नागरिकता | Citizenship

नागरिकता के सांविधानिक उपबंध 

नागरिकता

अनुच्छेद 5 - 11




 अनुच्छेद 5 -  संविधान के प्रारंभ पर नागरिकता - इस संविधान के प्रारंभ पर प्रत्येक व्यक्ति इसका भारत के राज्य क्षेत्र में अधिवास है और-

(क) जो भारत के राज्य क्षेत्र में जन्मा था,  या
(ख) जिसके माता-पिता में से कोई भारत के राज्य क्षेत्र में जन्मा था, या
(ग) जो ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले कम से कम 5 वर्ष तक भारत के राज्यक्षेत्र में मामूली तौर से निवासी रहा है,
 भारत का नागरिक होगा।

 अनुच्छेद 6 -  पाकिस्तान से भारत को प्रव्रजन करने वाले कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार -       अनुच्छेद 5 में किसी बात के होते हुए भी, कोई व्यक्ति जिसने ऐसे राज्यक्षेत्र से, जो इस समय पाकिस्तान के अंतर्गत है, भारत के राज्यक्षेत्र को प्रव्रजन किया है, इस संविधान के प्रारंभ पर भारत का नागरिक समझा जाएगा-

(क) यदि वह अथवा उसके माता या पिता मे से कोई, अथवा उसके पितामह या पितामही  या मातामह या मातामही मे से कोई ( मूलरूप से यथा अधिनियमित ) भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में जन्मा था, और,
(ख ) (1 ) जबकि वह व्यक्ति ऐसा है, जिसने 19 जुलाई, 1948 से पहले  इस प्रकार प्रव्रजन किया है, तब यदि वह अपने प्रव्रजन की तारीख से भारत के राज्यक्षेत्र में मामूली तौर से निवासी रहा है, या,
(2) जबकि वह व्यक्ति ऐसा है, जिसने 19 जुलाई, 1948 को या उसके पश्चात इस प्रकार प्रव्रजन किया है, तब यदि वह नागरिकता प्राप्ति के लिए भारत डोमिनियम की सरकार द्वारा विहित प्रारूप में और रीति से उसके द्वारा इस संविधान के प्रारंभ से पहले ऐसे अधिकारी को, जिसे उस सरकार ने इस प्रयोजन के लिए नियुक्त किया है, आवेदन किए जाने पर उस अधिकारी द्वारा भारत का नागरिक रजिस्ट्रीकृत कर लिया गया है; 
     परंतु यदि कोई व्यक्ति अपने आवेदन की तारीख से ठीक पहले कम से कम 6 मास  तक भारत के राज्य क्षेत्र में निवासी नहीं रहा है, तो वह इस प्रकार रजिस्ट्रीकृत नहीं किया जाएगा।  

अनुच्छेद 7 - पाकिस्तान को प्रव्रजन करने वाले कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार -

             अनुच्छेद 5 और अनुच्छेद 6 में किसी बात के होते हुए भी, कोई व्यक्ति जिसने 1 मार्च 1947 के पश्चात, भारत के राज्यक्षेत्र से ऐसे राज्य क्षेत्र को, जो इस समय पाकिस्तान के अंतर्गत है, प्रव्रजन किया है, भारत का नागरिक नहीं समझा जाएगा ;
           परंतु इस अनुच्छेद की कोई बात ऐसे व्यक्ति को लागू नहीं होगी, जो ऐसे राज्य क्षेत्र को, जो इस समय पाकिस्तान के अंतर्गत है, प्रव्रजन करने के पश्चात भारत के राज्यक्षेत्र को, ऐसी अनुज्ञा के अधीन लौट आया है, जो पुनर्वास के लिए, या स्थाई रूप से लौटने के लिए, किसी विधि के प्राधिकार द्वारा, या उसके अधीन दी गई है, और प्रत्येक ऐसे व्यक्ति के बारे में अनुच्छेद 6 के खंड (ख) के प्रयोजनों के लिए, यह समझा जायेगा कि, उसने भारत के राज्य क्षेत्र को 19 जुलाई, 1948 के पश्चात प्रव्रजन किया है।

अनुच्छेद 8 - भारत के बाहर रहने वाले भारतीय उद्भव के कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार -          अनुच्छेद 5 में किसी बात के होते हुए भी, कोई व्यक्ति जो, या जिसके माता या पिता में से कोई, अथवा पितामह या  पितामही, या मातामह या मातामही में से कोई ( मूल रूप में यथा अधिनियमित ) भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में जन्मा था, और जो इस प्रकार परिभाषित भारत के बाहर किसी देश में मामूली तौर से निवास कर रहा है, भारत का नागरिक समझा जाएगा, यदि वह नागरिकता प्राप्ति के लिए भारत डोमिनियन की सरकार द्वारा या भारत सरकार द्वारा विहित प्रारूप में और रीति से अपने द्वारा उस देश में, जहां वह तत्समय  समय निवास कर रहा है, भारत के राजनयिक या कौंसलीय प्रतिनिधि को, इस संविधान के प्रारंभ से पहले या उसके पश्चात, आवेदन किए जाने पर ऐसे राजनयिक या कौंसलीय प्रतिनिधि द्वारा, भारत का नागरिक रजिस्ट्रीकृत कर लिया गया है। 


अनुच्छेद 9 -  विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से अर्जित करने वाले व्यक्तियों का नागरिक न होना -            यदि किसी व्यक्ति ने, किसी विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से अर्जित कर ली है, तो वह अनुच्छेद 5 के आधार पर, भारत का नागरिक नहीं होगा, अथवा, अनुच्छेद 6 या अनुच्छेद 8 के आधार, पर भारत का नागरिक नहीं समझा जाएगा। 


अनुच्छेद 10 -  नागरिकता के अधिकारों का बना रहना - 

              प्रत्येक व्यक्ति, जो इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों में से किसी के अधीन, भारत का नागरिक है या समझा जाता है, ऐसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, जो संसद द्वारा बनाई जाए, भारत का नागरिक बना रहेगा। 


अनुच्छेद 11 -  संसद द्वारा नागरिकता के अधिकार का विधि द्वारा विनियमन किया जाना - 

          इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों की कोई बात, नागरिकता के अर्जन और समाप्ति के, तथा नागरिकता से संबंधित अन्य सभी विषयों के संबंध में, उपबंध करने की  संसद की शक्ति का अल्पीकरण नहीं करेगी। 

नागरिकता के सांविधानिक उपबंधों की व्याख्या 


 नागरिकता की परिभाषा-

         संविधान में नागरिकता की कोई परिभाषा नहीं दी गई है।  प्रायः किसी भी देश में रहने वाले निवासियों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है - 1 - नागरिक और, 2 -  विदेशी।  नागरिक वह व्यक्ति होता है, जिसे उस देश के संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार प्राप्त होते हैं। यह अधिकार विदेशी व्यक्तियों को प्रदान नहीं किए जाते हैं।  नागरिकता, संविधान द्वारा प्रदत वह गुण है, जो केवल नागरिकों को ही उपलब्ध होता है। नागरिकता द्वारा प्राप्त अधिकारों का उपभोग नागरिक व्यक्ति ही कर सकता है, विदेशी व्यक्ति नहीं। इस प्रकार निम्नलिखित मूल अधिकार संविधान में केवल नागरिकों को ही प्रदान किए गए हैं-

1 -  राज्य नागरिकों के बीच केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, और जन्म स्थान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा ( अनुच्छेद-15 )
2 -  राज्य के अधीन नौकरियों के विषय में पद और अवसर की समता का अधिकार- ( अनुच्छेद-16 )
3 - संविधान के भाग 3  में उल्लिखित मूल-अधिकार, जैसे - वाक-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य का अधिकार- अनुच्छेद- 19 (1) (क), शांतिपूर्वक एवं निरायुध सम्मलेन का अधिकार - अनुच्छेद- 19 (1) (ख). संघ बनाने का अधिकार- अनुच्छेद- 19 (1) (ग), भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण का अधिकार- अनुच्छेद- 19 (1) (घ), भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने का अधिकार- अनुच्छेद- 19 (1) (ङ), और, कोई वृत्ति, उपजीविका या व्यापार का अधिकार- अनुच्छेद- 19 (1) (छ). इत्यादि। 
4 -  अनुच्छेद-29 और अनुच्छेद-30 द्वारा प्रदत्त  अल्पसंख्यक वर्ग के हितों का संरक्षण तथा शिक्षा संस्थाओं की स्थापना प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार। कुछ सार्वजनिक पद,  जैसे - राष्ट्रपति निर्वाचित  होने की पात्रता - अनुच्छेद 58,  उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने की पात्रता - अनुच्छेद 66, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय  के न्यायाधीशों की नियुक्ति की पात्रता अनुच्छेद-124 (3) तथा  अनुच्छेद 217 (2), राज्यपाल  नियुक्त होने के लिए अर्हताएं- अनुच्छेद 157,  भारत का महान्यायवादी नियुक्त होने की अर्हता- अनुच्छेद 76,  राज्य का महाधिवक्ता नियुक्त होने की अर्हता- अनुच्छेद 165, आदि, केवल नागरिकों नागरिकता के अधिकार के द्वारा ही के द्वारा ही प्राप्त किए जा सकते हैं। 
5 -  केंद्रीय विधान मंडलों और राज्य विधान मंडलों के प्रतिनिधियों को  चुनने का मताधिकार और इन संस्थाओं के सदस्य बनने  के अधिकार केवल नागरिकों को ही प्रदान किए गए हैं। 

नागरिकता के लिए सांविधानिक उपबंध - 

                 संविधान नागरिकता से संबंधित पूर्ण व्यवस्था नहीं प्रस्तुत करता है। संविधान का भाग 2 केवल उन वर्गों के लोगों के बारे में उल्लेख करता है, जो संविधान के लागू होते समय, अर्थात, 26 जनवरी 1950 को भारतीय नागरिक मारे गए हैं, और नागरिकता से संबंधित शेष बातों के लिए कानून बनाने का अधिकार संसद को प्रदान करता है। अनुच्छेद 11 संसद को इस विषय पर कानून बनाने का प्राधिकार देता है। भारतीय संसद ने नागरिकता संबंधी प्रावधानों की पूर्ति करने के लिए सन 1955 में भारतीय नागरिकता अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम में संविधान लागू होने के उपरांत नागरिकता की प्राप्ति और समाप्ति से संबंधित उपबन्ध किए गए हैं। इस भाग में सर्वप्रथम हम संविधान में दी गई व्यवस्था का अध्ययन करेंगे तत्पश्चात भारतीय नागरिकता अधिनियम 1955 में दी गई व्यवस्था का संक्षेप में विवरण जानेंगे।

अनुच्छेद 5-संविधान के प्रारंभ पर नागरिकता - 

संविधान के प्रारंभ पर निम्नलिखित व्यक्ति भारत के नागरिक होंगे;
1 - अधिवास (Domicile) द्वारा नागरिकता (अनुच्छेद 5)
2 -  पाकिस्तान से  भारत को प्रव्रजन (Migrate)  करने वालों की नागरिकता
3 -   भारत में पाकिस्तान को  प्रव्रजन (Migrate) करने वालों की नागरिकता
4-  विदेशों में (पाकिस्तान के अलावा) रहने वाले लोगों की नागरिकता


1 - अधिवास (Domicile) द्वारा नागरिकता - 

अनुच्छेद 5 के अनुसार इस संविधान के आरंभ पर प्रत्येक व्यक्ति जिसका भारत में अधिवास है भारत का नागरिक होगा, यदि,
1 -  वह भारत में जन्मा हो, अथवा, 
2 - उसके माता-पिता में से कोई भी भारत में जन्मा हो, अथवा
3 -  जो संविधान के प्रारंभ होने से ठीक पहले कम से कम 5 वर्ष तक भारत में साधारण तौर से निवासी रहा हो,
                   इस प्रकार अधिवास द्वारा नागरिकता प्राप्त करने के लिए दो शर्तें पूरी होनी चाहिए, पहली  यह कि व्यक्ति का भारत में अधिवास हो, और दूसरी यह कि वह व्यक्ति अनुच्छेद-5 द्वारा निर्धारित तीन में से कोई एक शर्त पूरी कर रहा हो, जैसे 1 - वह भारत में जन्मा हो, 2 - उसके जनको में से कोई भारत में जन्मा हो, और, 3 - वह संविधान के प्रारंभ  होने के ठीक पहले कम से कम 5 वर्ष तक भारत का साधारणतया निवासी रहा हो। 
             अधिवास, नागरिकता प्राप्ति के लिए एक आवश्यक तत्व माना जाता है, किंतु संविधान में इस शब्द की कोई परिभाषा नहीं दी गई है। इस दशा में हमें न्यायालयों द्वारा दी गई परिभाषा की ही शरण लेनी होगी। साधारणतया अधिवास का तात्पर्य उस स्थाई घर या स्थान से है, जहां व्यक्ति का इरादा स्थाई रूप से तथा अनिश्चितकाल तक निवास करने का हो । मुख्य न्यायाधिपति श्री महाजन ने सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड बनाम राम नारायण के वाद में अधिवास शब्द की परिभाषा इस प्रकार की है-  “वह स्थान किसी व्यक्ति का निवास स्थान कहलाता है, जहां वह स्थाई रूप से निवास कर रहा हो, और वर्तमान समय में उसे छोड़ने का कोई इरादा ना हो”। 
 इस प्रकार अधिवास के अस्तित्व के लिए दो तत्वों की आवश्यकता होती है, 
1 -  आवास  और 2 -  अनिश्चित  काल तक रहने का आशय
आवास के लिए यह आवश्यक नहीं है कि यह निरंतर हो, किंतु इसे अवश्य ही निश्चित होना चाहिए, न कि  सर्वदा बदलने वाला। तात्पर्य यह है कि नागरिक उस स्थान का स्थाई रहने वाला हो। जहां तक आवास से सम्बंधित आशय का प्रश्न है,  यह आशय अवश्य ही वर्तमान समय में देश में हमेशा निवास का होना चाहिए। अधिवास और आवास दोनों भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। केवल किसी स्थान पर किसी व्यक्ति के रहने के कारण वह उसका अधिवास-स्थान नहीं हो जाता है। अधिवास के लिए आवास के साथ-साथ उस स्थान को अपना स्थाई घर बनाने का आशय होना भी आवश्यक है। 
                    इस प्रकार अधिवास गठित करने के लिए वस्तुतः स्थान विशेष में आवास और वासेच्छा, दो आवश्यक तत्वों का होना आवश्यक है। इनमें से किसी एक की नामौजूदगी में कोई भी व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं कहा जा सकता है। किसी व्यक्ति के नागरिक बनने के लिए अधिवास के साथ-साथ कम से कम 5 वर्ष तक देश में निवास का होना भी आवश्यक है। माइकल बनाम स्टेट ऑफ़ बॉम्बे का वाद इसका एक अच्छा उदाहरण है। इसमें वादी गोवा का एक निवासी था। उसका जन्म गोवा में हुआ था। उसके माता-पिता गोवा के निवासी थे। वह बचपन से ही मुंबई आ गया था और वही रहा। वही उसने शिक्षा प्राप्त की और अपने पिता का व्यापार भी चलाता रहा। न्यायलय ने निर्णय दिया कि वह अधिवास द्वारा भारत का नागरिक बन गया है। 
              अधिवास दो प्रकार का होता है, मौलिक अधिवास और अर्जित अधिवास। कानून प्रत्येक व्यक्ति के पैदा होने पर अधिवास प्रदान करता है, जिसे मौलिक अधिवास कहते हैं। किसी व्यक्ति के जन्म के समय, यदि उसके माता-पिता किसी देश में अधिवास रखते थे, तो वही देश उसका भी अधिवास होगा। मौलिक अधिवास कानून द्वारा प्रदत्त अधिकार होता है और जब तक कोई उसका स्वयं परित्याग करके नए अधिवास को न ग्रहण कर ले, यह उस से सम्बद्ध रहता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि नागरिकता के लिए यह आवश्यक नहीं है कि एक व्यक्ति के पास निजी घर हो, किंतु अधिवास का होना आवश्यक है। यदि कोई व्यक्ति अपने जन्म के देश को इस निश्चित आशा के साथ छोड़कर जाता है कि, वह वहां फिर वापस नहीं आएगा, फिर भीजन्म का अधिवास उससे सम्बद्ध  रहता है, जब तक कि वह दूसरे देश में वास्तविक रुप से बस नहीं जाता। थोड़े समय के लिए किसी दूसरे देश में निवास, मूल अधिवास को प्रभावित नहीं करता है, बशर्ते जन्म से देश में रहने का इरादा विद्यमान हो। 
                     किसी व्यक्ति के अधिवास को निर्धारित करने के लिए प्रमुख तत्व इरादा है। इसका निर्धारण मनुष्य के कार्यों द्वारा प्रकट होता है। अस्लम खाँ  बनाम फैजल खाँ  का वाद इसका अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस वाद में एक व्यक्ति सरकारी नौकर था। देश का विभाजन होने पर उसे भारत या पाकिस्तान में रहने का विकल्प प्रदान किया गया था। उसने पाकिस्तान में रहने की इच्छा व्यक्त की और वास्तव में वहां गया और पाकिस्तान सरकार के अधीन नौकरी करता रहा। कुछ समय बाद उसने वहां अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और भारत वापस चला आया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि वह अनुच्छेद 5 के अंतर्गत प्रदत्त अधिकार का दावा नहीं कर सकता क्योंकि वह स्वतंत्र भारत का नागरिक कभी भी नहीं रहा। 
                    कोई भी वयस्क व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी दूसरे देश का अधिवास अर्जित कर सकता है, बशर्ते कि अधिवास को गठित करने वाले दोनों तथ्य मौजूद हों, पहला यह कि व्यक्ति वास्तव में किसी स्थान  में निवास कर रहा हो, और दूसरा यह कि उसका आशय वहां स्थाई रूप से और अनिश्चित काल तक के लिए रहने का हो। 
                  मोहम्मद रजा बनाम स्टेट ऑफ़ बॉम्बे  में अपीलार्थी सन 1938 में भारत आया था। सन 1946 में वह हज करने इराक गया। इराक से लौटने के बाद उसका नाम एक विदेशी के रूप में रजिस्ट्रीकृत था और अनेक बार सरकार उसके भारत में रहने की अवधि को बढ़ाती रही। अंत में सन 1957 में  अवधि वृद्धि की उसकी प्रार्थना अस्वीकृत कर दी गई। उसने दावा किया कि अनुच्छेद 5 के अंतर्गत उसे नागरिक माना जाए। न्यायालय ने निर्णय दिया कि, यद्यपि वह साधारणतया भारत में रह रहा था, लेकिन उसने भारत की नागरिकता अर्जित नहीं की थी, क्योंकि भारत में उसका अधिवास नहीं था। उसकी गतिविधियों से स्पष्ट था कि उसका आशय भारत में स्थाई रूप से रहने का नहीं था। बार-बार समय बढ़ाने का निवेदन करना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण था। उसका यह तर्क कि  इराक से लौटने के बाद उसने भारत में नौकरी कर ली, यह प्रमाणित नहीं करता कि उसके मस्तिष्क में भारत में स्थाई रूप से रहने का आशय उत्पन्न हो गया था। न्यायालय के अनुसार अर्जित अधिवास तब तक व्यक्ति से सम्बद्ध रहता है, जब तक कि मूल अधिवास को पुनः प्राप्त न कर लिया जाए या नया अधिवास न अर्जित कर लिया जाए। 
वयस्क और  अविवाहित स्त्रियां स्वतंत्र व्यक्ति नहीं होते हैं, अथवा अपने अधिवास में परिवर्तन करने में सक्षम नहीं होते। अवयस्क का अधिवास पिता का अधिवास होता है और पत्नी अपने पति के अधिवास का अनुसरण करती है।  विधवा अपने पूर्व पति का अधिवास तब तक रखती है जब तक वह स्वयं इसे न बदल दे।

अनुच्छेद 6 - पाकिस्तान से प्रव्रजन करके आए व्यक्तियों की नागरिकता-

अनुच्छेद 6 ऐसे लोगों को नागरिकता के प्रयोजनों के लिए दो श्रेणी में विभाजित करता है। पहला वे लोग जो 19 जुलाई, सन 1948 से पहले भारत में आए, और, दूसरे वे लोग जो 19 जुलाई 1948 के बाद भारत में आए। क्योंकि 19 जुलाई सन 1948 ही वह तारीख है जब पाकिस्तान से भारत आने वालों और भारत से पाकिस्तान जाने वाले लोगों के लिए अनुज्ञा पद्धति लागू की गई थी। 
               पहली श्रेणी के लोगों को, अर्थात, 19 जुलाई 1948 से पहले भारत आने वाले प्रवासियों को संविधान लागू होने पर भारत का नागरिक समझा जाएगा, यदि वे निम्नलिखित शर्तों को पूरी करते हों -
1 - वह या उनके माता-पिता मे से कोई, या पितामह में से कोई, भारत सरकार अधिनियम 1935 द्वारा परिभाषित भारत में जन्मा था, तथा
2 - यदि वह जुलाई,सन  1948 के पूर्व भारत में प्रव्रजन कर आया हो, तब से भारत में आमतौर से रह रहा हो है,

  दूसरी श्रेणी अर्थात 19 जुलाई 1948 के पश्चात भारत आने वाले प्रवासियों को संविधान लागू होने पर भारत का नागरिक समझा जाएगा, यदि वे निम्नलिखित शब्दों में से कोई शर्त पूरी करते हो;
1 -  वह या उनके माता-पिता में से कोई या पितामहों में से कोई, भारत सरकार अधिनियम 1935 द्वारा परिभाषित भारत में जन्मा हो.
2 -  उन्हें नागरिकता प्राप्ति के लिए आवेदन पत्र देना अनिवार्य है,
3 - उन्हें यह सिद्ध करना चाहिए कि आवेदन की तिथि के 6 महीने पूर्व से वे भारत में रह रहे हैं,
4 -  उनका नाम भारत सरकार द्वारा नियुक्त प्राधिकारी द्वारा नागरिक के रूप में पंजीकृत कर लिया गया है, 


अनुच्छेद 7 -पाकिस्तान को प्रव्रजन करने वाले लोगों की नागरिकता -


अनुच्छेद 7  यह उपबंध करता है कि अनुच्छेद 5 और 6 में किसी बात के होते हुए भी, जो व्यक्ति 1 मार्च 1947 के पश्चात भारत से पाकिस्तान को प्रव्रजन कर गया है, वह भारत का नागरिक नहीं समझा जाएगा। किंतु यह नियम उस व्यक्ति पर लागू नहीं होगा, जो पाकिस्तान को प्रव्रजन करने के पश्चात, एक ऐसी अनुज्ञा के अधीन भारत लौट आया है, जो पुनर्वास के लिए स्थाई रूप से लौटने के लिए, किसी विधि के प्राधिकार द्वारा या अधीन हो गई है। प्रत्येक ऐसा व्यक्ति अनुच्छेद 6 के खंड (ख) के प्रयोजनों के लिए 19 जुलाई 1948 के पश्चात भारत क्षेत्र में प्रव्रजन करने वाला समझा जाएगा, यदि वह अनुच्छेद 6 के अंतर्गत दी गई उन सभी शर्तों को पूरी करता है, जो 19 जुलाई 1948 के बाद पाकिस्तान से भारत आने वाले प्रवासियों के लिए आवश्यक है, तो वह भारत का नागरिक बनने का अधिकारी है। 
                    अनुच्छेद 5 और अनुच्छेद 6 में किसी बात के होते हुए भी पदावली से स्पष्ट है कि अनुच्छेद 7 उक्त दोनों अनुच्छेदों  पर प्रभावी है। दूसरे शब्दों में अनुच्छेद 7  के अंतर्गत दी गई तिथि के उपरांत भारत से पाकिस्तान जाने वाले लोगों के लिए की नागरिकता, चाहे वह अनुच्छेद 5 के अंतर्गत अधिवास द्वारा प्राप्त की गई हो, या अनुच्छेद 6 के अंतर्गत प्रव्रजन द्वारा प्राप्त की गई हो, समाप्त हो जाएगी। 
                         अनुच्छेद 6 और अनुच्छेद 7 दोनों में प्रव्रजन शब्द का प्रयोग किया गया है, किंतु  संविधान में इसकी कोई परिभाषा नहीं दी गई है। अतः इस शब्द के भावार्थ को समझने के लिए हमें न्यायिक निर्णयों का सहारा लेना पड़ेगा। यह प्रश्न सर्वप्रथम उच्चतम न्यायालय के समक्ष विचारार्थ शन्नो देवी बनाम मंगलसेन के वाद में आया था। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि प्रव्रजन शब्द का अर्थ है - एक स्थान से दूसरे स्थान को स्थाई रूप से निवास करने के इरादे से जाना। 
                         कुलाथिल बनाम स्टेट ऑफ केरल के वाद में उच्चतम न्यायालय ने शन्नो बाई के मुकदमे के निर्णय को उलट दिया। न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 6 और अनुच्छेद 7 में प्रयुक्त प्रव्रजन शब्द का अर्थ संविधान निर्माण के समय मौजूद राजनीतिक परिस्थितियों एवं उद्देश्यों के संदर्भ में लगाया जाना चाहिए। इस संदर्भ में प्रव्रजन शब्द का अर्थ है - एक स्थान से दूसरे स्थान को स्वेच्छा पूर्वक जाना, आवश्यक नहीं कि गमना-गमन स्थाई निवास के इरादे से ही हो, यही पर्याप्त है कि जाना स्वेच्छा से हुआ हो। न्यायालय के अनुसार इस शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया गया है, जिसका अर्थ है एक देश से दूसरे देश में स्वेच्छा से जाना, बशर्ते ऐसा किसी विशेष उद्देश्य और एक सीमित अवधि के लिए न किया गया हो। 
                          इस प्रकार यह एक तथ्य का प्रश्न है कि, किसी व्यक्ति ने भारत से पाकिस्तान को प्रवजन किया है अथवा वह वहां केवल अस्थाई भ्रमण के उद्देश्य से गया है। इस प्रश्न का निर्धारण वाद के तथ्यों एवं परिस्थितियों के आधार पर किया जाता है। नागरिकता तभी समाप्त होती है जब प्रव्रजन स्वेच्छा से होता है न कि केवल अस्थाई भ्रमण के इरादे से। किंतु संविधान के संदर्भ में प्रव्रजन का अर्थ होता है भारत के प्रति अपनी निष्ठा को त्याग कर पाकिस्तान के प्रति निष्ठा को अपनाना। किसी व्यापार के सिलसिले में या अन्य किसी कारण से दूसरे देश में अस्थाई रूप से जाना प्रव्रजन नहीं माना जा सकता। 
                               बिहार राज्य बनाम अमर सिंह के वाद में एक महिला भारत में पैदा हुई थी। वह एक भारतीय नागरिक, जो भारत का निवासी था, की विवाहिता पत्नी थी। जुलाई सन 1948 में वह पाकिस्तान चली गई।  दिसंबर सन 1948 में वह एक अस्थाई अनुज्ञा पत्र पर भारत आई, और फिर अप्रैल 1949 में पाकिस्तान वापस लौट गई। 14 मई सन 1950 को एक अस्थाई अनुज्ञा पत्र के अनुसार, जिसे उसने पाकिस्तान स्थित भारतीय हाई कमिश्नर से प्राप्त किया था, भारत लौट आई। यह अनुज्ञा पत्र 12 जुलाई सन 1950 को इस आधार पर रद्द कर दिया गया कि, वह गलती से दिया गया था। ऐसे अनुज्ञा पत्र देने के पहले इनफ्लक्स आफ पाकिस्तान (कंट्रोल) एक्ट 1949 के अंतर्गत सरकार की अनुमति लेना आवश्यक था, जो उस मामले में प्राप्त नहीं की गई थी। उसने अनुज्ञा पत्र को रद्द करने के आदेशों की मान्यता पर आपत्ति करते हुए तर्क प्रस्तुत किया कि वह अभी भी भारतीय नागरिक है, क्योंकि वह भारत में पैदा हुई है, और उसको उसके पति का अधिवास प्राप्त है, जो भारत का निवासी है। विकल्प में उसने कहा कि अनुच्छेद 7 का परंतुक  उसके मामले में लागू होता है, क्योंकि वह अस्थाई अनुज्ञप्ति के अनुसार भारत लौट आई है। इस प्रकार वह हर प्रकार से भारत की नागरिक है और उसके अनुज्ञा पत्र को रद्द किया जाना गैरकानूनी एवं असंवैधानिक है। उच्चतम न्यायालय ने उसके तर्क को अस्वीकार करते हुए यह निर्णय दिया कि वह  भारत की नागरिक नहीं समझी जा सकती। न्यायालय के अनुसार जो व्यक्ति 1 मार्च, 1947 के बाद भारत से पाकिस्तान को प्रव्रजन कर गया था, वह भारत का नागरिक नहीं समझा जाएगा। महिला यह साबित करने में असफल रही कि वह पाकिस्तान में केवल एक अस्थाई प्रयोजन के लिए गई थी। क्योंकि उसको दिया गया अनुज्ञा पत्र मान्य नहीं था और रद्द कर दिया गया था, अतः उसने अपनी भारतीय नागरिकता खो दी थी। इसमें इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि उसके पति भारतीय नागरिक थे। न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 7  स्पष्ट रूप से अनुच्छेद 5 पर प्रभावी है और जिसका कोई अपवाद नहीं है। यदि पत्नी अपने पति को छोड़कर पाकिस्तान चली जाती है, तो वह अपनी नागरिकता खो देगी। 

अनुच्छेद 8भारत के बाहर भारतीय उत्पत्ति वाले व्यक्तियों की नागरिकता - 

                  अनुच्छेद 8 भारत में जन्मे किंतु विदेशों में रहने वाले व्यक्तियों को कुछ शर्तों को पूरा करने पर नागरिकता के अधिकार प्रदान करता है। इसके अंतर्गत पाकिस्तान जाने वाले लोग शामिल नहीं हैं। 
               अनुच्छेद 8 के अनुसार कोई भी व्यक्ति जो, या उसके माता-पिता में से कोई, अथवा पितामहों में से कोई भारत सरकार अधिनियम 1935 में परिभाषित भारत के बाहर किसी देश में रह रहा है, और यदि वह निम्नलिखित शर्तें पूरी कर ले, तो भारत का नागरिक समझा जाएगा, -
1 -  यदि वह भारत का नागरिक पंजीकृत कर लिया गया हो,
2 -  वह पंजीकरण भारत के राजनयिक या कौंसलर प्रतिनिधि, जहां वह उस समय निवास कर रहा हो, द्वारा किया गया हो,
3 -  इस आशय का आवेदन पत्र उपर्युक्त राजनयिक अथवा कौंसलर प्रतिनिधि के समक्ष किया गया हो,
4 -  यह  आवेदन पत्र संविधान के लागू होने के पहले या बाद में दिया गया हो,
5 -  आवेदन-पत्र  भारत डोमिनियन सरकार द्वारा या भारत सरकार द्वारा विहित प्रपत्र पर और रीति से किया गया हो;
अनुच्छेद 8 केवल संविधान लागू होने के समय पर प्राप्त होने वाली नागरिकता के बारे में ही नहीं वरन उसके पश्चात विदेशों में रहने वाले लोगों की नागरिकता के अधिकार के संबंध की ही व्यवस्था करता है। 


अनुच्छेद 9नागरिकता की समाप्ति- 

अनुच्छेद 9  यह उपबंधित करता है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी इच्छा से किसी विदेशी राज की नागरिकता अर्जित कर लेता है, तो उसकी भारतीय नागरिकता समाप्त हो जाएगी, और, वह अनुच्छेद 5, अनुच्छेद 6 या अनुच्छेद 8 के आधार पर नागरिकता के अधिकार का दावा नहीं कर सकता है। यह अनुच्छेद उन मामलों में लागू होता है, जिनमें किसी व्यक्ति ने संविधान लागू होने के पहले अपनी इच्छा से किसी विदेशी राज्य की नागरिकता अर्जित कर ली है। यदि ऐसी कोई नागरिकता संविधान लागू होने के बाद अर्जित की जाती है, तो उसका विनियमन नागरिकता अधिनियम 1955 के उपबन्धों के अनुसार किया जाएगा। संविधान इस संबंध में पूरी व्यवस्था नहीं करता। संविधान में उपबंधित  प्रावधान केवल उन लोगों से संबंधित हैं, जिन्होंने इसके आरंभ होने के पहले किसी विदेशी राज्य की नागरिकता प्राप्त कर ली थी। संविधान लागू होने के उपरांत नागरिकता कैसे प्राप्त की जाती है,इसके सम्बन्ध में पूर्ण व्यवस्था नागरिकता अधिनियम में दी गई है। 

अनुच्छेद 10 और 11

संसद द्वारा नागरिकता के अधिकार का विनियमन - 

                अनुच्छेद 10 यह उपबंधित करता है कि,  प्रत्येक व्यक्ति जो पूर्ववर्ती उपबन्धों के अनुसार भारत का नागरिक है, या समझा जाता है, वह भारत का नागरिक बना रहेगा, किंतु उसका यह अधिकार संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून के उपबंधों के अधीन होगा। अनुच्छेद 11 संसद को नागरिकता के अर्जन और समाप्ति तथा उससे संबंधित अन्य विषयों के संबंध में कानून बनाने की शक्ति प्रदान करता है। इस प्रकार प्रदत्त अपने अधिकारों का प्रयोग करके संसद किसी व्यक्ति को पूर्ववर्ती उपबंधों के अनुसार प्राप्त नागरिकता के अधिकार से वंचित कर सकती है। जब तक संसद ऐसी कोई विधि पारित नहीं करती, प्रत्येक व्यक्ति जो पूर्ववर्ती उपबंधों के अनुसार भारत का नागरिक है, या समझा जाता है, वह भारत का नागरिक बना रहेगा। इस प्रकार संसद किसी व्यक्ति को उसकी नागरिकता से वंचित कर सकती है, बशर्ते इस प्रयोजन के लिए वह उपर्युक्त उपबंध के अंतर्गत कोई विधि पारित करे। ऐसी किसी विधि के न होने पर संसद किसी व्यक्ति को नागरिकता के अधिकार से वंचित नहीं कर सकती। इब्राहिम वजीर बनाम बम्बई राज्य का वाद इसका एक अच्छा उदाहरण है। इस वाद  में इनफ्लक्स फ्रॉम पाकिस्तान (कंट्रोल) एक्ट 1949 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। यह अधिनियम यह उपबंध करता है कि कोई भी व्यक्ति जिसका अधिवास भारत या पाकिस्तान में है, बिना अनुज्ञा के भारत में प्रवेश नहीं करेगा। यदि कोई व्यक्ति बिना अनुज्ञा के भारत में प्रवेश करता है तो वह एक अपराध करने वाला माना जाएगा और दंड का भागी होगा। इस अधिनियम की धारा 7 के अंतर्गत केंद्रीय सरकार ऐसे व्यक्ति को, जिसने ऐसा अपराध किया है, या जिसके विरुद्ध ऐसा अपराध करने के बारे में युक्तियुक्त संदेह किया जा सकता हो, भारत से निकाले जाने का आदेश दे सकती है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि, उक्त अधिनियम की धारा 7 संसद की विधायिनी शक्ति  से परे है, क्योंकि किसी भारतीय नागरिक को बलपूर्वक भारत से निकालने का अर्थ है, उसे संविधान के भाग 2 द्वारा प्रदत्त नागरिकता के अधिकार से वंचित करना। नागरिकता का अधिकार केवल अनुच्छेद 11 के उपबंधों के अनुसार ही छीना जा सकता है, अर्थात इसके लिए संसद को विधि पारित करना आवश्यक है। इस प्रकार की किसी विधि के अभाव में किसी भी नागरिक को उसकी नागरिकता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने यह अभिनिर्धरित किया कि, उक्त कानून इस उद्देश्य पारित नहीं किया गया था, अतः वह असंवैधानिक और अवैध है।

  संविधान के लागू होने के पश्चात नागरिकता के आधार अधिकार -

                 नागरिकता अधिनियम 1955 -  जैसा कि हम जानते हैं, भारतीय संविधान नागरिकता से संबंधित नियमों के बारे में पूर्ण उपबंध नहीं करता। इस संबंध में पूर्ण उपबंध करने के लिए संविधान संसद को प्राधिकृत करता है कि वह कानून बनाकर इसके लिए व्यवस्था करे । अनुच्छेद 11 द्वारा संसद को यह शक्ति प्रदान की गई है। भारतीय संसद ने नागरिकता से संबंधित प्रावधानों की पूर्ति के लिए भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 पारित किया है। यह अधिनियम संविधान लागू होने के उपरांत नागरिकता की प्राप्ति और समाप्ति से संबंधित उपबंधों की व्यवस्था करता है। इस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार संविधान लागू होने के पश्चात पांच प्रकार से भारतीय नागरिकता प्राप्त की जा सकती है , जैसे- 
                                                1 - जन्म से नागरिकता की प्राप्ति, 
                                                2- वंशक्रम द्वारा नागरिकता की प्राप्ति,
                                                3 - रजिस्ट्रीकरण द्वारा नागरिकता की प्राप्ति,
 4- देशीयकरण द्वारा नागरिकता की प्राप्ति, और 
                       5 - किसी अर्जित भू-भाग के विलयन द्वारा नागरिकता की प्राप्ति 
1 - जन्म द्वारा नागरिकता की प्राप्ति -  संविधान लागू होने के पश्चात भारत में पैदा होने वाला प्रत्येक व्यक्ति भारत का नागरिक होगा। यह सामान्य नियम है। परंतु इस नियम के भी कुछ अपवाद हैं। कोई भी ऐसा व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं होगा, यदि उसके जन्म के समय, उसके पिता को ऐसे मुकदमों और कानूनी प्रक्रियाओं से विमुक्ति प्राप्त थी, जो भारत में कूटनीतिक राजदूतों को प्रदान की जाती है, या उसका पिता एक विदेशी शत्रु है और उसका जन्म ऐसे स्थान में होता है जो उस समय शत्रु के कब्जे में है,  (नागरिकता अधिनियम की धारा 3)

2 - वंशक्रम द्वारा नागरिकता की प्राप्ति - कोई ऐसा व्यक्ति जो, 26 जनवरी, 1950 को या उसके बाद भारत के बाहर पैदा हुआ हो, भारत का नागरिक होगा, यदि उसके जन्म के समय मे उसका पिता वंशक्रम से भारत का नागरिक रहा हो। किंतु यदि किसी व्यक्ति का पिता केवल वंश क्रम से भारत का नागरिक है, तो वह व्यक्ति तब तक भारत का नागरिक नहीं होगा जब तक कि ; (अ) - उसका जन्म किसी भारतीय कंसुलेट में एक निश्चित अवधि के भीतर पंजीकृत ना कर लिया गया हो, या (ब) -  उसका पिता उसके जन्म के समय में भारत सरकार के अधीन नौकर हो। विदेशों में पैदा होने वाले लोगों को भारतीय नागरिकता की प्राप्ति उपर्युक्त शर्तों को पूरी करने से प्राप्त होती है। 

 3 - रजिस्ट्रीकरण द्वारा नागरिकता की प्राप्तिकोई भी व्यक्ति जो संविधान या नागरिकता अधिनियम के उपबंधों के अनुसार नागरिक नहीं है, रजिस्ट्रीकरण/पंजीकरण द्वारा भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकता है। ऐसे व्यक्तियों को अपने रजिस्ट्रीकरण के लिए एक विशेष अधिकारी के पास आवेदन पत्र देना होता है, जो उन्हें भारत के नागरिक के रूप में पंजीकृत करता है। रजिस्ट्रीकरण द्वारा निम्नलिखित व्यक्ति नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं- 

A   -भारत में उत्पन्न व्यक्ति जो रजिस्ट्रेशन के लिए आवेदन पत्र देने के 6 महीने पहले से भारत में आमतौर से निवास करते रहे हो,
B  -  भारत में उत्पन्न व्यक्ति जो भारत के बाहर किसी अन्य देश में आमतौर से निवास करते रहे हो,
C   - भारतीय नागरिकों की पत्नियां,
 -  भारतीय नागरिकों के नाबालिक बच्चे,
E  -  प्रथम अनुसूची में वर्णित राज्यों के नागरिक,


4- देशीयकरण द्वारा नागरिकता की प्राप्ति-  कोई भी विदेशी व्यक्ति जो वयस्क हो चुका है, और प्रथम अनुसूची में वर्णित राज्यों का नागरिक नहीं है, भारत सरकार द्वारा निर्धारित प्रपत्र पर देशीयकरण के लिए आवेदन पत्र दे सकता है। कुछ निर्धारित शर्तों की पूर्ति के आधार पर, यदि केंद्रीय सरकार संतुष्ट है, तो आवेदनकर्ता को देशीयकरण का प्रमाण पत्र दे सकती है। देशीयकरण द्वारा भारतीय नागरिकता की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है;

A-  वह किसी ऐसे देश का नागरिक न हो, जहां भारतीय देशीयकरण द्वारा नागरिक बनने से रोक दिया जाता हो, 
B- उसने अपने देश की नागरिकता का परित्याग कर दिया हो और केंद्रीय सरकार को इस बात की सूचना दे दी हो,
C- वह देशीयकरण के लिए आवेदन करने की तिथि के पहले 12 वर्ष तक या तो भारत में रहा हो, या भारत सरकार की सेवा में रहा हो। केंद्रीय सरकार यदि उचित समझे तो उस अवधि को घटा सकती है। 
D-  या उपर्युक्त 12 वर्षों के पहले के कुल 7 वर्षों में से कम से कम 4 वर्ष तक उसने भारत में निवास किया हो या भारत सरकार की नौकरी में रहा हो,
E-  वह एक अच्छे चरित्र का व्यक्ति हो,
F-  वह राज्यनिष्ठा की शपथ ग्रहण करे,
G-  उसे भारतीय संविधान द्वारा मान्य भाषा का सम्यक ज्ञान हो,
H-  देशीयकरण के प्रमाण पत्र की प्राप्ति के उपरांत उसका भारत में निवास करने या  भारत सरकार की नौकरी में रहने का इरादा हो,
 अपवाद-  केंद्रीय सरकार पूर्वोक्त वर्णित शर्तों में से सभी या किसी को उन व्यक्तियों के संबंध में लागू नहीं करेगी, जिन्होंने विज्ञान, कला, दर्शन, साहित्य, विश्व-शांति या मानवीय प्रगति के हेतु विशिष्ट सेवा प्रदान की हो, ऐसे व्यक्तियों को उपर्युक्त शर्तों  को पूरी किए बिना ही देशीयकरण द्वारा नागरिकता प्रदान की जा सकती है।

 5- किसी अर्जित भू-भाग के विलयन द्वारा नागरिकता की प्राप्ति यदि कोई नया भू-भाग भारतीय क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया जाता है, तो भारत सरकार विज्ञप्ति द्वारा उन व्यक्तियों का उल्लेख करेगी, जो उस भूमि  के सम्मिलित किए जाने पर भारत के नागरिक हो जाएंगे। 


नागरिकता की समाप्त नागरिकता की समाप्ति - भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955, नागरिकता की समाप्ति के विषय में भी व्यवस्था करता है, चाहे वह भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के अंतर्गत प्राप्त की गई हो, या संविधान के उपबंधों  के अनुसार प्राप्त की गई हो। इस अधिनियम के अनुसार नागरिकता की समाप्ति तीन प्रकार से हो सकती है;

1 - नागरिकता का परित्याग,
2 - दूसरे देश की नागरिकता शिकार करने पर,
3 - नागरिकता से वंचित किया जाना,

1 - नागरिकता का परित्याग - कोई भी वयस्क भारत का नागरिक जो, किसी दूसरे देश का नागरिक है भारतीय नागरिकता को त्याग कर सकता है। इसके लिए उसे एक घोषणा करनी होगी और इस घोषणा के रजिस्ट्रीकरण हो जाने पर वह भारत का नागरिक नहीं रह जाएगा। किंतु यदि ऐसी कोई घोषणा किसी ऐसे युद्ध-काल में की जाती है, जिसमें भारत एक पक्षकार हो तो रजिस्ट्रीकरण को तब तक रोका जा सकता है, जब तक भारत सरकार उचित समझे।  जब कोई पुरुष भारतीय नागरिकता का त्याग करता है, तो उसके साथ साथ उसके अवयस्क बच्चे भी भारतीय नागरिकता को खो देते हैं। ऐसा कोई भी अवयस्क बच्चा भारतीय नागरिकता पुनः प्राप्त कर सकता है, यदि वह वयस्क होने के एक वर्ष की अवधि के भीतर भारतीय नागरिक होने के बारे में घोषणा कर दे। 

 2 - दूसरे देश की नागरिकता स्वीकार करने परयदि भारत का कोई नागरिक अपनी इच्छा से किसी अन्य देश की नागरिकता को स्वीकार कर लेता है, तो उसकी भारतीय नागरिकता समाप्त हो जाती है। यह नियम उन नागरिकों के संबंध में लागू नहीं होता है, जो किसी ऐसे युद्ध-काल में जिसमें भारत सरकार एक पक्षकार हो, स्वेच्छा से दूसरे देश की नागरिकता स्वीकार कर लेता है। क्या किसी भारतीय नागरिक ने दूसरे देश की नागरिकता प्राप्त कर ली है ?  इस प्रश्न का निर्धारण ऐसे अधिकारों द्वारा, उन नियमों का पालन करते हुए किया जाएगा, जो कानून द्वारा उपबंधित किए गए हों, (भारतीय नागरिकता अधिनियम की धारा 9)


3 - नागरिकता से वंचित किया जाना - भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 10 केंद्रीय सरकार को यह अधिकार प्रदान करती है कि वह किसी भी नागरिक को उसकी नागरिकता से वंचित कर सके। देशीयकरण, रजिस्ट्रीकरण, अधिवास और निवास के आधार पर बने हुए किसी भी नागरिक को भारत सरकार एक आदेश जारी करके उसको नागरिकता से वंचित कर सकती है, बशर्ते उसे यह समाधान हो जाए कि लोकहित के लिए यह उचित नहीं है कि उसे भारत का नागरिक बने रहने दिया जाए। केंद्रीय सरकार इस प्रकार का आदेश तभी जारी करेगी जब उसे इस बात का समाधान हो जाए कि ;

A - रजिस्ट्रीकरण या देशीयकरण कपट से, मिथ्या निरूपण से, या किसी सारवान तथ्य को छिपाकर प्राप्त किया गया; 
B -  उस व्यक्ति ने व्यवहार या भाषण द्वारा अपने को भारतीय संविधान के प्रति निष्ठाहीन  दिखाया है;
C -  किसी ऐसे युद्ध में जिसमें भारत लगा हो, अवैध रूप से दुश्मन से व्यापार या संचार किया हो;
D -  वह अपने रजिस्ट्रीकरण या देशीयकरण से 5 वर्ष की अवधि के अंदर कम से कम 2 वर्ष के लिए कारागार के लिए दण्डित किया गया हो;
E - यदि वह भारत से बाहर लगातार 7 वर्षों तक सामान्यतया निवास करता रहा हो। 

            किंतु, उपर्युक्त उपबंधों  के अंतर्गत आदेश देने के पहले केंद्रीय सरकार के लिए यह आवश्यक है कि, इस आदेश से प्रभावित होने वाले नागरिकों को एक लिखित नोटिस दे और उसमें उन आधारों का उल्लेख करे जिनके आधार पर नागरिकता से वंचित करने का आदेश दिया जाने वाला हो। कुछ मामलों में सरकार के आदेश से प्रभावित होने वाला व्यक्ति, अपने मामले को एक जांच समिति को सौंपने की मांग कर सकता है। ऐसी सूरत में केंद्रीय सरकार उस मामले को जांच समिति को सौंपने के लिए बाध्य है। इस समिति का गठन सरकार करेगी, जिसमें एक चेयरमैन तथा दो अन्य सदस्य होंगे। सामान्यतया, इस समिति की रिपोर्ट सरकार का मार्गदर्शन करेगी, जिसके अनुसार ऐसे ऐसे आदेश दिए जाएं। 

एक नागरिकता -  यह ध्यान देने की बात है कि, यद्यपि भारतीय संविधान भारत एक संघीय व्यवस्था की स्थापना करता है, किंतु यह एक नागरिकता को ही मान्यता देता है - भारत की नागरिकता। राज्य की कोई अलग नागरिकता नहीं है। प्रत्येक नागरिक को नागरिकता से उद्भूत वे सभी अधिकार, विशेषाधिकार और उन्मुक्तियां प्राप्त हैं, चाहे वह देश के किसी भी प्रान्त का निवासी हो। अमेरिका में स्थित बिल्कुल भिन्न है। अमेरिकी संविधान में संघीय सिद्धांत को कठोरता से लागू किया गया है। अमेरिका में दोहरी नागरिकता है। एक संघ की नागरिकता और दूसरी उस राज्य की नागरिकता जहां व्यक्ति पैदा हुआ हो और स्थाई रूप से निवास कर रहा हो। दोनों प्रकार की नागरिकता से भिन्न भिन्न अधिकार और कर्तव्य नागरिकों को प्राप्त होते हैं। भारत में ऐसा नहीं है। इसका मुख्य कारण है कि हमने अपने देश की आवश्यकता अनुसार संघीय सिद्धांत को संशोधित रूप में अपनाया है। एक नागरिकता की मान्यता देकर भारत की अखंडता को बनाए रखने का यत्न किया गया है। भारतीय नागरिकता किसी राज्य की सरकार की नागरिकता नहीं है, वरन  स्वयं संविधान द्वारा प्रदत्त ऐसी शक्ति है, जो प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बांध देती है। एक नागरिकता की मान्यता का सिद्धांत भारत की लोकतंत्रात्मक व्यवस्था का प्रतीक है, जो भारत के प्रत्येक नागरिक के हृदय में इस भावना को पैदा करती है कि, वे सभी एक देश के निवासी हैं। 


कामनवेल्थ की नागरिकता -  भारतीय नागरिकता अधिनियम की धारा 11 यह उपबंधित करती है कि, वे सभी व्यक्ति जो राष्ट्रमंडल देशों के नागरिक हैं, वे भारतवर्ष के नागरिक बने रहेंगे। धारा 12 केंद्रीय सरकार को अधिकार देती है कि, वह पारस्परिकता के आधार पर ऐसे उपबंधों को अपनाए, जिनके द्वारा राष्ट्रमंडल देशों के नागरिकों को भारतीय नागरिकों के सभी या उनमें से किसी अधिकार को प्रदान किया जा सके। धारा 18 के अंतर्गत केंद्र की सरकार को इस संबंध में नियम एवं उपनियम बनाने का अधिकार प्राप्त है। इस धारा के अंतर्गत केंद्रीय सरकार को वृहत शक्तियां प्राप्त हैं और वह नागरिकता से संबंधित सभी विषयों पर कानून, नियम एवं उपनियम बनाने में सक्षम है। 

कंपनी नागरिक नहीं है - संविधान के भाग 2 में प्रयुक्त नागरिक शब्द की परिभाषा के अंतर्गत केवल प्राकृतिक व्यक्ति ही आते हैं, विधिक व्यक्ति नहीं, जैसे- कारपोरेशन या कंपनी। नागरिकता का अधिकार केवल प्राकृतिक व्यक्तियों को प्राप्त है, विधिक व्यक्तियों को यह अधिकार नहीं प्राप्त है। कोलकाता हाईकोर्ट ने अपने एक निर्णय में यह निर्धारित किया था कि, संविधान के अनुच्छेद 5 में प्रयुक्त व्यक्ति शब्द में प्राकृतिक और कृत्रिम दोनों प्रकार के व्यक्ति आते हैं। इस व्याख्या के अनुसार, एक कंपनी भारत का नागरिक बन सकती है।  उच्चतम न्यायालय ने इस बात को सही नहीं माना है। स्टेट ट्रेडिंग कॉरपोरेशन आफ इंडिया बनाम कमर्शियल टैक्स ऑफीसर के मामले में यह दावा किया गया था कि, संविधान के अनुच्छेद 19 में दिए गए मूल अधिकार राज्य व्यापार निगम को भी प्राप्त है। अतः उसके ऊपर राज्य द्वारा बिक्रीकर लगाया जाना अवैध है, क्योंकि इसमें इसके मूल अधिकारों का अतिक्रमण होता है। उच्चतम न्यायालय ने कारपोरेशन के इस तर्क को अस्वीकार कर दिया और कहा कि कारपोरेशन नागरिक नहीं है, क्योंकि व्यक्ति शब्द में केवल प्राकृतिक व्यक्ति शामिल है और अनुच्छेद 19 में दिए गए मूल अधिकार केवल नागरिकों को ही प्रदान किए गए हैं। 
                     टाटा इंजीनियरिंग बनाम बिहार राज्य का मामला इस विषय पर दूसरा महत्वपूर्ण मामला है। इस वाद में कंपनी के साथ कंपनी के दो अंशधारियों ने न्यायालय के समक्ष याचिका में यह दावा किया कि, यदि कंपनी की सभी अंशधारी भारतीय नागरिक हैं, तो कंपनी के विधिक व्यक्तित्व का अनावरण किया जा सकता है और इस प्रकार नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा की जा सकती है। उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि, यदि कंपनी किसी कार्य को प्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकती, तो वह विधिक व्यक्तित्व के अनावरण के सिद्धांत के ऊपर भरोसा करके अप्रत्यक्ष रूप से नहीं कर सकती है। कंपनी का विधिक व्यक्तित्व उसके अंशधारियों से पृथक है। अंशधारियों के माध्यम से मूल अधिकारों की सुरक्षा कंपनी को नहीं प्राप्त है, क्योंकि वह नागरिक नहीं है। 
                          किंतु, दो प्रमुख मामलों बैंक नेशनलाइजेशन और न्यूज़पेपर में उच्चतम न्यायालय ने अपने दृष्टिकोण में काफी परिवर्तन किया है और यह अभिनिर्धारित किया है कि, अनुच्छेद 19 का संरक्षण अंशधारियों के माध्यम से कंपनी को भी दिया जा सकता है। 
                  आर. सी. कपूर बनाम भारत संघ के वाद में एक बैंक का संचालक अंशधारी और चालू खाते में जमा रुपए का धारक था। उसके बैंक का राष्ट्रीयकरण कर लिया गया। उसने यह दावा किया कि, उक्त आदेश अवैध है, क्योंकि उसे अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत स्वतंत्रताओं का हनन हो रहा है। सरकार की ओर से यह दलील दी गई कि, इस कार्यवाही से केवल कंपनी के अधिकारों पर आघात पहुंच रहा है और क्योंकि कंपनी एक व्यक्ति नहीं है अतएव उसे अनुच्छेद 19 का संरक्षण नहीं प्राप्त है। न्यायालय ने सरकार के इस तर्क को अमान्य करते हुए यह अभिनिर्धरित किया कि, यदि कार्यकारिणी या विधायिका के आदेश, या विधान द्वारा, किसी कंपनी के अधिकार पर आघात पहुंचने के साथ, अंशधारी के अधिकार पर आघात पहुंचता है, तो उसे इस आधार पर अनुच्छेद 19 के संरक्षण को इनकार नहीं किया जा सकता है, कि वह जिस माध्यम से अपने अधिकारों का प्रयोग करता है, उसे यह अधिकार प्राप्त नहीं है। किसी नागरिक के मूल अधिकार उस समय समाप्त नहीं हो जाते, जब वह किसी कंपनी में एक अंशधारी बन जाता है। 
                वेनेट कोलमेन एंड कंपनी बनाम भारत संघ का विनिश्चय इस विषय पर आधुनिकतम विनिश्चय है।  इस मामले के तथ्य बैंक नेशनलाइजेशन के मामले के समान ही थे। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कंपनी के अंशधारी को अनुच्छेद 19 का संरक्षण प्राप्त है। एक नागरिक के व्यक्तिगत अधिकार उस समय समाप्त नहीं हो जाते, जब वह एक कंपनी में अंशधारी बन जाता है। एक अंशधारी के रूप में जब उसके मूल अधिकारों पर राज्यकृत्य के द्वारा आघात पहुंचता है, तो भी उसके अंशधारी अधिकारों को संरक्षण प्राप्त होता है, क्योंकि कंपनी के अधिकारों पर जो भी प्रभाव पड़ता है, उसका एक अंशधारी अधिकार पर समान रूप से और आवश्यक रूप से प्रभाव पड़ता है। अंशधारीगण अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त अपने अधिकारों का प्रकटीकरण समाचार-पत्रों द्वारा करते हैं, जिन पर वे निगम के माध्यम से अपना नियंत्रण रखते हैं। संपादकगण,  संचालकगण, और अंशधारीगण अपने भाषण और अभिव्यक्ति के व्यक्तिगत अधिकारों का प्रयोग समाचार-पत्रों द्वारा करते हैं, जिनके माध्यम से वे अपने विचारों को व्यक्त करते हैं। प्रेस जनता तक अपने विचारों को समाचार-पत्रों के द्वारा ही पहुंचाता है। अंशधारी संपादकों के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करते हैं। 


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