भारतीय संविधान का विकास | सन 1858-1919 | ईस्ट इंडिया कंपनी शासन का अंत

 भारतीय संविधान का विकास | सन 1858-1919 | ईस्ट इंडिया कंपनी शासन का अंत


            भारत सरकार अधिनियम - 1858-  पिट्स इंडिया एक्ट ने जिस उद्देश्य से दोहरी सरकार की स्थापना की थी, वह उद्देश्य पूरा नहीं हो सका।  बोर्ड आफ कंट्रोल कंपनी के ऊपर नियंत्रण नहीं रख सका। कंपनी की सरकार एक गैर जिम्मेदार सरकार की तरह काम करती रही। ब्रिटिश संसद भी भारतीय व्यवस्था को अच्छा नहीं समझतीथी। इंग्लैंड की साम्राज्ञी भी इसके विपरीत थीं। इसी समय जब परिस्थितियां कंपनी के विरुद्ध थीं, सन1857 का विद्रोह हुआ जिसने कंपनी के शासन को एक तरह से समाप्त कर दिया। इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमंत्री पामर्स्टन ने संसद के समक्ष कंपनी का शासन समाप्त करने के लिए जो विधेयक प्रस्तुत किया था, उसमें उन्होंने कंपनी के प्रशासन की त्रुटियों को एक पंक्ति में ही व्यक्त कर दिया था। उन्होंने कहा कि “कंपनी की दोहरी शासन व्यवस्था, उत्तरदायित्व हीन,असुविधाजनक, क्लेशकर और जटिल हो गई है।“ दुर्भाग्यवश पामर्स्टन द्वारा प्रस्तुत किया गया विधेयक पारित ना हो सका, परंतु आने वाली सरकार को उन्हीं नीतियों का अनुसरण करना पड़ा और एक दूसरा विधेयक संसद में पेश किया गया जिसे सन 1857 का “एक्ट फॉर द बेटर गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया” के नाम से जाना जाता है। सन 1858 के अधिनियम ने भारत में शासन को कंपनी के हाथों से सम्राट को हस्तांतरित कर दिया। भारत का शासन इंग्लैंड की सम्राट की के नाम से किया जाने लगा। बोर्ड आफ डायरेक्टर्स और बोर्ड आफ कंट्रोल को समाप्त कर दिया गया तथा उनके समस्त अधिकार भारत राज्य सचिव को सौंप दिए गए, जो एक 15 सदस्यों की परिषद की सहायता से भारत का प्रशासन चलाता था। भारतीय परिषद में 8 सदस्य सम्राट द्वारा नियुक्त किए जाते थे और 7 सदस्य निदेशक बोर्ड द्वारा नियुक्त किए जाते थे। इनमें से 9 सदस्य ऐसे होते थे जिनका भारत में रहने का 10 वर्ष का अनुभव रहा हो। परिषद राज्य सचिव के नियंत्रण तथा निरीक्षण में कार्य करती थी। वह इस परिषद काअध्यक्ष होता था। राज्य सचिव को भारत से प्राप्त मालगुजारी का लेखा प्रतिवर्ष संसद के सामने पेश करना पड़ता था। उसे भारत के नैतिक एवं भौतिक विकास की रिपोर्ट भी संसद को देनी होती थी। भारत में स्थित गवर्नर जनरल की काउंसिल के ला मेंबर  तथा एडवोकेट जनरल की नियुक्ति सम्राट के द्वारा होने लगी। भारत राज्य सचिव को एक निगम निकाय घोषित किया गया जिसके परिणामस्वरूप उसे वाद चलाने तथा वाद संस्थित किए जाने का अधिकार भी प्राप्त हो गया।

            भारत के प्रशासन का ब्रिटिश सम्राट की हाथों में हस्तांतरण का कार्य इंग्लैंड की साम्राज्ञी की एक राजकीय घोषणा द्वारा किया गया। इस घोषणा का भारत के संविधान के विकास के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। सन 1858 के अधिनियम ने भारतीय इतिहास में एक बड़े भारी युग को समाप्त कर नए युग का सूत्रपात कियाइससे भारतीय शासन इंग्लैंड के सम्राट के हाथों आ गया। राज्य सचिव की परिषद राज्य सचिव पर नियंत्रण रखने के लिए बनाई गई थी परंतु कालांतर में परिषद की शक्ति खत्म की गई और राज्य सचिव सर्व शक्तिमान बन गया।  राज्य सचिव ब्रिटिश मंत्रिमंडल का सदस्य होता था।  इसलिए वह  ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। ब्रिटिश संसद भी  इस ओर से उदासीन ही रही। इस प्रकार भारत के प्रशासन का पूर्ण प्राधिकार राज्य सचिव के हाथों में आ गया। लेकिन भारत से 6000 मील की दूरी पर इंग्लैंड में बैठकर भारत का शासन सूत्र संभालना उसके लिए संभव नहीं था इसलिए भारत की सरकार के ऊपर राज्य सचिव का नियंत्रण नाम मात्र का ही था             सन 1858 की क्रांति का मुख्य कारण यह था कि भारतीय जनता तथा अंग्रेजी शासन के बीच किसी प्रकार का  कोई संबंध नहीं रह गया था। शासन- प्रशासन तथा विधि निर्माण के कार्यों में भारतीय जनता को कोई प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त था। ब्रिटिश सरकार को भारतीय जनता के विचारों तथा इच्छाओं को जानने का अवसर नहीं मिल पाता था। सन 1857 की क्रांति इसी का एक परिणाम थी।             विधि निर्माण की प्रणाली भी दोषपूर्ण थी। भारतीय लोगों का विधानसभा में कोई प्रतिनिधित्व नहीं था। अन्य प्रांतों के लिए भी विधि निर्माण का कार्य गवर्नर जनरल की परिषद ही करती थी। भिन्न भिन्न प्रांतो की परिस्थितियों की जानकारी एवं समय न मिल पाने के कारण विधानसभा कोई कानून नहीं बना पाती थी। इसलिए कानून बनाने की प्रणाली  पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया था। प्रांतीय विधान मंडल द्वारा पारित कोई भी विधेयक बिना गवर्नर जनरल की अनुमति के कानून नहीं बन सकता था। गवर्नर जनरल की परिषद द्वारा प्रांतीय सरकारों तथा उनके क्षेत्र में निर्बाध रूप से हस्तक्षेप करना प्रांतों को खलता था। इस प्रकार प्रांतीय सरकारों और जनता में असंतोष बढ़ गया था। इन कमियों को दूर करने के लिए भारतीय परिषद अधिनियम-1891 पारित किया गया।

भारतीय परिषद अधिनियम 1891:             सन 1891 के अधिनियम ने भारत में प्रतिनिधिक संस्थाओं को प्रारंभ किया1891 का अधिनियम भारत के संविधान के विकास में दो कारणों से महत्वपूर्ण स्थान रखता है पहला- इस अधिनियम में कानून बनाने के कार्य भारतीय जनता  के सहयोग से  प्रारंभ किया गया और दूसरा- प्रांतीय विधानसभाओं को कानून बनाने का अधिकार भी दिया गया और इस प्रकार प्रांतीय स्वायत्तता की बुनियाद डाली गयी जिसकी परिणति सन 1919 में हुई। विधानसभाओं में भारतीय प्रतिनिधियों  को नामजद करने का अधिकार भी  गवर्नर जनरल को प्रदान किया गया। इस अधिनियम ने गवर्नर जनरल की परिषद्  की सदस्य संख्या को बढ़ाकर 5 कर दिया। पांचवां सदस्य विधि विशेषज्ञ होता था। इनमें से तीन सदस्य प्रशासन सेवा में से लिए जाते थे जिनको भारत में रहने का 10 वर्ष का अनुभव  होना आवश्यक था। बाकि 2 सदस्यों में से एक सदस्य को 5 वर्ष का अनुभव प्राप्त बैरिस्टर होना आवश्यक था। राज्य सचिव ब्रिटिश सदस्य के रूप में सर्वोच्च सेनापति को नियुक्त कर सकता था। गवर्नर जनरल की परिषद को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त था इसलिए केंद्रीय विधान मंडल में नामजद सदस्यों को भी बढ़ा दिया गया था। ऐसे सदस्यों की संख्या कम से कम 6 और अधिक से अधिक 12 होती थी जिन्हें अपर सदस्य कहा जाता था। ऐसे नामजद सदस्यों में से आधे सदस्य गैर सरकारी सदस्य होते थे इनकी कार्य-अवधि 2 वर्ष की होती थी। विधान परिषद की शक्ति अत्यंत सीमित थी। सार्वजनिक कर्ज, राजस्व, धर्म तथा सैनिक मामलों से संबंधित विधेयक गवर्नर जनरल की अनुमति से ही प्रस्तुत किए जा सकते थे। गवर्नर जनरल को विधानसभा द्वारा पारित कानूनों को नामंजूर करने का अधिकार था। वह अध्यादेश भी जारी कर सकता था। ब्रिटिश संसद किसी भी कानून को अमान्य कर सकती थी।             इस अधिनियम ने मद्रास और मुंबई प्रांतों की विधानसभाओं को भी कानून बनाने का अधिकार दे दिया। गवर्नर जनरल को प्रांतीय विधानसभा द्वारा पारित का विधेयकों को नामंजूर करने का अधिकार प्राप्त था। गवर्नर जनरल को नए प्रांतों की स्थापना करने और उनकी सीमाओं में परिवर्तन करने का भी अधिकार प्राप्त था। इन सभी परिवर्तनों के बावजूद भी इस अधिनियम में अनेक कमियाँ रह गई थी। इस अधिनियम के परिणाम स्वरुप गवर्नर जनरल को असीमित अधिकार मिल गए थे तथा विधान परिषद के सदस्यों को कोई भी महत्वपूर्ण अधिकार नहीं था। विधान परिषद् के सरकारी सदस्यों को विधेयक पर प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था। परिषद् के आधे सदस्य गैर सरकारी तथा देसी राजे एवं जमीदार होते हैं जिन्हें कानून का कोई ज्ञान नहीं होता था, और ना ही वे लोग  भारत के लिए बनाए जाने वाले कानूनों में कोई दिलचस्पी ही लेते थे। इस प्रकार भारतीयजनता को इस अधिनियम से कोई लाभ नहीं हुआ।         भारत के वायसराय लॉर्ड डफरिन ने उपर्युक्त परिस्थितियों में सुधार आवश्यक समझा। उनके द्वारा सन 1888 में प्रशासनिक सुधारों पर विचार करने के लिए एक समिति नियुक्त की गई। समिति की रिपोर्ट में की गयी सिफारिशों के आधार पर ब्रिटिश संसद में एक विधेयक प्रस्तुत किया गया जो 2 वर्ष बाद पारित हुआ। यह विधेयक भारतीय परिषद अधिनियम-1892 कहलाया। इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय तथा प्रांतीय परिषदों के सदस्यों की संख्याओं को बढ़ा दिया गया। केंद्रीय विधान परिषद् के काम से काम 10 और अधिक से अधिक 16 सदस्यों को नामजद करने का नियम बनाने का अधिकार गवर्नर जनरल के पास था। परिषद के भारतीय सदस्यों को वार्षिक बजट पर बहस करने और प्रश्न पूछने का अधिकार भी दिया गया परन्तु गवर्नर जनरल को इन सदस्यों द्वारा पूछे गए प्रश्नो को स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार प्राप्त था। बंबई तथा मद्रास की विधान परिषदों में 8से लेकर 20 सदस्य, बंगाल में अधिकतम 20 सदस्य, अवध तथा उत्तरी पश्चिमी प्रांतो की परिषदों में 15 सदस्य होते थे। परिषदों के अतिरिक्त सदस्यों की नियुक्ति स्थानीय सस्थाओं, नगर महापालिकाओं,राज्य जिला बोर्डो, विश्वविद्यालयों के द्वारा निर्वाचित करके किया जाता था।

भारतीय परिषद अधिनियम-1892:

इस अधिनियम ने भारत में प्रतिनिधिक सरकार की नींव डाली। इस अधिनियम में भी बहुत सारी कमियां थी जो निम्नलिखित हैं-         1 - निर्वाचन की प्रक्रिया अन्यायपूर्ण थी  और निर्वाचित व्यक्ति जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं करते थे।  जनता के कुछ विशेष वर्गों को प्रतिनिधित्व प्राप्त था जबकि कुछ वर्गों को बिल्कुल भी नहीं। मुंबई विधान परिषद में यूरोपियन व्यापारियों को 6 स्थान प्राप्त थे किन्तु भारतीय व्यापारियों को एक भी प्रतिनिधित्व नहीं था।         2 - विधान परिषदों की विधायिनी शक्ति अत्यंत सीमित थी और सदस्यों को अनुपूरक प्रश्न पूछने का भी अधिकार नहीं था।
        3 - गैर सरकारी सदस्यों की संख्या बहुत कम थी केंद्रीय विधान परिषद के 20 में से केवल 6 सदस्य गैर सरकारी होते थे और 14 सदस्य सरकारी होते थे। केंद्रीय विधान परिषदतथा प्रांतीय विधान परिषद् में  पंजाब प्रांत को कोई भी प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त था। गैर सरकारी सदस्यकिसी भी विधेयक में कोई भी संशोधन नहीं करा सकते थे, अतः उनको दिए गए अधिकार बेकार साबित हुए। प्रांतीय परिषद इतनी छोटी थी कि यह जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। बंगाल के 7000000 लोगों के लिए 7 सदस्य परिषद में थे। यह अधिनियम भारतीय जनता की सभी मांगों को पूरा नहीं कर सका परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में निर्वाचन प्रणाली को स्वीकार करके और विधान परिषदों का कार्यकारिणी के ऊपर कुछ नियंत्रण स्वीकार करके प्रतिनिधिक सरकार के गठन की दिशा में होने वाले विकास को गति प्रदान करने में काफी सहायक सिद्ध हुआ।

“मार्ले मिंटो सुधार” भारतीय परिषद अधिनियम-1919:

        नवंबर, सन 1919  में लार्ड कर्जन के स्थान पर लाडनू भारत का वायसराय तथा जान मार्ले  को भारत का राज्य सचिव नियुक्त किया गया। जॉन मार्ले भारतीय प्रशासन में सुधारों के समर्थक थे। भारत के वायसराय लॉर्ड मिंटो ने वाइसराय जॉन मार्ले के विचारो का समर्थन किया। इसीलिए इनके द्वारा किए गए सुधारों को मार्ले-मिंटो सुधार के नाम से जाना जाता है।         भारतीय परिषद अधिनियम-1919  द्वारा भारतीयों को प्रशासन तथा विधेयक पारित करने, दोनों कार्यों के लिए  प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया। केंद्रीय विधानसभा में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई।  इनमें से लगभग 32  गैर सरकारी सदस्य होते थे। इन  गैर सरकारी सदस्यों में से 27 सदस्य निर्वाचित होते थे और पांच सदस्य नामजदहोते थे। इसके लिए निर्वाचन मंडल तीन वर्गों में बाँट दिया गया था। 1  - सामान्य निर्वाचक वर्ग, 2  - वर्गीय निर्वाचक वर्ग, 3 - विशिष्ट निर्वाचक वर्ग,         प्रांतीय विधान परिषदों की सदस्य संख्या को भी बढ़ा दियागया। निर्वाचन की पद्धति केन्द्रीय विधान परिषद के निर्वाचन के समान ही थी। इस अधिनियम ने केंद्रीय विधान परिषद और प्रांतीय विधान परिषद्की  शक्ति को बढ़ा दिया। विधान परिषदों के सदस्यों को बजट पर बहस करने और उन पर प्रश्न पूछने का अधिकार दे दिया गया।  परन्तु इन सदस्यों को बजट पर मत देने का अधिकार प्राप्त नहीं था। सदस्यों को लोकहित के विषय पर विवेचना करने का भी अधिकार प्रदान किया गया था। इन सब  परिवर्तनों के बावजूद भी मार्ले मिंटो सुधार भारतीयों की आकांक्षाओं ( उत्तरदायी तथा प्रतिनिधिक  सरकार की स्थापना )को पूरा करने में असफल हो गया। केंद्रीय विधानमंडल के सरकारी सदस्य कोई प्रश्न नहीं पूछ सकते थे, वे मतदान में सदा सरकार का ही समर्थन करते थे। गैर सरकारी सदस्य भी सरकारी सदस्यों का ही अनुसरण करते थे। परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या बहुत कम थी। निर्वाचन की प्रक्रिया दोषपूर्ण थी। इस अधिनियम ने एक दोषपूर्ण,संकुचित और विभेदकारी निर्वाचन प्रक्रिया प्रदान की जिसने आगे चलकर देश का विभाजन कर दिया। मुस्लिमो को सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रदान करके अधिनियम ने मुसलमानों का पक्षपात किया। मुसलमान तथा हिन्दू मतदाताओं की अहर्ताएं भिन्न-भिन्न थीं, ऐसा मुस्लिमों को खुश करने के लिए किया गया था। स्त्रियों को मताधिकार नहीं प्राप्त था।
        अंग्रेजी सरकार  के विरुद्ध आंदोलन तीव्र गति से बढ़ने लगा। उसी समय विश्वपटल पर कुछ ऐसी घटनाएं घटीं, जिन्होंने भारतीयों की आंखें खोल दी। कांग्रेस ने अपना आंदोलन और तेज कर दिया। सन 1914 के प्रथम विश्वयुद्ध  ने जिसने भारतीयों की महत्वाकांक्षा को गति प्रदान की। अंग्रेजों ने वर्तमान व्यवस्था में सुधार करना आवश्यक समझा। सन 1917 में भारत के नए राज्य सचिव मिस्टर मांटेग्यू ने भारत में और अधिक सुधारों का समर्थन किया। उन्होंने ब्रिटिश संसद में यह घोषणा की कि आने वाले समय में ब्रिटिश सरकार की नीति होगी कि  प्रशासन की शाखा में भारतीयों के साहचर्य को बढ़ाया जाए ताकि ब्रिटिश साम्राज्य के रूप में विभिन्न भागो में उत्तरदायित्वपूर्ण शासन का विकास होता रहे। इस इस घोषणा के बाद वे भारत की राजनीतिक अवस्था की जांच करने के लिए भारत आए। उन्होंने राज प्रतिनिधि लॉर्ड चेम्सफोर्ड के साथ देशभर का दौरा किया और राजनीतिक समस्याओं का अध्ययन किया। उन्होंने 1918 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की इसे मांट-फोर्ड योजना कहते हैं। इस रिपोर्ट में उन्होंने भारत में किए जाने वाले सुधारों की एक रूपरेखा प्रस्तुत की। मांट-फोर्ड रिपोर्ट के आधार पर 1919 में ब्रिटिश संसद से एक विधेयक पारित किया गया जिसे गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट 1919 कहते हैं। 

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