भारतीय संविधान का विकास | सन 1600 - 1765

भारतीय संविधान का विकास

        15 अगस्त 1947 का दिन भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा। इसी दिन भारत अपनी सदियों की गुलामी से मुक्त हुआ था।  इतने बलिदान के बाद अर्जित की गई स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए इसे अभी बहुत कुछ करना बाकी था। सर्वप्रथम देश के प्रशासन का महत्वपूर्ण कार्य सामने था। इसके लिए हमारे नेताओं को एक मजबूत ढांचा निर्मित करना था। भारत को एक संविधान की रचना करनी थी। यह कार्य आसान नहीं था।  अनेक बाधाएं थीं। इन सबके बावजूद संविधान निर्मात्री सभा ने अथक परिश्रम तथा कार्यकुशलता का परिचय दिया और एक सर्वमान्य संविधान की रचना करने में सफल रही। स्वतंत्रता के पवित्र दिन के पश्चात दूसरा ऐतिहासिक दिन था 26 जनवरी 1950,, जब भारत का संविधान लागू किया गया जिसने भारत को दुनिया के सामने एक नए रूप में प्रस्तुत किया।         किसी भी देश का संविधान एक दिन की उपज नहीं होता है। संविधान एक ऐतिहासिक विकास का परिणाम होता है। भारतीय संविधान के विकसित रूप को समझने के लिए उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की जानकारी होना आवश्यक है। ऐतिहासिक प्रक्रिया की जानकारी के बिना हम संविधान को अच्छी तरह नहीं समझ सकते। किंतु इसके लिए हमें अंग्रेजों के भारत आगमन काल से पहले नहीं जाना होगा,  क्योंकि भारत में संविधानिक परंपरा का विकास अंग्रेजों के भारत में आगमन के समय से ही प्रारंभ हुआ।  आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं का विकास भी इसी काल में प्रारम्भ हुआ। भारतीय संविधान के ऐतिहासिक विकास का काल सन 1600 से प्रारंभ होता है। इसी वर्ष इंग्लैंड में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गई थी।  यहां हम भारत में अंग्रेजों के आगमन के समय से लेकर आज तक के भारतीय संविधान के क्रमिक विकास का अध्ययन करेंगे। इस विकास काल को पांच भागों में बांटा जा सकता है 1 - सन 1600 - 1765 2 - सन 1765 - 1885 3 - सन 1885 - 1919 4 - सन 1919 -1947 5 - सन 1947 -1950

1 - सन 1600 से 1765,अंग्रेजों का भारत आगमन: ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना:

        16 वीं शताब्दी में इंग्लैंड में महारानी एलिजाबेथ का शासन था।  इस काल को इंग्लैंड के इतिहास का स्वर्णकाल कहा जाता है। जनता सुखी एवम संपन्न थी। अंग्रेजों ने साहसिक समुद्री यात्राएं करना आरंभ कर दिया था। इसी समय वहां भारतवर्ष की अपार धन-संपत्ति खबर पहुंची।  भारत वर्ष की धन-संपत्ति को प्राप्त करने की अभिलाषा तथा समुद्री यात्रा की उमंग ने अंग्रेजों को भारत की ओर आकर्षित किया। कुछ साहसिक अंग्रेज व्यापारियों ने एक कंपनी की स्थापना की जो आगे चलकर ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से प्रसिद्ध हुई। ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना महारानी एलिजाबेथ द्वारा जारी किए गए एक राजपत्र  द्वारा की गई जिसे सन 1600 ई.  का राजपत्र कहा जाता है। इस राजपत्र द्वारा कंपनी को पूर्वी देशों से व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया गया। कंपनी के प्रबंध की समस्त शक्ति एक गवर्नर और 24 सदस्यों की एक परिषद में निहित थी। गवर्नर एवं उसकी परिषद को ऐसे नियमों, कानूनों और आदेशों को बनाने का अधिकार दिया गया था जिससे कंपनी के प्रशासन एवं प्रबंधन को सुचारू रूप से चलाया जा सके तथा कर्मचारियों को अनुशासन में रखा जा सके। कंपनी को इन कानूनों का उल्लंघन करने वाले कर्मचारियों को दंड देने का प्राधिकार भी प्राप्त था। यद्यपि कंपनी की विधायिनी शक्ति अत्यंत सीमित थी फिर भी इसका बड़ा ऐतिहासिक महत्व था क्योंकि इसमें वे बीज निहित थे जिससे अंततोगत्वा एंग्लो-इंडियन विधि संहिताओं का विकास हुआ।         कंपनी ने भारत में अनेक स्थानों में कारखानों की स्थापना की।  भारत में कंपनी का  सबसे पहला व्यापारिक केंद्र सूरत था। सूरत में कारखाने की स्थापना करने की अनुमति उन्हें मुगल बादशाह जहांगीर से प्राप्त हुई थी।  सूरत में कारखाने की स्थापना करने के बाद कालांतर में कंपनी ने मुंबई, मद्रास और कोलकाता में भी अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित किए।  इन नगरों को प्रेसीडेंसी नगर कहा जाता था। इनका प्रशासन प्रेसिडेंट एवं उसकी परिषद करती थी। इस काल में अंग्रेजों ने भारत में अपने व्यापारिक केंद्र की स्थापना भारतीय शासकों की अनुमति से की थी किन्तु धीरे-धीरे कंपनी का व्यापारिक दृष्टिकोण बदलने लगा और यह पूरे भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने का विचार करने लगी। भारत में एक व्यापारिक संस्था के रूप में विकसित होकर उसने अंग्रेजी साम्राज्य की नींव डालने का काम किया। मिस्टर इल्बर्ट के अनुसार-  कंपनी को जो भी रियायतें मुगल शासकों से प्राप्त हुई थी, उन रियायतों ने कंपनी को भारत में संस्थापित कर दिया और ब्रिटिश सम्राट इस कंपनी के माध्यम से दूसरी शक्तियों के विरोध में प्रादेशिक संप्रभु बन गया। अंत में ब्रिटिश सम्राट ही संपूर्ण ब्रिटिश भारत में संप्रभुता रखने लगा और अधीनस्थ देशी रियायतों का सर्वोच्च अधिकारी बन गया।

सन 1726 का राजपत्र -

        सन 1726 में कंपनी को एक और महत्वपूर्ण राजपत्र प्रदान किया गया। इस राजपत्र द्वारा कोलकाता, मुंबई और मद्रास प्रेसीडेंसियों के राज्यपाल और उनकी परिषद को कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया। यह एक महत्वपूर्ण कदम था। अब तक कानून बनाने की शक्ति कंपनी के इंग्लैंड स्थित निदेशक बोर्ड के पास थी। यह लोग भारत की परिस्थितियों से बिल्कुल अनभिज्ञ होते थे। इस प्रकार 1726 के राजपत्र द्वारा भारत स्थित कंपनी की सरकार राज्यपाल और उसकी परिषद को उपनियम, नियम और अध्यादेश को पारित करने का अधिकार प्रदान किया गया और उनके उल्लंघन करने वालों को दंडित करने की शक्ति प्रदान की गयी, किंतु राज्यपाल और उसकी परिषद की कानून बनाने की शक्ति पर दो मुख्य प्रतिबंध थे- 1 -  यह कि उसके द्वारा बनाए गए कानून आंग्ल विधि के नियमों के विपरीत ना हो, 2 -  यह कि वे युक्तियुक्त हों         उपर्युक्त कानून तब तक प्रभावी नहीं होते थे जब तक कि इंग्लैंड स्थित कंपनी के निदेशकों की सभा द्वारा अनुमोदित ना कर दिए गए हों।         अभी तक कंपनी एक व्यापारिक संस्था के रूप में ही कार्य कर रही थी।  इसे शासक बनने का अवसर प्राप्त नहीं हो सका था,  किंतु इसके पश्चात कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं घटी जिनके परिणाम स्वरूप कंपनी ने अपना व्यापारिक चोला बदल दिया और बंगाल का शासन उसके हाथों में आ गया। यह काल भारत में मुगल साम्राज्य का पतन काल था। उसकी शक्ति समाप्तप्राय हो चली थी। इस अवसर का अंग्रेजों ने पूरा पूरा लाभ उठाया। सन 1757 ईस्वी में अंग्रेज प्लासी की लड़ाई में बंगाल के अंतिम शासक नवाब सिराजुद्दौला को हरा कर बंगाल प्रांत के वास्तविक शासक बन बैठे। प्लासी की जीत से ही भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की नींव पड़ी। सन 1765 में मुगल बादशाह शाह आलम ने कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा का दीवान बना दिया। इसके परिणामस्वरूप इन इलाकों में मालगुजारी वसूलने तथा दीवानी न्याय प्रशासन की जिम्मेदारी कंपनी पर आ गई।  मिस्टर ईल्बर्ट  ने कहा है कि सन 1765 ईस्वी को आंग्ल-भारतीय इतिहास का युग प्रवर्तक काल समझा जा सकता है क्योंकि इसी समय से ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत में प्रादेशिक सम्प्रभुता स्थापित करने का काल आरंभ होता है। अब कंपनी अपने व्यापारिक रूप को त्याग कर एक वास्तविक शासक के रूप में सामने आई।

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