों की। संघीय संविधान में केंद्रीय एवं राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन है। प्रत्येक सरकार अपने अपने क्षेत्र में सार्वभौम है और एक दूसरे की सहयोगी भी है। भारतीय संविधान एक लिखित संविधान है, और देश की सर्वोच्च विधि है। संविधान के  वे उपबंध जो संघ व्यवस्था से संबंध रखते हैं. उनमें राज्य सरकारों की सहमति के बिना परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। संविधान की सर्वोपरिता, संविधान की व्याख्या और उसके संरक्षण के लिए एक तंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका की स्थापना की गई है, परंतु जैसा ऊपर कहा गया है जा चुका है कि कुछ संविधान वेत्ताओं ने इस पर आपत्ति प्रकट की है, और उनका कहना है कि भारतीय संविधान सही रूप में एक संघीय संविधान नहीं है। प्रोफेसर व्हीयर के अनुसार भारतीय संविधान एक अर्ध-संघीय संविधान है, अथवा एकात्मक राज्य, जिसमें संघात्मक तत्व सहायक रूप में है न की एक संघात्मक राज्य जिसमें एकात्मक तत्व सहायक कहे जा सकते हैं। प्रोफेसर जेनिंग्स ने इस संविधान को “a federation with strong centralising tendency”  अर्थात “एक ऐसा संघ जिसमें केंद्रीकरण सबल हो” कहा है। 
 भारतीय संविधान के आलोचकगण अपने उपर्युक्त तर्क के पक्ष में संविधान के निम्नलिखित उपबंधों को प्रस्तुत करते हैं

1 -  राज्यपाल की नियुक्ति

  प्रांतों के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है, ( अनुच्छेद 155 तथा 156 )। राज्यपाल राष्ट्रपति  के प्रसाद पर्यंत अपने पद पर बना रहता है। वह राज्य विधानमंडल के प्रति नहीं बल्कि राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदाई होता है। राज्य विधान मंडल द्वारा पारित कोई भी विधेयक राज्यपाल की अनुमति के बिना कानून का रूप नहीं ले सकती है। कुछ विषयों से संबंधित विधेयकों को वह राष्ट्रपति के विचारार्थ  प्रेषित कर सकता है, अनुच्छेद 286 (3), अनुच्छेद 288 (2), और अनुच्छेद 31) । कुछ बातों में वह अपने विवेकानुसार भी कार्य कर सकता है, (अनुच्छेद 166 )। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि भारतीय संविधान की उक्त व्यवस्था संघीय सिद्धांत के प्रतिकूल है तथा इसमें राज्यों की स्वायत्तता पर आघात पहुंचता है। परन्तु यह आरोप उचित नहीं है, क्योंकि राज्यपाल की स्थिति केवल एक संवैधानिक प्रमुख की है, जो सर्वदा मंत्रिमंडल के परामर्श से कार्य करता है। संविधान की शब्दावली जो भी हो परन्तु व्यवहार में ऐसे उदाहरण नगण्य ही है, जहाँ राष्ट्रपति ने राज्य विधान मंडल द्वारा पारित कानूनों पर अपने विशेषाधिकार का प्रयोग किया हो। मात्र केरल एजुकेशन बिल ही ऐसा उदाहरण है, किंतु इस मामले में भी केंद्र ने दिल्ली उच्चतम न्यायालय से परामर्श प्राप्त किया था और उसके पश्चात ही उस में उचित संशोधन के लिए राज्य में विधानमंडल के पुनर्विचार हेतु भेजा था।

2 -  राज्य सूची के विषय पर राष्ट्रीय हित में संसद की विधि बनाने की शक्ति -

  अनुच्छेद 249 के अनुसार, यदि राज्यसभा अपने दो तिहाई सदस्यों के बहुमत द्वारा यह घोषित कर दे कि राष्ट्रीय हित में यह आवश्यक और इष्टकार है कि संसद, राज्य सूची में उल्लिखित किसी विषय के बारे में विधि बनाए,  तो संसद की उस विषय के सम्बन्ध में विधि बनाना विधि संगत होगा। इस व्यवस्था पर भी किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। केंद्रीय एवं राज्य सरकारों में शक्तियों का विभाजन इसी आधार पर किया जाता है कि, राष्ट्रीय हित के विषय पर केंद्र कानून बनाता है, और क्षेत्रीय हित के विषयों पर क्षेत्रीय सरकार। समाज के विकास एवं उसकी परिस्थितियों के अनुसार क्षेत्रीय विषयों का स्वरूप बदलकर राष्ट्रीय महत्त्व का भी हो सकता है, और उस समय उस विषय पर ऐसे कानून की आवश्यकता होगी जो देश भर में लागू हो, यह कार्य केवल केंद्रीय सरकार ही कर सकती है। इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि यदि राज्य सूची में उल्लिखित कोई  विषय राष्ट्रीय महत्व के विषय का रूप धारण कर लेता है तो संसद को उस पर विधि बनाना चाहिए। सामान्यतः संविधान में संशोधन किए बिना ऐसा नहीं किया जा सकता है। किंतु हमारे संविधान निर्माताओं ने इस उपबंध में एक ऐसी सरल युक्ति की व्यवस्था की है, जिससे हम संविधान में विधिवत संशोधन किए बिना ही उद्देश्य की प्राप्ति कर सकते हैं, और केंद्र को राज्य सूची के उन विषयों पर, जिन्होंने राष्ट्रीय हित का स्वरूप धारण कर लिया है, प्रशासन एवं विधायक की शक्ति प्रदान की जा सकती है। दूसरी बात यह है कि संसद अपने आप राज्य सूची के विषयों पर विधि नहीं बनाती बल्कि राज्यों की अनुमति से ऐसा करती है, जब राज्यसभा अपने बहुमत से प्रस्ताव पास करके केंद्र को ऐसी शक्ति प्रदान कर देती है। इस युक्ति  से राज्यों की अनुमति द्वारा संविधान में संशोधन हो जाता है। स्वयं प्रांतीय सरकार यदि राज्य सूची के विषय पर विषयों पर केंद्रीय सरकार को कानून बनाने की शक्ति दे दे तो यह बात समझ में नहीं आती कि लोगों को इस पर आपत्ति क्यों है और राज्य कैसे केंद्र के अधीन हो जाते हैं। 

3 - नए राज्यों के निर्माण एवं वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों सीमा हो या नामों के बदलने की संसद की शक्ति -

अनुच्छेद 3 संसद को नए राज्यों के निर्माण, वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों को  बदलने की शक्ति देता है। इस प्रकार राज्यों का अस्तित्व ही केंद्र की इच्छा पर निर्भर है। इस व्यवस्था से निश्चय ही संघीय सिद्धांत पर बहुत बड़ा आघात पहुंचता है, किंतु संविधान निर्माताओं ने इस उपबंध को  कुछ विशिष्ट कारणों से ही संविधान में समाविष्ट किया है। संसद की क्षेत्रीय समायोजन की शक्ति को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर ही भली-भांति समझा जा सकता है। वर्तमान संविधान ने भारत में पहली बार संघ-राज्य-व्यवस्था की स्थापना की और उसमें सम्मिलित करने के लिए कुछ इकाइयां बनाई गई। भारत में यद्यपि इन इकाइयों का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व कभी नहीं रहा। नए संविधान के प्रवर्तन के समय इस मामले पर गंभीरता से विचार करने का समय नहीं था और न ही उस समय उसका समुचित हल खोजा जा सकता था। संविधान निर्मातागण  उन विशेष परिस्थितियों एवं कारणों से भली-भांति परिचित थे जिनके फलस्वरूप राज्यों की स्थापना की गई थी, और कालांतर में उनके क्षेत्रों में पुनः हेरफेर की आवश्यकता को भी वे अनुभव करते थे। अतः इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अनुच्छेद 3 के अंतर्गत भविष्य में उठने वाले इस समस्या के समाधान की पहले से ही व्यवस्था करना उचित समझा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि संविधान राज्यों की क्षेत्रीय अखंडता की गारंटी नहीं देता है। राजनीतिक और ऐतिहासिक दोनों कारणों से ऐसा किया गया है। हमारे संविधान में राज्य को यह अधिकार नहीं प्रदान किया गया है कि वे कभी किसी परिस्थिति में संघ से अपना संबंध विच्छेद करें। यह इससे  स्पष्ट हो जाता है कि संविधान में केंद्रीय व्यवस्था के लिए “फेडरेशन” शब्द का प्रयोग न करके “यूनियन” शब्द का प्रयोग किया गया है। यह विशेष शब्द इसी अभिप्राय से प्रयुक्त हुआ है कि यूनियन, शब्द  फेडरेशन शब्द की अपेक्षा समस्त देश की एकता का विशेष परिचायक है। इस शब्द के विशिष्ट अर्थ का संविधान के उपबंधों  में कोई उल्लेख नहीं किया गया है, परंतु संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ अंबेडकर ने इस शब्द का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि -  इस संविधान में केंद्रीय व्यवस्था को फेडरेशन इस कारणवश नहीं कहा गया है कि यहां संघ की व्यवस्था की गई है, जो राज्यों के संघ में सम्मिलित होने के समझौते का परिणाम है वरन संघ शब्द के प्रयोग से देश की अखंडता और एकता का आभास होता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस एकता के न होने से देश को अपरिमित क्षति हुई है। हमारे संविधान निर्मातागण  इस गलती को दोहराना नहीं चाहते थे। इसलिए देश की परिस्थितियों के अनुसार क्षेत्रीय सिद्धांत में किंचित संशोधन करके उन्होंने देश की एकता एवं अखंडता को अक्षुण बनाए रखने के उद्देश्य संविधान में ऐसी व्यवस्था रखी, जिसमें कोई भी प्रांत भारतीय संघ से संबंध विच्छेद न कर सके। हमारे संविधान निर्मातागण अमेरिका ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के संविधान में के संचालन में हुई कठिनाइयों से पूरी तरह अवगत थे। अमेरिका में राज्यों को अधिक स्वतंत्रता दे दिए जाने के परिणाम स्वरूप उनमे पार्थक्यवादी प्रवृति आ गई थी। अमेरिकी संघ की एकता  को बनाए रखने के लिए अमेरिकावासियों को गृह युद्ध का सहारा लेना पड़ा था। ऐसा इसलिए हुआ था कि अमेरिका के संविधान में संघीय सिद्धांत को बड़ी कठोरता से लागू किया गया था। राष्ट्र के हित की दृष्टि से संघीय सिद्धांतों में संशोधन कर लेना हमारे संविधान निर्माताओं की विलक्षण बुद्धि का परिचायक है। 

 संविधान में आपात उपबंध 

अनुच्छेद 352 के अंतर्गत  राष्ट्रपति आपातकालीन स्थिति घोषणा कर सकता है। ऐसा वह तब कर सकता है, जब उसकी समझ में देश में बाहरी युद्ध या आंतरिक विद्रोह की आशंका हो या किसी राज्य की सरकार संविधान के उपबंधों अनुसार नहीं चलाई जा सकती हो या जब देश या उसका कोई भाग वित्तीय संकट से ग्रस्त हो जाए। आपातकालीन घोषणा का परिणाम यह होता है कि समस्त देश का प्रशासन और विधायन कार्य  केंद्रीय संसद को प्राप्त हो जाते हैं, और राज्यों को केंद्र के निर्देशानुसार अपना प्रशासन चलाना होता है। राज्य सूची के किसी विषय पर संसद कानून बना सकती है। इन मुद्दों के परिणाम स्वरूप भारतीय संविधान एकात्मक रूप धारण कर लेता है। निश्चय ही इन उपबंधों के परिणाम स्वरूप हमारे संविधान का संघीय स्वरुप परिवर्तित हो जाता है। किंतु देखना यह है कि क्या इससे संघीय सिद्धांतों में संशोधन हो जाता है। डॉक्टर बी एन शुक्ला इस मत से सहमत नहीं है। उनके कथनानुसार, आपातकालीन उपबंध जो केवल विशिष्ट परिस्थितियों में लागू होते हैं, हमारी संघीय व्यवस्था को परिवर्तित या नष्ट नहीं करते हैं,  यह तो हमारे संविधान का विशेष गुण है, जो उन विशेष परिस्थितियों की कल्पना करता है, जबकि संघीय सिद्धांत को कठोरता से लागू करने से वे मूलभूत धारणाएं नष्ट हो सकती हैं जिन पर हमारा संविधान आधारित है। बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार संविधान केंद्रीय सरकार को इतना सशक्त बना देता है, जिससे वह देश पर आये संकटों को टालने में समर्थ हो जाती है। संकट काल में सभी संघीय संविधानों का संचालन शांति काल की अपेक्षा भिन्न रहा है। अमेरिका। ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के संविधान में भारतीय संविधान जैसी कोई व्यवस्था नहीं है, किंतु दोनों महायुद्धों में न्यायालयों ने संविधान की व्याख्या द्वारा सरकारों को विशाल शक्ति प्रदान कर दी थी, कि वह एक एकात्मक संविधान की तरह कार्य करने लगी थी। इसके बावजूद भी उक्त सभी संविधान यथावत संघात्मक बने रहे जबकि संघीय  सिद्धांत में काफी परिवर्तन हो गया था। जिस कार्य को उपर्युक्त संविधान में न्यायालयों ने संपादित किया उसको हमारे संविधान निर्माताओं ने स्पष्ट रूप से संविधान में समाविष्ट कर लिया है। 
 प्रोफेसर व्हीयर उपर्युक्त संविधानों को संघात्मक संविधान की श्रेणी में रखते हैं और भारतीय संविधान के लिए अर्ध-संघीय या संघात्मक कम और एकात्मक अधिक जैसी पदावली का प्रयोग करते हैं। स्मरणीय है कि प्रोफेसर प्रोफेसर व्हीयर ने अब स्वयं ही यह स्वीकार किया है कि संघीय  सिद्धांत के अपवाद हो सकते हैं। इस संदर्भ में उन्होंने अमेरिका के संविधान को उद्धृत किया है- जैसा की विदित है अमेरिका के संविधान में ही संघीय सिद्धांत का एक महत्वपूर्ण अपवाद वर्तमान था, फिर भी वह 1787 से लेकर 1913 के बीच एक संघात्मक संविधान बना रहा। यही नहीं, महायुद्धों में उनके कार्य संचालन पर  शायद वह ध्यान नहीं दे पाए। फिर भी यह समझ में नहीं आता कि ऐसी ही व्यवस्था भारत के संविधान में समाविष्ट किए जाने पर उनको आपत्ति क्यों है। 
  इसे भली भांति  समझ लेना चाहिए कि संघवाद की प्रकृति किसी देश के ऐतिहासिक विकास एवं आवश्यकता के आधार पर निर्भर करती है। प्रत्येक देश में एक ही पद्धति से संघवाद की आशा करना असंभव है। संघवाद स्थान और समय के अनुसार बदलता रहता है। किसी देश में इसका क्या स्वरुप अपनाया  जाएगा, यह देश विदेश की ऐतिहासिक, भौगोलिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। जो चीज एक देश के लिए अच्छी है, जरूरी नहीं कि वह दूसरे के लिए भी अच्छी हो। अलग-अलग देश में संघीय सिद्धांत का रूप भिन्न हो सकता है और उक्त कारणों से ऐसा होना सर्वथा युक्तिसंगत ही है। संघवाद की जो पद्धति अमेरिका  के संविधान में लागू होती है आवश्यक नहीं कि वह भारत के लिए भी अच्छी हो। दोनों देशों की अपनी अपनी अलग-अलग परिस्थितियां और आवश्यकताएं हैं और उन्हीं के अनुसार संघवाद के सिद्धांत को भी हमने संशोधित कर लिया है। अमेरिका का संघवाद अमेरिका के लिए अच्छा हो सकता है, भारत के लिए नहीं। भारत में संघवाद का जो स्वरूप संविधान में समाविष्ट किया गया है वह उसके लिए अच्छा है। सिद्धांततः  अमेरिका का संविधान पूर्ण संघीय संविधान है, लेकिन व्यवहारतः वह केंद्रोन्मुखी है। संचालन की दृष्टि से भारत और अमेरिका के संविधान में कोई विशेष अंतर नहीं है। यह सच है कि भारतीय संविधान में संघीय सिद्धांत को उस रूप में नहीं स्वीकार किया गया जिस रूप में वह अमेरिकी या अन्य संघीय संविधान में अपनाया गया है, किंतु इसका कारण स्पष्ट है। भारतीय संविधान में संघीय शासन व्यवस्था को सैद्धांतिक दृष्टिकोण से नहीं बल्कि व्यवहारिक दृष्टिकोण से परिभाषित  किया गया है। महायुद्धों, अंतर्राष्ट्रीय संकटों, वैज्ञानिक एवं तकनीकी शोधों और कल्याणकारी राज्य के आदर्श के विकास के प्रभाव के परिणाम स्वरूप संघीय सिद्धांत की धारणा में बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया है। संसार की समस्त संघीय शासन व्यवस्था में केंद्रीकरण की प्रवृति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इसके परिणाम स्वरूप अमेरिका, आस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैंड तथा कनाडा की सरकारें केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बन गई हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने इन सब प्रवृत्तियों से प्रभावित होकर और देश की आवश्यकता को ध्यान में रखकर, एक ऐसी संघीय व्यवस्था की स्थापना की है, जो सभी प्रकार से देश के लिए हितकर हो।  भारतीय संविधान ने संघवाद के क्षेत्र में निश्चय ही एक नया और साहस पूर्ण प्रयोग किया है। 
 भारतीय संविधान के निर्माताओं का उद्देश्य एक दृढ एवम शक्तिशाली केंद्र सरकार की स्थापना करने का रहा है, जो किसी भी समय देश पर बाहरी आक्रमणों को रोकने में समर्थ हो और आंतरिक विनाशकारी तत्वों को दबाने में भी पूर्ण सक्षम हो। इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए केंद्रीय सरकार को राज्य सरकारों की अपेक्षा अधिक शक्तियां दी गई हैं। भारतीय संघात्मक व्यवस्था एक परिवर्तनीय व्यवस्था है, और आवश्यकतानुसार यह एकात्मक और संघात्मक दोनों ही रूप धारण कर सकती है। साधारण समय में इसका रूप संघात्मक बना रहता है, परन्तु  संकटकाल में राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा की दृष्टिकोण से ऐसे तत्वों का समावेश किया गया है, जो संघात्मक ढांचे को एकात्मक ढांचे में परिवर्तित कर देते हैं। देश के ऊपर जब ऐसे संकटों की संभावना हो, ऐसी स्थिति में केंद्रीय सरकार ही वह सूत्र है, जो पूरे देश के सामान्य हित के लिए कार्य कर सकती है, और देश की एकता की सुरक्षा कर सकती है। प्रांतीय सरकारों से इसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती है। आपातकालीन शक्तियों के बारे में डा.  अम्बेडकर ने कहा था -  जो लोग केंद्र को संकटकाल में भी ऐसी शक्तियां देने के पक्ष को स्वीकार नहीं करते, ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें जड़ में उपस्थित समस्या का कोई अस्पष्ट ज्ञान नहीं है। 
  संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि, भारत का संविधान ना तो विशुद्ध संघात्मक ही है, और ना विशुद्ध एकात्मक, बल्कि यह दोनों का मिश्रण है। यह अपने ढंग का एक अनोखा संविधान है। यह इस सिद्धांत को स्थापित करता है कि संघात्मक होने के बावजूद भी देश का हित सर्वोपरि है 


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