अनुच्छेद 16 यह उपबन्धित करता है कि राज्याधीन नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी। राज्याधीन नौकरी या पद के विषय में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, वंशक्रम, जन्म-स्थान, निवास के आधार पर किसी नागरिक को अपात्र नहीं समझा जायगा और न ही विभेद किया जायगा। अवसर की समानता के सामान्य नियम के तीन अपवाद हैं जो खंड 3, 4, 5 में उल्लिखित हैं।
ध्यान रहे कि अनु० 16 केवल राज्य के अधीन नौकरियों में अवसर की समानता का अधिकार प्रदान करता है। गैर-सरकारी नौकरियों में यह अधिकार नहीं प्राप्त है। यह संविदा सम्बन्धी सेवाओं के मामले में लागू नहीं होता है। उदाहरण के लिए, एस० के० अच्युतन बनाम केरल राज्य के मामले में प्रार्थी को सरकारी अस्पतालों में दूध आपूर्ति करने का ठेका सरकार ने दिया था, किन्तु बाद में यह रद्द कर दिया गया और दूसरों को दे दिया गया जो सरकार की सहकारी दुग्ध संस्था थी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि सरकार उत्तरदायी नहीं है, क्योंकि ठेकेदार को ठेका संविदा अधिनियम के अन्तर्गत दिया गया था, वह कोई लोक-सेवक नहीं था। किसी व्यक्ति को ठेका देना अनु० 16 के अर्थान्तर्गत नियोजन नहीं माना जाता है।
अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत राज्याधीन नौकरियों के मामले में अवसर की समानता का तात्पर्य यह है कि एक वर्ग के कर्मचारियों को समानता का अवसर प्रदान करना न कि पृथक् एवं स्वतन्त्र वर्गों के कर्मचारियों को समानता प्रदान करना। यह अनुच्छेद यह अपेक्षा करता है कि प्रत्येक नागरिक को उसकी योग्यता एवं प्रतिभा के आधार पर राज्य के अधीन नौकरियों में नियुक्ति के लिए समान अवसर प्रदान किया जायगा।
ध्यान रहे कि अवसर की समता का तात्पर्य अर्हताओं या मानदण्डों का उन्मूलन नहीं है। अनु० 16 राज्य को पूर्ण अधिकार देता है कि वह लोक-सेवाओं के लिए आवश्यक अर्हताओं एवं मानदण्डों को निर्धारित कर सके। राज्य द्वारा निर्धारित अर्हताओं में मानसिक योग्यता के अतिरिक्त शारीरिक पुष्टि, अनुशासन, नैतिक स्तर और जनहित आदि भी सम्मिलित हैं। जिन नौकरियों में तकनीकी ज्ञान आवश्यक है, उनके लिए तकनीकी अर्हतायें निर्धारित की जा सकती है। प्रत्याशियों के पूर्व चरित्र आदि के बारे में भी विचार किया जा सकता है तथा उनमें अनुशासन बनाये रखने के लिए आवश्यक नियम भी बनाये जा सकते हैं। किन्तु शर्त यह है कि चयन की कसौटी मनमाने ढंग की न हो। निर्धारित मानदण्ड और पद या नियुक्ति में युक्तियुक्त सम्बन्ध का होना आवश्यक है। पद की प्रकृति के अनुसार ही अर्हता का मानदण्ड निर्धारित किया जाना चाहिये; उदाहरण – मैसूर राज्य बनाम पी० नरसिंहराव का निर्णय।
पाण्डुरंग बनाम आन्ध्र प्रदेश लोक सेवा आयोग के मामले में पिटीशनर आन्ध्र प्रदेश के चुनाव के गुण्टूर जिले में वकालत करता था। वह मुन्सिफ के पद के लिए एक प्रत्याशी था जिसके लिए लोक सेवा आयोग ने आवेदन-पत्र आमन्त्रित किया था। विज्ञापन में इस पद के लिए जिन अर्हताओं का उल्लेख था, उनमें से दो इस प्रकार थीं-
1- क्षेत्रीय विधि का ज्ञान आवश्यक है, तथा
2- आवेदन-पत्र देने के समय प्रत्याशी आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में वकालत कर रहा हो।
पिटीशनर इस पद के लिए अपेक्षित सभी अर्हतायें रखता था, किन्तु वह आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में वकालत नहीं कर रहा था। लोक सेवा आयोग ने उसके आवेदन-पत्र को इस आधार पर अस्वी- कार कर दिया था क्योंकि वह आन्ध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय में वकालत नहीं कर रहा था। उच्चतम न्यायालय ने इस नियम को तथा उसके अन्तर्गत जारी की गयी अधिसूचना को असंवैधानिक घोषित कर दिया, क्योंकि उपर्युक्त अर्हता में उच्च न्यायालय में वकालत करना और प्रत्याशी द्वारा क्षेत्रीय विधियों के ज्ञान के उद्देश्य के बीच कोई युक्तिसंगत संबंध नहीं था। क्षेत्रीय विधियों का ज्ञान किसी भी न्यायालय में वकालत करने वाले वकील द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार असद्भावपूर्ण कार्रवाई के आधार पर किये गये विभेद से भी अनुच्छेद 16 का अतिक्रमण होता है। प्रादेशिक प्रबन्धक बनाम पवनकुमार के मामले में प्रत्यर्थी के स्थानापन्न पद से अपने अधिष्ठायी पद पर प्रतिवर्तित कर दिया गया था। प्रतिवर्तित करने वाले आदेश में प्रतिवर्तन का कारण यह बताया गया था कि वह उच्चतर पद पर कार्य करने के योग्य नहीं है। प्रत्यर्थी से कनिष्ठ व्यक्ति भी उच्चतर पदों पर स्थानापन्न रूप में कार्य कर रहे थे। प्रतिवर्तन आदेश में एक ओर तो उसके द्वारा किये गये सराहनीय कार्य की प्रशंसा की गई थी और दूसरी ओर उसकी बहुत ही अस्पष्ट शिकायतें और प्रतिकूल टिप्पणियां भी की गई थीं। प्रत्यर्थी को अपनी सफाई प्रस्तुत करने का कोई अवसर नहीं दिया गया था। उच्चतम न्यायालय निर्णय दिया कि असद्भावनापूर्ण कार्रवाई के आधार पर किया गया प्रतिवर्तन का आदेश अनुच्छेद 16 का अतिक्रमण करता है क्योंकि प्रत्यर्थी के प्रतिवर्तन का कोई प्रशासनिक कारण नहीं बताया गया था।
लोक-सेवा में अवसर की समानता का अर्थ कर्मचारियों के एक वर्ग के सदस्यों के बीच समानता से है, पृथक् और स्वतन्त्र वर्ग के सदस्यों के बीच समानता से नही। आल इण्डिया स्टेशनमास्टर्स एसोसियेशन बनाम जनरल मैनेजर सेन्ट्रल रेलवे का वाद इसका अच्छा उदाहरण है। इस मामले में न्यायालय ने उस नियम को, जिसके अनुसार गार्डों की हायर ग्रेड स्टेशन मास्टर के पद पर रोड साइड स्टेशन मास्टरों की तुलना में पहले पदोन्नति हो जाती थी, संवैधानिक घोषित कर दिया। रोड साइड स्टेशन मास्टर और गार्डों की अलग-अलग भर्ती की जाती है, उसकी अलग- अलग ट्रेनिंग होती है और उनकी पदोन्नति के लिए अलग-अलग रास्ते हैं। इस प्रकार उनके दो भिन्न तथा पृथक् वर्ग होते हैं। अतः उनकी पदोन्नति के मामलों में अवसर की समानता या असमानता करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। कर्मचारियों के दो भिन्न तथा पृथक् वर्गों के लिये पदोन्नति के नियम भी दो प्रकार के होने चाहिये।
इस प्रकार अनु० 16 राज्य को लोक-सेवा में विभिन्न श्रेणियों की सृष्टि करने का भी अधिकार प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, 1944 में सरकार ने एक आदेश द्वारा आयकर सेवाओं का पुनर्गठन किया और आयकर अफसरों की एक श्रेणी के स्थान पर दो श्रेणियां बना दी गयीं। इनमें से एक प्रथम श्रेणी हुई और दूसरी द्वितीय श्रेणी। द्वितीय श्रेणी में वे अफसर रखे गये जो उस समय आयकर अफसर थे। नियम के अनुसार प्रथम श्रेणी के आयकर अफसर, सहायक कमिश्नर के पद पाने योग्य थे। किन्तु द्वितीय के श्रेणी के आयकर अफसर ऐसे पद पर तरक्की से पहले प्रथम श्रेणी के अफसर पद पर पहुँचने के बाद ही पा सकते थे। प्रार्थी ने इस नियम को अनु० 16 के विरुद्ध बताया, क्योंकि इस नियम के अन्तर्गत प्रथम श्रेणी के अफसरों की सीधे उच्चतर पदों पर पदोन्नति हो जाती है, किन्तु द्वितीय श्रेणी के अफसरों को उच्चतर पदों पर पदोन्नति के समान अवसर के अधिकार से वंचित कर दिया गया था। अतः यह अनु० 16 का उल्लंघन करता है। उच्चतम न्यायालय ने प्रार्थी की इस दलील को अस्वीकार करते हुए नियम को संवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि अनु० 16 का उल्लंघन तब होता है जब एक श्रेणी में विभिन्न पदों को धारण करने वाले व्यक्तियों के बीच पदोन्नति के लिए अवसर की अस- मानता बरती जाती है, किन्तु विभिन्न श्रेणी के पदों को धारण करने वाले व्यक्ति पदोन्नति के समान अवसर का दावा नहीं कर सकते हैं। प्रस्तुत मामले में अफसरों की दो पृथक् श्रेणियाँ हैं, अतः उनकी पदोन्नति के लिए अलग-अलग नियमों का होना अनु० 16 का अतिक्रमण नहीं है, देखिये- किशोरी बनाम भारत संघ, पंजाब राज्य बनाम जोगिन्दर सिंह, व्यम्बक लाल बनाम भारत संघ और श्याम सुन्दर बनाम भारत संघ के निर्णयों को।
अनुच्छेद 16 (1) केवल प्रारम्भिक नियुक्तियों के मामले में ही नहीं, वरन् पदोन्नति आदि के मामले में भी लागू होता है। अनु० 16 (1) में प्रयुक्त 'नियोजन से संबंधित मामले' पदावली यह दर्शित करती है कि इस अनुच्छेद का विस्तार केवल 'प्रारम्भिक नियुक्तियों' के मामलों तक ही सीमित नहीं है, वरन् इसमें नियुक्ति संबंधी अनुवर्ती बातें भी सम्मिलित हैं, जैसा पदोन्नति, पदच्युति, वेतन, पदोत्तर, अवकाश, ग्रेच्युटी, पेन्शन और अधिवार्षिकी भत्ता आदि।
अनुच्छेद 16 के अधीन अनिवार्य सेवानिवृत्ति के लिए युक्तियुक्त नियमों का विहित किया जाना प्रतिषिद्ध नहीं करता है। सरकारी सेवा से अनिवार्य सेवानिवृत्ति अनुज्ञात करने वाले नियमों की विधिमान्यता के सम्बन्ध में विधि इस न्यायालय के पूर्ववर्ती विनिश्चय द्वारा सुस्थापित है। लोकहित में अनिवार्य सेवानिवृत्ति का उपबंध सभी सरकारी सेवकों को लागू होता है और इसलिए अनुच्छेद 16 के अधीन इसे चुनौती नहीं दी जा सकती है, देखिये- राधाकृष्ण नायडू बनाम आन्ध्र प्रदेश सरकार।
अनुच्छेद 16, खंड (2) वंशक्रम और निवास-स्थान
अनुच्छेद 16 (2) में सामान्य आधारों के अलावा दो अतिरिक्त आधार 'वंशक्रम' और 'निवास स्थान' भी सम्मिलित किये गये हैं जो अनुच्छेद 15 में नहीं हैं। इस अर्थ में अनु० 16 का क्षेत्र अनु० 15 से अधिक विस्तृत है। लोक सेवाओं के मामले में उपर्युक्त आधारों पर कोई विभेद नहीं किया जायगा। इस उपबन्ध को संविधान में समाविष्ट करने का मुख्य उद्देश्य सरकारी सेवाओं के मामलों में प्रान्तीयतावाद और भाईभतीजावाद की भावना को सर्वदा के लिए समाप्त कर देना था। मद्रास मद्रासियों के लिये, बंगाल बंगालियों के लिये, कर्नाटक कन्नड़ वालों के लिये आदि प्रान्तीयतावाद के नारे देश की एकता के लिये घातक हैं और सच्चे प्रजातंत्र के विकास के मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं। ये अनिष्टकारी विचार दासता काल के मुख्य लक्षण हैं। स्वतन्त्र भारत में ऐसे विचारों को कोई स्थान नहीं है और इन्हीं को समाप्त करने के लिये अनुच्छेद 16 (2) को संविधान में समाविष्ट किया गया है। अत्याचारपूर्ण असमानता के लिये 'वंशक्रम' का आधार एक कलंक है।
दशरथ रामाराव बनाम आन्ध्र प्रदेश के वाद में मद्रास वंशक्रमानुगत ग्रामपद अधिनियम, 1895 Madras Heredity Village Officers Act की संवैधानिकता को चुनौती दी गयी थी। इस अधिनियम की धारा 6 के अनुसार ग्राम मुन्सिफ के पद के लिये इस पद के अन्तिम धारक के परिवार के लोगों में से ही चुनाव करना आवश्यक था। उच्चतम न्यायालय ने इस धारा को अवैध घोषित कर दिया, क्योंकि यह केवल 'वंशक्रम' के आधार पर भेदभाव करती है जो अनुच्छेद 16 (2) द्वारा वर्जित है। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम के अनुसार ग्राम मुन्सिफ का पद राज्य के अधीन एक पद है क्योंकि इस पद पर नियुक्ति जिलाधीश द्वारा की जाती है और वेतन या भत्ते राज्य द्वारा दिये जाते हैं। अतः इस पद पर नियुक्ति केवल 'वंशक्रम' के आधार पर नहीं की जा सकती है।
अनुच्छेद 16 (3)
अनुच्छेद 16 (3) अनुच्छेद 16 (2) का एक अपवाद प्रस्तुत करता है। खण्ड (2) 'निवास-स्थान' के आधार पर असमानता को वर्जित करता है। लेकिन सरकार कुछ सेवाओं को केवल राज्य के निवासियों के लिये आरक्षित कर सकती है, बशर्ते कि इसके लिए उचित कारण हो। यह अनुच्छेद संसद को प्राधिकृत करता है कि कानून द्वारा उस सीमा को निर्धारित करे जहाँ तक राज्य को उक्त नियम के पालन करने की छूट है। यदि किसी पद के लिये निवास स्थान की अर्हता के लिये कोई उचित कारण नहीं है तो उसके लिए ऐसी अर्हता को निहित करना अनु० 16 (3) का अतिक्रमण होगा। राज्य द्वारा इस अधिकार के दुरुपयोग को रोकने के लिए ही खण्ड (3) को संविधान में समाविष्ट किया गया है। इसी कारण यह शक्ति केवल संसद् को प्रदान की गयी है।
अनुच्छेद 16 (3) के अन्तर्गत प्राप्त शक्ति के प्रयोग में संसद् ने पब्लिक एम्प्लायमेंट रिक्वायरमेंट ऐज टु रेजीडेन्स ऐक्ट, 1957 [Public Employment (Requirement as to Residence) Act, 1957] पारित किया है। यह अधिनियम उन सभी प्रवृत्त कानूनों को निरसित ( repeal) करता है जो लोक-सेवाओं के लिये राज्य या संघ क्षेत्र में 'निवास-स्थान' संबंधी योग्यता का विधान करते हैं। यह उपबंधित करता है कि कोई भी व्यक्ति लोक-सेवाओं पर नियुक्ति के लिये इस आधार पर अयोग्य नहीं होगा कि वह किसी विशेष राज्य का निवासी नहीं है। किन्तु यह अधिनियम हिमाचल प्रदेश, मनीपुर, त्रिपुरा और तेलंगाना आदि में लागू नहीं होगा, अर्थात् इन क्षेत्रों में 'निवास-स्थान' सरकारी नौकरियों पर नियुक्ति के लिये एक आवश्यक योग्यता हो सकती है। यह अपवाद प्रारम्भ में केवल पाँच वर्ष की अवधि के लिये था। लेकिन सन् 1969 में इस अधिनियम में संशोधन करके इस अवधि को बढ़ाकर सन् 1974 तक के लिये कर दिया गया। ऐसी छूट देने का मुख्य कारण इन क्षेत्रों का पिछड़ापन है।
नरसिंह राव बनाम आंध्र प्रदेश के मामले में केन्द्रीय सरकार ने एक अधिनियम पारित किया जिसके अधीन आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र के लोक-पदों के लिये 'निवास-स्थान' की योग्यता निर्धारित की गयी थी। न्यायालय ने अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर दिया, क्योंकि यह पूरे राज्य में लागू नहीं होता था। अनुच्छेद 16 में प्रयुक्त 'राज्य' शब्द से तात्पर्य पूरे राज्य से है। अतः निवास-स्थान सम्बन्धी योग्यता राज्य भर के लिये होनी चाहिये, केवल एक भाग के लिये नहीं। यद्यपि संसद् कुछ लोकपदों को राज्य के निवासियों के लिये आरक्षित कर सकती है, लेकिन वह तेलंगाना क्षेत्र में केवल तेलंगाना के निवासियों के लिये आरक्षित नहीं कर सकती, जो उसी राज्य का एक भाग है।
अनुच्छेद 16 (4) पिछड़ी जातियों के लिये आरक्षण:
अनुच्छेद 16 (4) इस अनुच्छेद 16 (1) और (2) का दूसरा अपवाद है। इसके अनुसार राज्य पिछड़ी जातियों के लिये, जिनको उसकी सम्पत्ति में लोक-सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है, लोकपदों को सुरक्षित रख सकती है । इस प्रकार खण्ड (4) में लागू होने के लिये दो शर्तें हैं-
1-वर्ग पिछड़ा हो, अर्थात् सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से, और
2-उसे राज्याधीन पदों पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिल सका हो । केवल दूसरी शर्त ही एकमात्र कसौटी नहीं हो सकती है।
'पिछड़ापन' शब्द यहाँ उसी अर्थ में प्रयुक्त किया गया है जिस अर्थ में अनु० 15 (4) में | इस अर्थ में इसके अन्तर्गत सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक या किसी अन्य प्रकार का पिछड़ापन शामिल है। देखिये - बालाजी बनाम मैसूर राज्य' का निर्णय। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि समुदाय को विभिन्न वर्गों में बांटकर ऐसा विभेद किया जाय।
'पिछड़ा वर्ग' की संविधान में कोई परिभाषा नहीं दी गई है। अनु० 340 राष्ट्रपति को पिछड़े वर्गों के अवधारण के लिए आयोग की स्थापना करने की शक्ति प्रदान करता है। आयोग इस बात की जाँच करके अपनी सिफारिश राष्ट्रपति को देगा कि कौन सा वर्ग पिछड़ा वर्ग की कोटि में आता है। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर सरकार पिछड़े वर्ग में आने वाले वर्गों को विनिर्दिष्ट करेगी। सरकार का निर्णय एक वाद योग्य विषय होगा अर्थात् न्यायालय इस बात की जाँच करेगा कि वर्गीकरण मनमाना तो नहीं किया गया है अथवा बोधगम्य सिद्धान्त पर आधारित है। राम कृष्ण सिंह बनाम मैसूर राज्य के वाद में मैसूर उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि सन् 1941 की जनगणना के आधार पर सन् 1959 में 'पिछड़े वर्गों' का अवधारण किये जाने का कोई औचित्य नहीं है और उसे किसी बोधगम्य सिद्धान्त पर आधारित नहीं कहा जा सकता है क्योंकि 1941 से 1959 की अवधि के बीच समाज में काफी परिवर्तन हो चुके हैं।
बालाजी के मामले में यह निर्णय दिया गया था कि 'जाति' को पिछड़ेपन के अवधारण की कसौटी नहीं बनाया जा सकता है। इसके लिये गरीबी, पेशा, जन्म-स्थान, सामाजिक विचारधारा, आर्थिक उन्नति के साधन, शिक्षात्मक प्रगति आदि सभी बातों पर विचार किया जाना चाहिये। कोई विशेष जाति पिछड़े वर्ग में आ सकती है यदि उस जाति के 90 प्रतिशत लोग सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हों। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि यदि एक बार किसी जाति को पिछड़े वर्ग की सूची में शामिल कर लिया गया है तो यह सर्वदा के लिये पिछड़ी जांति बनी रहेगी। सरकार को समय-समय पर पूर्ण विचार करते रहना चाहिये और यदि उसे यह समाधान हो जाता है कि कोई जाति विकास के उस स्तर पर पहुँच गई है जहाँ उसके लिये आरक्षण की आवश्यकता नहीं है तो उसे उस जाति को पिछड़े वर्ग की सूची से निकाल देना चाहिये।
आरक्षण करते समय प्रशासनिक कार्यपटुता पर ध्यान रखना चाहिये - खण्ड (3) एक अपवाद है। इसका प्रयोग खण्ड (1) की गारण्टी को नष्ट करने के लिये नहीं किया जा सकता है। आरक्षण करते समय सरकार को प्रशासन में कार्यपटुता बनाये रखने पर ध्यान रखना चाहिये। आरक्षण को योग्यता और कार्य-कुशलता की उपेक्षा करने का आधार नहीं बनाया जा सकता है।
'पिछड़े वर्गों' के लिये सरकारी सेवाओं में किया गया आरक्षण अयुक्तियुक्त नहीं होना चाहिये, अर्थात् लोक साधारण की नियुक्ति के अवसरों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।
देवदासन बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 16 (4) के क्षेत्र पर पूर्ण रूप से विचार करने का अवसर मिला। सरकार ने पिछड़ी जातियों के लिये लोकपदों के आरक्षण के लिए एक नियम बनाया था जिसको अग्रनयन नियम (carry forward rule) कहते थे। इस नियम के अन्तर्गत 17.5 % पद पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए प्रतिवर्ष आरक्षित रखे गये थे। यदि आरक्षित कोटे के पदों पर नियुक्ति के लिये अनुसूचित जातियों और आदिवासियों के योग्य उम्मीदवार पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं होते हैं तो उन रिक्त स्थानों को अनारक्षित माना जायेगा और रिक्त स्थानों को इन जातियों के लिये निश्चित अगले वर्ष के कोटे में जोड़ दिया जायेगा। ऐसा अगले 2 वर्षों तक किया जा सकता है। इस नियम के परिणामस्वरूप 68% लोकपद अनुसूचित और आदिम जातियों के लिए आरक्षित हो जाते थे।
उच्चतम न्यायालय ने 4-1 के बहुमत से 'कैरी फारवर्ड' नियम को असंवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक वर्ष के कोटे को उसी तक सीमित रखना चाहिए और साथ ही साथ प्रत्येक वर्ष पिछड़ी जातियों के लिए पदों का आरक्षण इतना अधिक नहीं होना चाहिए कि एकाधिकार उत्पन्न कर दे या अन्य समुदाय के विधिक अधिकारों में अनुचित रूप से हस्तक्षेप कर दे। बालाजी बनाम मैसूर राज्य' के निर्णय का अनुसरण करते हुए न्यायालय ने कहा कि एक वर्ष में 50 % से अधिक स्थानों को पिछड़ी जातियों के लिये आरक्षित करना सर्वथा अनुचित एवं अनु० 16 (4) के विरुद्ध है। पिछड़ी जातियों के विकास के नाम पर राज्य को दूसरे नागरिकों के अधिकारों की पूर्णतया उपेक्षा नहीं करना चाहिए। न्यायालय के विचार में इस प्रकार का आरक्षण सामान्यतया 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। किन्तु यह 50 प्रतिशत से कितना कम हो, यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के ऊपर निर्भर करेगा।
किन्तु आरती राय बनाम भारत संघ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि यदि किसी अग्रनयन नियम (carry forward rule) के फलस्वरूप किसी भर्ती वाले वर्ष में सामान्य आरक्षित रिक्तियों की संख्या और अग्रनीत आरक्षित रिक्तियों की संख्या को मिलाकर रिक्तियों की कुल संख्या 45 प्रतिशत से अधिक नहीं है तो वह वैध होगा। नियमों के अन्तर्गत अग्रनयन वाला उपबन्ध संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का अतिक्रमण नहीं करता है। फिर भी यदि केवल दो रिक्तियाँ हैं तो उनमें से एक को आरक्षित माना जायगा, किन्तु यदि केवल एक ही रिक्ति है तो उसे अनारक्षित माना जायगा। 45 प्रतिशत से अधिक रिक्तियों को पश्चात्वर्ती भर्ती वाले वर्ष के लिए अग्रनीत किया जायगा, किन्तु यह इस शर्त के अधीन होगा कि अग्रनीत की गई रिक्तियाँ सिर्फ दो वर्ष से अधिक पुरानी होने के कारण विहित किये गये समय के बाहर हो जायँ।
वेंकटरमन बनाम मद्रास राज्य के वाद में मद्रास सरकार ने मुन्सिफ के पद के लिए न केवल हरिजन और पिछड़ी जातियों के लिए, वरन् दूसरे समुदायों जैसे मुस्लिम, ईसाइयों, पिछड़े ब्राह्मणों के लिए भी स्थानों को आरक्षित किया था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 16 (4) के अन्तर्गत केवल पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण किये जा सकते हैं। चूंकि उक्त समुदाय पिछड़े नहीं हैं, अतः उनके लिए लोक-पदों का आरक्षण अनुच्छेद 16 (4) के विरुद्ध है और अनुच्छेद 16 (1) और (2) में दिये नागरिकों के मूल अधिकारों का अतिक्रमण करता है।
त्रिलोकीनाथ टीकू बनाम जम्मू ऐण्ड काश्मीर के मामले में सरकार ने लोकपदों के आरक्षण की एक नीति निर्धारित की थी जिसके अनुसार 50 प्रतिशत पद राज्य के मुसलमानों के लिए 40% जम्मू के हिन्दुओं के लिए और 10% काश्मीर में रहने वाले हिन्दुओं के लिए सरकारी नौकरियों में स्थान आरक्षित किया गया था। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह आरक्षण पिछड़ी जातियों के लिए नहीं है, अतः अनुच्छेद 16 (4) का अतिलंघन करता है अनुच्छेद 16 (4) में प्रयुक्त 'पिछड़े वर्ग' का तात्पर्य 'पिछड़ी जाति' या 'पिछड़े समुदाय' से नहीं है। । विभिन्न समुदायों और जातियों के आधार पर किया गया आरक्षण अनुच्छेद 16 (1), (2) द्वारा वर्जित है ।
स्टेट ऑफ केरल बनाम एन० एम० थोमस ' आरक्षण के प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय का एक महत्वपूर्ण निर्णय है। इस निर्णय के फलस्वरूप देवदासन के मामले, जिसमें कैरी फारवर्ड रूल अवैधानिक घोषित किया गया था, और बालाजी के मामले, जिसमें आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% नियत की गई थी, में दिये गये 'नर्णयों की विधिमान्यता पर प्रश्न चिह्न लग गया है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न विचारार्थ आया कि क्या अनुसूचित जातियों को अनु० 16 (1) के अन्तर्गत अर्थात् अनु० 16 (4) की परिधि से बाहर प्राथमिकता दी जा सकती है। केरल सरकार ने एक नियम बनाया था जिसके अधीन अनुसूचित जातियों के सेवकों की प्रोन्नति के लिए विभागीय परीक्षा पास करने के लिए दो वर्ष की छूट दी गयी थी जबकि अन्य वर्गों के सेवकों के लिए यह छूट नहीं दी गयी। उच्चतम न्यायालय ने 5-2 के निर्णय से यह अभिनिर्धारित किया कि अनुसूचित जातियों के सेवकों और अन्य सेवकों में उच्चपदों पर प्रोन्नति के लिए परीक्षा पास करने के मामले में उक्त नियम के अधीन किया गया वर्गीकरण युक्तियुक्त है। अनुसूचित जातियों के पिछड़ेपन को देखते हुए सरकारी सेवा में प्रोन्नति के लिए अर्हता परीक्षा में अस्थाई छूट देना आवश्यक है। उक्त नियम से प्रशासन में कार्यकुशलता का ह्रास नहीं होगा क्योंकि जिनकी प्रोन्नति हो चुकी है, उन्हें अन्ततोगत्वा परीक्षा पास करनी ही होगी। उन्हें केवल एक छूट दी जा रही है कि उन्हें प्रोन्नति परीक्षा पास करने के लिए अन्य लोगों की अपेक्षा 2 वर्ष का और अतिरिक्त समय दिया जा रहा है। अल्पमत,न्यायाधिपति श्री खन्ना और गुप्ता, ने यह मत व्यक्त किया कि अनुसूचित जातियों को अनु० 16 (4) से बाहर अर्थात् अनु० 16 (1) के अधीन वर्गीकरण के आधार पर अन्य वर्गों की अपेक्षा प्राथमिकता नहीं दी जा सकती है। एक ही वर्ग के और एक अर्हता रखने वाले सेवकों के बीच प्रोन्नति के लिए वर्गीकरण को इस न्यायालय ने कभी मान्यता नहीं दी है। एक वर्ग के सेवकों को प्रोन्नति के लिए विभागीय परीक्षा पास करने के मामले में छूट देने से (भले ही वह अस्थायी क्यों न हो) प्रशासन में कार्यकुशलता नष्ट हो जाती है। 51 में 34 व्यक्तियों को विभागीय परीक्षा पास किये बिना ही प्रोन्नत करना और जो परीक्षा पास कर चुके हैं उन्हें प्रोन्नत न करना निश्चित ही कार्यकुशलता को नष्ट करता है। अनु० 14 के अधीन वर्गीकरण के सिद्धान्त को अनु० 16 (1) के निर्वचन में प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। अनु० 14 और अनु० 16 (1) दोनों का क्षेत्र भिन्न-भिन्न है। लेखक के विचार से अल्पमत का निर्णय अधिक उचित है। इस निर्णय द्वारा न्यायालय ने राजनीतिज्ञों के लिए आरक्षण शक्ति के दुरुपयोग करने की शक्ति प्रदान कर दी है। यह सर्वविदित है कि आरक्षण की शक्ति का प्रयोग जनता सरकार के शासन में बिहार और उत्तर प्रदेश में राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया था।
अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ रेलवे बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने एन० एम० थोमस के मामले में दिये निर्णय का अनुसरण करते हुए कि रेलवे बोर्ड द्वारा जारी किये गये उन परिपत्रों को संवैधानिक घोषित किया है जिसके अधीन रेलवे विभाग में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को प्रोन्नति के मामले में अन्य वर्गों की अपेक्षा अधिक सुविधा दी गयी थी। न्यायाधिपति श्री कृष्ण अय्यर ने बहुमत का निर्णय सुनाते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि सरकारी सेवाओं के प्रयोजन के लिए अनु० 16 (1) के अधीन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को एक अलग वर्ग में रखा जा सकता है और उनमें और भारत के अन्य समुदायों के बीच किया गया वर्गीकरण युक्तियुक्त है। उक्त परिपत्रों के अधीन अग्रनयन नियम (carry forward rule) 2 वर्ष से 3 वर्ष तक के लिए बढ़ा दिया गया था जिसके फलस्वरूप उक्त वर्गों के लिए प्रोमोशन पदों पर आरक्षण का कोटा 65% हो गया था। कुल 45 पदों में से 29 पदों पर अनुसूचित जाति/जनजाति को प्रोन्नति दी गई है जो करीब 65% है। बालाजी के मामले के आधार पर (50%) यह नियम अवैध होना चाहिए। किन्तु न्यायाधिपति कृष्ण अय्यर ने कहा कि मानवीय समस्याओं में गणितीय सूक्ष्मता नहीं लागू की जा सकती है और आरक्षण का कुछ अधिक हो जाना अनुचित नहीं है किन्तु यदि वह सारवान् (sub- stantial) रूप से अधिक है तो चयन को अवैध बना देगा। अतः इस शर्त के अधीन रहते हुए अग्रनयन का नियम विधिमान्य है। न्यायाधिपति चिनप्पा रेड्डी ने अवलोकन किया कि उक्त वर्गों के लिए आरक्षण की कोई निश्चित सीमा नहीं नियत की जा सकती है, पूर्व-निर्णयों में 50% की सीमा का नियम तो केवल न्यायालयों के मार्गदर्शन के लिए है वे उससे बाध्य नहीं हैं।
थोमस और अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ के मामलों में यद्यपि न्यायालय ने बालाजी और देवदासन के मामलों में दिये गये निर्णयों को उलटा (overrule) नहीं है किन्तु उनमें प्रतिपादित सिद्धान्तों का मूल आधार नष्ट कर उन्हें विवक्षित रूप से उलट दिया है। प्रस्तुत वाद में न्यायालय ने 50% से अधिक आरक्षण तथा अग्रनयन नियम जिसके फलस्वरूप आरक्षण 50% से अधिक हो गया था, दोनों को संवैधानिक घोषित किया है। परिपत्र में प्रयुक्त शब्दावली कि उक्त वर्ग के अभ्यर्थियों के साथ सहानुभूतिपूर्ण बर्ताव करना चाहिये जैसी अस्पष्ट शब्दावली को न्यायालय ने विधिमान्य घोषित करके कार्यकारिणी को आरक्षण का राजनैतिक दृष्टि से प्रयोग करने का लाइसेन्स प्रदान कर दिया है। इन निर्णयों के परिणाम दूरगामी हो सकते हैं। गुजरात प्रान्त का आरक्षण विरोधी आन्दोलन इसका ज्वलन्त दृष्टान्त है जिसमें जन, धन को भारी क्षति पहुँची है। ये घटनाएँ आगे आने वाले वर्ग संघर्ष का एक संकेत मात्र हैं।
अनुच्छेद 16, खण्ड (5)
अनुच्छेद 16 (5) इस अनुच्छेद 16 (1) और (2) का तीसरा अपवाद है जिसके अनुसार लोकपदों के लिए धर्म के आधार पर असमानता कहना वर्जित है। अनुच्छेद 16 (5) के अन्तर्गत राज्य किसी धार्मिक या साम्प्रदायिक संस्थाओं के प्रबन्ध के लिए किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय को मानने वाले लोगों की नियुक्ति का उपबन्ध कर सकता है।