भारत के संविधान में स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 19-22: बोलने की स्वतंत्रता आदि के संबंध में कुछ अधिकारों का संरक्षण | Right to freedom, Article 19, Protection of certain rights regarding freedom of speech, etc.

भारत के संविधान में स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 19-22: बोलने की स्वतंत्रता आदि के संबंध में कुछ अधिकारों का संरक्षण | Right to freedom, Article 19, Protection of certain rights regarding freedom of speech, etc.



इस पोस्ट में आपको अनुच्छेद 19 में क्या लिखा हुआ है? अनुच्छेद 19 में कितने प्रकार की स्वतंत्रता है? अनुच्छेद 19 कब निलंबित होता है? भारतीय संविधान के भाग 19 में क्या है? अनुच्छेद 19 में कितने अधिकार है? आदि इन सब प्रश्नो के उत्तर जानने को मिलेंगे

स्वतन्त्रता का अधिकार: वैयक्तिक स्वतन्त्रता के अधिकार का स्थान मूल अधिकारों में सर्वोच्च माना जाता है। "स्वतन्त्रता ही जीवन है" इस अधिकार के अभाव में मनुष्य के लिए अपने व्यक्तित्व का विकास करना सम्भव नहीं है। भारतीय संविधान के अनु० 19 से 22 तक में भारत के नागरिकों को स्वतन्त्रता सम्बन्धी विभिन्न अधिकार प्रदान किये गये हैं। ये चारों अनुच्छेद दैहिक स्वतन्त्रता के अधिकार-पत्र स्वरूप हैं। उपर्युक्त स्वतन्त्रताएँ मूल अधिकारों के आधार स्तम्भ हैं। इनमें से सात मूलभूत स्वतन्त्रताओं का स्थान सर्वप्रमुख है। अनु० 19 भारत के सब 'नागरिकों' को निम्नलिखित सात स्वतन्त्रताएँ प्रदान करता है- (क) वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रताः (ख) सभा करने की स्वतन्त्रता; (ग) संघ बनाने की स्वतन्त्रताः (घ) भ्रमण की स्वतन्त्रता; (ङ) आवास की स्वतन्त्रता (च) सम्पत्ति अर्जन, धारण और व्ययन की स्वतन्त्रता (44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा निरस्त) (छ) पेशा, व्यवसाय, वाणिज्य एवं व्यापार की स्वतन्त्रता। 

अनु० 19 द्वारा प्रदत्त अधिकार केवल 'नागरिकों' को प्राप्त हैं- अनुच्छेद 19 में 'नागरिक' शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इसमें प्रदत्त स्वतन्त्रताएँ केवल भारत के नागरिकों को ही उपलब्ध हैं; किसी विदेशी को नहीं।'  इसी प्रकार एक कम्पनी भी नागरिक नहीं है अतएव वह अनु० 19 में प्रदत्त अधिकारों का दावा नहीं कर सकती है। 'नागरिक' शब्द से केवल मनुष्य मात्र का बोध होता है, कृत्रिम व्यक्ति का नहीं जैसे कि कम्पनी।
जैसा कि विदित है, उपर्युक्त स्वतन्त्रताएँ आत्यन्तिक (absolute) नहीं है। किसी भी देश में नागरिकों के अधिकार असीमित नहीं हो सकते हैं। एक व्यवस्थित समाज में ही अधिकारों का अस्तित्व हो सकता है। नागरिकों को ऐसे अधिकार नहीं प्रदान किये जा सकते जो समस्त समुदाय के लिए अहितकर हों। यदि व्यक्तियों के अधिकारों पर समाज अंकुश न लगाये तो उसका परिणाम विनाशकारी होगा। स्वतन्त्रता का अस्तित्व तभी सम्भव है जब वह विधि द्वारा संयमित हो। अपने अधिकारों के प्रयोग में हम दूसरों के अधिकारों पर आघात नहीं पहुँचा सकते हैं। ए० के० गोपालन के मामले में न्यायाधिपति श्री पतंजलि शास्त्री ने यह अवलोकन किया है कि "मनुष्य एक विचारशील प्राणी होने के नाते बहुत सी चीजों के करने की इच्छा करता है, लेकिन एक नागरिक समाज में उसे अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित करना पड़ता है और दूसरों के अधिकारों का आदर करना पड़ता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए संविधान के अनु० 19 (2) से (6) तक में युक्तियुक्त निर्बन्धन की व्यवस्था की गयी है। इनके अस्तर्गत यदि राज्य लोकहित में आवश्यक समझता है तो नागरिकों की स्वतन्त्रताओं पर निर्बन्धन लगा सकता है, लेकिन शर्त यह है कि निर्बन्धन युक्तियुक्त हो। युक्तियुक्त निर्बन्धन के लिए दो शर्तें आवश्यक हैं-

1-निर्बन्धन केवल अनु० 19 के खंड (2) से (6) के अन्तर्गत उल्लिखित आधारों पर ही लगाये जा सकते हैं। 2- निर्बन्धन युक्तियुक्त होना चाहिये। युक्तियुक्त निर्बन्धन की कसौटी (Reasonable Restriction): 'युक्तियुक्त' निर्बन्धन क्या है, यह एक कठिन प्रश्न है। निर्बन्धनों की युक्तियुक्तता का निर्धारण करना न्यायालयों का कार्य है। इस प्रकार 'युक्तियुक्त' शब्द न्यायालयों के पुनर्विलोकन की शक्ति को अत्यन्त विस्तृत कर देता है। इस प्रश्न पर विधानमण्डल का निर्णय अंतिम नहीं है। वह न्यायिक निरीक्षण के अधीन है। किन्तु निर्वन्धनों की युक्तियुक्तता को जाँचने के लिए कोई निश्चित कसौटी नहीं है। इस बात का निर्णय प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर ही किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने कुछ सामान्य नियम स्थापित किये हैं जिनके आधार पर निर्बन्धनों की युक्तियुक्तता की जाँच की जाती है। वे इस प्रकार हैं- (1) कोई निर्बन्धन युक्तियुक्त है या नहीं, इस प्रश्न पर अन्तिम निर्णय देने की शक्ति न्यायालयों को है, विधानमण्डल को नहीं।"

2- नागरिकों के अधिकारों पर लगाये गये निर्बन्धन अन्यायपूर्ण या सामान्य जनता के हितों में जितना अपेक्षित हैं उससे अधिक नहीं होना चाहिए। व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास होना चाहिए। आवश्यक है कि लगाये गये निर्बन्धनों और उस उद्देश्य में तर्कसंगत सम्बन्ध हो जिसे कानून बनाकर विधानमण्डल प्राप्त करना चाहता है।" यह कानून को स्वेच्छाचारी और आवश्यकता से अधिक निर्बन्धन लगाने की अनुमति देता है, अतः अवैध घोषित किया जा सकता है।

(3) युक्तियुक्तता का कोई निश्चित या सामान्य मानदण्ड निर्धारित नहीं किया जा सकता जो सभी मामलों में सामान्य रूप से लागू हो सके। इसका निर्धारण प्रत्येक वाद के तथ्यों के आधार पर ही किया जाता है। यह मानदण्ड उस अधिकार की प्रकृति जिसका उल्लंघन किया गया है, लगाये गये निर्बन्धनों के अन्तर्निहित प्रयोजन, बुराई की मात्रा और उसके दूर करने की अनिवार्यता, निर्बन्धन लगाने के अनुपात में भिन्नता, समकालीन परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है। न्यायिक निर्णय के लिए इन सभी बातों पर विचार करना आवश्यक है।

(4) निर्बन्धनों को मौलिक विधि और प्रक्रियात्मक विधि दोनों दृष्टिकोण से युक्तिसंगत होना चाहिये। इसलिए न्यायालय को प्रतिबन्धों की केबल अवधि और मात्रा ही नहीं, वरन् उनकी परिस्थितियों और उनको लागू करने के लिए प्राधिकृत किये गये ढंग पर भी विचार करना चाहिये।

(5) राज्य की नीति के निदेशक तत्वों में निहित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए लगाये गये निर्वन्धन युक्तियुक्त निर्बन्धन माने जा सकते हैं।
(6) निर्बन्धनों की युक्तियुक्तता के निर्धारण में न्यायालयों का दृष्टिकोण वस्तुनिष्ठ (objective) होना चाहिए, व्यक्तिनिष्ठ (subjective) नहीं। युक्तियुक्तता का मानदण्ड एक औसत विवेकशील व्यक्ति का मानदण्ड है, न कि जिसे न्यायालय युक्तियुक्त मानता है। उच्चतम न्यायालय ने इसी दृष्टि से न्यायाधीशों की युक्तियुक्तता के निर्धारण में अपनी सामाजिक और आर्थिक विचारधारा प्रेरित न होने की चेतावनी दी है। न्यायालय ने कहा है कि यद्यपि इस बात के निर्धारण करने में कि क्या युक्तियुक्त है, न्यायाधीशों के व्यक्तिगत, सामाजिक दर्शन और मान्यताओं का बहुत बड़ा हाथ होता है इन मामलों में वे अपनी दायित्व की भावना और आत्मनियंत्रण द्वारा वैधानिक निर्णय में हस्तक्षेप को सीमित कर सकते हैं। उन्हें यह भली-भाँति समझना चाहिये कि संविधान केवल उनको विचारधारा वाले लोगों के लिए नहीं बनाया गया है वरन् सभी के लिये बनाया गया है और जनता के प्रतिनिधियों ने प्रतिवन्धों को युक्तियुक्त समझकर ही लगाया होगा।

(7) निर्बन्धनों को युक्तिसंगत बनाने के लिए उनमें और उस उद्देश्य में जिसे विधायिका कानून बनाकर प्राप्त करना चाहती है, एक विवेकपूर्ण सम्बन्ध होना चाहिए।

8) अनुच्छेद 19 (1) में दिये गये अधिकारों पर लगाये गये प्रतिवन्ध केवल अनुच्छेद 19 के खंड (2) से (6) के अन्तर्गत उल्लिखित आधारों पर हो लगाये जा सकते हैं। इससे अन्य किसी आधार पर लगाये गये प्रतिबन्ध असंवैधानिक होंगे।

(9) न्यायालयों का कार्य केवल निर्बन्धनों की युक्तियुक्तता का निर्माण करना है, कानून की युक्तियुक्तता का निर्धारण करना नहीं। न्यायालय को केवल यही देखना है कि नागरिकों के अधिकारों पर लगाये गये प्रतिबन्ध युक्तियुक्त है या नहीं। उनका कार्य यह देखना नहीं है कि अधिनियम में कार्यपालिका अधिकारियों को दिये गये अधिकारों के दुरुपयोग के विरुद्ध समुचित संरक्षण की व्यवस्था है या नहीं। कार्यपालिका अधिकारियों द्वारा अपनी शक्ति के दुरुपयोग की सम्भावना मात्र ही प्रतिबन्धों की युक्तियुक्तता के निर्धारण की कसौटी नहीं है।*

(10) युक्तियुक्त निर्बन्धन "निषेधात्मक (prohibitive) भी हो सकते हैं। कुछ विशेष परिस्थितियों में नागरिकों के अधिकार पर पूर्ण रोक केवल युक्तियुक्त निर्वन्धन माना जाता है। इस प्रकार खतरनाक व्यापारों के मामले में, जैसे शराब, नशीले पौधे उगाना, औरत का व्यापार करना, उस पूरे ब्यापार को देना युक्तियुक्त प्रतिबन्ध होगा। प्रत्येक नागरिक को किसी भी विधिपूर्ण वाणिज्य या व्यापार करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। किन्तु इन अधिकारों का प्रयोग उसे युक्तियुक्त प्रतिबन्धों के अधीन करना होता है और उन पर ऐसे प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं जिसे सरकार समाज को सुरक्षा, शान्ति-व्यवस्था एवं नैतिकता इत्यादि के लिये आवश्यक समझती है। लेकिन जहाँ प्रतिवन्ध निषेध की सीमा तक पहुँच जाता है, वहाँ न्यायालयों को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि युक्तियुक्त निर्वन्धन के मानदंड को पूरा किया गया है या नहीं।

FAQ:
    Q. अनुच्छेद 19 में क्या लिखा हुआ है?
    Q. अनुच्छेद 19 में कितने प्रकार की स्वतंत्रता है?
    Q. अनुच्छेद 19 कब निलंबित होता है?
    Q. भारतीय संविधान के भाग 19 में क्या है?
    Q. अनुच्छेद 19 में कितने अधिकार है?

                                                                                                                                                क्रमशः.......

समता का अधिकार, अनुच्छेद 18, उपाधियों का अन्त | Article 18 of Indian Constitution in Hindi

समता का अधिकार, अनुच्छेद 18, उपाधियों का अन्त | Article 18 of Indian Constitution in Hindi



अनुच्छेद 18 राज्य के किसी भी व्यक्ति, चाहे वह नागरिक हो या विदेशी, की उपाधियाँ प्रदान करने से मना करता है। इस प्रकार यह अनुच्छेद भारत में ब्रिटिश शासनकाल में प्रचलित सामंतशाही परम्परा का अन्त करता है। किन्तु अनु० 18 सेना या विद्या सम्बन्धी उपाधियों को प्रदान करने की अनुमति देता है, क्योंकि उनसे व्यक्तियों में देश की सैनिक शक्ति को मजबूत करने तथा देश की प्रगति के लिए आवश्यक वैज्ञानिक विकास करने का प्रोत्साहन मिलता है।


इस अनुच्छेद का खंड (2) भारत के किसी नागरिक को किसी विदेशी सरकार से कोई उपाधि स्वीकार करने से मना करता है। खंड (3) के अनुसार कोई विदेशी व्यक्ति जो राज्य के अधीन किसी विश्वसनीय पद पर है, बिना राष्ट्रपति की सम्मति के किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता है। यह राज्य प्रशासन से सम्बन्धित मामलों पर से सभी प्रकार के विदेशी प्रभाव को समाप्त करता है और व्यक्ति में भारत के प्रति निष्ठा की भावना का सृजन करता है।

खण्ड (4) यह उपबन्धित करता है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह नागरिक हो या विदेशी जो राज्य के अधीन किसी विश्वसनीय पद पर है, किसी विदेशी राज्य से बिना राष्ट्रपति की सम्मति के कोई उपहार, उपाधि, वृत्ति अथवा पद स्वीकार नहीं कर सकता है।

भारत सरकार प्रत्येक वर्ष गणतन्त्र दिवस पर अपने नागरिकों को 'भारत रत्न', पद्म विभूषण', 'पद्मश्री' आदि उपाधियों से विभूषित करती है। ये उपाधियां उन्हें जीवन के विभिन्न क्षेत्र में विशिष्ट योगदान देने पर प्रदान की जाती हैं।

अनुच्छेद 18 के उपबन्धों की अवहेलना करने वालों के लिए संविधान में किसी दंड व्यवस्था का उपबन्ध नहीं है। यह अनुच्छेद केवल निदेशात्मक है, आदेशात्मक नहीं। किन्तु संसद् को कानून बनाकर इन उपबन्धों की अवहेलना करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था करने की पूर्ण शक्ति प्राप्त है।


समता का अधिकार | अनुच्छेद 17 | अस्पृश्यता का अन्त

समता का अधिकार | अनुच्छेद 17 | अस्पृश्यता का अन्त



        अनुच्छेद 17, अस्पृश्यता का अन्त: अस्पृश्यता का अन्त का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।        अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करता है और उसका किसी भी रूप में पालन करने का निषेध करता है। यह अस्पृश्यता से  उत्पन्न किसी अयोग्यता को लागू करने को दंडनीय अपराध घोषित करता है। इस प्रकार संविधान भारतीय समाज के परम्परागत रूप से चले आ रहे इस महान कलंक को केवल समाप्त करने की ही घोषणा नहीं करता, वरन् भविष्य में इसके किसी भी रूप में पालन करने को भी मना करता है।
        अनुच्छेद 17 और 35 के अधीन प्राप्त अपनी शक्ति के प्रयोग में संसद् ने सन् 1955 में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 पारित किया था। यह अधिनियम अस्पृश्यता के अपराध के लिए दंड की व्यवस्था करता है। इसके अनुसार अस्पृश्यता के अपराध के लिए अधिकतम 500 रुपया जुर्माना या 6 माह की सजा या दोनों सजायें साथ-साथ दी जा सकती हैं। 1955 के अस्पृश्यता अधिनियम में अस्पृश्यता (अपराध) संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा संशोधन करके अस्पृश्यता के पालन करने के लिए विहित दंड को और कठोर बना दिया गया है। इसके नाम को बदलकर प्रोटेक्शन आफ सिविल राइट एक्ट (Protection of Civil Rights Act) कर दिया गया है। इसके अधीन लोकसेवकों का यह कर्त्तव्य होगा कि उक्त अपराधों की जांच करें। यदि कोई लोकसेवक उक्त अधिनियम के अधीन किये गये अपराधों की जांच करने में जानबूझकर उपेक्षा करता है तो यह माना जायेगा कि वह ऐसे अपराध को उत्प्रेरित करता है।
        न तो अनुच्छेद 17 और न ही अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 में 'अस्पृश्यता' की कोई परिभाषा दी गयी है। किन्तु मैसूर उच्च न्यायालय ने अपने एक विनिश्चय में इसके अर्थ को स्पष्ट किया है। न्यायालय ने कहा है कि इस शब्द का शाब्दिक अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिये। शाब्दिक अर्थ में व्यक्तियों को कई कारणों से अस्पृश्य माना जा सकता है जैसे जन्म, रोग, मृत्यु एवं अन्य कारणों से उत्पन्न अस्पृश्यता। इसका अर्थ उन सामाजिक कुरीतियों से समझना चाहिये जो भारतवर्ष में जाति-प्रथा के संदर्भ में परम्परा से विकसित हुई हैं। अनुच्छेद 17 इसी सामाजिक बुराई का निवारण करता है जो जाति-प्रथा की देन है, न कि शाब्दिक अस्पृश्यता का। देखिये- देवराजी बनाम पद्मन्ना 1 का विनिश्चय।


समता का अधिकार | अनुच्छेद 16 | लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता का अधिकार

समता का अधिकार | अनुच्छेद 16 | लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता का अधिकार



        अनुच्छेद 16 यह उपबन्धित करता है कि राज्याधीन नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी। राज्याधीन नौकरी या पद के विषय में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, वंशक्रम, जन्म-स्थान, निवास के आधार पर किसी नागरिक को अपात्र नहीं समझा जायगा और न ही विभेद किया जायगा। अवसर की समानता के सामान्य नियम के तीन अपवाद हैं जो खंड 3, 4, 5 में उल्लिखित हैं।

        ध्यान रहे कि अनु० 16 केवल राज्य के अधीन नौकरियों में अवसर की समानता का अधिकार प्रदान करता है। गैर-सरकारी नौकरियों में यह अधिकार नहीं प्राप्त है। यह संविदा सम्बन्धी सेवाओं के मामले में लागू नहीं होता है। उदाहरण के लिए, एस० के० अच्युतन बनाम केरल राज्य के मामले में प्रार्थी को सरकारी अस्पतालों में दूध आपूर्ति करने का ठेका सरकार ने दिया था, किन्तु बाद में यह रद्द कर दिया गया और दूसरों को दे दिया गया जो सरकार की सहकारी दुग्ध संस्था थी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि सरकार उत्तरदायी नहीं है, क्योंकि ठेकेदार को ठेका संविदा अधिनियम के अन्तर्गत दिया गया था, वह कोई लोक-सेवक नहीं था। किसी व्यक्ति को ठेका देना अनु० 16 के अर्थान्तर्गत नियोजन नहीं माना जाता है।
        अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत राज्याधीन नौकरियों के मामले में अवसर की समानता का तात्पर्य यह है कि एक वर्ग के कर्मचारियों को समानता का अवसर प्रदान करना न कि पृथक् एवं स्वतन्त्र वर्गों के कर्मचारियों को समानता प्रदान करना। यह अनुच्छेद यह अपेक्षा करता है कि प्रत्येक नागरिक को उसकी योग्यता एवं प्रतिभा के आधार पर राज्य के अधीन नौकरियों में नियुक्ति के लिए समान अवसर प्रदान किया जायगा।         ध्यान रहे कि अवसर की समता का तात्पर्य अर्हताओं या मानदण्डों का उन्मूलन नहीं है। अनु० 16 राज्य को पूर्ण अधिकार देता है कि वह लोक-सेवाओं के लिए आवश्यक अर्हताओं एवं मानदण्डों को निर्धारित कर सके। राज्य द्वारा निर्धारित अर्हताओं में मानसिक योग्यता के अतिरिक्त शारीरिक पुष्टि, अनुशासन, नैतिक स्तर और जनहित आदि भी सम्मिलित हैं। जिन नौकरियों में तकनीकी ज्ञान आवश्यक है, उनके लिए तकनीकी अर्हतायें निर्धारित की जा सकती है। प्रत्याशियों के पूर्व चरित्र आदि के बारे में भी विचार किया जा सकता है तथा उनमें अनुशासन बनाये रखने के लिए आवश्यक नियम भी बनाये जा सकते हैं। किन्तु शर्त यह है कि चयन की कसौटी मनमाने ढंग की न हो। निर्धारित मानदण्ड और पद या नियुक्ति में युक्तियुक्त सम्बन्ध का होना आवश्यक है। पद की प्रकृति के अनुसार ही अर्हता का मानदण्ड निर्धारित किया जाना चाहिये; उदाहरण – मैसूर राज्य बनाम पी० नरसिंहराव का निर्णय।
        पाण्डुरंग बनाम आन्ध्र प्रदेश लोक सेवा आयोग के मामले में पिटीशनर आन्ध्र प्रदेश के चुनाव के गुण्टूर जिले में वकालत करता था। वह मुन्सिफ के पद के लिए एक प्रत्याशी था जिसके लिए लोक सेवा आयोग ने आवेदन-पत्र आमन्त्रित किया था। विज्ञापन में इस पद के लिए जिन अर्हताओं का उल्लेख था, उनमें से दो इस प्रकार थीं-
    1- क्षेत्रीय विधि का ज्ञान आवश्यक है, तथा
    2- आवेदन-पत्र देने के समय प्रत्याशी आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में वकालत कर रहा हो।
        पिटीशनर इस पद के लिए अपेक्षित सभी अर्हतायें रखता था, किन्तु वह आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में वकालत नहीं कर रहा था। लोक सेवा आयोग ने उसके आवेदन-पत्र को इस आधार पर अस्वी- कार कर दिया था क्योंकि वह आन्ध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय में वकालत नहीं कर रहा था। उच्चतम न्यायालय ने इस नियम को तथा उसके अन्तर्गत जारी की गयी अधिसूचना को असंवैधानिक घोषित कर दिया, क्योंकि उपर्युक्त अर्हता में उच्च न्यायालय में वकालत करना और प्रत्याशी द्वारा क्षेत्रीय विधियों के ज्ञान के उद्देश्य के बीच कोई युक्तिसंगत संबंध नहीं था। क्षेत्रीय विधियों का ज्ञान किसी भी न्यायालय में वकालत करने वाले वकील द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार असद्भावपूर्ण कार्रवाई के आधार पर किये गये विभेद से भी अनुच्छेद 16 का अतिक्रमण होता है। प्रादेशिक प्रबन्धक बनाम पवनकुमार के मामले में प्रत्यर्थी के स्थानापन्न पद से अपने अधिष्ठायी पद पर प्रतिवर्तित कर दिया गया था। प्रतिवर्तित करने वाले आदेश में प्रतिवर्तन का कारण यह बताया गया था कि वह उच्चतर पद पर कार्य करने के योग्य नहीं है। प्रत्यर्थी से कनिष्ठ व्यक्ति भी उच्चतर पदों पर स्थानापन्न रूप में कार्य कर रहे थे। प्रतिवर्तन आदेश में एक ओर तो उसके द्वारा किये गये सराहनीय कार्य की प्रशंसा की गई थी और दूसरी ओर उसकी बहुत ही अस्पष्ट शिकायतें और प्रतिकूल टिप्पणियां भी की गई थीं। प्रत्यर्थी को अपनी सफाई प्रस्तुत करने का कोई अवसर नहीं दिया गया था। उच्चतम न्यायालय निर्णय दिया कि असद्भावनापूर्ण कार्रवाई के आधार पर किया गया प्रतिवर्तन का आदेश अनुच्छेद 16 का अतिक्रमण करता है क्योंकि प्रत्यर्थी के प्रतिवर्तन का कोई प्रशासनिक कारण नहीं बताया गया था।         लोक-सेवा में अवसर की समानता का अर्थ कर्मचारियों के एक वर्ग के सदस्यों के बीच समानता से है, पृथक् और स्वतन्त्र वर्ग के सदस्यों के बीच समानता से नही। आल इण्डिया स्टेशनमास्टर्स एसोसियेशन बनाम जनरल मैनेजर सेन्ट्रल रेलवे का वाद इसका अच्छा उदाहरण है। इस मामले में न्यायालय ने उस नियम को, जिसके अनुसार गार्डों की हायर ग्रेड स्टेशन मास्टर के पद पर रोड साइड स्टेशन मास्टरों की तुलना में पहले पदोन्नति हो जाती थी, संवैधानिक घोषित कर दिया। रोड साइड स्टेशन मास्टर और गार्डों की अलग-अलग भर्ती की जाती है, उसकी अलग- अलग ट्रेनिंग होती है और उनकी पदोन्नति के लिए अलग-अलग रास्ते हैं। इस प्रकार उनके दो भिन्न तथा पृथक् वर्ग होते हैं। अतः उनकी पदोन्नति के मामलों में अवसर की समानता या असमानता करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। कर्मचारियों के दो भिन्न तथा पृथक् वर्गों के लिये पदोन्नति के नियम भी दो प्रकार के होने चाहिये।

इस प्रकार अनु० 16 राज्य को लोक-सेवा में विभिन्न श्रेणियों की सृष्टि करने का भी अधिकार प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, 1944 में सरकार ने एक आदेश द्वारा आयकर सेवाओं का पुनर्गठन किया और आयकर अफसरों की एक श्रेणी के स्थान पर दो श्रेणियां बना दी गयीं। इनमें से एक प्रथम श्रेणी हुई और दूसरी द्वितीय श्रेणी। द्वितीय श्रेणी में वे अफसर रखे गये जो उस समय आयकर अफसर थे। नियम के अनुसार प्रथम श्रेणी के आयकर अफसर, सहायक कमिश्नर के पद पाने योग्य थे। किन्तु द्वितीय के श्रेणी के आयकर अफसर ऐसे पद पर तरक्की से पहले प्रथम श्रेणी के अफसर पद पर पहुँचने के बाद ही पा सकते थे। प्रार्थी ने इस नियम को अनु० 16 के विरुद्ध बताया, क्योंकि इस नियम के अन्तर्गत प्रथम श्रेणी के अफसरों की सीधे उच्चतर पदों पर पदोन्नति हो जाती है, किन्तु द्वितीय श्रेणी के अफसरों को उच्चतर पदों पर पदोन्नति के समान अवसर के अधिकार से वंचित कर दिया गया था। अतः यह अनु० 16 का उल्लंघन करता है। उच्चतम न्यायालय ने प्रार्थी की इस दलील को अस्वीकार करते हुए नियम को संवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि अनु० 16 का उल्लंघन तब होता है जब एक श्रेणी में विभिन्न पदों को धारण करने वाले व्यक्तियों के बीच पदोन्नति के लिए अवसर की अस- मानता बरती जाती है, किन्तु विभिन्न श्रेणी के पदों को धारण करने वाले व्यक्ति पदोन्नति के समान अवसर का दावा नहीं कर सकते हैं। प्रस्तुत मामले में अफसरों की दो पृथक् श्रेणियाँ हैं, अतः उनकी पदोन्नति के लिए अलग-अलग नियमों का होना अनु० 16 का अतिक्रमण नहीं है, देखिये- किशोरी बनाम भारत संघ, पंजाब राज्य बनाम जोगिन्दर सिंह,  व्यम्बक लाल बनाम भारत संघ और श्याम सुन्दर बनाम भारत संघ के निर्णयों को।         अनुच्छेद 16 (1) केवल प्रारम्भिक नियुक्तियों के मामले में ही नहीं, वरन् पदोन्नति आदि के मामले में भी लागू होता है। अनु० 16 (1) में प्रयुक्त 'नियोजन से संबंधित मामले' पदावली यह दर्शित करती है कि इस अनुच्छेद का विस्तार केवल 'प्रारम्भिक नियुक्तियों' के मामलों तक ही सीमित नहीं है, वरन् इसमें नियुक्ति संबंधी अनुवर्ती बातें भी सम्मिलित हैं, जैसा पदोन्नति, पदच्युति, वेतन, पदोत्तर, अवकाश, ग्रेच्युटी, पेन्शन और अधिवार्षिकी भत्ता आदि।

अनुच्छेद 16 के अधीन अनिवार्य सेवानिवृत्ति के लिए युक्तियुक्त नियमों का विहित किया जाना प्रतिषिद्ध नहीं करता है। सरकारी सेवा से अनिवार्य सेवानिवृत्ति अनुज्ञात करने वाले नियमों की विधिमान्यता के सम्बन्ध में विधि इस न्यायालय के पूर्ववर्ती विनिश्चय द्वारा सुस्थापित है। लोकहित में अनिवार्य सेवानिवृत्ति का उपबंध सभी सरकारी सेवकों को लागू होता है और इसलिए अनुच्छेद 16 के अधीन इसे चुनौती नहीं दी जा सकती है, देखिये- राधाकृष्ण नायडू बनाम आन्ध्र प्रदेश सरकार।

अनुच्छेद 16, खंड (2) वंशक्रम और निवास-स्थान

        अनुच्छेद 16 (2) में सामान्य आधारों के अलावा दो अतिरिक्त आधार 'वंशक्रम' और 'निवास स्थान' भी सम्मिलित किये गये हैं जो अनुच्छेद 15 में नहीं हैं। इस अर्थ में अनु० 16 का क्षेत्र अनु० 15 से अधिक विस्तृत है। लोक सेवाओं के मामले में उपर्युक्त आधारों पर कोई विभेद नहीं किया जायगा। इस उपबन्ध को संविधान में समाविष्ट करने का मुख्य उद्देश्य सरकारी सेवाओं के मामलों में प्रान्तीयतावाद और भाईभतीजावाद की भावना को सर्वदा के लिए समाप्त कर देना था। मद्रास मद्रासियों के लिये, बंगाल बंगालियों के लिये, कर्नाटक कन्नड़ वालों के लिये आदि प्रान्तीयतावाद के नारे देश की एकता के लिये घातक हैं और सच्चे प्रजातंत्र के विकास के मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं। ये अनिष्टकारी विचार दासता काल के मुख्य लक्षण हैं। स्वतन्त्र भारत में ऐसे विचारों को कोई स्थान नहीं है और इन्हीं को समाप्त करने के लिये अनुच्छेद 16 (2) को संविधान में समाविष्ट किया गया है। अत्याचारपूर्ण असमानता के लिये 'वंशक्रम' का आधार एक कलंक है।

दशरथ रामाराव बनाम आन्ध्र प्रदेश के वाद में मद्रास वंशक्रमानुगत ग्रामपद अधिनियम, 1895 Madras Heredity Village Officers Act की संवैधानिकता को चुनौती दी गयी थी। इस अधिनियम की धारा 6 के अनुसार ग्राम मुन्सिफ के पद के लिये इस पद के अन्तिम धारक के परिवार के लोगों में से ही चुनाव करना आवश्यक था। उच्चतम न्यायालय ने इस धारा को अवैध घोषित कर दिया, क्योंकि यह केवल 'वंशक्रम' के आधार पर भेदभाव करती है जो अनुच्छेद 16 (2) द्वारा वर्जित है। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम के अनुसार ग्राम मुन्सिफ का पद राज्य के अधीन एक पद है क्योंकि इस पद पर नियुक्ति जिलाधीश द्वारा की जाती है और वेतन या भत्ते राज्य द्वारा दिये जाते हैं। अतः इस पद पर नियुक्ति केवल 'वंशक्रम' के आधार पर नहीं की जा सकती है।

अनुच्छेद 16 (3)

        अनुच्छेद 16 (3) अनुच्छेद 16 (2) का एक अपवाद प्रस्तुत करता है। खण्ड (2) 'निवास-स्थान' के आधार पर असमानता को वर्जित करता है। लेकिन सरकार कुछ सेवाओं को केवल राज्य के निवासियों के लिये आरक्षित कर सकती है, बशर्ते कि इसके लिए उचित कारण हो। यह अनुच्छेद संसद को प्राधिकृत करता है कि कानून द्वारा उस सीमा को निर्धारित करे जहाँ तक राज्य को उक्त नियम के पालन करने की छूट है। यदि किसी पद के लिये निवास स्थान की अर्हता के लिये कोई उचित कारण नहीं है तो उसके लिए ऐसी अर्हता को निहित करना अनु० 16 (3) का अतिक्रमण होगा। राज्य द्वारा इस अधिकार के दुरुपयोग को रोकने के लिए ही खण्ड (3) को संविधान में समाविष्ट किया गया है। इसी कारण यह शक्ति केवल संसद् को प्रदान की गयी है।

        अनुच्छेद 16 (3) के अन्तर्गत प्राप्त शक्ति के प्रयोग में संसद् ने पब्लिक एम्प्लायमेंट रिक्वायरमेंट ऐज टु रेजीडेन्स ऐक्ट, 1957 [Public Employment (Requirement as to Residence) Act, 1957] पारित किया है। यह अधिनियम उन सभी प्रवृत्त कानूनों को निरसित ( repeal) करता है जो लोक-सेवाओं के लिये राज्य या संघ क्षेत्र में 'निवास-स्थान' संबंधी योग्यता का विधान करते हैं। यह उपबंधित करता है कि कोई भी व्यक्ति लोक-सेवाओं पर नियुक्ति के लिये इस आधार पर अयोग्य नहीं होगा कि वह किसी विशेष राज्य का निवासी नहीं है। किन्तु यह अधिनियम हिमाचल प्रदेश, मनीपुर, त्रिपुरा और तेलंगाना आदि में लागू नहीं होगा, अर्थात् इन क्षेत्रों में 'निवास-स्थान' सरकारी नौकरियों पर नियुक्ति के लिये एक आवश्यक योग्यता हो सकती है। यह अपवाद प्रारम्भ में केवल पाँच वर्ष की अवधि के लिये था। लेकिन सन् 1969 में इस अधिनियम में संशोधन करके इस अवधि को बढ़ाकर सन् 1974 तक के लिये कर दिया गया। ऐसी छूट देने का मुख्य कारण इन क्षेत्रों का पिछड़ापन है।

        नरसिंह राव बनाम आंध्र प्रदेश के मामले में केन्द्रीय सरकार ने एक अधिनियम पारित किया जिसके अधीन आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र के लोक-पदों के लिये 'निवास-स्थान' की योग्यता निर्धारित की गयी थी। न्यायालय ने अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर दिया, क्योंकि यह पूरे राज्य में लागू नहीं होता था। अनुच्छेद 16 में प्रयुक्त 'राज्य' शब्द से तात्पर्य पूरे राज्य से है। अतः निवास-स्थान सम्बन्धी योग्यता राज्य भर के लिये होनी चाहिये, केवल एक भाग के लिये नहीं। यद्यपि संसद् कुछ लोकपदों को राज्य के निवासियों के लिये आरक्षित कर सकती है, लेकिन वह तेलंगाना क्षेत्र में केवल तेलंगाना के निवासियों के लिये आरक्षित नहीं कर सकती, जो उसी राज्य का एक भाग है।

अनुच्छेद 16 (4) पिछड़ी जातियों के लिये आरक्षण:

        अनुच्छेद 16 (4) इस अनुच्छेद 16 (1) और (2) का दूसरा अपवाद है। इसके अनुसार राज्य पिछड़ी जातियों के लिये, जिनको उसकी सम्पत्ति में लोक-सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है, लोकपदों को सुरक्षित रख सकती है । इस प्रकार खण्ड (4) में लागू होने के लिये दो शर्तें हैं-

    1-वर्ग पिछड़ा हो, अर्थात् सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से, और

    2-उसे राज्याधीन पदों पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिल सका हो । केवल दूसरी शर्त ही एकमात्र कसौटी नहीं हो सकती है।

        'पिछड़ापन' शब्द यहाँ उसी अर्थ में प्रयुक्त किया गया है जिस अर्थ में अनु० 15 (4) में | इस अर्थ में इसके अन्तर्गत सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक या किसी अन्य प्रकार का पिछड़ापन शामिल है। देखिये - बालाजी बनाम मैसूर राज्य' का निर्णय। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि समुदाय को विभिन्न वर्गों में बांटकर ऐसा विभेद किया जाय।
        'पिछड़ा वर्ग' की संविधान में कोई परिभाषा नहीं दी गई है। अनु० 340 राष्ट्रपति को पिछड़े वर्गों के अवधारण के लिए आयोग की स्थापना करने की शक्ति प्रदान करता है। आयोग इस बात की जाँच करके अपनी सिफारिश राष्ट्रपति को देगा कि कौन सा वर्ग पिछड़ा वर्ग की कोटि में आता है। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर सरकार पिछड़े वर्ग में आने वाले वर्गों को विनिर्दिष्ट करेगी। सरकार का निर्णय एक वाद योग्य विषय होगा अर्थात् न्यायालय इस बात की जाँच करेगा कि वर्गीकरण मनमाना तो नहीं किया गया है अथवा बोधगम्य सिद्धान्त पर आधारित है। राम कृष्ण सिंह बनाम मैसूर राज्य के वाद में मैसूर उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि सन् 1941 की जनगणना के आधार पर सन् 1959 में 'पिछड़े वर्गों' का अवधारण किये जाने का कोई औचित्य नहीं है और उसे किसी बोधगम्य सिद्धान्त पर आधारित नहीं कहा जा सकता है क्योंकि 1941 से 1959 की अवधि के बीच समाज में काफी परिवर्तन हो चुके हैं।         बालाजी के मामले में यह निर्णय दिया गया था कि 'जाति' को पिछड़ेपन के अवधारण की कसौटी नहीं बनाया जा सकता है। इसके लिये गरीबी, पेशा, जन्म-स्थान, सामाजिक विचारधारा, आर्थिक उन्नति के साधन, शिक्षात्मक प्रगति आदि सभी बातों पर विचार किया जाना चाहिये। कोई विशेष जाति पिछड़े वर्ग में आ सकती है यदि उस जाति के 90 प्रतिशत लोग सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हों। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि यदि एक बार किसी जाति को पिछड़े वर्ग की सूची में शामिल कर लिया गया है तो यह सर्वदा के लिये पिछड़ी जांति बनी रहेगी। सरकार को समय-समय पर पूर्ण विचार करते रहना चाहिये और यदि उसे यह समाधान हो जाता है कि कोई जाति विकास के उस स्तर पर पहुँच गई है जहाँ उसके लिये आरक्षण की आवश्यकता नहीं है तो उसे उस जाति को पिछड़े वर्ग की सूची से निकाल देना चाहिये।

        आरक्षण करते समय प्रशासनिक कार्यपटुता पर ध्यान रखना चाहिये - खण्ड (3) एक अपवाद है। इसका प्रयोग खण्ड (1) की गारण्टी को नष्ट करने के लिये नहीं किया जा सकता है। आरक्षण करते समय सरकार को प्रशासन में कार्यपटुता बनाये रखने पर ध्यान रखना चाहिये। आरक्षण को योग्यता और कार्य-कुशलता की उपेक्षा करने का आधार नहीं बनाया जा सकता है।

        'पिछड़े वर्गों' के लिये सरकारी सेवाओं में किया गया आरक्षण अयुक्तियुक्त नहीं होना चाहिये, अर्थात् लोक साधारण की नियुक्ति के अवसरों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।         देवदासन बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 16 (4) के क्षेत्र पर पूर्ण रूप से विचार करने का अवसर मिला। सरकार ने पिछड़ी जातियों के लिये लोकपदों के आरक्षण के लिए एक नियम बनाया था जिसको अग्रनयन नियम (carry forward rule) कहते थे। इस नियम के अन्तर्गत 17.5 % पद पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए प्रतिवर्ष आरक्षित रखे गये थे। यदि आरक्षित कोटे के पदों पर नियुक्ति के लिये अनुसूचित जातियों और आदिवासियों के योग्य उम्मीदवार पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं होते हैं तो उन रिक्त स्थानों को अनारक्षित माना जायेगा और रिक्त स्थानों को इन जातियों के लिये निश्चित अगले वर्ष के कोटे में जोड़ दिया जायेगा। ऐसा अगले 2 वर्षों तक किया जा सकता है। इस नियम के परिणामस्वरूप 68% लोकपद अनुसूचित और आदिम जातियों के लिए आरक्षित हो जाते थे।

        उच्चतम न्यायालय ने 4-1 के बहुमत से 'कैरी फारवर्ड' नियम को असंवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक वर्ष के कोटे को उसी तक सीमित रखना चाहिए और साथ ही साथ प्रत्येक वर्ष पिछड़ी जातियों के लिए पदों का आरक्षण इतना अधिक नहीं होना चाहिए कि एकाधिकार उत्पन्न कर दे या अन्य समुदाय के विधिक अधिकारों में अनुचित रूप से हस्तक्षेप कर दे। बालाजी बनाम मैसूर राज्य' के निर्णय का अनुसरण करते हुए न्यायालय ने कहा कि एक वर्ष में 50 % से अधिक स्थानों को पिछड़ी जातियों के लिये आरक्षित करना सर्वथा अनुचित एवं अनु० 16 (4) के विरुद्ध है। पिछड़ी जातियों के विकास के नाम पर राज्य को दूसरे नागरिकों के अधिकारों की पूर्णतया उपेक्षा नहीं करना चाहिए। न्यायालय के विचार में इस प्रकार का आरक्षण सामान्यतया 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। किन्तु यह 50 प्रतिशत से कितना कम हो, यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के ऊपर निर्भर करेगा।

        किन्तु आरती राय बनाम भारत संघ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि यदि किसी अग्रनयन नियम (carry forward rule) के फलस्वरूप किसी भर्ती वाले वर्ष में सामान्य आरक्षित रिक्तियों की संख्या और अग्रनीत आरक्षित रिक्तियों की संख्या को मिलाकर रिक्तियों की कुल संख्या 45 प्रतिशत से अधिक नहीं है तो वह वैध होगा। नियमों के अन्तर्गत अग्रनयन वाला उपबन्ध संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का अतिक्रमण नहीं करता है। फिर भी यदि केवल दो रिक्तियाँ हैं तो उनमें से एक को आरक्षित माना जायगा, किन्तु यदि केवल एक ही रिक्ति है तो उसे अनारक्षित माना जायगा। 45 प्रतिशत से अधिक रिक्तियों को पश्चात्वर्ती भर्ती वाले वर्ष के लिए अग्रनीत किया जायगा, किन्तु यह इस शर्त के अधीन होगा कि अग्रनीत की गई रिक्तियाँ सिर्फ दो वर्ष से अधिक पुरानी होने के कारण विहित किये गये समय के बाहर हो जायँ।

        वेंकटरमन बनाम मद्रास राज्य के वाद में मद्रास सरकार ने मुन्सिफ के पद के लिए न केवल हरिजन और पिछड़ी जातियों के लिए, वरन् दूसरे समुदायों जैसे मुस्लिम, ईसाइयों, पिछड़े ब्राह्मणों के लिए भी स्थानों को आरक्षित किया था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 16 (4) के अन्तर्गत केवल पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण किये जा सकते हैं। चूंकि उक्त समुदाय पिछड़े नहीं हैं, अतः उनके लिए लोक-पदों का आरक्षण अनुच्छेद 16 (4) के विरुद्ध है और अनुच्छेद 16 (1) और (2) में दिये नागरिकों के मूल अधिकारों का अतिक्रमण करता है।

        त्रिलोकीनाथ टीकू बनाम जम्मू ऐण्ड काश्मीर के मामले में सरकार ने लोकपदों के आरक्षण की एक नीति निर्धारित की थी जिसके अनुसार 50 प्रतिशत पद राज्य के मुसलमानों के लिए 40% जम्मू के हिन्दुओं के लिए और 10% काश्मीर में रहने वाले हिन्दुओं के लिए सरकारी नौकरियों में स्थान आरक्षित किया गया था। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह आरक्षण पिछड़ी जातियों के लिए नहीं है, अतः अनुच्छेद 16 (4) का अतिलंघन करता है अनुच्छेद 16 (4) में प्रयुक्त 'पिछड़े वर्ग' का तात्पर्य 'पिछड़ी जाति' या 'पिछड़े समुदाय' से नहीं है। । विभिन्न समुदायों और जातियों के आधार पर किया गया आरक्षण अनुच्छेद 16 (1), (2) द्वारा वर्जित है ।

        स्टेट ऑफ केरल बनाम एन० एम० थोमस ' आरक्षण के प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय का एक महत्वपूर्ण निर्णय है। इस निर्णय के फलस्वरूप देवदासन के मामले, जिसमें कैरी फारवर्ड रूल अवैधानिक घोषित किया गया था, और बालाजी के मामले, जिसमें आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% नियत की गई थी, में दिये गये 'नर्णयों की विधिमान्यता पर प्रश्न चिह्न लग गया है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न विचारार्थ आया कि क्या अनुसूचित जातियों को अनु० 16 (1) के अन्तर्गत अर्थात् अनु० 16 (4) की परिधि से बाहर प्राथमिकता दी जा सकती है। केरल सरकार ने एक नियम बनाया था जिसके अधीन अनुसूचित जातियों के सेवकों की प्रोन्नति के लिए विभागीय परीक्षा पास करने के लिए दो वर्ष की छूट दी गयी थी जबकि अन्य वर्गों के सेवकों के लिए यह छूट नहीं दी गयी। उच्चतम न्यायालय ने 5-2 के निर्णय से यह अभिनिर्धारित किया कि अनुसूचित जातियों के सेवकों और अन्य सेवकों में उच्चपदों पर प्रोन्नति के लिए परीक्षा पास करने के मामले में उक्त नियम के अधीन किया गया वर्गीकरण युक्तियुक्त है। अनुसूचित जातियों के पिछड़ेपन को देखते हुए सरकारी सेवा में प्रोन्नति के लिए अर्हता परीक्षा में अस्थाई छूट देना आवश्यक है। उक्त नियम से प्रशासन में कार्यकुशलता का ह्रास नहीं होगा क्योंकि जिनकी प्रोन्नति हो चुकी है, उन्हें अन्ततोगत्वा परीक्षा पास करनी ही होगी। उन्हें केवल एक छूट दी जा रही है कि उन्हें प्रोन्नति परीक्षा पास करने के लिए अन्य लोगों की अपेक्षा 2 वर्ष का और अतिरिक्त समय दिया जा रहा है। अल्पमत,न्यायाधिपति श्री खन्ना और गुप्ता, ने यह मत व्यक्त किया कि अनुसूचित जातियों को अनु० 16 (4) से बाहर अर्थात् अनु० 16 (1) के अधीन वर्गीकरण के आधार पर अन्य वर्गों की अपेक्षा प्राथमिकता नहीं दी जा सकती है। एक ही वर्ग के और एक अर्हता रखने वाले सेवकों के बीच प्रोन्नति के लिए वर्गीकरण को इस न्यायालय ने कभी मान्यता नहीं दी है। एक वर्ग के सेवकों को प्रोन्नति के लिए विभागीय परीक्षा पास करने के मामले में छूट देने से (भले ही वह अस्थायी क्यों न हो) प्रशासन में कार्यकुशलता नष्ट हो जाती है। 51 में 34 व्यक्तियों को विभागीय परीक्षा पास किये बिना ही प्रोन्नत करना और जो परीक्षा पास कर चुके हैं उन्हें प्रोन्नत न करना निश्चित ही कार्यकुशलता को नष्ट करता है। अनु० 14 के अधीन वर्गीकरण के सिद्धान्त को अनु० 16 (1) के निर्वचन में प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। अनु० 14 और अनु० 16 (1) दोनों का क्षेत्र भिन्न-भिन्न है। लेखक के विचार से अल्पमत का निर्णय अधिक उचित है। इस निर्णय द्वारा न्यायालय ने राजनीतिज्ञों के लिए आरक्षण शक्ति के दुरुपयोग करने की शक्ति प्रदान कर दी है। यह सर्वविदित है कि आरक्षण की शक्ति का प्रयोग जनता सरकार के शासन में बिहार और उत्तर प्रदेश में राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया था।

        अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ रेलवे बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने एन० एम० थोमस के मामले में दिये निर्णय का अनुसरण करते हुए कि रेलवे बोर्ड द्वारा जारी किये गये उन परिपत्रों को संवैधानिक घोषित किया है जिसके अधीन रेलवे विभाग में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को प्रोन्नति के मामले में अन्य वर्गों की अपेक्षा अधिक सुविधा दी गयी थी। न्यायाधिपति श्री कृष्ण अय्यर ने बहुमत का निर्णय सुनाते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि सरकारी सेवाओं के प्रयोजन के लिए अनु० 16 (1) के अधीन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को एक अलग वर्ग में रखा जा सकता है और उनमें और भारत के अन्य समुदायों के बीच किया गया वर्गीकरण युक्तियुक्त है। उक्त परिपत्रों के अधीन अग्रनयन नियम (carry forward rule) 2 वर्ष से 3 वर्ष तक के लिए बढ़ा दिया गया था जिसके फलस्वरूप उक्त वर्गों के लिए प्रोमोशन पदों पर आरक्षण का कोटा 65% हो गया था। कुल 45 पदों में से 29 पदों पर अनुसूचित जाति/जनजाति को प्रोन्नति दी गई है जो करीब 65% है। बालाजी के मामले के आधार पर (50%) यह नियम अवैध होना चाहिए। किन्तु न्यायाधिपति कृष्ण अय्यर ने कहा कि मानवीय समस्याओं में गणितीय सूक्ष्मता नहीं लागू की जा सकती है और आरक्षण का कुछ अधिक हो जाना अनुचित नहीं है किन्तु यदि वह सारवान् (sub- stantial) रूप से अधिक है तो चयन को अवैध बना देगा। अतः इस शर्त के अधीन रहते हुए अग्रनयन का नियम विधिमान्य है। न्यायाधिपति चिनप्पा रेड्डी ने अवलोकन किया कि उक्त वर्गों के लिए आरक्षण की कोई निश्चित सीमा नहीं नियत की जा सकती है, पूर्व-निर्णयों में 50% की सीमा का नियम तो केवल न्यायालयों के मार्गदर्शन के लिए है वे उससे बाध्य नहीं हैं।

        थोमस और अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ के मामलों में यद्यपि न्यायालय ने बालाजी और देवदासन के मामलों में दिये गये निर्णयों को उलटा (overrule) नहीं है किन्तु उनमें प्रतिपादित सिद्धान्तों का मूल आधार नष्ट कर उन्हें विवक्षित रूप से उलट दिया है। प्रस्तुत वाद में न्यायालय ने 50% से अधिक आरक्षण तथा अग्रनयन नियम जिसके फलस्वरूप आरक्षण 50% से अधिक हो गया था, दोनों को संवैधानिक घोषित किया है। परिपत्र में प्रयुक्त शब्दावली कि उक्त वर्ग के अभ्यर्थियों के साथ सहानुभूतिपूर्ण बर्ताव करना चाहिये जैसी अस्पष्ट शब्दावली को न्यायालय ने विधिमान्य घोषित करके कार्यकारिणी को आरक्षण का राजनैतिक दृष्टि से प्रयोग करने का लाइसेन्स प्रदान कर दिया है। इन निर्णयों के परिणाम दूरगामी हो सकते हैं। गुजरात प्रान्त का आरक्षण विरोधी आन्दोलन इसका ज्वलन्त दृष्टान्त है जिसमें जन, धन को भारी क्षति पहुँची है। ये घटनाएँ आगे आने वाले वर्ग संघर्ष का एक संकेत मात्र हैं।

अनुच्छेद 16, खण्ड (5)

अनुच्छेद 16 (5) इस अनुच्छेद 16 (1) और (2) का तीसरा अपवाद है जिसके अनुसार लोकपदों के लिए धर्म के आधार पर असमानता कहना वर्जित है। अनुच्छेद 16 (5) के अन्तर्गत राज्य किसी धार्मिक या साम्प्रदायिक संस्थाओं के प्रबन्ध के लिए किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय को मानने वाले लोगों की नियुक्ति का उपबन्ध कर सकता है।

समता का अधिकार | अनुच्छेद 15 | धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध

समता का अधिकार | अनुच्छेद 15 | धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध




        जैसा कि विदित है, अनु० 15, अनु० 14 में निहित समता के सामान्य नियम का उदाहरण है । जो विधि अनु० 15 के अन्तर्गत अवैध है, वह अनु० 14 के अन्तर्गत करण के सिद्धान्त के आधार पर वैध नहीं घोषित की जा सकती है । ऐसे कानून द्वारा किये गए  वर्गीकरण की युक्तियुक्तता पर अनु० 14 के अन्तर्गत तभी विचार किया जायेगा जब असमानता अनु० 15 में दिये गये किसी एक आधार पर आधारित हो।


        अनुच्छेद 15 में दिये गये अधिकार केवल नागरिकों को ही प्रदान किये गए हैं विदेशियों को नहीं, जब कि अनु० 14 के अधिकार नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों को समान रूप से प्राप्त हैं।


        अनुच्छेद 15 का प्रथम खंड राज्य को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान अथवा इनमें से किसी आधार पर किसी नागरिक के विरुद्ध असमानता का व्यवहार करने से रोकता है। अनुच्छेद 15 का दूसरा खंड यह उपबन्धित करता है कि केवल धर्म, जाति, लिंग अथवा जन्म- स्थान के आधार पर कोई नागरिक दुकानों, होटलों, मनोरंजन-स्थानों, कुओं, तालाब, घाटों, सड़कों एवं अन्य सार्वजनिक स्थान जो जनता के उपयोग के लिए समर्पित कर दिये गये हैं, अथवा पूर्ण या आंशिक रूप से राज्य-निधि द्वारा घोषित हैं, के उपयोग के सम्बन्ध में किसी शर्त, प्रतिबन्ध, उत्तर- दायित्व व अयोग्यता से प्रभावित न होगा। प्रथम खंड उन आधारों पर विभेद का प्रतिषेध करता है जो राज्य के नियन्त्रण में हैं और दूसरा खंड राज्य और निजी व्यक्तियों, दोनों को सार्वजनिक। से अधिक स्थानों के सम्बन्ध में विभेद करने का निषेध करता है। इस अर्थ में खंड (2), खंड (1) विस्तृत है। इस अनुच्छेद का तीसरा खंड राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिये विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति प्रदान करता है। चौथा खंड 1951 में संविधान के प्रथम संशोधन द्वारा जोड़ा गया है जो राज्य को सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों एवं आदिवासियों के लिये विशेष व्यवस्थाओं के करने की अनुमति देता है । उपर्युक्त सभी खंडों पर अब अलग-अलग विचार किया जायेगा।


अनुच्छेद 15 (1)- राज्य द्वारा किसी नागरिक के विरुद्द केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान या इनमे से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा 

        इस अनुच्छेद का प्रथम खंड केवल धर्म, जाति, वर्ण, लिंग, जन्म-स्थान अथवा इनमें से किसी आधार पर नागरिकों के विरुद्ध कोई विभेद करने से राज्य को निषिद्ध करता है। 'विभेद' शब्द का तात्पर्य किसी व्यक्ति के साथ दूसरों की तुलना में प्रतिकूल व्यवहार करना है। यदि कोई कानून उक्त किसी भी आधार पर असमानता बरतता है तो वह शून्य होगा। इसके कुछ उदाहरण निम्न- लिखित हैं-नैनसुख बनाम स्टेट ऑफ यू० पी० " के वाद में उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार के एक कानून को इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया कि वह विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के लिए पृथक् निर्वाचक-मंडल का प्रावधान करता था जो अनु० 15 (1) द्वारा वर्जित है। प्रताप सिंह बनाम राजस्थान राज्य के मामले में सरकार ने पुलिस अधिनियम, 1861 के अधीन एक अधिसूचना जारी करके राज्य के कुछ क्षेत्रों को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया था। इस क्षेत्र में शांति- व्यवस्था बनाये रखने के लिये अतिरिक्त पुलिस दल रखे गये थे। इस अतिरिक्त पुलिस के खर्चे को पूरा करने के लिये इन क्षेत्रों में रहने वाले निवासियों पर अतिरिक्त कर लगाया गया। किन्तु हरिजनों और मुसलमान निवासियों को इस कर से छूट प्रदान की गयी थी। यह छूट केवल जाति और धर्म के आधार पर दी गयी थी और इसलिये अनु० 15 (1) का अतिक्रमण करती थी। न्यायालय ने उक्त सरकारी अधिसूचना को अवैध एवं असंवैधानिक घोषित कर दिया।         इस अनुच्छेद में 'केवल' शब्द का प्रयोग ध्यान देने योग्य है। इसका तात्पर्य यह है कि विभेद केवल उपर्युक्त आधारों पर वर्जित है, अर्थात् यदि अन्य बातें एक समान हैं तो जाति, धर्म, लिंग आदि किसी के लिये योग्यता व अयोग्यता का आधार नहीं बनाया जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि यदि कोई विभेद उपर्युक्त आधारों में से किसी एक पर न होकर किसी दूसरे आधार पर भी आधारित है, तो वह अनु० 15 (1) द्वारा प्रभावित नहीं होगा। उदाहरण के लिए अनु० 15 (1) जन्म-स्थान पर असमानता को वर्जित करता है, किन्तु यदि विभेद आवास-स्थान के आधार पर किया जाता है तो वह मान्य होगा, क्योंकि यह अनु० 15 में उल्लिखित आधारों में से नहीं है।         डी० पी० जोशी बनाम मध्य प्रदेश के वाद में मध्य प्रदेश मेडिकल कालेज के एक नियम के अनुसार मध्य प्रदेश से बाहर रहने वाले छात्रों को अतिरिक्त प्रवेश शुल्क देना पड़ता था, किन्तु मध्य प्रदेश में रहने वाले छात्रों को ऐसा कोई प्रवेश शुल्क नहीं देना पड़ता था। पेटीशनर ने इस नियम की वैधता को चुनौती दी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त नियम वैध है क्योंकि विभेद 'जन्म-स्थान' के आधार पर नहीं, वरन् आवास के आधार पर किया गया था जो उचित है। 'जन्म-स्थान' 'आवास-स्थान' से भिन्न होता है। अनु० 15 केवल 'जन्म-स्थान' के आधार पर विभेद को वर्जित करता है, न कि 'आवास-स्थान' के आधार पर किये गये विभेद को, बशर्ते कि इसके लिये उचित कारण हो। सरकारी नौकरियों में जाने के इच्छुक व्यक्तियों के लिये क्षेत्रीय भाषा में परीक्षण का नियम अनु० 15 का उल्लंघन नहीं करता है, क्योंकि परीक्षण राज्य की नौकरियों में जाने वाले सभी व्यक्तियों के लिये आवश्यक है। 2 इसी निष्क्रान्त सम्पत्ति (evacuee property) के सम्बन्ध में बनाया गया कानून अनु० 15 (1) का अतिलंघन नहीं करेगा, यद्यपि इससे प्रभावित होने वाले लोगों में से अधिकतर मुसलमान ही हैं क्योंकि यदि कोई गैर-मुस्लिम व्यक्ति भी “निष्क्रान्त" ( evacuee) की परिभाषा के अन्तर्गत आता है तो उसको भी वह समान रूप से लागू होगा। यह कानून केवल धर्म के आधार पर हिन्दू-मुसलमान में विभेद नहीं करता, वरन् एक अन्य आधार पर विभेद करता है जो विशेष परिस्थितियों में आवश्यक और उचित है । देखिये - एम० बी० नमाजी बनाम डिप्टी कस्टोडियन ऑफ इवैक्यूई प्रापर्टी का निर्णय।


अनुच्छेद 15 (2)- कोई नागरिक केवल धर्म मूलवंश जाति लिंग जन्म स्थान या इनमे से किसी के आधार पर,
क- दुकानों, सार्वजानिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजानिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश, या
ख- पूर्णतः या भागतःराज्य-निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग के सम्बन्ध में किसी भी निर्योग्यता, दायित्व, निर्बन्धन या शर्त के अधीन नहीं होगा

        यह अनुच्छेद अनु० 15 (1) में दिये गये सामान्य नियम का विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। अनु० 15 (2) के अनुसार केवल धर्म, जाति, वर्ण, लिंग अथवा जन्म-स्थान के आधार पर किसी नागरिक को दूकानों, होटलों, मनोरंजन-स्थानों, कुओं, तालाब, स्नान घाटों, सड़कों एवं अन्य सार्व- जनिक स्थानों (Places of Public resort), जो जनता के उपयोग के लिए समर्पित कर दिये गये हैं अथवा पूर्ण या आंशिक रूप से राज्य-निधि द्वारा पोषित हैं, के उपयोग के सम्बन्ध में किसी शर्त, प्रतिबन्ध, उत्तरदायित्व या अयोग्यता के अधीन न होगा। 'सार्वजनिक स्थान' उसे कहते हैं जहाँ लोग प्रायः जाते आते हैं, जैसे सार्वजनिक पार्क, सड़क, बसें, पटरी, रेलगाड़ियाँ, अस्पताल आदि। दूसरा खण्ड पहले खण्ड से अधिक विस्तृत है क्योंकि यह राज्य के साथ-साथ निजी व्यक्तियों को भी उक्त आधारों पर विभेद का प्रतिषेध करता है।         अनुच्छेद 15 (2) का मुख्य उद्देश्य हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करके भारत में एक नये समाज की स्थापना का है। संविधान में विहित आदर्श को मूर्त रूप देने के उद्देश्य से ही मद्रास सरकार ने मद्रास रिमूवल ऑफ सिविल डिस-एबिलिटीज ऐक्ट पारित किया है जिसके अधीन सामाजिक कुरीतियों को अपराध माना गया है। किसी भी कानून, रूढ़ि अथवा प्रथा के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति अधिनियम में उल्लिखित सार्वजनिक स्थानों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और निम्न वर्ग के लोगों को जाने से नहीं रोक सकता है।


अनु० 15 (3)- इस अनुच्छेद की कोई बात स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी,

        अनुच्छेद 15 (3), अनु० 15 (1) और (2) में दिये गये सामान्य नियम का अपवाद है। यह अनुच्छेद यह उपबन्धित करता है कि अनु० 15 की कोई बात राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष प्रावधान बनाने से नहीं रोकेगी। स्त्रियों और बालकों की स्वाभाविक प्रकृति ही ऐसी होती है जिसके कारण उन्हें विशेष संरक्षण की आवश्यकता होती है। भारत में स्त्रियों की दशा बड़ी शोचनीय थी। वे अपनी सामाजिक कुरीतियों, जैसे बाल-विवाह, बहु-विवाह आदि की शिकार थीं और पूर्णरूप से पुरुषों पर आश्रित थीं। इसी कारण राज्य को उनके लिए विशेष कानून बनाने का अधिकार प्रदान करना उचित है। स्त्रियों के प्रति इस वैधानिक सहानुभूति के आधार के बारे में अमेरिका के न्यायालय ने मूलर बनाम ओरेगन' के वाद में कहा है कि 'अस्तित्व के संघर्ष स्त्रियों की शारीरिक बनावट तथा उनके स्त्रीजन्य कार्य उन्हें दु:खद स्थिति में कर देते हैं। अतः उनकी शारीरिक कुशलता का संरक्षण जनहित का उद्देश्य हो जाता है जिससे जाति, शक्ति और निपुणता को सुरक्षित रखा जा सके। इस प्रकार अनु० 42 के अन्तर्गत स्त्रियों को विशेष प्रसूति अवकाश (maternity relief) प्रदान किया जा सकता है और इससे सम्बन्धित कानून द्वारा अनु० 15 (1) का अतिक्रमण नहीं होता है। राज्य केवल स्त्रियों के लिए शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कर सकता है तथा अन्य ऐसी संस्थाओं में उनके लिए स्थान भी आरक्षित कर सकता है । देखिये- दत्तात्रेय बनाम स्टेट" का विनिश्चय। यूसुफ अब्दुल अजीज बनाम बम्बई राज्य के मामले में भारतीय दण्ड विधान की धारा 497 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। इस धारा के अधीन जारकर्म (adultery) के अपराध के लिए केवल पुरुष ही दण्डनीय होता है, स्त्री नहीं। प्रार्थी को भारतीय दंड विधान की धारा 497 के अन्तर्गत जारकर्म के अपराध के लिए दंडित किया गया था। उसने उच्चतम न्यायालय में रिट प्रस्तुत करके धारा 497 को संविधान के अनु० 15 (1) के विरुद्ध बताया क्योंकि धारा 497 के अन्तर्गत इस अपराध के लिए केवल पुरुष मुख्य अभियुक्त के रूप में दण्डनीय है, किन्तु व्यभिचारिणी को गौण अभियुक्त (abettor) के रूप में भी दण्डित नहीं किया जाता, अतः विभेद केवल लिंग के आधार पर आधारित है और अनुचित है। उच्चतम न्यायालय ने धारा 497 को वैध माना, क्योंकि वर्गीकरण केवल 'लिंग' के आधार पर नहीं, बल्कि समाज में स्त्रियों की विशेष स्थिति के आधार पर किया गया था। इस कानून में अब परिवर्तन कर दिया गया है। संशोधित दण्डविधि के अनुसार अब स्त्री को भी समान दण्ड दिया जायगा यदि वह अपराध को उकसाने में हिस्सा लेती है।         इसी प्रकार बच्चों के लिये भी विशेष उपबन्ध किये जा सकते हैं, जैसे बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा या उनके शोषण से संरक्षण के उद्देश्य से बनाये प्रावधान अनु० 15 (1) के अनुकूल होंगे। किन्तु यह ध्यान रहे कि अनु० 15 (3) स्त्रियों और बालकों के कल्याण के लिए केवल विशेष प्रावधान बनाने की अनुमति देता है, प्रत्येक बात में पुरुषों के समान सुविधा देने का उपबन्ध नहीं करता है। देखिये - अंजनराय राय बनाम सेक्रेटरी वेस्ट बंगाल राज्य का निर्णय।

अनु० 15 (4) सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिये विशेष प्रावधान | इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड 2 की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्ही वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवृत नहीं करेगी

        अनुच्छेद 15 (4), अनु० 15 (1) और (2) के सामान्य नियम का दूसरा अपवाद है। यह खंड संविधान में संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा जोड़ा गया है। यह संशोधन मद्रास राज्य बनाम चम्पाकम दोराई राजन के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के परिणाम स्वरूप जोड़ा गया था। इस मामले में मद्रास सरकार ने एक साम्प्रदायिक राजाज्ञा जारी करके राज्य के मेडिकल और इन्जीनियरिंग कालेजों में विभिन्न जातियों और समुदायों के विद्यार्थियों के लिए कुछ स्थानों का निश्चित अनुपात नियत किया था। स्थानों का आरक्षण धर्म, वर्ण और जाति पर आधारित था, क्योंकि ब्राह्मणों के लिए कुछ ही स्थान थे जिनके पूरे होने के कारण इस के योग्यतम विद्यार्थियों को भी प्रवेश नहीं मिल सकता था, जब कि दूसरे समुदाय के अपेक्षा- समुदाय कृत कम योग्यता रखने वाले विद्यार्थियों को स्वतः प्रवेश मिल जाता था। सरकार ने उक्त कानून को इस आधार पर न्यायोचित बताया कि इसका उद्देश्य जनता के सभी वर्गों के लिये सामाजिक न्याय प्रदान करना था, जैसा कि राज्य के नीति-निदेशक तत्वों के अनु० 45 के अन्तर्गत अपेक्षित है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि राजाज्ञा असंवैधानिक है, क्योंकि इसमें किया गया वर्गीकरण धर्म, मूलवंश और जाति के आधार पर किया गया था, विद्यार्थियों की योग्यता पर नहीं। राज्य के नीति-निदेशक तत्व नागरिकों के मूल अधिकारों पर प्रभावी नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार बम्बई उच्च न्यायालय ने एक मामले में राज्य द्वारा हरिजन कालोनी बनाने के लिए भूमि के अधिग्रहण को अनु० 15 (1) के अन्तर्गत शून्य घोषित कर दिया।

        इन दो निर्णयों के प्रभाव को दूर करने के लिए संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 द्वारा अनु० 15 संशोधित किया गया। अनु० 15 (4) के अन्तर्गत राज्य किन्हीं सामाजिक तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों एवं अनुसूचित जातियों और आदिवासियों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान कर सकती है।

        ध्यान रहे कि खंड (4) केवल राज्य को उक्त वर्गों के लिए उपबन्ध करने के लिए सक्षम बनाता है, न कि उस पर विशेष कार्यों को करने के लिए कोई दायित्व आरोपित करता है। यह राज्य को केवल विवेकीय शक्ति प्रदान करता है, अर्थात् यदि राज्य उचित समझे तो पिछड़े वर्गों के नागरिकों के लिए विशेष प्रावधान बना सकता है बशर्ते कि वह विशेष वर्ग सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ हो। प्रश्न समाज का कौन-सा वर्ग उक्त श्रेणी के अन्तर्गत आता है ? सामाजिक और शैक्षिक पिछड़े वर्ग करने की शक्ति राज्य को है, किन्तु इस मामले में राज्य का निर्णय अंतिम नहीं है। उचित मामलों में न्यायालय को हस्तक्षेप करने और इस प्रयोजन के लिए राज्य द्वारा निर्धारित मापदण्डों के जाँचने की पूर्ण शक्ति प्राप्त है। पिछड़े' और 'अधिक पिछड़े वर्ग' में वर्गीकरण असंवैधानिक है:         बालाजी बनाम मैसूर राज्य के मामले में सरकार ने अनु० 15 (4) के अन्तर्गत मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों में प्रवेश हेतु पिछड़े वर्गों के लिए स्थानों का आरक्षण किया था जो इस प्रकार था : पिछड़े वर्गों के लिए 28 प्रतिशत, अधिक पिछड़े वर्गों के लिए 22 प्रतिशत, अनुसूचित जातियों और आदिवासियों के लिए 18 प्रतिशत । इस प्रकार कुल मिलाकर 68 प्रतिशत स्थान उपर्युक्त वर्गों के लिए आरक्षित थे। कुछ योग्यतम प्रत्याशियों ने उक्त राजाज्ञा की वैधता को चुनौती दी क्योंकि उसके अनुसार कम अंक पाने वाले पिछड़े वर्ग के प्रत्याशियों को स्वतः प्रवेश मिल जाता था, जब कि अधिकतम अंक प्राप्त करने के पश्चात् भी इस राजाज्ञा के कारण उन्हें प्रवेश नहीं मिल पाता था। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि 'पिछड़े वर्गों' और 'अधिक पिछड़े वर्गों' के बीच किया गया उप-वर्गीकरण अनु० 15 (4) के अन्तर्गत न्यायोचित नहीं माना जा सकता है। अनु० 15 (4) सामाजिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से पिछड़ेपन की परिकल्पना करता है, न कि केवल सामाजिक या केवल आर्थिक। कोई विशेष वर्ग पिछड़ा वर्ग है या नहीं, इनके निर्धारण के लिए व्यक्ति की जाति ही एक मात्र कसौटी नहीं हो सकती है। गरीबी, पेशा और निवास स्थान आदि बातों पर भी विचार किया जाना चाहिए। प्रस्तुत राजाज्ञा में किसी वर्ग के पिछड़ेपन को निर्धारित करने के लिए केवल जाति को आधार बनाया गया है। मैसूर राज्य द्वारा अपनाये गये तरीके के परिणामस्वरूप पिछड़े वर्गों की सूची में उन सभी जातियों और समुदायों को सम्मिलित किया गया था जिनके विद्यार्थियों की संख्या का औसत प्रति हजार सरकारी औसत से कुछ ही ऊपर या उसके लगभग था। इस व्यवस्था का मुख्य दोष यह था कि इसके अन्तर्गत पिछड़े वर्गों की सूची में राज्य की 90 प्रतिशत जनसंख्या सम्मिलित हो गयी थी और इससे भी विचित्र बात यह थी कि इसमें से 68 प्रतिशत स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित कर दिये गये थे।         उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि इस प्रकार राज्य की जनसंख्या के अधिकतम भाग को पिछड़े वर्गों में शामिल करना न्यायोचित नहीं है और यह अनु० 15 (4) का सरासर अतिक्रमण करता है। शिक्षण संस्थाओं में पिछड़े वर्गों के लिए 68 प्रतिशत स्थान आरक्षित करना संविधान के साथ कपट ( fraud ) करने के समान है। अनुच्छेद 15 (4) पिछड़े वर्गों के लिए केवल विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति देता है, किन्तु उनके लिए अनन्य रूप से प्रावधान बनाने की शक्ति नहीं देता। राज्य द्वारा पिछड़े वर्गों की उन्नति करने के उत्साह में समाज के शेष वर्गों की उन्नति की उपेक्षा करना न्यायोचित नहीं। यदि योग्य और कुशल विद्यार्थियों को उच्चतम शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश पाने से वंचित किया जायेगा तो राष्ट्रपति हित की क्षति होगी। न्यायालय ने यह कहा कि इस प्रकार के विशेष प्रावधान राज्य की कुल जनसंख्या 50 प्रतिशत से अधिक लोगों के लिए नहीं होना चाहिए।         जनार्दन सुब्बाराया बनाम मैसूर राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि बालाजी के मुकदमे में दिया गया निर्णय केवल सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिये गये आरक्षणों को लागू होता है, अतएव मैसूर सरकार की राजाज्ञा द्वारा अनुसूचित और आदिवासियों के लिए किया गया आरक्षण उस निर्णय से प्रभावित नहीं है।         आन्ध्र प्रदेश बनाम यू० एस० वी० दलराम' के मामले में आन्ध्र प्रदेश सरकार ने एक आदेश द्वारा सरकारी मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए नियम बनाये। इन नियमों के अधीन मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए एक प्रतियोगी परीक्षा का प्रावधान किया गया। इसमें बैठने के लिए यह अनिवार्य था कि अभ्यर्थी या तो प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स पास हो या हायर सेकेंडरी कोर्स। प्रतियोगी परीक्षा में प्रवेश उच्चतम अंक पाने वाले व्यक्तियों को योग्यतानुसार दिया जाना था। 40 प्रतिशत स्थान हायर सेकेंड्री कोर्स पास अभ्यर्थियों के लिए आरक्षित थे। सरकार ने एक दूसरे आदेश द्वारा 25 प्रतिशत स्थान पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थियों के लिए आरक्षित कर दिया। पिछड़े वर्गों की सूची बँकवर्ड क्लासेज कमीशन की रिपोर्ट पर आधारित थी। प्रत्यर्थी ने, जो प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स पास था, अभ्यर्थियों के बीच उन योग्यताओं (प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स और हायर सेकेंडरी कोर्स) के आधार पर किये गये वर्गीकरण पर हायर सेकेंडरी कोर्स के लिए 40 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने पर तथा पिछड़े वर्गों के लिए 25 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने पर आपत्ति की। उसका कहना था कि उक्त नियम अनु० 14 का अतिक्रमण करते हैं। उसने दलील दी कि उसने प्रतियोगी परीक्षा में हायर सेकेंडरी कोर्स पास अभ्यर्थी से कहीं अधिक अंक प्राप्त किये हैं, फिर भी उसे प्रवेश नहीं मिल रहा है।         न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जब प्रवेश के लिए आधार प्रतियोगी परीक्षा बनाई गयी थी तो परीक्षा के लिए पात्र होने के लिए विहित शैक्षिक योग्यताओं के बीच अन्तर करना और उनमें से किसी वर्ग में आने वाले लोगों के लिए स्थानों का आरक्षण किसी भी दृष्टि से न्यायोचित नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसे आरक्षण का परिणाम यह होगा कि एक वर्ग को (प्री-यूनिवर्सटी कोर्स पास विद्यार्थी) को उस दशा में भी प्रवेश प्राप्त न हो सकेगा जब कि उसके अंक द्वितीय वर्ग (हायर सेकेंडरी कोर्स पास विद्यार्थी) के अभ्यर्थी से अधिक हों। अतः प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स और हायर सेकेंडरी कोर्स के आधार पर अभ्यिर्थयों का वर्गीकरण मनमाना वर्गीकरण है क्योंकि इन दो प्रकार के अभ्यर्थियों के बीच किया गया अन्तर किसी भी दृष्टि के नियम के उद्देश्य (मेडिकल कालेज के लिए योग्यतम व्यक्तियों का चयन) से युक्तियुक्त सम्बन्ध नहीं रखता है। उक्त नियम अनु० 14 का अतिक्रमण करते हैं, अतः असंवैधानिक हैं।         पिछड़े वर्गों के 25 प्रतिशत आरक्षण के बारे में न्यायालय ने कहा कि उस आदेश को अनु० 15 (4) का संरक्षण प्राप्त है। पिछड़े वर्गों की ऐसी सूची तैयार करने की शक्ति सरकार को है जिसके लिए वह आधार निश्चित करेगी। किन्तु जाति को आधार बनाने के लिए व्यक्तियों के आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक, निवास, उपजीविका आदि के स्तर को आधार बनाना सरकार के लिए अधिक श्रेयस्कर है। विचारणीय मुख्य प्रश्न यह है कि सरकार ने उक्त सूची किन-किन बातों को ध्यान में रखकर बनाई है। सम्बन्धित व्यक्तियों की वर्गों की रूढ़ियों, समाज के अन्य वर्गों से उसका सम्बन्ध, उनकी सभी प्रकार की समस्याओं को ध्यान में रखकर तैयार की गई सूची निश्चय ही एक युक्तियुक्त सूची मानी जायेगी। प्रस्तुत मामले में जो सरकारी आदेश निकाला गया है, वह बँकवर्ड क्लासेज कमीशन की रिपोर्ट पर आधारित है। उसने राज्य के सभी जिलों का दौरा किया है, विभिन्न जातियों के प्रतिनिधियों को साथ लिया है। उनके निवास स्थान पर जाकर उनसे जानकारी प्राप्त की है। निवास की समस्याओं पर ध्यान दिया है। उनके रहन-सहन के स्तर का विश्लेषण किया है। समाज में उनके बारे में अन्वेषण किया है। शिक्षण-संस्थाओं में उनकी संख्या तथा तत्सम्बन्धी आँकड़े प्राप्त करके उनके शैक्षिक स्तर के बारे में जानकारी प्राप्त की है और उनकी रूढ़ियों आदि को भी ध्यान में लिया है। इन सबसे प्रकट होता है कि आयोग की रिपोर्ट विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है जिसे युक्तियुक्त एवं विश्वसनीय माना जाना चाहिए। प्रस्तुत मामले में सरकार द्वारा तैयार की गई सूची आयोग की कुशल रिपोर्ट पर आधारित है, अतः विधिमान्य है और उसे अनु० 15 (4) का संरक्षण प्राप्त है।         जहाँ तक आरक्षण की सीमा का प्रश्न है, यह सुस्थिर सिद्धान्त है कि आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। चूंकि प्रस्तुत मामले में आरक्षण कुल 43 प्रतिशत है, अतः युक्तियुक्त एवं न्यायोचित है। उच्चतम न्यायालय ने यह अवलोकन किया है कि यद्यपि किसी वर्ग या समुदाय को केवल जाति के आधार पर पिछड़ा वर्ग नहीं माना जा सकता है तथापि यदि सम्पूर्ण जाति ही सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी हुई पायी जाती है तो ऐसी जाति को उसके नाम से ही पिछड़े वर्गों की सूची में सम्मिलित किया जा सकता है और ऐसा करने से अनुच्छेद 15 (4) का अतिक्रमण नहीं होगा क्योंकि स्वयं जाति भी नागरिक का एक वर्ग है। ऐसी जाति के लिए अनु० 15 (4) के अधीन आरक्षण सांविधानिक होगा। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि यदि एक जाति को एक बार पिछड़े वर्गों की सूची में सम्मिलित कर लिया गया है तो वह सर्वदा उस सूची में बनी रहेगी। न्यायालय ने यह सलाह दी कि सरकार को इस बात पर समय-समय पर विचार करते रहना चाहिए और यदि सरकार यह समझती है कि कोई जाति, जिसे पिछड़े वर्गों की सूची में सम्मिलित किया गया था, उन्नति के ऐसे स्तर पर पहुँच गयी है जिसके आधार पर यह माना जा सकता है कि उसे सांविधानिक संरक्षण की आवश्यकता नहीं है; तो सरकार को पिछड़े वर्गों की सूची का समुचित पुनर्विलोकन करना चाहिए और उस जाति को उस सूची से निकाल देना चाहिये। इस मामले में सरकार द्वारा लिया गया निर्णय एक वाद योग्य विषय होगा।         उत्तर प्रदेश राज्य बनाम प्रदीप टण्डन' के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार ने एक सरकारी राजाज्ञा द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों, पहाड़ी क्षेत्रों और उत्तराखंड क्षेत्रों के अभ्यर्थियों के लिए प्रदेश के मेडिकल कालेजों में दाखिले के लिए स्थानों का आरक्षण किया। सरकार की ओर से दलील दी गयी कि इन क्षेत्रों के लोग सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं, अतः यह आरक्षण आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ग्रामीण क्षेत्रों के अभ्यर्थियों के लिए मेडिकल कालेज में प्रवेश हेतु स्थानों का आरक्षण असंवैधानिक है, किन्तु पहाड़ी और उत्तराखंड के अभ्यर्थियों के लिए पदों का आरक्षण विधिमान्य है। ग्रामीण क्षेत्रों के आरक्षण को सामाजिक शैक्षिक पिछड़े वर्ग के आधार पर मान्य नहीं ठहराया जा सकता है। आरक्षण राज्य की जनसंख्या के बहुमत के लिये किया जाता है। राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों की 80 प्रतिशत जनसंख्या एक सजातीय वर्ग नहीं हो सकती है। वे एक प्रकार के लोग नहीं हैं । उनके पेशे विभिन्न हैं। उनका जीवन-स्तर विभिन्न है। जनसंख्या को स्वयं एक वर्ग नहीं माना जा सकता है। गाँवों में रहने से कोई एक वर्ग का नहीं हो जाता है। गाँवों में डाक्टरों की विशेष आवश्यकता होना वहाँ के लोगों को सामाजिक एवं आर्थिक पिछड़े वर्गों के नागरिक नहीं बना देता है। ग्रामीण क्षेत्रों की गरीबी भी उनके वर्गीकरण का आधार नहीं हो सकती है जिसके आधार पर उनके लिए स्थानों का आरक्षण किया जा सकता हो। गरीबी तो सारे भारतवर्ष में है।         पहाड़ी एवं उत्तराखंड के अभ्यर्थियों के आरक्षण को विधिमान्य बताते हुए न्यायालय ने कहा कि इन क्षेत्रों के नागरिक सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं। पिछड़ेपन को आर्थिकआधार पर जांचा जाना चाहिये कि प्रत्येक भाग को कितने मनुष्यों को सम्भावित रूप से भरण- पोषण करने की क्षमता है। उनका जीवन-स्तर क्या है और उनकी सम्पत्ति की सीमा क्या है। आर्थिक दृष्टि से ऐसे लोगों को एक पिछड़ा वर्ग माना जायेगा यदि वे उपलब्ध साधनों का प्रभावी ढंग से उपयोग नहीं कर पाते हैं। जहाँ काफी भूमि खाली पड़ी है, अव्यवस्थित है, लोग अनपढ़ हैं और जिनके पास नाममात्र की सम्पत्ति है, यह सब सामाजिक पिछड़ेपन की निशानी है। आवागमन और तकनीकी प्रक्रिया के उपलब्ध न होने से इन क्षेत्रों में प्रभावी विशेषज्ञता सम्भव नहीं है। यहाँ लोग सामाजिक रूप से पिछड़े हैं। पहाड़ी और उत्तराखंड के लोग शैक्षिक रूप से भी पिछड़े वर्ग के नागरिक हैं क्योंकि शैक्षिक सुविधाओं के न होने से उनके विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है और न तो उन्हें शिक्षा के अर्थ और महत्व का ज्ञान होता है और न उसके प्रति वे जागरूक ही रहते हैं। जहाँ सामाजिक परिवेश या पेशे सम्बन्धी बाधाओं के कारण लोगों में शिक्षा के प्रति परम्परागत उदासीनता है। यह एक शैक्षिक पिछड़ेपन का उदाहरण है। पहाड़ी और उत्तराखंड क्षेत्र दुर्गम क्षेत्र हैं। उनमें शिक्षण संस्थाओं की कमी है।         कुमारी के० एस० जयश्री बनाम केरल राज्य के मामले में पिटीशनर केरल राज्य में इजहावा समुदाय की थी। यद्यपि वह आरक्षणों की कोटि के अन्तर्गत आती थी तथापि उसे इस आधार पर स्थानीय मेडिकल कालेज में प्रवेश पाने नहीं दिया गया कि उसके कुटुम्ब की आय विहित सीमा से अधिक थी। राज्य सरकार द्वारा यह सीमा उस आयोग की सिफारिश के आधार पर विहित की गई थी जो कि सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों के लिए शिक्षण संस्थानों के आरक्षण का अवधारण करने के लिए नियुक्त किया गया था। आयोग इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि आरक्षण की वर्तमान पद्धति का फायदा मुख्य रूप से केवल जाति या समुदाय के आधार पर ही था और इसका लाभ धनाढ्य लोगों को मिल रहा था, न कि निर्धन लोगों को। अतएव आयोग ने यह सुझाव दिया कि वर्गीकरण के लिये साधन एवं जाति या समुदाय की कसौटी अपनाई जानी चाहिये जिससे निर्धन और योग्य व्यक्तियों को शामिल किया जा सके। आयोग ने इस दृष्टि से आय के स्तर को आधार माना और यह निष्कर्ष निकाला कि जिनकी आय सभी स्रोतों से 10,000 रुपये से कम है वे सामाजिक एवं शिक्षात्मक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्ग में आते हैं। पिटीशनर के कुटुम्ब की आय 10,000 रुपये से अधिक थी, अतएव उसका नाम मेडिकल कालेज में प्रवेश के लिए अपवर्जित कर दिया गया।         उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि आय के आधार पर पिटीशनर के अपवर्जन से अनुच्छेद 15 का अतिक्रमण नहीं होता है। अनुच्छेद 15 (4) के अधीन पिछड़ापन सामाजिक एवं शिक्षात्मक होना चाहिये। किसी नागरिक वर्ग के सामाजिक पिछड़ेपन को अभिनिश्चित करने के लिए किसी नागरिक की जाति मुख्य कसौटी नहीं हो सकती है। जिस प्रकार कोई जाति एकमात्र अथवा मुख्य कसोटी नहीं होती, उसी प्रकार सामाजिक पिछड़ेपन के लिए निर्धनता निश्चयात्मक और अवधारक तत्व नहीं होती है। सामाजिक पिछड़ापन काफी हद तक निर्धनता का परिणाम होता है। निर्धनता के परिणामस्वरूप होने वाले सामाजिक पिछड़ेपन के बारे में सम्भाव्य है कि वह उनकी जाति के कारण और तीव्र बन जाये। इससे यह दर्शित होता है कि नागरिकों के पिछड़ेपन का अवधारण करने में जाति और निर्धनता दोनों ही सुसंगत हैं। निर्धनता स्वयं सामाजिक पिछड़ेपन का अवधारक तत्व नहीं है। निर्धनता सामाजिक पिछड़ेपन के सन्दर्भ में सुसंगत होती है। सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछड़े वर्ग का निर्धारण कोई आसान बात नहीं है।         इसका अवधारण राज्य का काम है। न्यायालय की अधिकारिता इस बात का विनिश्चय करने से सम्बन्धित है कि क्या लागू की गई कसौटियाँ विधिमान्य हैं। यदि यह दिखाई देता है कि जो कसौटियाँ लागू की गई हैं, वे उचित और विधिमान्य हैं तो इन कसौटियों के आधार पर सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों का वर्गीकरण अनुच्छेद 15 (4) की अपेक्षाओं के अनुकूल होगा।         मध्य प्रदेश राज्य बनाम निवेदिता जैन' (1981) का मामला उच्चतम न्यायालय के अनु० 15 (4) पर आधुनिकतम और एक महत्वपूर्ण मामला है। इस मामले में न्यायालय ने राज्य सरकार के एक कार्यपालिक आदेश को विधिमान्य घोषित किया है जिसके अधीन राज्य के प्री-मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए मेडिकल परीक्षा में अनुसूचित जाति और अनु- सूचित जनजाति के अभ्यर्थियों के लिए अर्हता अंक सम्बन्धी शर्तों को पूर्णरूप से समाप्त कर दिया गया था। राज्य के 6 मेडिकल कालेजों में MBBS कोर्स के लिए कुल स्थान 720 थे जिसमें से 15 स्थान अनुसूचित जाति/अनु० जनजाति के लिए आरक्षित थे। विनियम 20 के अधीन प्रवेश के लिए न्यूनतम अर्हता अंक 50% कुल अंक का और 33% प्रत्येक विषय में विहित किया गया था। किन्तु अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों के लिये यह केवल 40% और 30% ही विहित किये गये थे। विनियम के अधीन राज्य सरकार को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अभ्यिर्थयों के लिए न्यूनतम अर्हता अंक में छूट देने की शक्ति प्राप्त थी। प्रवेश परीक्षा में कुल 9400 छात्र शामिल हुए जिनमें से 623 अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के छात्र थे। प्रवेश परीक्षा के आधार पर अनुसूचित जाति के 108 में से केवल 18 और अनुसूचित जनजाति के 108 में से केवल 2 छात्र न्यूनतम अर्हता अंक पाकर उत्तीर्ण हुए। इसके पश्चात् परीक्षा समिति ने इन वर्गों के लिए अर्हता अंक में 5% की छूट प्रदान की। इस छूट के बावजूद अनुसूचित जाति के केवल 25 और अनुसूचित जनजाति के केवल 3 स्थान भरे जा सके। इस दूसरी बार छूट के बावजूद में इन वर्गों के लिए आरक्षित स्थानों में से काफी स्थान रिक्त रह गये। तत्पश्चात् राज्य सरकार ने प्रश्नास्पद कार्यपालिक आदेश जारी करके इन दो वर्गों के लिए न्यूनतम अर्हता अंक की शर्त को बिल्कुल समाप्त कर दिया। राज्य के उच्च न्यायालय ने अनु० 15 (4) के अतिक्रमण करने के आधार पर इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया। किन्तु अपील में उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया और कार्यपालिक आदेश द्वारा न्यूनतम अर्हता अंक प्राप्त करने की शर्त को घटाने के आदेश को संवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि मेडिकल परिषद् का विनियम 2 जो न्यूनतम अर्हता अंक की शर्त विहित करता है, वह आदेशात्मक नहीं वरन् केवल निदेशात्मक है अतः कार्यपालिक आदेश उसका अतिक्रमण नहीं करता है और इस अर्हता को बदला जा सकता है। अनु० 15 (4) के अधीन राज्य का सांविधानिक दायित्व है कि वह इन वर्गों की उन्नति के लिए हर सम्भव प्रयास करे और वह मेडिकल कालेजों और अन्य टेकनिकल शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश के लिए स्थानों का आरक्षण कर सकती है। राज्य आरक्षण को प्रभावी बनाने के लिए शर्तें लगा सकती है। विशेष परिस्थितियों में यदि आरक्षण को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक हो तो राज्य सरकार प्रवेश सम्बन्धी अर्हता और शर्तों में यथोचित परिवर्तन कर सकती है। विनियम 20 के अधीन राज्य को न्यूनतम अर्हता अंक में आवश्यकतानुसार छूट प्रदान करने की शक्ति प्राप्त है। इस प्रकार सरकार द्वारा इन वर्गों के अभ्यर्थियों को न्यूनतम अर्हता अंक की शर्त में पूर्ण छूट देना अयुक्तियुक्त नहीं है और इससे अनु० 15 (4) का उल्लंघन नहीं होता है। उच्चतम न्यायालय ने बिहार उच्च न्यायालय द्वारा अमलेन्दु कुमार बनाम बिहार राज्य के निर्णय को उलट दिया जिसमें यह निर्णय दिया गया था कि उक्त वर्ग के लोगों के लिए अर्हता अंक को कार्यपालिक आदेश से कम करना असंवैधानिक है और वह अनु० 15 (4) का अतिक्रमण करता है। क्या ऐसे माता-पिता से उत्पन्न व्यक्ति जो पहले अनुसूचित जाति के थे किन्तु बाद में ईसाई धर्म में संपरिवर्तित हो गये थे, द्वारा पुनः संपरिवर्तित करके अनुसूचित जाति का सदस्य बन जाने पर धारा 15 और 29 के अधीन मेडिकल कालेज में प्रवेश के लिए पदों के आरक्षण का दावा किया जा सकता है ?         यह प्रश्न प्रधानाचार्य गुण्टूर मेडिकल कालेज बनाम वाई मोहन राव" के मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष उठाया गया था। इस मामले में प्रत्यर्थी के माता-पिता प्रारम्भ से अनुसूचित जाति के थे। वे दोनों किसी समय ईसाई धर्म में संपरिवर्तित हो गये थे। प्रत्यर्थी अपने माता-पिता के सम्परिवर्तन के पश्चात् पैदा हुआ था। आन्ध्र प्रदेश राज्य में मेडिकल कालेज में प्रवेश के प्रयोजन के लिए ईसाई धर्म में संपरिवर्तित जाने वालों को पिछड़ी जाति का माना जाता है। प्रत्यर्थी ने प्रवेश के लिए दिये आवेदन में अपने को पिछड़े वर्ग का सदस्य उल्लिखित किया। किन्तु वह प्रवेश पाने में सफल न हो सका। तत्पश्चात् वह हिन्दू धर्म में संपरिवर्तित हो गया और "हिन्दू धर्म की अनुसूचित जाति में उसे पुनः स्वीकार कर लिया गया था।" पर उसने मेडिकल कालेज में प्रवेश के लिए इस आधार पर आवेदन किया कि वह अनुसूचित जाति गुण्टूर का सदस्य था। उसका चयन कर लिया गया। किन्तु बाद में कालेज के प्रधानाचार्य द्वारा उसके चयन को इस आधार पर रद्द कर दिया गया कि वह जन्म से हिन्दू नहीं था। प्रधानाचार्य ने इसके लिए आन्ध्र सरकार के एक आदेश का अवलम्बन किया। प्रत्यर्थी ने अपने प्रवेश को रद्द करने की विधिमान्यता को न्यायालय में चुनौती दी।         उच्चतम न्यायालय ने प्रत्यर्थी के पिटीशन को स्वीकार करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि जब किसी जाति के सदस्य, जिस जाति से उस व्यक्ति के माता-पिता ईसाई धर्म में संपरिवर्तित हुए थे, उस व्यक्ति को पुनः उस जाति के सदस्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं तो वह पुन: उस जाति का सदस्य बन जाता है, और उस जाति का सदस्य होने के नाते जो कि अनुसूचित है; वह मेडिकल कालेज में पदों के आरक्षण के लिए दावा कर सकता है। इस बात का विनिश्चय करना उस जाति के सदस्यों का काम है कि वे उस जाति के अन्तर्गत उस व्यक्ति को स्वीकार करते हैं अथवा नहीं। चूँकि जाति व्यक्तियों का एक सामाजिक संगठन है जो कि उनके रीति-रिवाजों में शासित होता है, अतः वे यदि उनके रीति-रिवाजों में यह व्यवस्था हो, तो उसी प्रकार से किसी नए सदस्य को सम्मिलित कर सकते हैं जिस प्रकार वे किसी विद्यमान सदस्य का बहिष्कार कर सकते हैं। अतएव आन्ध्र प्रदेश सरकार द्वारा प्रवेश पाने के लिये जारी किए गये नियम में यह उपबन्ध कि अनुसूचित जाति का सदस्य होने के लिए जन्म से हिन्दू या सिक्ख होना चाहिए, अवैध हैं क्योंकि आदेश के खण्ड 3 के अनुसार किसी व्यक्ति को अनुसूचित जाति का सदस्य होने के लिए जन्म से हिन्दू या सिक्ख होना आवश्यक नहीं है, बल्कि सुसंगत समय पर हिन्दू या सिवख धर्म का मानने वाला होना चाहिए।         जगदीश सरन बनाम भारत संघ' के मामले में प्रत्यर्थी मद्रास विश्वविद्यालय का एक मेडिकल स्नातक था। उसके पिता का स्थानान्तरण दिल्ली हो गया। प्रत्यर्थी ने चर्म-चिकित्सा में स्नातकोत्तर डिग्री के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए आवेदन किया। प्रवेश परीक्षा में प्रत्यर्थी को प्रवेश के लिए पर्याप्त अंक मिले किन्तु फिर भी उसे इसलिए प्रवेश नहीं मिला क्योंकि एक नियम के अधीन 60% प्रतिशत स्थान दिल्ली के स्नातकों के लिए आरक्षित कर दिये गये थे। 35% प्रतिशत स्थान सामान्य प्रत्यर्थियों के लिए, जिसमें दिल्ली भी शामिल था, प्रत्यर्थी ने उक्त नियम की विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती दी कि इससे अनु० 14 और 15 का अतिक्रमण होता था। रेस्पान्डेण्ट की ओर से उक्त नियम को दो आधारों पर उचित बताया गया। प्रथम यह कि अन्य विश्वविद्यालय भी ऐसी नीति का अनुसरण करते हैं और दूसरे यह कि छात्रों के आन्दोलन के कारण ऐसा करना पड़ा। न्यायालय ने सर्वसम्मति से यह निर्णय दिया कि किसी विशेष विश्वविद्यालय में उसी के छात्रों के लिए प्रवेश के लिए स्थानों का आरक्षण अनु० 15 का अतिक्रमण करता है। संस्थागत आरक्षण शिक्षात्मक एवं सामाजिक तथ्यों पर आधारित होना चाहिये। राजनैतिक उद्देश्य के आधार पर नहीं। दिल्ली शिक्षात्मक या आर्थिक दृष्टि से देश के अन्य भाग की अपेक्षा पिछड़ा क्षेत्र नहीं है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण योग्यता के आधार पर होना चाहिये। दिल्ली विश्वविद्यालय में चिकित्सा विज्ञान में स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए आरक्षण छात्रों के आन्दोलन के आधार पर नहीं किया जा सकता है। अतः 60% प्रतिशत का आरक्षण अत्यधिक होने के कारण असंवैधानिक है। न्यायालय ने कहा कि संस्थागत आरक्षण किया जा सकता है यदि किसी क्षेत्र विशेष में विशिष्ट परिस्थितियाँ विद्यमान हैं जैसे असन्तुलन दूर करना या पिछड़ापन आदि।         आरती बनाम जम्मू एण्ड काश्मीर' 1981 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के आधार पर सरकार के मेडिकल कालेजों में एम० बी० बी० एस० पाठ्यक्रम में प्रवेश के आरक्षण को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया कि वर्गीकरण अस्पष्ट और मनमाना है क्योंकि उन क्षेत्रों का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है जिनमें असन्तुलन है अतः वह अनु० 15 (4) का अतिक्रमण करता है। राज्य सरकार ने कुल 50 स्थानों में से 25% स्थान राज्य के विभिन्न भागों में व्याप्त क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के लिए आरक्षित कर दिया था। एक अधिसूचना जारी करके क्षेत्रीय असन्तुलन के सिद्धान्त को लागू करने के उद्देश्य से कुछ गाँवों का विवरण दिया गया था जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े थे। न्यायालय ने निर्णय दिया कि इन गांवों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े मानने के लिए कोई ठोस आधार नहीं था अतः इन गाँवों और अन्य गाँवों के बीच किया गया वर्गीकरण विभेदकारी और असंवैधानिक था।