भारतीय संविधान का विकास | सन 1765-1858 | ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना

 भारतीय संविधान का विकास | सन 1765-1858 | ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना
        भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भाग 2 में हम सन् 1765 से सन् 1858 तक के इतिहास पर नजर डालेंगे और यह जानने का प्रयास करेंगे कि इन 93 वर्षों में भारत के अंदर क्या कुछ हुआ, तो समय व्यर्थ न करते हुए चलते हैं अपने मकसद की ओर, भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : सन 1765 से सन् 1858 तक, यही वह समय है जब भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना हुई, कैसे? आइए जानते हैं।

सन् 1773 का रेगुलेटिंग एक्ट:

        दिवानी अनुदान के फलस्वरूप कंपनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा प्रांतों का वास्तविक शासक बन गई। बंगाल, बिहार और उड़ीसा प्रदेश का वास्तविक प्रशासन कंपनी के हाथों में आ जाने से कंपनी के अधिकारीगण स्वच्छंद हो गए। इन प्रदेशों में शासन की बागडोर कंपनी के सेवकों पर ही थी। कंपनी के सेवकों को बहुत कम वेतन मिलता था। उन लोगों ने इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाया और भारतवासियों का भरपूर शोषण करने लगे। उनके अंदर एक ही धुन लगी रहती थी कि वे कैसे भारत में लूट-खसोट कर अधिक से अधिक धन इंग्लैंड ले जा सकें। स्थिति यह थी कि जहां कंपनी के कर्मचारी इस प्रकार अधिक से अधिक धन इकट्ठा कर रहे थे, वही कंपनी का व्यापार घाटे में जा रहा था। इसलिए कंपनी ने  ब्रिटिश सरकार से ऋण की मांग की। इन परिस्थितियों के कारण ब्रिटिश सरकार तथा वहां के राजनीतिज्ञों के मन में यह धारणा बन गई थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन में बहुत बड़ी गड़बड़ी हो गई है। कंपनी के अवकाश प्राप्त कर्मचारियों के अमीर होकर इंग्लैंड लौटने और उनकी बढ़ती हुई अपकीर्ति  की ओर ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित हुए बिना ना रह सका। उनको यह विश्वास हो गया कि उनका धन एवं संपत्ति भारतीय जनता के शोषण का ही परिणाम है। इसके अलावा ब्रिटिश सरकार को कंपनी के बढ़ते हुए एवं वैभव को देखकर उनको कंपनी के  राज्य क्षेत्र में व्यवस्था स्थापित करने की आवश्यकता महसूस हुई। फलस्वरूप कंपनी के मामलों की जांच के लिए ब्रिटिश संसद ने एक गोपनीय समिति (Secret Committee) नियुक्त की। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कंपनी के प्रशासन में अनेक कमियां खामियां दिखाई तथा उनके शीघ्रातिशीघ्र सुधार करने के लिए  सिफारिश की। गोपनीय समिति की सिफारिशों के परिणाम स्वरूप  ब्रिटिश संसद ने सन 1773 में एक रेगुलेटिंग एक्ट पारित किया।  इस रेगुलेटिंग एक्ट द्वारा कंपनी के प्रशासन में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। रेगुलेटिंग ऐक्ट ने भारत में एक सुनिश्चित शासन पद्धति की शुरुआत की। रेगुलेटिंग एक्ट के पारित होने के पूर्व कोलकाता, बंबई और मद्रास की प्रेसिडेंशियां एक दूसरे से अलग तथा स्वतंत्र होती थी। उनका प्रशासन राज्यपाल और उसकी परिषद द्वारा होता था जो इंग्लैंड की स्थिति निदेशक बोर्ड के प्रति उत्तरदाई थी।  रेगुलेटिंग एक्ट ने बंगाल प्रेसीडेंसी के प्रशासन के लिए एक गवर्नर जनरल की नियुक्ति की।         प्रशासन का कार्य गवर्नर जनरल और उसकी परिषद करती थी। गवर्नर जनरल की परिषद में चार सदस्य होते थे। प्रथम गवर्नर जनरल और उसके चार सभासदों का नामांकन एक्ट में ही कर दिया गया था। संपूर्ण कोलकाता प्रेसीडेंसी का प्रशासन तथा सैनिक शक्ति इसी सरकार में निहित थी। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवानी इलाकों के प्रशासन का अधिकार भी गवर्नर जनरल और उसकी परिषद को ही प्राप्त था। कलकत्ते की सरकार को बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी की सरकारों को शांति एवं युद्ध संबंधी मामलों में आदेश देने का अधिकार प्रदान किया गया।         गवर्नर जनरल की परिषद को कंपनी के फोर्ट विलियम सेटेलमेंट के प्रशासन एवं न्याय व्यवस्था के लिए कानून बनाने का अधिकार प्राप्त था। रेगुलेटिंग एक्ट ने कोलकाता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना भी की।  सुप्रीम कोर्ट को दीवानी,  फौजदारी, नौसेना तथा धार्मिक मामलों में क्षेत्राधिकार प्राप्त था। इनमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अपर न्यायाधीश होते थे। न्यायाधीशों को बैरिस्टरी के कार्य का 5 वर्ष का अनुभव होना अनिवार्य था। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध अपील प्रिवी कौंसिल में की जा सकती थी।         1781 का एक्ट ऑफ़ सेटलमेंट रेगुलेटिंग एक्ट की त्रुटियों को दूर करने के लिए पारित किया गया था। इस एक्ट ने कोलकाता की सरकार को बंगाल, बिहार और उड़ीसा क्षेत्र के लिए भी कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया।  इस प्रकार अब कोलकाता की सरकार को कानून बनाने के दो स्रोत प्राप्त हो गए। वह रेगुलेटिंग एक्ट के अधीन कोलकाता प्रेसीडेंसी के लिए तथा एक्ट ऑफ़ सेटलमेंट के अंतर्गत बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवानी प्रदेशों के लिए कानून बना सकती थी।         एक्ट ऑफ़ सेटलमेंट के पास होने के बावजूद भी कंपनी के प्रबंध में उचित सुधार  ना हो सका। अतः ब्रिटिश संसद ने कंपनी के ऊपर अपने नियंत्रण को बढ़ाने के उद्देश्य से 1784 में पिट्स इंडिया एक्ट  पारित किया।  इसमें कंपनी के व्यापारिक और राजनीतिक कार्य-कलापों को एक दूसरे से पृथक कर दिया। इस एक्ट ने कंपनी के व्यापारिक कार्यों का प्रबंध कंपनी के निदेशकों के हाथ में ही रहने दिया परंतु इसके ऊपर राजनीतिक नियंत्रण एवं निरीक्षण के लिए एक बोर्ड आफ कंट्रोल की स्थापना कर दी।  बोर्ड आफ कंट्रोल के सदस्यों की नियुक्ति इंग्लैंड का सम्राट करता था। पूर्वी देशों में ब्रिटिश उपनिवेशों  के प्रशासन के ऊपर नियंत्रण तथा निरीक्षण का भार बोर्ड ऑफ कंट्रोल पर था।   इस प्रकार भारतीय उपनिवेश के दो शासक हो गए।  एक- कंपनी का निदेशक बोर्ड, और दूसरा- बोर्ड ऑफ कंट्रोल के माध्यम से ब्रिटिश सम्राट। इसके परिणाम स्वरूप कंपनी के निदेशकों की शक्ति काफी घट गई और कंपनी के ऊपर ब्रिटिश संसद का नियंत्रण बढ़ गया। परंतु अभी भी निदेशकों को काफी अधिकार प्राप्त थे। ब्रिटिश सरकार कंपनी के ऊपर अपने नियंत्रण से संतुष्ट नहीं थी इसलिए ब्रिटिश संसद समय-समय पर कंपनी के प्रशासन पर अपना नियंत्रण बढ़ाने के उद्देश्य से अनेक अधिनियम पारित करती रही। सन 1793 के चार्टर ने कंपनी के व्यापार करने की अवधि को 20 वर्ष के लिए और बढ़ा दिया।

सन 1813 का राजपत्र :         1813 के राजपत्र द्वारा ब्रिटिश सरकार ने कंपनी के ऊपर अपने नियंत्रण को और अधिक बढ़ा दिया। राजपत्र के द्वारा कंपनी का भारत में व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया और सभी ब्रिटिश निवासियों को भारत से व्यापार करने की छूट दे दी गई। सबसे महत्वपूर्ण कार्य इस राजपत्र ने यह किया कि उसने कलकत्ता, बंबई और मद्रास की सरकारों द्वारा बनाए गए कानूनों का ब्रिटिश संसद द्वारा अनुमोदन किया जाना अनिवार्य बना दिया।

सन 1833 का राजपत्र :         1833 के राजपत्र ने देश की शासन प्रणाली में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। यह राजपत्र भारत में  ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत करने और एक केंद्रीय शासन प्रणाली प्रारंभ करने के लिए उत्तरदायी था। इस राजपत्र का प्रभाव अत्यंत व्यापक एवं दूरगामी था। इस राजपत्र ने गवर्नर जनरल के परिषद के संविधान एवं अधिकारों में काफी परिवर्तन कर दिया।  इसने बंगाल के गवर्नर जनरल को संपूर्ण भारत का गवर्नर जनरल बना दिया।  इस प्रकार देश के प्रशासन का केंद्रीकरण कर दिया गया।  गवर्नर जनरल की परिषद में एक और सदस्य बढ़ा दिया गया जिसे “ला मेंबर” कहा जाता था।  ला मेंबर केवल कानूनी मामलों में सलाह देने का कार्य करता था।  गवर्नर जनरल को कंपनी के क्षेत्र में स्थित सभी व्यक्तियों, सभी न्यायालयों, सभी स्थानों तथा सभी वस्तुओं के विषय में कानून बनाने का अधिकार दिया गया।  मद्रास तथा बंबई की परिषदों का कानून बनाने का अधिकार समाप्त कर दिया गया।   सरकार की कानून बनाने की शक्ति पर भी एक महत्वपूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया। इस राजपत्र ने ब्रिटिश संसद के भारतीय सरकार पर नियंत्रण रखने के अधिकार को भी सुरक्षित रखा। गवर्नर जनरल की परिषद द्वारा पारित कानूनों को संसद अस्वीकृत कर सकती थी और भारत के लिए स्वयं कानून बना सकती थी। अतः रेगुलेटिंग एक्ट ने प्रशासन के केंद्रीकरण की जिस प्रक्रिया को प्रारंभ किया था, इस राजपत्र ने गवर्नर जनरल के अधिकार को संपूर्ण ब्रिटिश भारत में स्थापित करके उसे पूरा कर दिया।         1837 के राजपत्र के पूर्व निर्मित कानूनों को रेगुलेशन कहा जाता था, किंतु इस  राजपत्र के अंतर्गत पारित किए गए कानूनों को अधिनियम कहा जाता था। भारतीय सरकार के बनाए गए कानून भी ब्रिटिश संसद के कानूनों की तरह ही मान्य होते थे।         इस राजपत्र में सरकारी नौकरियों के लिए भी उपबंध किया गया। इस राजपत्र के अनुच्छेद 87 के अनुसार यह व्यवस्था की गई कि कोई भी भारतीय केवल धर्म, जन्म स्थान,मूल वंश, और वर्ण के आधार पर सरकारी नौकरियों के लिए अयोग्य नहीं समझा जाएगा और दास प्रथा समूल समाप्त कर दी गई। गवर्नर जनरल को एक विधि आयोग नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। भारतीय विधियों के संहिताकरण के लिए प्रथम विधि आयोग की स्थापना इसी अधिनियम के अंतर्गत की गई थी।

सन् 1853 का राजपत्र :         इस राजपत्र ने कार्यकारिणी और विधायिनी शक्तियों को अलग अलग करने का निश्चित कदम उठाया। भारतवर्ष के लिए  एक अलग विधायिनी परिषद की नियुक्ति हुई। बंगाल के लिए एक नया लेफ्टिनेंट गवर्नर नियुक्त किया गया जो प्रशासन का कार्य संभालता था।  विधान परिषद में 12 सदस्य होते थे। कमांडर इन चीफ,  गवर्नर जनरल, गवर्नर जनरल की काउंसिल के चार सदस्य, 6 और विधायक सदस्य विधायिनी परिषद के सदस्य होते थे। अन्य 6 सदस्यों में बंगाल के चीफ जस्टिस, कोलकाता सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश, और  बंगाल, मद्रास मुंबई और आगरा चार प्रांतों के प्रतिनिधि शामिल थे। इस प्रकार सर्वप्रथम भारतीय विधान परिषद में क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व का सिद्धांत प्रारंभ किया गया।  विधान परिषद का मुख्य कार्य देश के लिए कानून बनाना था। विधायिनी परिषद द्वारा पारित विधेयकों को गवर्नर जनरल नामंजूर कर सकता था, चाहे वह परिषद की सभा में उपस्थित रहा हो या नहीं। सन 1853 के राजपत्र ने संपूर्ण भारत के लिए एक विधान मंडल की स्थापना की। कानून बनाना सरकार का एक विशेष कार्य माना गया जिसके लिए विशेष तंत्र विशेष प्रक्रिया अपेक्षित थी। इस राजपत्र ने  कंपनी के निदेशकों से भारत में की गई नियुक्तियों से संबंधित अधिकार छीन लिए। इससे कंपनी के निदेशकों के अधिकारों को काफी झटका लगा। इस राजपत्र ने भारतीय शासन को सम्राट को हस्तांतरित करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। सन 1857 के विद्रोह ने इस प्रक्रिया को और तेज गति प्रदान की और भारत से ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर दिया गया।

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