संविधानोत्तर विधियों पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव || Effect of Article 13 on post-constitutional laws

संविधानोत्तर विधियों पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव || Effect of Article 13 on post-constitutional laws 

Legal Jankari- Effect Of Article 13 on Post Constitutional Laws

     अनुच्छेद 13 (2) राज्य को ऐसी विधि को पारित करने का निषेध करता है जो भाग तीन में दिए गए अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है। यदि राज्य ऐसी कोई भी विधि बनाता है जो मूल अधिकारों से असंगत है तो वह विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी। ऐसी विधियां प्रारंभ से ही शून्य होंगी। यह विधि एक मृत विधि होती है। ऐसी विधि को संविधान में संशोधन करके या संविधानिक प्रतिबंधों को हटा कर पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता है। इसे फिर से पारित करना आवश्यक होगा। यद्यपि मूल अधिकारों से असंगत संविधानोत्तर विधियां प्रारंभ से ही शून्य होती हैं, फिर भी उनकी अवैधता की घोषणा न्यायालय द्वारा किया जाना आवश्यक है। न्यायालय केवल उन्हीं व्यक्तियों की प्रार्थना पर संविधानोत्तर विधियों को शून्य घोषित करता है, जिन्हें मूल अधिकार प्राप्त हैं और जिनके  मूल अधिकारों का अतिक्रमण किया गया है। वह केवल स्वेच्छकों की प्रार्थना पर विधियों को असंवैधानिक घोषित नहीं करता है।
     संविधान-पूर्व विधि और संविधानोत्तर विधि में अंतर यह होता है कि संविधान-पूर्व विधि प्रारंभ से ही शून्य नहीं होती बल्कि संविधान लागू होने पर ही शून्य होती है जबकि संविधानोत्तर विधि प्रारंभ से ही शून्य होती है। संविधान-पूर्व विधि संविधान के पूर्व अर्जित अधिकारों एवं दायित्वों के संबंध में पूर्णतः वैध होती है किंतु संविधानोत्तर विधि क्योंकि प्रारंभ से ही शून्य होती है, अतः इस विधि के अंतर्गत किया गया कोई कार्य चाहे वह पूरा हो गया हो या चल रहा हो, पूर्णतः अवैध होगा तथा ऐसी विधि से यदि कोई व्यक्ति से प्रभावित हुआ है तो उसे अनुतोष पाने का अधिकार होगा। दीपचन्द बनाम उत्तर प्रदेश राज्य का वाद  इसका एक अच्छा उदहारण है। 

आच्छादन का सिद्धांत

सगीर अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था कि आच्छादन का सिद्धांत संविधानोत्तर विधियों पर लागू नहीं होता है, क्योंकि मूल अधिकारों से असंगत विधि प्रारंभ से ही असंवैधानिक होती है, अतः बाद में किया गया संविधान का संशोधन उसे मान्य नहीं बना सकता। ऐसी विधि को फिर से नए सिरे से पारित करना आवश्यक होता है। दीपचन्द बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने सगीर अहमद के विनिश्चय का अनुमोदन करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि, कोई संविधानोत्तर विधि जो मूल अधिकारों से असंगत है. एक मृत विधि होती है। अतः वह अपने जन्म से ही शून्य होती है। अतएव ऐसे कानूनों पर आच्छादन का सिद्धांत लागू नहीं होता तथा बाद में किया जाने वाला संविधानिक संशोधन भी उसे पुनर्जीवित नहीं कर सकता है। ऐसे कानूनों को फिर से पारित करना आवश्यक होता है। इस विनिश्चय के विपरीत अल्पमत का यह विचार था कि आच्छादन का सिद्धांत संविधानोत्तर विधियों पर भी लागू होता है। महेंद्र लाल जैनी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने सगीर अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में दिए गए अपने बहुमत के निर्णय का अनुमोदन किया और यह अभिनिर्धारित किया कि यू. पी. लैंड टैन्योर्स (रेगुलेशन आफ ट्रांसपोर्ट) एक्ट  1952 असंवैधानिक है, क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 13 (2) का उल्लंघन करता है, और बाद में किए गए चौथे संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता है। इस अधिनियम को फिर से पारित करना आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय का यह विचार था कि आच्छादन का सिद्धांत संविधान-पूर्व विधियों पर लागू होता है। जो अनुच्छेद 13 (1) द्वारा प्रशासित है, न कि संविधानोत्तर विधियों पर जो अनुच्छेद 13 (2) द्वारा प्रशासित होती है। अनुच्छेद 13(1) के अंतर्गत अधिनियम मृत नहीं पैदा होते हैं, इसलिए आच्छादन का सिद्धांत लागू होता है जबकि अनुच्छेद 13(2) के अंतर्गत अधिनियम मृत  पैदा होते हैं इसलिए इन विधियों पर आच्छादन का सिद्धांत लागू नहीं होता है। 
       गुजरात राज्य बनाम श्री अंबिका मिल्स के मामले में उच्चतम न्यायालय ने दीपचन्द और महेंद्र लाल जैनी  के मामलों में दिए गए अपने विनिश्चय को काफी बदल दिया और यह अभिनिर्धारित किया है कि एक संविधानोत्तर विधि जो मूल-अधिकारों से असंगत है वह सभी प्रयोजनों के लिए प्रारंभ से शून्य और अकृत नहीं होती है। पूर्ण-अकृतता का नियम एक सर्वव्यापी नियम नहीं है, और इसके अनेक अपवाद हैं। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि एक संविधानोत्तर विधि जो अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को प्रदत्त किए गए मूल-अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है, वह और अनागरिकों के प्रति प्रवर्तनीय रहती है, क्योंकि विधि केवल नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों से उल्लंघन की मात्रा तक शून्य है। अनुच्छेद 13(2) में प्रयुक्त शून्य शब्द से तात्पर्य ऐसे व्यक्तियों के अधिकारों के उल्लंघन पर शून्य है जिन का अधिकार कानून बना कर लिया जा सकता है। ऐसे व्यक्तियों के मूल-अधिकारों के विरुद्ध उक्त प्रकार के कानून शून्य होते हैं। परन्तु जिन व्यक्तियों को कोई मूल-अधिकार प्राप्त नहीं है, उनके प्रति संविधानोतर विधियों के शून्य होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यदि कोई कानून वैध है, और वह उनके मूल-अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है, तो एक नागरिक उसके शून्य होने का लाभ इस आधार पर नहीं उठा सकता है कि, वह नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है। अतः यह कोई विधि ही नहीं है, और न ही इस प्रस्थापना से विधि के समक्ष समता के सिद्धांत का अतिक्रमण होता है, क्योंकि नागरिक और अनागरिक एक ही जैसी स्थिति में नहीं है, क्योंकि नागरिकों को अधिकार प्राप्त हैं जो अनागरिकों को प्राप्त नहीं है। इस प्रकार यदि यह मान लिया जाए कि एक कंपनी जो नागरिक नहीं है, उसे अनुच्छेद 226 के अंतर्गत अपनी संपत्ति के अधिकार के अतिलंघन के लिए न्यायालय में याचिका दाखिल करने और उपचार पाने का अधिकार है, तो भी बॉम्बे लेबर वेलफेयर फंड एक वैध कानून है, और गैर-नागरिकों को पूर्ण रुप से लागू होता है। कंपनी यह तर्क नहीं ले सकती है कि उसका संपत्ति का धारण, अर्जन और व्ययन का अधिकार विधि के प्राधिकार के बिना छीना या न्यून किया जा रहा है।
       संक्षेप में संविधानोत्तर विधि तभी शून्य या मृत होती है, जब वह नागरिकों के मूल अधिकारों से असंगत होती है। जहां तक अनागरिकों का प्रश्न है, ऐसी विधि प्रवर्तनीय रहती है औरवैध बनी रहती है, क्योंकि कंपनी एक नागरिक नहीं है, तथा  संविधानोत्तरविधि उस पर भी लागू होगी। 

  विधि की परिभाषा

अनुच्छेद 13 के प्रयोजन के लिए विधि शब्द के अंतर्गत कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, अधिसूचना, रूढ़िया, और प्रथाएं सम्मिलित हैं। इस अनुच्छेद में विधि शब्द को बड़े विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। सम्मिलित शब्द यह सूचित करता है कि यह गणना उदाहरणात्मक है सर्वांगीण नहीं। अतः उपर्युक्त प्रकार की विधियांविधि शब्द के अंतर्गत शामिल हैं। न्यायालयों द्वारा अनेक विनिश्चयों में अभिनिर्धारित किया गया है कि कार्यपालिका अधिकारियों द्वारा जारी किया गया प्रशासनिक आदेश भी इस शब्द के अंतर्गत सम्मिलित है, किंतु इसमें सरकार द्वारा अपने अधिकारियों को दिए गए निर्देश सम्मिलित नहीं है। स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल बनाम अनवर अली सरकार हबीब  का वाद इसका एक उदहारण है। विधि शब्द के अंतर्गत केवल अधिनियम ही नहीं आते हैं, बल्कि ऐसी रूढ़ियां और प्रथाएं भी आती हैं जिनमें कानून का बल है, रूढ़िया या प्रथाएं मूल-अधिकारों से असंगत नहीं हो सकती हैं। किंतु मुस्लिम या हिंदू या  क्रिश्चियन वैयक्तिक विधि विधि शब्द के अंतर्गत नहीं आती हैं। संविधान का भाग 3 पक्षकारों की वैयक्तिक की विधियों को नष्ट नहीं करता है। 

  प्रवर्तित विधि

प्रवर्तित विधि के अंतर्गत वे सभी संविधान-पूर्व और वर्तमान विधियां सम्मिलित हैं, जो विधानमंडल या अन्य क्षमताशील प्राधिकारियों द्वारा पारित की गई हैं, और जिनका निरसन नहीं किया गया है, भले ही वे भारत के संपूर्ण या किसी एक भाग में पूर्णतः  या अंशतः प्रवर्तित नहीं है। ऐसी सभी विधियां प्रवर्तित विधि के अंतर्गत आती हैं, जब तक की स्पष्ट रुप से उनको प्रवर्तित होने से रोक न दिया गया हो। वर्तमान विधि पदावली का क्षेत्र बड़ा विस्तृत है, और उसके अंतर्गत विधानमंडल या अन्य प्राधिकृत निकाय या अधिकारी द्वारा निर्मित अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना तथा वैयक्तिक विधियां रूढ़ि, प्रथा आदि जो प्रवर्तित होने योग्य हैं, सम्मिलित हैं। इस प्रकार राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा जारी किया गया अध्यादेश, एक सरकारी अधिसूचना, म्युनिसिपल निकाय का एक नियम आदि प्रवर्तित विधि के उदाहरण है। प्रवर्तित विधि शब्दावली का तात्पर्य उन विधियों से है, जो न्यायालयों द्वारा लागू की जा सकती हो। किसी विशेष नियम को विधि कहा जा सकता है या नहीं, इसके लिए यह सिद्ध करना आवश्यक है कि, वह विधि न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय है। 

  "संविधानिक संशोधन" और अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त शब्द "विधि"

              यह महत्वपूर्ण प्रश्न सर्वप्रथम उच्चतम न्यायालय के विचारार्थ शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ के वाद में आया था। इस वाद में संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम 1951 ( जिसके द्वारा अनुच्छेद 31 में दो नए अनुच्छेद 31 क और 31 ख जोड़े गए )  की विधि मान्यता को चुनौती दी गई थी। अपीलार्थियों ने यह तर्क प्रस्तुत किया था कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत पारित विधि भी अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त विधि शब्द के अंतर्गत शामिल है, और क्योंकि वह मूल-अधिकारों का अतिक्रमण करती है अतः उसे अवैध घोषित किया जा सकता है।  उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद द्वारा पारित विधि अनुच्छेद 13 (2) में प्रयुक्त विधि शब्द की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आती है, और अनुच्छेद 13 (2) में प्रयुक्त विधि शब्द का तात्पर्य ऐसी विधि से है, जो विधान मंडल द्वारा अपनी साधारण विधायिनी शक्ति के प्रयोग द्वारा पारित की जाती है, न कि संविधानिक संशोधन, जो अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधानिक शक्ति के प्रयोग में पारित किया जाता है। दोनों विधियों में अंतर है, और अनुच्छेद 13 (2) किसी भी प्रकार से अनुच्छेद 368 के अंतर्गत पारित संविधानिक संशोधन पर लागू नहीं होता। सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ के वाद में दिए गए अपने निर्णय का अनुसरण किया है और यह अभिनिर्धरित किया है कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत पारित विधि अनुच्छेद 13 (2) में प्रयुक्त विधि शब्द की परिभाषा में सम्मिलित नहीं है। 
     परन्तु, गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के वाद में उपर्युक्त दोनों मुकदमों में दी गई विधि की परिभाषा को उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया। इस वाद में संविधान के 17वें  संशोधन 1964 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। न्यायालय के बहुमत का निर्णय सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश श्री सुब्बाराव ने यह कहा कि अनुच्छेद 12 (2) में प्रयुक्त विधि शब्द के अंतर्गत सभी प्रकार की विधियां सम्मिलित हैं, चाहे वह विधानमंडल के साधारण विधायिनी शक्ति के प्रयोग के द्वारा निर्मित की गई हो या अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधानिक संशोधन के प्रयोग में निर्मित की गई हो। अतः संविधान में किया गया कोई संशोधन नागरिकों के मूल-अधिकारों का हनन करता है तो वह अवैध होगा। न्यायालय के अनुसार अनुच्छेद 368 में केवल कानून बनाने की प्रक्रिया दी गई है, संविधान संशोधन करने की शक्ति नहीं। यह संसद को ऐसी शक्ति प्रदान नहीं करता जिसके द्वारा व नागरिकों के मूल-अधिकारों में संशोधन करें। विधि विधि है, चाहे साधारण कानून हो या संविधानिक संशोधन। 

 संविधान का 24 वां संशोधन 1971

उच्चतम न्यायालय द्वारा गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में दिए गए निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के लिए संसद ने संविधान का 24 वां संशोधन 1971 पारित किया इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 13 (2) में संशोधन किया गया है, और इसमें निम्नलिखित वाक्य जोड़ा गया है, संसद द्वारा अनुच्छेद 368 के अंतर्गत पारित कोई भी विधि अनुच्छेद 13 (2) में प्रयुक्त विधि शब्द के अंतर्गत शामिल नहीं होगी। केशवानंद भारती बनाम भारत संघ के बाद में उच्चतम न्यायालय ने 24 वें संविधान संशोधन 1971 को विधिमान्य घोषित कर दिया है और गोलक नाथ के मामले में दिए गए अपने निर्णय को पलट दिया है। 

        42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा अनुच्छेद 368  में संशोधन करके संविधानिक संशोधन को न्यायिक पुनर्विलोकन से सर्वथा परे कर दिया गया है। इस संशोधन द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अनुच्छेद 368 के अधीन किए गए संशोधनों की वैधता को किसी भी आधार पर किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी।  

राज्य द्वारा बनाई गयी विधियों पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव || Effect of Article 13 on the laws made by the State

 राज्य द्वारा बनाई गयी विधियों पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव || Effect of Article 13 on the laws made by the State


अनुच्छेद 13 का उपखंड (2) यह उपबंधित करता है कि राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनायेगा जो संविधान के इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गयी प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।  

पृथक्करणीयता का सिद्धांत

जब किसी अधिनियम का कोई भाग असंवैधानिक होता है तो प्रश्न यह उठता है कि क्या उस पूरी अधिनियम को ही शून्य घोषित कर दिया जाए या केवल उसके उसी भाग को ही अवैध घोषित किया जाए जो संविधान के उपबंधों से असंगत है। ऐसे मामलों में न्यायालय पृथक्करणीयता का सिद्धांत ( Dotrine of Severability ) लागू करते हैं। इस सिद्धांत का तात्पर्य यह है कि यदि किसी अधिनियम का असंवैधानिक भाग उसके शेष भाग से, बिना विधानमंडल के आशय को विफल किए या पूरे अधिनियम के मूल उद्देश्य को समाप्त किए, अलग किया जा सकता है, तब केवल मूल अधिकारों से असंगत वाला भाग ही अवैध घोषित किया जाएगा, पूरे अधिनियम को नहीं। अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त असंगत या विरोध की सीमा तक वाक्यांश से स्पष्ट है कि किसी अधिनियम के केवल वे भाग ही अवैध घोषित किए जाएंगे जो मूल अधिकारों से असंगत हैं या विरोध में हैं। पूर्ण अधिनियम को नहीं। 
         ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य के वाद में निवारक निरोध अधिनियम 1950 की धारा 14 की वैधता को चुनौती दी गई थी। उच्चतम न्यायालय ने धारा 14 को असंवैधानिक करार दिया और कहा कि इस धारा को अलग कर देने से उसकी प्रकृति, संरचना या उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं होगा। अतः धारा 14 को अवैध घोषित कर देने से अधिनियम के शेष भाग की वैधता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। प्
   बम्बई राज्य बनाम बालसरा  के मामले में मुंबई प्रांत मद्द्य-निषेध अधिनियम 1949 के कुछ उपबंधों को असंवैधानिक घोषित करने के बाद भी शेष अधिनियम पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा था और वह वैध बना रहा। 
    इसका एक अपवाद भी है। यदि अधिनियम का अवैध भाग वैध भाग से इस प्रकार अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है कि अवैध भाग को निकाल देने से अधिनियम का उद्देश्य विफल हो जाता है या शेष भाग का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रह जाता है तो न्यायालय पूरे अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर देगा। 

         किसी अधिनियम में विधानमंडल का आशय ही इस बात का निर्णायक तत्व है कि अवैध घोषित किए अंश पृथक किए जाने योग्य है अथवा नहीं। रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि जहां किसी विधि का आशय मूल अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने का प्राधिकार देना है, और वह ऐसी व्यापक भाषा में है, जो संविधान द्वारा निहित सीमाओं के अंदर और बाहर दोनों प्रकार के प्रतिबंधों में आती है, और जहां दोनों को पृथक करना संभव नहीं है, तो पूरी संविधि को ही रद्द कर दिया जाएगा, जब तक कि ऐसे प्रयोजनों के लिए, जो कि संविधान द्वारा अनुमोदित नहीं है, इसके लागू होने की संभावना को दूर नहीं कर दिया जाता, तब तक उस कानून को पूर्णत: असंवैधानिक घोषित किया जाना आवश्यक है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि किसी संविधि का एक अंश जो मूल अधिकारों से असंगत या विरोध में है, और यदि पूरी संविधि से बिना उसके मूल आशय को परिवर्तित किए, उसे पृथक नहीं किया जा सकता, तो ऐसी स्थिति में न्यायालय को पूरी विधि  को ही असंवैधानिक घोषित करना होगा। 

     पृथक्करणीयता का सिद्धांत आर.एम.डी.सी. बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष पुनः विचारार्थ  आया था। इस वाद में पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम की धारा (2)घ  की संवैधानिकता पर आपत्ति उठाई गई थी। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य जुआ-प्रकृति की प्रतियोगिता पर प्रतिबंध लगाने का था।  किंतु इसकी भाषा इतनी व्यापक थी कि उसके अंतर्गत ऐसी प्रतियोगिताएं, जिनमें कौशल भी शामिल था, आ जाती थी। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इस अधिनियम के उपबंध पृथक करने योग्य हैं, और केवल उन भागों को निकाल दिया जिनके अंतर्गत कौशल वाली प्रतियोगिताएं भी आ जाती थी। इस प्रकार न्यायालय ने रोमेश थापर के वाद में दिए गए अपने निर्णय को प्रभावी रूप से संशोधित कर दिया जिसमें यह कहा गया था कि जहां मूल अधिकारों से असंगत उपबंध ऐसी व्यापक भाषा में है कि उसके अंतर्गत संविधान द्वारा अनुमोदित सीमाओं के अंदर या बाहर दोनों प्रकार के प्रतिबंधों को शामिल करते हैं, और उन्हें संविधान द्वारा अनुमोदित सीमाओं के अंदर लागू नहीं किया जा सकता है, तो पूरे अधिनियम को शून्य घोषित करना आवश्यक होगा।


       संक्षेप में, आर.एम.डी.सी. बनाम भारत संघ के मामले में यह निर्णय था कि यदि अवैध अंश के निकाल देने के पश्चात जो शेष बचा रहता है वह एक अधिनियम बना रहता है तो पूरे अधिनियम को अमान्य घोषित करने की आवश्यकता नहीं है। इन मामलों में निर्णायक तत्व यह है कि विधानमंडल का आशय यह था कि किसी अधिनियम का वैध भाग अवैध घोषित किए गए भाग से पृथक किया जा सकता है अथवा नहीं। यदि शेष अधिनियम को बिना संशोधन के प्रवर्तित नहीं किया जा सकता तो पूरे अधिनियम को अवैध घोषित कर देना चाहिए। पृथक्करणीयता का सिद्धांत तथ्य का विषय है आकार का नहीं, और विधान मंडल के आशय को समझने के लिए विधि  निर्माण के इतिहास, उद्देश्य, शीर्षक और प्रस्तावना आदि बातों पर विचार करना आवश्यक है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है कर विधि। जब कुछ वस्तुओं पर कर लगाए जाते हैं और उसमें से कुछ को कर से भी विमुक्ति प्राप्त होती है, तो उसका केवल वहीं भाग अवैध घोषित किया जाएगा जो मूल अधिकारों से असंगत है पूरे कर विधान को नहीं। पृथक्करणीयता के सिंद्धांत को समझने के लिए स्टेट आफ मुंबई बनाम यूनाइटेड मोटर्स के मामले में भी देखा जा सकता है। 

संविधान-पूर्व विधियों पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव || Effect of Article 13 on Pre-Constitution Laws

संविधान-पूर्व विधियों पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव



     अनुच्छेद 13 का उपखंड (1) यह उपबन्धित करता है कि इस संविधान के लागू होने के ठीक पहले भारत में प्रवृत्त सभी विधियां उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस मात्रा तक वे भाग-3 के उपबन्धों से असंगत हैं। 

संविधान-पूर्व विधियों (Pre-Constitutional Laws) पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव भूतलक्षी नहीं (Not  Retrospective) है

अनुच्छेद 13 का प्रभाव भूतलक्षी नहीं है। यह उसी दिन से एक प्रभावी होता है, जिस दिन से संविधान लागू किया गया है। संविधान-पूर्व विधियां प्रारंभ से ही अवैध नहीं होती हैं। मूल अधिकारों से असंगत संविधान-पूर्व विधियां केवल संविधान लागू होने के पश्चात ही अवैध होंगी। चूँकि मूल अधिकारों का अस्तित्व संविधान लागू होने के दिन से हुआ था, इसलिए उसके पहले से प्रवृत विधियों पर उसका प्रभाव भी उसी दिन से प्रारंभ होगा। जहां तक भूतकाल में किए गए कृत्यों का प्रश्न है, संविधान-पूर्व विधियां उन पर पूर्ण रुप से लागू होंगी और वैध होंगी। संविधान लागू होने के पहले किए गए कार्यों के प्रति उनका प्रभाव यथावत बना रहता है। यदि किसी व्यक्ति ने संविधान लागू होने से पहले कोई ऐसा काम किया है, जो उस समय प्रवृत्त किसी विधि के अनुसार अपराध था, तो वह संविधान लागू होने के बाद यह नहीं कह सकता कि उसे अपराध की सजा नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि संविधान ऐसी सजा को वर्जित करता है। यदि उसका कृत्य उस समय प्रवृत्त किसी विधि के अंतर्गत अपराध था तो उसे उसमें दी गई सजा भुगतनी होगी और संविधान के लागू होने का उस पर कोई प्रभाव नहीं होगा। 
        केशव माधव मेनन बनाम मुंबई राज का मामला इसका एक अच्छा उदाहरण है। इस मामले में सन 1949 में प्रेस एमरजैंसी पावर्स एक्ट 1931 के अंतर्गत अपीलार्थी के विरुद्ध एक पत्रक छापने के कारण अभियोग चलाया गया। इस एक्ट के अंतर्गत ऐसा पत्रक छापना एक दंडनीय अपराध था। न्यायालय में कार्यवाही चल ही रही थी कि संविधान लागू हो गया। अपीलार्थी ने न्यायालय के समक्ष यह तर्क प्रस्तुत किया कि 1931 का कानून अनुच्छेद 19 (1) (क) में दिए गए मूल अधिकार से असंगत है, इसलिए शून्य है। अतः उसके विरुद्ध कार्यवाही चालू नहीं रही नहीं रखी जा सकती है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि उसके मामले में अनुच्छेद 13 नहीं लागू होगा, क्योंकि अपराध संविधान लागू होने के पहले किया गया था। अतः सन 1949 में प्रारंभ की गई कार्यवाही पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि, चूँकि मूल-अधिकार संविधान के लागू होने के दिन से ही प्रवर्तित हुए, इसलिए संविधान-पूर्व विधियों से उनकी असंगति का प्रश्न भी उसी दिन से उत्पन्न हुआ माना जाएगा। ऐसी विधियां संविधान लागू होने के बाद मूल अधिकारों के विरोध में होने के कारण ही शून्य होंगी। अनुच्छेद 13 ऐसी असंगत विधियों के प्रवर्तन को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करना उसको भूतलक्षी प्रभाव प्रदान कर देगा जो उसे नहीं दिया गया है। 
        परन्तु, इसका अभिप्राय यह नहीं है कि यदि संविधान लागू होने के पहले किसी अधिनियम में कोई विभेदकारी प्रक्रिया दी गई है तो वह प्रक्रिया संविधान लागू होने के बाद संविधान के पहले के अर्जित अधिकारों या दायित्वों को क्रियान्वित करने के लिए लागू की जाएगी। यद्यपि संविधान लागू होने से पहले अर्जित सारभूत अधिकार और दायित्वों के प्रवर्तन कराने का अधिकार यथावत बना रहता है परन्तु कोई व्यक्ति इन अधिकारों और दायित्वों को किसी संविधान-पूर्व प्रक्रिया के अंतर्गत प्रवर्तित कराने का दावा नहीं कर सकता है जो संविधान के उपबंधों के लागू होने के कारण असंगत हो गई हो।

  आच्छादन का सिद्धांत

आच्छादन का सिद्धांत अनुच्छेद 13 के उपखंड एक पर आधारित है जिसके अनुसार संविधान-पूर्व विधियां संविधान लागू होने पर उस मात्रा तक अवैध होंगी जिस तक यह मूल अधिकारों से असंगत है। ऐसी विधियां प्रारंभ से ही शून्य नहीं होती हैं, बल्कि अधिकारों के प्रवर्तन हो जाने के कारण मृतप्राय हो जाती हैं, और उनका प्रवर्तन नहीं किया जा सकता है। ऐसे कानून बिल्कुल मिट नहीं जाते। वह केवल मूल अधिकारों द्वारा आच्छादित हो जाते हैं और सुषुप्त (मृतप्राय) अवस्था में रहते हैं। संविधान लागू होने के पहले के सभी संव्यवहारों के लिए उनका अस्तित्व यथावत वैध बना रहता है और ऐसी विधि के अंतर्गत अर्जित किए गए अधिकारों और दायित्वों को प्रवर्तित किया जा सकता है। 

   संविधान में संशोधन करके  ऐसी विधियों को पुनर्जीवित किया जाना जो संविधान लागू होने पर मृतप्राय हो जाती हैं

भीकाजी बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में यह प्रश्न विचारणीय था। इसी प्रश्न को हल करने के लिए उच्चतम न्यायालय ने आच्छादन का सिद्धांत प्रतिपादित किया। इस वाद में एक संविधान-पूर्व विधि में एक ऐसा उपबंध था जो राज्य सरकार को प्राधिकृत करता था कि वह सभी निजी व्यक्तियों को मोटर यातायात व्यापार से बहिष्कृत कर सकती है। यद्यपि जब यह कानून बना था, वैध था, परन्तु सन 1950 में संविधान लागू होने पर यह अधिनियम शून्य हो गया, क्योंकि यह अधिनियम अनुच्छेद 19 (1) का उल्लंघन करता था, जो नागरिकों को जीविका,व्यापार, पेशा या वाणिज्य करने का मूल अधिकार प्रदान करता है। परंतु सन 1951 में संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 19 (1) में संशोधन किया गया और राज्य को किसी व्यापार को करने का एकाधिकार प्रदान कर दिया गया। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इस संशोधन के परिणामस्वरुप मृतप्राय विधि पुनः सजीव होती है, क्योंकि संशोधन ने उस पर से मूल अधिकारों के आच्छादन को हटा लिया और विधि को सभी दोषों एवं अयोग्यताओं से मुक्त कर दिया। ऐसी विधि केवल कुछ समय के लिए मूल अधिकारों द्वारा आच्छादित होती है किंतु जैसे ही उस पर से आच्छादन हटा लिया जाता है, वह सजीव हो जाती है और उसी दिन से प्रवर्तनीय हो जाती है। ऐसी विधि को फिर से अधिनियमित करने की आवश्यकता नहीं होती। 

मूल अधिकार: न्यायालयों की न्यायिक-पुनर्विलोकन की शक्ति और उसका अपवर्जन || Power of Judicial Review and Exclusion of Courts


मूल अधिकार: न्यायालयों की न्यायिक-पुनर्विलोकन की शक्ति



न्यायालयों की न्यायिक-पुनर्विलोकन की शक्ति || Power of judicial review of courts


    वस्तुतः  अनुच्छेद 13 न्यायालयों को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान करता है। संविधान ने इस शक्ति को भारत के उच्चतम न्यायालय को प्रदान किया है। उच्चतम न्यायालय किसी भी विधि को जो मूल अधिकारों से असंगत है, अवैध घोषित कर सकता है।

न्यायिक पुनर्विलोकन का अर्थ एवं आधार 

प्रोफेसर कारविन के अनुसार, न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति न्यायालयों की वह शक्ति है जिसके अंतर्गत न्यायलय विधान मंडलों द्वारा पारित अधिनियमों की संवैधानिकता की जांच करते हैं तथा ऐसी किसी भी विधि को प्रवर्तित होने से इंकार कर सकते हैं जो संविधान के उपबंधों से असंगत है। यह कार्य न्यायालयों के साधारण क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आता है। 
      मानव के विकास का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब किसी व्यक्ति को असीमित शक्ति मिल जाती है तो वह भ्रष्ट हो जाता है और वह उस असीमित शक्ति के प्रयोग से समाज में अत्याचार, अराजकता और  अव्यवस्था उत्पन्न कर देता है। मनुष्य की शक्ति को सीमित करने के लिए सर्वदा से प्रयास किया जाता रहा है और इसी उद्देश्य से ऐसी संस्थाओं की स्थापना की गई है जो इस शक्ति के प्रयोग पर अंकुश लगा सकें। समस्या तब और कठिन हो जाती है जब सरकार मनमाने ढंग से कार्य करने लगती है। मांटेस्क्यू ने सरकार के सभी अंगों के अबाधित और अनियंत्रित शक्ति के प्रयोग पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से ही शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका के सम्मिलित नाम को सरकार कहते हैं। सरकार के अंतर्गत यही तीनों शक्तियां होती हैं। इस सिद्धांत के अनुसार इन तीनों शक्तियों का पृथक्करण आवश्यक है। यह आवश्यक है कि राज्य की एक शक्ति दूसरी शक्ति के संचालन में हस्तक्षेप ना करें और प्रत्येक अंग अपनी अपनी सीमा में रहकर कार्य करें तथा सरकार के एक अंग में सारी शक्ति का केंद्रीकरण ना हो। इन शक्तियों में आपस में संतुलन स्थापित करके ही मनुष्य के निरंकुश स्वभाव पर अंकुश लगाया जा सकता है और संविधान प्रदत्त स्वतंत्रताओं की रक्षा की जा सकती है। 

    इस प्रकार न्यायिक पुनर्विलोकन विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों के प्रयोग पर नियंत्रण रखने की शक्ति है। न्यायिक पुनर्विलोकन की धारणा का उद्भव सीमित शक्ति वाली सरकार के सिद्धांत से हुआ है। इस सिद्धांत के अनुसार विधि दो प्रकार की होती है: एक- साधारण विधि और दूसरी- सर्वोच्च विधि अर्थात संविधान। देश की सर्वोच्च विधि अन्य सभी विधियों का आधार और स्रोत होती है। ऐसी कोई भी विधि जो संविधान के उपबंधों  का उल्लंघन या अतिक्रमण करती है, असंवैधानिक मानी जाएगी। ऐसी दशा में किसी संस्था को उन विधियों को असंवैधानिक घोषित करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए और वह संस्था निसंदेह रूप से न्यायपालिका है। 

     केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के वाद में न्यायाधीश खन्ना  ने न्यायिक पुनर्विलोकन के बारे में कहा है कि फेडरल प्रणाली में जहां विधायी शक्तियों का केंद्रीय विधान मंडल और राज्य विधान मंडल में बंटवारा होता है, ऐसे विवादों के निपटारे के लिए कि, क्या एक विधान मंडल ने दूसरे के विधान मंडल के क्षेत्र में अतिक्रमण किया है? न्यायालयों की व्यवस्था की गयी है और विधान मंडलों द्वारा पारित किए गए अधिनियम की विधि मान्यता का अवधारण करने के लिए न्यायालयों में न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति निहित की गई है।  न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति केवल इस बात का विनिश्चय करने तक सीमित नहीं है कि, क्या अपेक्षित विधियां बनाने में विधान मंडलों ने अपने निश्चित विधायी सूचियों की परिधि के भीतर काम किया है बल्कि न्यायालय इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि, क्या विधियां संविधान के अनुच्छेदों के अनुरूप बनाई गई हैं और उनमें संविधान के अन्य उपबंधों का उल्लंघन तो नहीं होता है। इस प्रकार न्यायिक पुनर्विलोकन हमारी संविधानिक पद्धति का एक अभिन्न अंग बन गया है। 

  अमेरिका के संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन से संबंधित कोई स्पष्ट उपबंध नहीं है परन्तु अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की व्याख्या द्वारा विधान मंडल द्वारा निर्मित कानून की वैधता को जांचने की विस्तृत शक्ति को स्वयं धारण किया है। यह महत्वपूर्ण सिद्धांत मारवाड़ी बनाम मेडिसन के प्रमुख वाद में चीफ जस्टिस मार्शल द्वारा पारित किया गया था। न्यायालय का निर्णय सुनाते हुए उन्होंने कहा था कि, संविधान देश की सर्वोच्च विधि होता है। इसमें परिवर्तन एक विशेष प्रक्रिया द्वारा ही किया जा सकता है। अन्य सभी विधियां संविधान के अधीन होती हैं और उनमे आसानी से परिवर्तन किए जा सकते हैं। जिन लोगों ने लिखित संविधान की रचना की थी, उनकी निसंदेह रूप से यह धारणा थी कि संविधान देश की मूल और सर्वोच्च विधि हो। इस सिद्धांत का स्वाभाविक परिणाम होता है कि विधान मंडल द्वारा निर्मित वे विधियां जो संविधान के उपबंधों के विरुद्ध हैं, अवैध घोषित की जा सकती हैं। संविधान के विरुद्ध विधियों को अवैध घोषित करने की शक्ति किसे होगी ? इस बात पर न्यायालय ने कहा कि यह सत्य निसंदेह रूप से न्यायपालिका को ही होगी। 

मूल अधिकार: राज्य के विरुद्ध संरक्षण || Fundamental Rights: Protection against the state

मूल अधिकार: राज्य के विरुद्ध संरक्षण





मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध संरक्षण हैं-  

मूल अधिकारों का जन्म जनता और राज्य शक्ति के बीच संघर्ष का परिणाम है। व्यक्ति अपने अधिकारों की संवैधानिक सुरक्षा राज्य शक्ति के विरुद्ध ही आवश्यक समझता है।  राज्य शक्ति के समक्ष वह कमजोर होता है। भारतीय संविधान के भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकार राज्य शक्ति के विरुद्ध गारंटी किए गए हैं ना कि सामान्य व्यक्तियों के अवैध कृतियों के विरुद्ध। व्यक्तियों के अनुचित कृत्यों के विरुद्ध साधारण विधि में अनेक उपचार उपलब्ध हैं। इसके अलावा वह और दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध उतना असहाय और अशक्त नहीं होता है जितना कि राज्य-शक्ति  के विरुद्ध। पी. डी. शामदासिनी बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के मामले में, सेंट्रल बैंक के अधिकारियों ने अपने एक कर्मचारी की संपत्ति जप्त करने का आदेश जारी किया। कर्मचारी ने संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय में एक याचिका प्रस्तुत की, जिसमें उसने यह कहा कि बैंक के कार्यों के फलस्वरुप वह अनुच्छेद 19 और 31 में दिए गए अपने संपत्ति के अधिकार से वंचित किया जा रहा है। अतः न्यायालय को समुचित लेख जारी करके बैंक को ऐसा करने से रोकना चाहिए। न्यायालय ने उसकी याचिका को खारिज कर दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 19 तथा 31 में निहित संरक्षण व्यक्तियों के अनुचित कार्यों के विरुद्ध नहीं प्राप्य हैं, वरन राज्य शक्ति के विरुद्ध प्राप्य हैं। किसी अन्य व्यक्ति द्वारा मूल अधिकारों के अतिलंघन करने का उपचार साधारण विधि में खोजे जाने चाहिए संविधान में नहीं। क्योंकि सेंट्रल बैंक एक व्यक्ति है, इसलिए उसके कार्यों के विरुद्ध उपचार साधारण विधि में खोजा जाना चाहिए। किंतु यदि किसी व्यक्ति का कार्य राज्य द्वारा समर्थित है, तो उससे पीड़ित व्यक्ति उस  कार्य की संवैधानिकता को चुनौती दे सकता है।

राज्य ( The State ) शब्द की परिभाषा अनुच्छेद 12-

जैसा कि विदित है, संविधान के भाग 3 में निहित मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध प्राप्त हैं। अनुच्छेद 12 संविधान के भाग 3 के प्रयोजन के लिए राज्य शब्द की परिभाषा करता है। यह परिभाषा संविधान के अन्य अनुच्छेद में प्रयुक्त राज्य शब्द पर लागू नहीं होती है, जैसे- अनुच्छेद 31 में प्रयुक्त राज्य शब्द।  अनुच्छेद 12 के अनुसार राज्य शब्द के अंतर्गत निम्नलिखित शामिल हैं:
1-  भारत सरकार एवं संसद,
2-  राज्य सरकार एवं विधान मंडल,
3-  सभी स्थानीय  और अन्य प्राधिकारी जो भारत में है या भारत सरकार के अधीन है,


प्राधिकारी ( Authorities )-

  साधारण अर्थ में प्राधिकारी शब्द का अर्थ उस व्यक्ति या निकाय से है, जो शक्ति का प्रयोग करते हैं। किंतु अनुच्छेद 12 के संदर्भ में, प्राधिकारी शब्द का अर्थ है जिन्हें विधि, उपविधि, आदेश, अधिसूचना आदि के निर्माण या जारी करने की शक्ति होती है और साथ ही प्रवर्तित करने की भी शक्ति होती है।  यदि किसी अधिकारी को ऐसी शक्ति प्राप्त है तो वह राज्य शब्द की परिभाषा में के अंतर्गत आता है। उदाहरण के लिए, केशव बनाम लोक सेवा आयोग ऑफ मैसूर में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि लोक सेवा आयोग राज्य शब्द के अंतर्गत ऐसा प्राधिकारी नहीं है, क्योंकि वह राज्य सरकार द्वारा निर्दिष्ट किए बगैर स्वयं अपने निर्णय को कार्यान्वित करने की शक्ति नहीं रखता है। उसे संविधान के द्वारा ऐसी शक्ति प्राप्त नहीं है कि वह अपने कार्यों को स्वतंत्र रूप से कार्यान्वित कर सके।

स्थानीय प्राधिकारी ( Local Authorities ) -

स्थानीय प्राधिकारी शब्द के अंतर्गत नगर पालिकाएं, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, पंचायत, इंप्रूवमेंट ट्रस्ट, माइनिंग सेटेलमेंट बोर्ड, आदि संस्थाएं आती हैं। मोहम्मद यामीन बनाम टाउन एरिया कमेटी के वाद में शहर की न्यायपालिका ने थोक विक्रेताओं के ऊपर निश्चित बिक्रीकर लगाया, उसे एक उपविधि के अंतर्गत ऐसा प्राधिकार प्राप्त था। उच्चतम न्यायालय ने नगरपालिका को अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त राज्य शब्द के अंतर्गत माना और यह निर्णय दिया कि उसका कर लगाने का आदेश अवैध है, क्योंकि वह अनुच्छेद 19 1 (3) में दिए गए मूल अधिकार का अतिक्रमण करता है। इसी प्रकार श्रीराम बनाम दि नोटिफाइड एरिया कमिटी के वाद में न्यायालय ने उत्तर प्रदेश नगर पालिका अधिनियम 1916 की धारा 294 के अंतर्गत लगाए गए कर को अवैध घोषित कर दिया है।