कोई भी वृत्ति, उपजीविका, व्यापार, पेशा, व्यवसाय, कारबार एवं वाणिज्य की स्वतन्त्रता | to practice any profession or to carry on any occupation, trade or business

कोई भी वृत्ति, उपजीविका, व्यापार, पेशा, व्यवसाय, कारबार एवं वाणिज्य की स्वतन्त्रता | to practice any profession or to carry on any occupation, trade or business



        अनुच्छेद 19 (1) (छ) सभी नागरिकों को कोई भी वृत्ति, उपजीविका, व्यापार, पेशा, व्यवसाय, कारबार एवं वाणिज्य करने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है। इस अधिकार पर राज्य युक्तियुक्त निर्बन्धन लगा सकता है। खंड (6) के अधीन निम्नलिखित आधारों पर राज्य को निर्बन्धन लगाने की शक्ति प्राप्त है-
1- साधारण जनता के हित में,
2- विशेष प्रकार के व्यवसायों के लिए आवश्यक अर्हताएं निर्धारित कर,
3- नागरिकों को पूर्ण या आंशिक रूप में किसी भी व्यापार या व्यवसाय से बहिष्कृत करके।
        व्यापार करने के अधिकार में व्यापार को बन्द कर देने का अधिकार भी शामिल है। राज्य किसी व्यक्ति को व्यापार करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता है। किन्तु अन्य अधिकारों की भाँति व्यापार को बन्द करने का अधिकार भी एक आत्यन्तिक अधिकार नहीं है और सार्वजनिक हित के लिये इसे निर्बन्धित विनियमित और नियन्त्रित किया जा सकता है। व्यापार प्रारम्भ करने का अधिकार व्यापार बन्द करने के अधिकार से अधिक महत्वपूर्ण अधिकार है। किसी व्यक्ति को किसी व्यापार के प्रारम्भ करने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता है। किन्तु यदि किसी व्यक्ति ने व्यापार प्रारम्भ कर दिया है तो उसे उसके बन्द करने का आत्यन्तिक अधिकार नहीं होता है। सार्वजनिक हित में उसे व्यापार को बन्द करने से रोका जा सकता है। उपर्युक्त सिद्धान्तों को इक्सेल वियर बनाम भारत के वाद में प्रतिपादित किया गया है। इस वाद में वादी एक रजिस्टर्ड फर्म थी जो निर्यात के लिये सिले हुए वस्त्रों को बनाती थी। गम्भीर श्रमिक विवाद के कारण फर्म का कारखाना घाटे में चल रहा था। वादी ने सरकार से कारखाने को बन्द करने की अनुमति माँगी जिसे सरकार ने श्रमिक विवाद अधिनियम की धारा 25 (O) और 25 (R) के अधीन इन्कार कर दिया। धारा 25 (O) अनुमति लेने का उपबन्ध करती है और 25 (R) धारा 25 (O) के उल्लंघन के लिये दण्ड का उपबन्ध करती है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि धारा 25 (O) पूर्णरूपेण और धारा 25 (R) का वह भाग जो दण्ड विहित करता है, असंवैधानिक है, क्योंकि यह अनु० 19 (1) (छ) का अतिक्रमण करती है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि कोई व्यक्ति अपने श्रमिकों को मजदूरी नहीं दे सकता तो उसे व्यापार करने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसी स्थिति में उसे कारबार बन्द कर देना चाहिये। किसी व्यक्ति को जो श्रमिकों की मजदूरी नहीं दे सकता उसे कारबार बन्द करने की अनुमति न देना अनु० 19 (6) के अधीन सार्वजनिक हित में युक्तियुक्त निर्बन्धन नहीं कहा जा सकता है। किन्तु हड़ताल और तालाबन्दी को रोकना एक अलग बात है। राज्य जनहित में, जिससे सार्वजनिक उपयोग की सेवायें चलती रहें, हड़ताल या तालाबन्दी करने पर प्रतिबन्ध लगा सकता है।

युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-  
        इस अनुच्छेद के खंड (6) के अन्तर्गत राज्य पेशा, व्यवसाय और वाणिज्य के अधिकार पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगा सकता है। किन्तु शर्त यह है कि प्रतिबन्ध 1- युक्तियुक्त हों और 2- लोकहित में हों। लोकहित के आधार पर प्रतिबन्धों की युक्तियुक्तता का निर्धारण करने के लिये देश, काल, व्यवसाय की प्रकृति और उसमें मौजूद सभी तत्वों पर ध्यान देना आवश्यक है। यह स्पष्ट है कि प्रत्येक व्यवसाय में ये तत्व भिन्न-भिन्न होते हैं और ऐसे नियम नहीं बनाये जा सकते जो सभी व्यापारों में सामान्य रूप से लागू होते हों। अतः व्यापार पर लगाये गये प्रतिबन्ध के औचित्य पर विचार करते समय न्यायालयों को उक्त सभी बातों पर विचार करना चाहिये।"
        अनुच्छेद 19 (1) (छ) किसी व्यक्ति को अवैध या अनैतिक पेशा करने का अधिकार नहीं प्रदान करता है। व्यवसाय का अर्थ है वैध व्यवसाय। अवैध व्यवसाय के सम्बन्ध में  किसी व्यक्ति को कोई अधिकार नहीं प्राप्त है। सरकार को इस प्रकार के अवैध, अनैतिक या जनता के स्वास्थ्य और कल्याण को क्षति पहुँचाने वाले पेशा या व्यापार को करने से रोकने का अधिकार प्राप्त है। इस प्रकार खतरनाक वस्तुओं के व्यापार जैसे विषयुक्त दवाएँ, शस्त्र आदि; मिलावट वाले खाद्य पदार्थ, स्त्रियों का व्यापार आदि पर राज्य जनहित के आधार पर पूर्ण रोक लगा सकता है। ऐसे व्यापार जो अवैध नहीं हैं और जनता के स्वास्थ्य या नैतिकता को क्षति नहीं पहुँचाते, रोके नहीं जा सकते हैं। किन्तु उनको विनियमित किया जा सकता है और उनके बुरे प्रभावों को कम किया जा सकता है। कुछ व्यवसाय स्वभावतः शोर-गुल और खतरनाक प्रकृति के होते हैं, इसलिए उनके करने के स्थान, समय और ढंग को विनियमित करने की आवश्यकता होती है। किसी भी नागरिक को यह अधिकार नहीं हैं कि वह जिस स्थान पर चाहे अपना व्यापार करे या जिस प्रकार चाहे अपना व्यापार करे। यदि उसके कार्य से जनस्वास्थ्य को क्षति या किसी प्रकार की असुविधा होती है तो राज्य उस पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।
        लखन लाल बनाम उड़ीसा राज्य के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मादक द्रव्यों में व्यापार या कारोबार करने का किसी व्यक्ति को कोई मूल अधिकार नहीं हैं। मादक पेय; जैसे शराब, गाँजा, भाँग आदि के व्यापार करने का राज्य को एकाधिकार प्राप्त है और वह जन- हित में नागरिकों को इस व्यापार से पूर्ण बहिष्कृत कर सकता है। शराब आदि के बनाने, रखने या बेचने का राज्य को एकाधिकार प्राप्त है। वह किसी व्यक्ति को इन पदार्थों के व्यापार करने के लिए लाइसेन्स ऐसी शर्तों या निर्बन्धनों के अधीन प्रदान कर सकता है जिसे वह लोकहित में उचित समझे। युक्तियुक्त निर्बंन्धन पूर्ण निषेध के रूप में भी हो सकते हैं। इस प्रकार राज्य ऐसे निर्बन्धन भी लगा सकता है जो किसी व्यापार या पेशा को करने पर पूर्ण रोक लगाते हों। 'निषेध' एक प्रकार का निर्बन्धन ही है। देखिये - नरेन्द्र कुमार बनाम भारत संघ का निर्णय।


युक्तियुक्त निर्बन्धन के कुछ उदाहरण:
        1- कोई कानून जो सरकार को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह बस स्टैण्डों, सिनेमाघरों या शराब की दुकानों आदि को स्थापित करने के लिये एक निश्चित स्थान निर्धारित करे, एक उचित प्रतिबन्ध है।
        2- न्यूनतम मजदूरी अधिनियम सरकार को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह किसी कारखाने में कार्य करने वाले मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी निर्धारित कर सके। विजय काटन मिल्स बनाम अजमेर राज्य' के वाद में उक्त अधिनियम पर यह आपत्ति उठायी गयी कि वह अनु० 19 (1) (छ) का उल्लंघन करता है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अधिनियम द्वारा लगाये गये प्रतिबन्ध युक्तियुक्त हैं, क्योंकि ये जनहित में लगाये गये हैं। ग्यायालय ने कहा कि भारत एक अविकसित देश है जहाँ बेकारी की बड़ी गम्भीर समस्या वर्तमान है। ऐसी स्थिति में सम्भव है कि मजदूर ऐसी मजदूरी पर काम करने पर तैयार हो जायें जिनसे उनकी जीविका चलाना भी कठिन हो। अधिनियम का उद्देश्य है मजदूरों का नियोजकों द्वारा शोषण रोकना।
        3- ऐसा कानून जो जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं का अधिकतम मूल्य निर्धारित करता है या उनके उत्पादन, विभाजन और विक्रय पर नियन्त्रण रखने का उपबन्ध करता है, व्यवसाय की स्वतन्त्रता पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध है। दि एसेन्शियल सप्लाईज ऐक्ट, 1946 और एसेन्शियल कमोडिटीज ऐक्ट के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार को उक्त अधिकार प्राप्त हैं। इन कानूनों का उद्देश्य यह है कि आवश्यक सामग्रियां सभी को समान रूप से और उचित मूल्य पर उपलब्ध हो सकें। उक्त सभी अधिनियमों को उच्चतम न्यायालय ने संवैधानिक घोषित किया है। देखिए -राजस्थान राज्य बनाम नाथमल तथा द्वारिका प्रसाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के निर्णयों को।
        4- दी पंजाब ट्रेड इम्पलाईज ऐक्ट, 1949 यह उपबन्धित करता है कि राज्य की सभी दूकानें सप्ताह में एक दिन बन्द रहेंगी। एक दूकानदार ने इस अधिनियम पर आपत्ति किया और कहा कि वह उसके ऊपर लागू नहीं होता है, क्योंकि उसने अपनी दूकान में अन्य व्यक्तियों को नियोजित नहीं किया है और वह अपनी दूकान का काम स्वयं ही करता है। उच्चतम न्यायालय ने प्रार्थी की दलील को अस्वीकार करते हुए यह निर्णय दिया कि प्रतिबन्ध युक्तियुक्त है, क्योंकि वह जनहित में है। यह अधिनियम श्रमिकों के स्वास्थ्य और कार्य क्षमता को सुधारने के उद्देश्य से पारित किया गया है जो समाज के अभिन्न अंग हैं और जिनके कल्याण में समुदाय की पूर्ण दिलचस्पी रहती है। इस प्रकार सामाजिक नियन्त्रण की व्यवस्था केवल उन्हीं लोगों के हित में नहीं है जो दूकानों में नियोजित हैं, बल्कि उन लोगों के कल्याण के लिए भी है जो उसमें लगे हुए हैं, भले ही वे स्वयं मालिक ही क्यों न हों। देखिये -मनोहर लाल बनाम पंजाब राज्य का निर्णय। इसी प्रकार श्रमिकों की दशा सुधारने के उद्देश्य से यदि सरकार मिल मालिकों पर यह शर्त लगा देती है कि उन्हें मजदूरों को भविष्य में किये कार्य के लिए बोनस देना पड़ेगा तो यह जनहित में एक युक्तियुक्त प्रतिबन्ध होगा। देखिए- उत्तर प्रदेश राज्य बनाम बस्ती चीनी मिल का निर्णय।
        5- यदि किसी व्यापार के लिए लाइसेन्स लेने के लिए कोई शर्त विहित की गई है तो यह एक युक्तियुक्त प्रतिबन्ध होगा, लेकिन शर्त को उचित होना चाहिये तथा ऐसा नहीं होना चाहिये जो लाइसेन्स देने वाले प्राधिकारी को मनमाने अधिकार प्रदान करता हो। लाइसेन्स या परमिट पाने के लिए शुल्क देना अयुक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि यह न तो कर है और न तो लाइसेन्स देने के लिए अयुक्तियुक्त शर्त। देखिये - राम बख्श चतुर्भुज बनाम राजस्थान राज्य' का निर्णय।
        6- कोई भी नागरिक किसी व्यापार के सम्बन्ध में एकाधिकार का दावा नहीं कर सकता है। कुंवरजी बनाम इक्साइज कमिश्नर के वाद में एक कानून, जो कुछ लोगों को शराब बेचने का एकाधिकार प्रदान करता था, न्यायालय द्वारा अवैध घोषित किया गया है। न्यायालय ने कहा है कि नशीले द्रव्यों को बेचने का अधिकार सभी को नहीं प्रदान किया जा सकता है। जनहित यह अपेक्षा करता है कि इस प्रकार की वस्तुओं का व्यापार सीमित व्यक्तियों के ही हाथ में रहे।
        7- 'युक्तियुक्त प्रतिबन्ध' में 'निषेध' भी सम्मिलित है। नान- फेरस मेटल आर्डर, 1958 (Non Ferrous Metal Order, 1958) के अन्तर्गत व्यापारियों को आयात की गयी कहवा (Coffee) के व्यापार से पूर्ण रूप से बहिष्कृत कर दिया गया था। नरेन्द्र कुमार बनाम भारत संघ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने इसे जनहित में एक युक्तियुक्त प्रतिबन्ध माना है। न्यायालय ने कहा कि 'निषेध' एक प्रकार का प्रतिबन्ध ही है, बशर्ते कि वह युक्तियुक्तता के मानदण्ड को पूरा करता हो।
        8- श्री मीनाक्षी मिल्स बनाम भारत संघ के वाद में कॉटन टैक्सटाइल्स (कन्ट्रोल) आर्डर, 1948 की संवैधानिकता को चुनौती दी गयी थी। इस आदेश का मुख्य उद्देश्य सूत की उचित कीमत नियत करना तथा उसके उत्पादन और वितरण पर नियन्त्रण करना था। आदेश द्वारा यह निदेश दिया गया कि सूत का प्रत्येक उत्पादक उसमें वर्णित वितरण के केवल पाँच माध्यमों द्वारा ही सूत का विक्रय करेगा या परिदान करेगा। प्रत्येक व्यापारी अधिसूचना में विनिर्दिष्ट व्यक्तियों को ही ऐसे परिमाण में, जो जिलाधीश द्वारा अवधारित किया जाये, सूत बेचेगा या परिदत्त करेगा। विनिर्दिष्ट व्यक्ति हैं, प्रथम राज्य सरकार के नाम-निर्देशिती और द्वितीय अन्य व्यक्ति, जो वस्त्र आयुक्त द्वारा निर्दिष्ट किये जायें। पिटीशनरों ने यह दलील दी कि आदेश कुछ विनिर्दिष्ट व्यक्तियों के पक्ष में सूत के व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान करता है और अनु० 19 (1) (च) और (छ) में प्रदत्त उनके मूल अधिकार पर अयुक्तियुक्त निर्बन्धन लगाता है, अतः अवैध है।
        उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि आदेश द्वारा लगाये गये निर्बन्धन युक्तियुक्त हैं और लोकहित में हैं। सूत के वितरण का माध्यमीकरण (चैनेलाइजेशन) युक्तियुक्त दरों या माल की उपलब्धता की समस्याओं को हल करने के लिए यह कीमत तथा वितरण नियंत्रण लगाये गये हैं। पिटीशनरों ने यह भी दलील दी थी कि दामों को मनमाने ढंग से नियत किया गया है और ऐसा सूत के उत्पादन की लागत में हुए परिवर्तन पर ध्यान दिये बिना किया गया है।
        न्यायालय ने कहा कि केवल यह सुझाव कि उत्पादन की लागत में परिवर्तन होने के कारण समायोजन के लिए कोई उपबन्ध नहीं किया गया है, अनु० 19 में प्रदत्त अधिकार का अतिक्रमण करने की कोटि में नहीं आता है। ऐसा कोई कारण नहीं है जो यह दर्शित करे कि सूत की कीमतों में वृद्धि उत्पादन की लागत के कारण हुई थी। नियन्त्रित कीमत नियत करना उस तारीख को, जिसको नियत किया गया है, उत्पादन के लिये उचित कीमत नियत करने से कहीं अधिक है। नई कपास की फसल की कीमतें कीमत नियन्त्रण के समय ज्ञात नहीं हैं। यदि वे ज्ञात भी हो जायँ तो भी पिटीशनरों को सूत का उत्पादन करने में प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के मिश्रण के प्रति निर्देश से कपास की कीमतों का उस प्रवर्ग के सूत के उत्पादन की लागत पर प्रभाव को दर्शित करना होगा। इसके अतिरिक्त, यदि कपास की कीमतों में वृद्धि हो गई हो, तो भी पिटीशनर उसको आमेलित कर सकते हैं क्योंकि जो नियन्त्रित कीमत नियत की गई है, वह उत्पादक के लिए अधिक उचित है। यदि उसे कुछ समय के लिए अभिकथित हानि होती भी है तो यह एक युक्तियुक्त निर्बन्धन होगा, क्योंकि कीमत नियन्त्रण का उद्देश्य कीमत रेखा को बनाये रखना या कीमतों को सामान्य स्तर पर वापस ले आना है और सूती धागे को हथकरघा और पावरलूम बुनकरों के लिए उचित कीमत पर उपलब्ध कराना है जिससे कि वे मिल में निर्मित कपड़े के साथ प्रतियोगिता करने में सफल हो सकेँ। यहाँ यह नहीं दिखाया गया है कि नियन्त्रित कीमत इतनी अपर्याप्त है कि इससे न केवल अत्यधिक हानियाँ होती हैं, बल्कि सूत के प्रदाय की स्थिति के लिये भी भय उत्पन्न होता हैं। नियन्त्रित कीमत तो मूल आवश्यकताओं के न्यायोचित वितरण के लिए सम्पूर्ण देश के हित में है। नियन्त्रित कीमत न तो मनमानी है और न अनुचित निर्बन्धन ही है।
        9- विष्णु दयाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में सरकार ने उत्तर प्रदेश कृषि उत्पादन मण्डी अधिनियम, 1964 के अधीन एक आदेश जारी करके पिटीशनरों के लिए यह आवश्यक बना दिया कि वे उत्पादकों को बाजार को जाने वाले कृषि उत्पादनों को रखने के लिए भंडार गृहों की सुविधा प्रदान करें। पिटीशनरों ने आदेश पर इस आधार पर आपत्ति उठाई कि यह उनके व्यापार करने के अधिकार पर अयुक्तियुक्त निर्बन्धन है, अतः अवैध है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उक्त निर्बन्धन युक्तियुक्त है, अतः वैध है। कृषि उत्पादनों की विक्रय की रीति विहित करना जिससे उत्पादकों को उनके उत्पादनों का उचित मूल्य मिल सके व्यापार के अधिकार पर अयुक्तियुक्त निर्बंन्धन नहीं है। नीलाम द्वारा मालों को बेचने की रीति विक्रय की सर्वविदित रीति है जिसके माध्यम से उत्पादक अपनी वस्तुओं के अधिकतम मूल्य प्राप्त कर सकते हैं जिनके हित की सुरक्षा के लिए अधिनियम पारित किया गया है।
        10- चन्द्रकान्त माह बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने राइस मिलिंग इण्डस्ट्री (रेगुलेशन) ऐक्ट, 1958 की धारा 5 और 6 को जिसके अधीन वर्तमान राइस मिलों के मालिकों को धान कूटने के लिए नई मशीन लगाने के लिए लाइसेन्स लेना आवश्यक है, इस आधार पर विधिमान्य घोषित किया कि वह व्यापार और कारबार के अधिकार पर युक्तियुक्त निर्बंन्धन लगाता है। पिटीशनरों का अभिकथन था कि उपर्युक्त उपबन्ध उनके कारबार करने के अधिकार को नष्ट करते हैं क्योंकि लाइसेन्स प्राप्त किये बिना वे अपनी मिलों में धान कूटने की मशीन नहीं लगा सकते हैं। किन्तु न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उपर्युक्त उपबन्ध विनियमात्मक प्रकृति के हैं और सार्वजनिक हित में और अधिनियम के उद्देश्यों के लिए (अर्थात्, धान उगाने वालों के देशीय और हाथ से धान काटने के कारबार को सुरक्षित रखने के लिए, कारबार के अधिकार पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाते हैं। अधिनियम के अधीन लाइसेन्स प्रदान करने वाले अधिकारी को लाइसेन्स देने या न देने का विवेकाधिकार नहीं दिया गया है। यदि अधिनियम द्वारा विहित शर्तों का अनुपालन किया गया है तो धारा 6 (3) के अधीन वह लाइसेन्स देने के लिए बाध्य होगा। धारा 7 में उन आधारों का उल्लेख किया गया है जिन पर लाइसेन्सिंग अधिकारी किसी व्यक्ति के लाइसेन्स को रद्द या निलम्बित कर सकता है। इस प्रकार अधिनियम में लाइसेन्सिंग अधिकारी द्वारा अपनी शक्तियों के प्रयोग के लिए समुचित मार्गदर्शक सिद्धान्त निहित किये गये हैं, अतएव अधिनियम वैध है।खटकी अहमद बनाम लुण्डा नगरपालिका' के मामले में पिटीशनर ने नगरपालिका के एक उपनियम की वैधता को न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी कि वह उसके कारबार के आधार पर अयुक्तियुक्त निर्बन्धन लगाता है अतः अविधिमान्य है। उपर्युक्त उपविधि के अधीन नगरपालिका ने पिटीशनर को मांस बेचने की दूसरी दुकान खोलने के लिए लाइसेन्स देने से इन्कार कर दिया था क्योंकि उस क्षेत्र में पहले से ही तीन मांस के बेचने की दुकानें थीं जिनमें से एक पिटीशनर के पिता की दुकान थी। ऐसी दशा में उसी व्यक्ति को उसी छोटे से क्षेत्र में एक और दुकान खोलने की अनुमति देना उचित नहीं था। इसके अतिरिक्त उस क्षेत्र के लोगों में भी इसके लिये विरोध की भावना थी जिससे शान्ति व्यवस्था की समस्या उत्पन्न होने की आशंका थी। न्यायालय इन बातों की उपेक्षा नहीं कर सकता है। यह अभिनिर्धारित किया गया कि किसी व्यक्ति को किसी विशेष स्थान पर ही दुकान खोलने का कोई अधिकार नहीं है। इस बात का निर्णय करने का अधिकार कि किसी व्यक्ति को किसी विशेष स्थान पर मांस बेचने की दुकान खोलने का लाइसेन्स दिया जाये अथवा नहीं, नगरपालिका अधिकारियों को है क्योंकि वे क्षेत्रीय समस्याओं से पूर्णरूपेण अवगत हैं। नगरपालिका ने जिन आधारों पर पिटीशनर को लाइसेन्स देने से इन्कार किया है वे आधार अनुचित नहीं कहे जा सकते हैं और कारबार के अधिकार पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाते हैं। अतः उपर्युक्त उपविधि विधिमान्य एवं संवैधानिक है। 

अयुक्तियुक्त निर्बन्धन के कुछ उदाहरण:
        1- एक कानून सरकार को यह अधिकार देता था कि वह एक विशेष क्षेत्र के सभी लोगों को खेती के मौसम में बीड़ी बनाने का कार्य करने से रोक दे। उक्त कानून का उद्देश्य बीड़ी बनाने वाले क्षेत्र में खेती के कार्य के लिए पर्याप्त मजदूर सुलभ करना था। चिन्तामणि राव बनाम मध्य प्रदेश राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने उक्त अधिनियम को अवैध घोषित कर दिया, क्योंकि यह बीड़ी निर्माण व्यापार पर अयुक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाता है। यह खेती के मौसम में बीड़ी बनाने के अधिकार को पूर्ण रूप से निलम्बित कर देता है। निषेध की प्रकृति मनमाने ढंग की है जिसे विधान पूरा करना चाहता है। यह न केवल उन्हीं लोगों को दूसरे धन्धे करने से रोकता है जो खेती के कामों में लगे हुए हैं, बल्कि उन लोगों को भी बीड़ी के कारोबार करने से मना करता है जो खेती के कार्य से सम्बन्ध नहीं रखते, जैसे कमजोर, अपंग, व्यक्ति, बूढ़ी औरतें या बच्चे जो खेती के कार्य के लिये सक्षम नहीं हैं। ऐसे व्यक्तियों को बीड़ी का कारोबार करके अपने जीविकोपार्जन करने से रोकना जनहित के प्रतिकूल है। यह व्यापार की स्वतन्त्रता पर अयुक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाता है, अतः अवैध है।

        2- कोई ऐसा कानून जो सरकार को या सरकारी प्राधिकारियों को बिना कोई कारण बताये या लाइसेन्सधारी को सुने जाने का बिना अवसर दिये लाइसेन्सों को अस्वीकार करने, रद्द करने, निलम्बित करने, संशोधन करने की शक्ति देता है; नागरिकों के व्यापार के अधिकार पर अयुक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाता है। द्वारका दास बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने दी यू० पी० कोल कण्ट्रोल आदेश, 1953 को इसी आधार पर अवैध घोषित कर दिया क्योंकि उसके अन्तर्गत लाइसेन्स देने वाले अधिकारी को अनियन्त्रित स्वविवेकीय शक्ति प्रदान की गई थी। (3) अवध सुगर मिल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ 2 के मामले में बाम्बे एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट ऐक्ट, 1939 की धारा 4-क की वैधता को चुनौती दी गई थी। इस अधिनियम के अधीन सरकार ने एक आदेश जारी करके एक विशेष स्थान को बाजार का मुख्य क्षेत्र घोषित किया जो पहले स्थान से भिन्न था। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उक्त आदेश पिटीशनरों के व्यापार और वाणिज्य के अधिकार पर अयुक्तियुक्त निर्बंन्धन लगाता है, अत: असंवैधानिक है। व्यापारीगण को 10 दिन के अन्दर पुराने बाजार के क्षेत्र से अपने कारोबार को नये बाजार-क्षेत्र को ले जाने का आदेश देना उनके व्यापार करने के अधिकार पर अनुचित निर्बन्धन लगाता है।

कर-विधि अयुक्तियुक्त निर्बन्धन नहीं है:
        नागरिकों के व्यापार या व्यवसाय के अधिकार को कर से छूट नहीं दी गयी है। सरकार विधिपूर्वक किसी भी पेशा, व्यवसाय या वाणिज्य पर कर लगा सकती है। कर-विधि इस अधिकार पर प्रतिबन्ध नहीं है। देखिये – कैलाश नाथ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य का निर्णय। 

पेशा और व्यवसाय सम्बन्धी अर्हताए:
        राज्य विशेष प्रकार के व्यवसायों या पेशों के लिए आवश्यक व्यावसायिक और तकनीकी अर्हताएँ निर्धारित कर सकता है; जैसे, इन्जीनियरों के लिये इन्जीनियरिंग डिग्री, डाक्टरों के लिये डाक्टरी डिग्री, वकीलों के लिये वकालत की डिग्री इत्यादि। लेकिन आवश्यक यह है कि एक प्रकार का पेशा या व्यवसाय करने वाले व्यक्तियों के लिये एक तरह की अर्हता विहित की गयी हो। पेशा और व्यवसाय सम्बन्धी अर्हता वाले कुछ मुख्य अधिनियमों के नाम इस प्रकार हैं-
1. एडवोकेट ऐक्ट,
2. बार काउन्सिल ऐक्ट,
3. लीगल प्रैक्टिशनर्स ऐक्ट,
4. इण्डियन मेडिकल डिग्रीज ऐक्ट,
5. मेडिकल कौन्सिल ऐक्ट,
6. फारमेसी ऐक्ट,
7. प्राविन्शियल मनीलेन्डर्स ऐक्ट,
8. दी बंगाल टाउट्स ऐक्ट,
9. दी बंगाल डेन्टिस्ट ऐक्ट।

राज्य-व्यापार और राष्ट्रीयकरण:
        अनुच्छेद 19 का खंड (6) राज्य को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह नागरिकों को पूर्ण या आंशिक रूप से बहिष्कृत करके कोई भी व्यापार या वाणिज्य स्वयं कर सकता है। यह खंड अनु० 19 में संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा जोड़ा गया था। यह संशोधन मोती लाल बनाम उ० प्र० के निर्णय के कारण आवश्यक हो गया था। इस वाद में उत्तर प्रदेश सरकार ने सड़क पर चलने वाली निजी गाड़ियों के स्वामियों को परमिट देने से इन्कार कर दिया, ताकि सरकार सड़क-यातायात को अपने नियन्त्रण में ले सके। मोटर ह्वीकिल्स ऐक्ट के अन्तर्गत सड़क यातायात के निजी स्वामियों को क्षेत्रीय प्राधिकारी से परमिट लेना आवश्यक था। किन्तु सरकार के लिए ऐसा परमिट लेना आवश्यक नहीं था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यदि राज्य कोई व्यापारिक कार्य करता है तो वह किसी प्रकार के विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकता। राज्य द्वारा अन्य व्यक्तियों को परमिट देने से इन्कार करना अनु० 14 में दिये गये समान संरक्षण का अतिक्रमण करना है। राज्य के पक्ष में एकाधिकार को न तो सड़क यातायात को विनियमित करने के आधार पर औचित्यपूर्ण ठहराया जा सकता है, न अनु० 19 (6) के अन्तर्गत प्रतिबन्ध लगाने के आधार पर ही। ऐसा केवल जनहित के आधार पर ही किया जा सकता है, जिसका अधिकार राज्य को प्रदान नहीं किया गया है। राज्य अधिनियम में दिये गये निर्देशों का दुरुपयोग करके और मनमाने ढंग से परमिट को अस्वीकार करके अप्रत्यक्ष तरीके से सड़क यातायात का राष्ट्रीयकरण नहीं कर सकता है।
        संशोधित अनु० 19 (6) के अन्तर्गत राज्य किसी भी व्यापार या वाणिज्य का राष्ट्रीय-करण करने में सक्षम है। यह खंड किसी वर्तमान कानून को भी संरक्षण प्रदान करता है जिसमें ऐसे उपबन्ध हैं। इन संशोधनों के बाद राज्य को किसी व्यापार में एकाधिकार को नागरिकों के व्यापार के अधिकार पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध के रूप में औचित्यपूर्ण सिद्ध करना आवश्यक नहीं है। कोई नागरिक इसके विरुद्ध आपत्ति नहीं कर सकता कि राज्य ने किसी व्यापार से उसे पूर्ण या आंशिक रूप में बहिष्कृत कर दिया है। देखिये- रामचन्द्र बनाम उड़ीसा राज्य का निर्णय। राज्य के पक्ष में एकाधिकार की सृष्टि नागरिकों को व्यापार या पेशा करने के अधिकार से वंचित करना नहीं माना जायगा, न ही किसी ऐसे कानून को जो राज्य के पक्ष में किसी व्यापार में एकाधिकार की सृष्टि करता है या राष्ट्रीयकरण की अनुमति देता है, की वैधता पर इस आधार पर आपत्ति की जा सकती है कि यह अयुक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाता है या यह जनहित में नहीं है, देखिये – सगीर अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य का निर्णय। इस प्रकार नागरिकों के पेशा, व्यवसाय या वाणिज्य का अधिकार राज्य की राष्ट्रीयकरण की शक्ति के अधीन कर दिया गया है। केन्द्रीय सरकार ने अपनी इसी शक्ति के प्रयोग में देश के 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया है यद्यपि बैङ्क नेशनलाइजेशन ऐक्ट को उच्चतम न्यायालय ने एक दूसरे आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया है, तथापि न्यायालय ने कहा है कि संसद् को किसी व्यापार के राष्ट्रीयकरण या एकाधिकार को सृजित करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है।


भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस की स्वतन्त्रता | To reside and settle in any part of the territory of india

 भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में  निवास करने और बस की स्वतन्त्रता | To reside and settle in any part of the territory of india


        इस लेख में आपको भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में  निवास करने और बस की स्वतन्त्रता, भ्रमण और निवास की स्वतन्त्रता का सम्बन्ध आदि ऐसे महत्ववपूर्ण अधिकारों के सम्बन्ध में आपको जानकारी मिलेंगी।
अनुच्छेद 19 (1) (ङ) सभी नागरिकों को सम्पूर्ण भारत में बसने या आवास करने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। इसके लिये उसे किसी पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं है। किन्तु इस अनु० के खण्ड (5) के अन्तर्गत इस अधिकार पर राज्य जनहित या अनुसूचित जातियों के हितों में युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगा सकता है।
        यह ध्यान देने की बात है कि निवास की स्वतन्त्रता और भ्रमण की स्वतन्त्रता एक दूसरे की पूरक है और दोनों का उद्देश्य भी राष्ट्रीय एकता की स्थापना करना है। भ्रमण की स्वतन्त्रता की भाँति निवास की स्वतन्त्रता पर भी जनहित में या अनुसूचित जातियों के हित की रक्षा में प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। उदाहरणार्थ, सप्रेशन ऑफ इम्मोरल ट्रैफिक इन वीमेन ऐण्ड गर्ल्स ऐक्ट, 1950 मजिस्ट्रेट को अनैतिक कार्य करने वाले व्यक्तियों को किसी विशेष स्थान से हटाने का आदेश देने की शक्ति प्रदान करता है। इस अधिनियम के अन्तर्गत मजिस्ट्रेट ने एक वेश्या को शहर की घनी आबादी वाले क्षेत्र से बाहर चले जाने का आदेश दिया था। उच्चतम न्यायालय ने इसको उसके भ्रमण एवं निवास की स्वतन्त्रता पर उचित प्रतिबन्ध माना है। इस बात का निर्णय मजिस्ट्रेट ही करेगा कि एक विशेष स्थान से एक वेश्या का निष्कासन सामान्य जनता के हित में है या नहीं। देखिये- उत्तर प्रदेश राज्य बनाम कौशिल्या 1 का निर्णय।
        भ्रमण एवं निवास की स्वतन्त्रता को आपात्कालीन स्थिति में भी कम या निलम्बित किया जा सकता है। फारेनर्स ऐक्ट, 1864 और 1966 के अन्तर्गत किसी भी विदेशी व्यक्ति के भ्रमण एवं निवास के अधिकार पर भी प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं और उन्हें भारत से निष्कासन का आदेश भी दिया जा सकता है। इस विषय पर इब्राहीम वजीर बनाम बम्बई राज्य का निर्णय एक महत्वपूर्ण निर्णय है : इस वाद में पाकिस्तान (आगमन) नियन्त्रण अधिनियम की धारा 7 की सांविधानिकता को चुनौती दी गयी थी। इन अधिनियम के अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति द्वारा पाकिस्तान से भारत में बिना किसी अनुज्ञापत्र या परिपत्र के प्रवेश करना एक दंडनीय अपराध है। अधिनियम की धारा 7 केन्द्रीय सरकार को यह शक्ति देती है जिसके अधीन वह किसी भी व्यक्ति को, जिसमें भारत का नागरिक भी शामिल है, जिसने इस अधिनियम के अन्तर्गत कोई अपराध किया है या जिसके विरुद्ध ऐसे अपराध करने का युक्तियुक्त सन्देह विद्यमान है, भारत से निकल जाने का आदेश दे सकती है। प्रार्थी बिना अनुज्ञा-पत्र के भारत में घुस आया था। उसे उक्त अधिनियम के अन्तर्गत बन्दी बनाकर देश से निष्कासित कर दिया गया। उच्चतम न्यायालय ने इस अधिनियम को इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया कि यह नागरिकों के भारत क्षेत्र में कहीं भी बसने या निवास करने के मूल अधिकार पर अयुक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाता है। किसी नागरिक का बिना अनुज्ञापत के अपनी मातृभूमि में आना कोई ऐसा गम्भीर अपराध नहीं है जिसके आधार पर उसका निष्कासन न्यायोचित ठहराया जा सके। इसके अतिरिक्त अधिनियम के अन्तर्गत इस बात का निर्धारण कि किसी ने अपराध किया है या नहीं, सरकार के व्यक्तिनिष्ठ निर्णय पर छोड़ दिया गया है जो सरकार को स्वेच्छाचारी शक्ति प्रदान कर देता है।
        मध्य प्रदेश राज्य बनाम भारत संघ के वाद में मध्य प्रदेश पब्लिक सेफ्टी ऐक्ट, 1959 की धारा 3 सरकार को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह किसी व्यक्ति को ऐसे स्थान में रहने या बने रहने, जिसका उल्लेख आदेश में किया गया हो, या उस स्थान को छोड़कर प्राधिकारियों द्वारा नियत स्थान में जाकर निवास करने या बने रहने के लिये आदेश दे सकती थी। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यह अधिनियम संविधान के अनु० 19 (1) (घ) में दिये हुए अधिकार पर अयुक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाता है, इसलिये अवैध है। अधिनियम के अन्तर्गत निष्कासित व्यक्ति को अपनी सफाई देने का युक्तियुक्त अवसर नही दिया गया था, न ही इसमें उस स्थान या क्षेत्र के विस्तार या निष्कासित व्यक्ति के निवास स्थान से उसकी दूरी आदि का स्पष्ट उल्लेख किया गया था। स्थान चयन के बारे में अन्तिम निर्णय लेने का अधिकार सरकार का था। ऐसी स्थिति में सरकार ऐसे स्थान का चयन कर सकती थी जहाँ रहने का कोई आवास न हो या जीविका का कोई साधन न हो।

भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र निर्बाध सचरण/भ्रमण की स्वतन्त्रता | Freedom of unrestricted movement throughout the territory of India

भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र निर्बाध सचरण/भ्रमण की स्वतन्त्रता | Freedom of unrestricted movement throughout the territory of India



        अनुच्छेद 19 (1) (घ) भारतीय नागरिकों को समस्त भारत में स्वतन्त्र रूप से भ्रमण करने का अधिकार प्रदान करता है। वह बिना किसी प्रतिबंध के भारत संघ के एक राज्य से दूसरे राज्य में जा सकता है और राज्य की सीमा के भीतर भ्रमण कर सकता है। इस प्रकार भारत का समस्त क्षेत्र नागरिकों के लिये एक इकाई के सदृश है। इसका मुख्य उद्देश्य प्रांतीयतावाद जैसी संकुचित भावना को समाप्त करके प्रत्येक नागरिक में राष्ट्रभक्ति की भावना की सृष्टि करना है।

        निर्बन्धन के आधार - अनुच्छेद 19 खण्ड (5) के अन्तर्गत राज्य भ्रमण की स्वतन्त्रता पर निम्नलिखित आधारों पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगा सकता है।-
           1- साधारण जनता के हित में;
        2- किसी अनुसूचित आदिम जाति के हित के संरक्षण में। एन० बी० खरे बनाम दिल्ली राज्य के बाद में अपीलार्थी को तीन महीने के लिए दिल्ली राज्य से बाहर चले जाने का निष्कासन आदेश दिया गया। यह आदेश ईस्ट पंजाब पब्लिक सेफ्टी ऐक्ट, 1949 के अन्तर्गत जारी किया गया था। प्रार्थी ने इस आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में एक पिटीशन दायर किया जिसमें उसने इस आदेश को दो कारणों से असंवैधानिक बताया। प्रथम, यह कि आदेश कार्यपालिका के व्यक्तिगत निर्णय पर आधारित था और दूसरा, यह कि अधिनियम ने निष्कासन की अवधि निर्धारित नहीं की थी। उच्चतम न्यायालय ने प्रार्थी के दोनों तर्कों को अस्वीकार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि आदेश जारी करने के अधिकार को राज्य सरकार या किसी सरकारी आफिसर को देना अनुचित नहीं है, क्योंकि आपात्कालीन परिस्थितियों में इस प्रकार के व्यक्तिगत आदेश जारी करने की वांछनीयता किसी आफिसर के ऊपर छोड़े जाने से इन्कार नहीं किया जा सकता है। अफसर के निर्णय को अन्तिम बना देने से ही प्रतिबंध अयुक्ति- युक्त नहीं हो जाते हैं।

        किन्तु इस प्रकार के कानून द्वारा कार्यपालिका अधिकारियों को मनमानी शक्ति नहीं प्रदान की जा सकती     है। उदाहरण के लिए; एक ऐसे कानून को जो खतरनाक चरित्र वाले व्यक्तियों को किसी विशेष क्षेत्र से बहिष्कृत करने के आदेश का उपबन्ध करता है, उच्चतम न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया, क्योंकि यह कार्यपालिका अधिकारियों को मनमानी शक्ति प्रदान करता था। अधिनियम में इसकी कोई परिभाषा नहीं दी गई है कि खतरनाक चरित्र वाले व्यक्ति कौन हैं। ऐसी दशा में कोई नागरिक चरित्र वाला है या नहीं इसका निर्णय अधिकारियों पर है। देखिये – मध्य प्रदेश राज्य बनाम बलदेव " का निर्णय।

        उत्तर प्रदेश राज्य बनाम कौशल्या के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि एक वेश्या को एक विशेष स्थान से हटाना, बहिष्कृत करना और उसके भ्रमण के अधिकार पर प्रतिबन्ध लगाना सामान्य जनता के हित में है।

        इस अधिकार पर अनुसूचित आदिम जाति के हित पर भी प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य आदिम जातियों की सुरक्षा करना है जो अधिकतर आसाम प्रान्त में रहती हैं। इन जातियों की अपनी विशेष भाषा, रीति-रिवाज और प्रथायें हैं। ऐसी आशंका थी कि बाहर लोगों के साथ अनियन्त्रित मेल-जोल के कारण इन जातियों के ऊपर अवांछनीय प्रभाव पड़ सकता है। इसी उद्देश्य से इन क्षेत्रों में जाने-आने के लिये पूर्व अनुमति प्राप्त करना आवश्यक है।

संघ या सहकारी सोसाइटी बनाने की स्वतंत्रता | Freedom to form unions or co-operative societies

 संघ या सहकारी सोसाइटी बनाने की स्वतंत्रता | Freedom to form unions or co-operative societies




इस लेख में आपको संघ या सहकारी सोसाइटी बनाने की स्वतंत्रता विषयक महत्वपूर्ण जानकारी मिलेगी
अनुच्छेद 19 (1) (ग) भारत के समस्त नागरिकों को संस्था या संघ बनाने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। किन्तु इस अनुच्छेद का खंड (4) राज्य को इस अधिकार पर लोक व्यवस्था या नैतिकता के हित में युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाने की शक्ति भी प्रदान करता है। संघ या संस्था बनाने के अधिकार में संगठन या प्रबन्ध का अधिकार भी निहित है। यह स्थायी संस्था होती है। इस प्रकार की संस्था और उनके सदस्यों का उद्देश्य भी सामान्य होता है। इस प्रकार इसमें कम्पनी, सोसाइटी, साझेदारी, श्रमिक संघ और राजनैतिक दलों आदि के बनाने का अधिकार भी सम्मिलित है। इसमें केवल संघ या संस्था बनाने का ही नहीं, बल्कि उसे चालू रखने का भी अधिकार है। संक्षेप में, इस अधिकार में संस्था या संघ बनाने या न बनाने, उसे चालू रखने या न रखने, या उसमें शामिल होने या न होने की पूर्ण स्वतन्त्रता का अधिकार भी सम्मिलित है। दमयन्ती बनाम भारत संघ" इस विषय पर उच्चतम न्यायालय का आधुनिकतम निर्णय है। इस मामले में हिन्दी साहित्य सम्मेलन अधिनियम, 1962 की वैधता को चुनौती दी गयी थी। पिटीशनर संघ का एक सदस्य था। अधिनियम ने संघ संविधान में परिवर्तन करके नये सदस्यों को सम्मिलित करने का उपबन्ध किया। इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप मूल सदस्यों को, जिन्होंने संघ को स्थापित किया था, उन सदस्यों के साथ कार्य करना पड़ा जिनके ऊपर उनका कोई नियन्त्रण न था। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम संघ के मूल सदस्यों के अनुच्छेद 19 (1) (ग) में दिये गये अधिकार का अतिक्रमण करता है, अतः अवैध है। संघ बनाने के अधिकार में यह अधिकार भी शामिल है कि जिन लोगों ने संघ बनाया है, वे उन्हीं लोगों के साथ कार्य करें जिन्हें वे स्वेच्छा से संघ में शामिल करते हैं। कोई ऐसा कानून जो संघ के मूल सदस्यों की सहमति के बिना नये सदस्यों की भर्ती करता है या जो मूल सदस्यों की सदस्यता को समाप्त कर देता है, संघ बनाने के अधिकार का अतिक्रमण करता है। प्रस्तुत मामले में अधिनियम केवल संघ के मामलों का विनियमन ही नहीं करता, बल्कि उसके संगठन को ही परिवर्तित कर देता है। इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप मूल सदस्यों को ऐसे सदस्यों के साथ कार्य करना पड़ता है जिनको अधिनियम द्वारा उनके ऊपर जबर्दस्ती थोप दिया गया है और जिनकी सदस्यता में उनका कोई हाथ नहीं है। संघ के संविधान में परिवर्तन स्पष्टतया मूल सदस्यों के संघ में सदस्य बने रहने के अधिकार का अतिक्रमण करता है; अतः असंवैधानिक है।
निर्बन्धन के आधार - अन्य अधिकारियों की भाँति इस अनुच्छेद के खंड (4) के अधीन राज्य को इस स्वतन्त्रता पर भी 'लोक-व्यवस्था' या नैतिक या देश की सम्प्रभुता के हित में युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाने की शक्ति प्राप्त है। खण्ड (4) इस विषय से सम्बन्धित वर्तमान विधियों की भी रक्षा करता है जो संघ या संस्था की स्वतन्त्रता से असंगत नहीं हैं।

        कानून प्रशासन या शांति व्यवस्था में किसी प्रकार से बाधा उत्पन्न करती है या जन-शांति को खतरा पैदा करती है तो वह उसे सरकारी गजट में अधिसूचना जारी करके गैर-कानूनी घोषित कर सकती है। ऐसी प्रत्येक अधिसूचना को एक सलाहकारी बोर्ड के सामने प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है। बोर्ड के समक्ष ऐसी अधिसूचना के विरुद्ध लोगों को अभ्यावेदन का अधिकार प्राप्त है। यदि सलाहकारी बोर्ड यह विचार व्यक्त करता है कि संघ गैरकानूनी नहीं है तो राज्य सरकार को अपनी अधिसूचना रद्द कर देनी होगी।

        उपर्युक्त अधिनियम की विधिमान्यता को मद्रास राज्य बनाम बी० जी० राव' के वाद में उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गयी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अधिनियम द्वारा लगाये गये प्रतिबन्ध अयुक्तियुक्त हैं। अधिनियम के अन्तर्गत लगाये गये प्रतिबन्धों की कसौटी सरकार के व्यक्तिगत निर्णय पर आधारित है। न्यायालय ने कहा कि सरकार को प्रतिबन्ध लगाने का अधिकार देना, किन्तु प्रतिबन्धों के आधार को न्यायालयों के विचार से अलग रखना सर्वथा अनुचित है। सलाहकार बोर्ड न्यायालयों का स्थान नहीं ले सकता है।
        इसी प्रकार हाजी मोहम्मद बनाम डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, मालदा के वाद में कानून के अधीन नगरपालिका के शिक्षकों को राजनीति में भाग लेने के लिए जिला बोर्ड से पूर्व अनुमति प्राप्त करना आवश्यक था। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उपर्युक्त निर्बन्धन युक्तियुक्त है, क्योंकि यह शिक्षकों को राजनीति में भाग लेने से रोकता है, जो शिक्षण संस्थाओं के हित में है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि शिक्षक किसी संघ या संस्था का सदस्य नहीं हो सकता है। न्यायालय ने एक सरकारी आदेश को इसी आधार पर अवैध घोषित कर दिया क्योंकि उक्त आदेश नगरपालिका के शिक्षकों को सरकार द्वारा अनुमोदित संघों के अतिरिक्त दूसरे संघों में शामिल होने से मना करता था। इसी प्रकार, घोष बनाम जोजेफ के वाद में सेन्ट्रल सर्विस कन्डक्ट रूल्स का नियम 4 सरकारी नौकरों से यह अपेक्षा करता था कि सरकार द्वारा सरकारी कर्मचारी संघ की मान्यता के लौटा लेने या संघ बनने के 6 महीने के भीतर सरकार द्वारा मान्यता न दिये जाने पर वे उस संघ की सदस्यता को वापस ले लेंगे। उच्चतम न्यायालय ने इस नियम को अवैध घोषित कर दिया क्योंकि इसके अनुसार संघ बनाने का अधिकार सरकार द्वारा मान्यता देने या न देने पर आधारित था, जो इस अधिकार को प्रभावहीन और भ्रामक बना देता था। खंड (4) के अन्तर्गत संघ बनाने के अधिकार पर केवल लोक-हित में युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। प्रस्तुत वाद में लगाये गये प्रतिबन्ध युक्तियुक्त नहीं थे क्योंकि मान्यता देने को ऐसे आधारों पर इन्कार किया जा सकता था जिनका लोक-हित से कोई सम्बन्ध नहीं था।
        बालाकोटया बनाम भारत संघ के वाद में प्रार्थी को एक सर्विस रूल के अनुसार कम्युनिस्ट पार्टी या श्रमिक संघ का सदस्य होने के कारण नौकरी से निकाल दिया गया था। प्रार्थी ने न्यायालय में यह दलील पेश की कि नौकरी से निकालकर वस्तुतः उसे उसके संघ बनाने के अधिकार को इन्कार किया जा रहा है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि पदच्युति आदेश अनुच्छेद 19 (1) का (ग) के विरुद्ध नहीं है क्योंकि आदेश प्रार्थी को कम्युनिस्ट बनाने या श्रमिक संघ का सदस्य बनाने से मना नहीं करता। प्रार्थी को निश्चय ही संघ बनाने का मूलाधिकार प्राप्त है किन्तु उसे सरकारी नौकरी में बने रहने का कोई मूल अधिकार नहीं प्राप्त है। संघ बनाने के अधिकार में सभी प्रकार के उद्देश्य प्राप्त करने के अधिकार शामिल नहीं है। उदाहरण के लिये, श्रमिक संघ को सामूहिक लाभ करने या हड़ताल करने या तालीबन्दी करने का कोई अधिकार नहीं है।
        प्रतिरक्षा सेना संघ बनाने का अधिकार और—ओ० के० ए० नायर बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष मुख्य विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या प्रतिरक्षा प्रतिष्ठानों में नियुक्त सेवक जैसे रसोइये, चौकीदार, लश्कर, नाई, बढ़ई, मिस्त्री, जूता बनाने वाले, दर्जी आदि प्रतिरक्षा सेवा के सदस्य माने जा सकते हैं जिन्हें संघ बनाने का अधिकार नहीं है। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया उपर्युक्त व्यक्ति अनु० 33 के अधीन प्रतिरक्षा सेना के सदस्यों में शामिल हैं, अतः सेना अधिनियम की धारा 21 के अधीन केन्द्रीय सरकार उनके संघ बनाने के अधिकार को नियम बनाकर निर्बन्धित कर सकती है। इस प्रकार के सेवकों का कर्त्तव्य सेना के सदस्यों को सक्रिय सेवा पर जाने का अनुसरण करना या साथ रहना होता है। यद्यपि वे युद्ध में भाग नहीं लेते हैं, तथापि वे प्रतिरक्षा सेना के एक आवश्यक अंग हैं।

सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता किस अनुच्छेद में वर्णित है और इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध क्या होगें | In which article is the freedom of assembly and conference described and what would be the appropriate restrictions on this freedom?

 सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता:



         इस लेख में आपको सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता क्या है? सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता के उदाहरण, सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता के विपक्ष में, सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता किस अनुच्छेद में वर्णित है, सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता का क्या अर्थ है, आपकी राय में इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध क्या होगें, आर्टिकल 19 में कितने प्रकार की स्वतंत्रता है, सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता क्या है? सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता के उदाहरण, सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता के विपक्ष में, सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता किस अनुच्छेद में वर्णित है, सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता का क्या अर्थ है, आपकी राय में इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध क्या होगें, आर्टिकल 19 में कितने प्रकार की स्वतंत्रता है आदि ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब आपको मिलेंगे।         अनुच्छेद 19 (1) (ख) भारतीय नागरिकों को शान्तिपूर्वक बिना हथियार के सभा करने की स्वतन्त्रता प्रदान करता है। इसमें सार्वजनिक सम्मेलनों, सभाओं एवं जुलूसों का अधिकार भी सम्मिलित है । यह अधिकार प्रजातांत्रिक व्यवस्था का स्वाभाविक परिणाम है। वस्तुतः यह स्वतन्त्रता वाक् और अभिव्यक्ति का ही अंग है। जब तक सभा करने का अधिकार नहीं होगा, व्यक्तियों को अपने विचारों के आदान-प्रदान करने का अवसर नहीं प्राप्त होगा। इंग्लैण्ड में भी यह अधिकार वाक् स्वतन्त्रता का ही भंग माना जाता है। अन्य अधिकारों की भाँति इस अधिकार पर भी प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। इस अधिकार पर निम्नलिखित तीन आधारों पर प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं- 1- सभा शान्तिपूर्ण होनी चाहिये। 2- सभा बिना हथियार के होनी चाहिये। 3- अनु० 19 के खंड (3) के अन्तर्गत राज्य इस लोक व्यवस्था के हित में युक्तियुक्त प्रति बन्ध लगा सकता है। अनुच्छेद 19 (1) (क) इस विषय से सम्बन्धित वर्तमान विधियों की रक्षा करता है, बशर्ते इनके अन्तर्गत लगाये गये प्रतिबन्ध लोक-हित में तथा युक्तिसंगत हों। यदि कोई सभा हिंसास्मक या जनशान्ति को भंग करने वाली है तो अनु० 19 (1) (ख) की सुरक्षा उसे नहीं प्राप्त होगी। इस प्रकार की सभाओं, सम्मेलनों, जुलूसों को गैरकानूनी घोषित किया जा सकता है और उसे भंग करने का आदेश दिया जा सकता है। भारतीय दंड विधान के अध्याय 8 में उन शर्तों का उल्लेख है जिनकी मौजूदगी में कोई सभा गैरकानूनी हो जाती है। दंड विधान की धारा 141 के अनुसार 5 या 5 से अधिक व्यक्तियों की सभा अवैध हो जाती है, यदि उस सभा को संगठित करने वाले व्यक्तियों का समान उद्देश्य - A- किसी कानून या कानूनी आदेशिका के निष्पादन का विरोध करना हो, B- कोई शरारत या अतिचार करना हो, C- बलपूर्वक किसी की सम्पत्ति पर कब्जा करना हो, D- किसी व्यक्ति को ऐसा कार्य करने के लिए बाध्य करना, जिसे करने के लिए वह कानूनी रूप से बाध्य नहीं है या उसे ऐसे कार्य न करने के लिए बाध्य करना जिसे करने के लिए वह कानूनी तौर से बाध्य है, E- सरकार के प्रति आपराधिक बल प्रयोग की धमकी देना या किसी सरकारी अधिकारी को इस प्रकार की धमकी देना हो।         एक सभा इकट्ठा होने के बाद अवैध रूप धारण कर सकती है, यदि यह हिंसात्मक रूप धारण कर ले या उससे लोक व्यवस्था के भंग होने की आशंका हो। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 127 के अन्तर्गत ऐसी सभा को भंग करने का आदेश दिया जा सकता है, यदि उससे जनशांति भंग होने की आशंका हो। दण्ड विधान की धारा 151, उक्त सभा को भंग होने के लिए दिये गये विधिपूर्ण आदेश की अवज्ञा करने को एक अपराध घोषित करती है। इसी प्रकार दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 107 मजिस्ट्रेट को यह शक्ति देती है कि वह किसी भी व्यक्ति से जिससे शांतिभंग किये जाने की आशंका हो, शांति बनाये रखने की जमानत ले सकता है। धारा 144 के अन्तर्गत मजिस्ट्रेट किसी सभा, सम्मेलन करने या जुलूस निकालने को मना कर सकता है, यदि सामान्य जनता के जीवन, स्वास्थ्य, सुरक्षा को किसी प्रकार की क्षति पहुंचाने की आशंका हो या लोक-शांति भंग होने या बलवा या हंगामा होने की संभावना हो। पुलिस ऐक्ट, 1861 के अधीन पुलिस अधिकारी सभाओं और जुलूसों को संचालित करने के ढंग, समय, स्थान और उनके जाने के मार्गों के बारे में लोक-व्यवस्था के हित में उचित निर्देश दे सकता है। इस ऐक्ट की धारा 30 के अधीन किसी व्यक्ति को जुलूस निकालने के पहले पुलिस अधिकारी से पूर्व अनुज्ञा लेना आवश्यक है। कोई ऐसा कानून जो मजिट्रेट को किसी सभा के करने की अनुज्ञा को स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार प्रदान करता है या ऐसा कानून जो बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति के सार्वजनिक जुलूस निकालने की अनुमति नहीं देता, न्यायालयों द्वारा वैध घोषित किया गया है। अमेरिकन संविधान की भांति भारतीय संविधान भी लोगों को शस्त्र रखने या उसे सभा में वर्तमान ले जाने का कोई सामान्य अधिकार प्रदान नहीं करता। भारत में, वर्तमान शस्त्र अधिनियम  जुलूसों या बिना लाइसेन्स के खतरनाक शस्त्रों को रखने या ले जाने को मना करता है। सेडिशस मीटिंग ऐक्ट, 1911 ऐसे सार्वजनिक सम्मेलनों को, जो राजद्रोह को उकसाते हैं या जन-शांति को भंग करते हैं, का निषेध करता है। राज्य सरकार किसी प्रान्त या उसके किसी भाग को सुरक्षित क्षेत्र घोषित कर सकती है। इसके पश्चात् इस क्षेत्र में कोई भी सार्वजनिक सभा या सम्मेलन या किसी ऐसे विषय पर विचार-विमर्श या ऐसे विषयों से सम्बन्धित लेख या प्रकाशन का प्रदर्शन या प्रचार नहीं किया जा सकता है जो लोक-अव्यवस्था फैलाता या उकसाता हो जब तक कि ऐसी सभा करने की सूचना जिलाधीश या पुलिस कमिश्नर को तीन दिन पूर्व न दे दी गयी हो और उनसे सभा करने की लिखित रूप में अनुमति न प्राप्त कर ली गयी हो।उपर्युक्त सभी उपबन्ध अनुच्छेद 19 के खंड (3) के अन्तर्गत सभा करने की स्वतन्त्रता पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध के रूप में मान्य ठहराये गये हैं।

FAQ:

1- सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता क्या है? 2- सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता के उदाहरण, सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता के विपक्ष में, सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता किस अनुच्छेद में वर्णित है? 3- सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता का क्या अर्थ है? 4- आपकी राय में इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध क्या होगें? 5- आर्टिकल 19 में कितने प्रकार की स्वतंत्रता है? 6- सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता क्या है? 7- सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता के उदाहरण, 8- सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता के विपक्ष में, सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता किस अनुच्छेद में वर्णित है? 9- सभा एवं सम्मेलन की स्वतन्त्रता का क्या अर्थ है, आपकी राय में इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध क्या होगें? 10- आर्टिकल 19 में कितने प्रकार की स्वतंत्रता है?

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार | Grounds of reasonable restrictions on freedom of speech and expression I Indian Constitution | Right to freeom

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार | Grounds of reasonable restrictions on freedom of speech and expression  I Indian Constitution | Right to freeom



        इस लेख में आपको वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है? इस स्वतंत्रता की सीमाएं क्या हैं?, वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से आप क्या समझते हैं?, विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतीय संविधान के आधार मूल्य कैसे हैं टिप्पणी कीजिए?, स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति का अधिकार कैसे प्रतिबंधों के अधीन है समझाइए?, आप कैसे कह सकते हैं कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की आवश्यक विशेषताओं में से एक है?, लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का क्या महत्व है?, वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है? इस स्वतंत्रता की सीमाएं क्या हैं? आदि ऐसे अनेकों सवाल हैं जिसके बारे में आपको जानकारी मिलेगी 
        भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में निम्नलिखित आधारों का उल्लेख है जिनके आधार पर नागरिकों की वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर युक्तियुक्त निर्बंन्धन लगाये जा सकते हैं-
1- राज्य की सुरक्षा,
2-विदेशी राज्यों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के हित में,
3- सार्वजनिक व्यवस्था,
4- शिष्टाचार या सदाचार के हित में,
5- न्यायालय अवमान,
6- मानहानि,
7- अपराध उद्दीपन के मामले में,
8- भारत की संप्रभुता एवं अखंडता,

1- राज्य की सुरक्षा के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
        राज्य की सुरक्षा सर्वोपरि है। राज्य की सुरक्षा के हित में नागरिकों के वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं। रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मामले में प्रश्न यह था कि क्या ऐसे कार्य जिससे सार्वजनिक व्यवस्था भंग होती है, देश की सुरक्षा के लिए भी घातक हो सकते हैं। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि प्रत्येक लोक-अव्यवस्था राज्य की सुरक्षा को खतरा पहुँचाने वाली नहीं समझी जानी चाहिये। सार्वजनिक व्यवस्था को भंग करने वाले कृत्यों को कई श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। "राज्य-सुरक्षा" पदावली लोक-व्यवस्था के गम्भीर तथा बिगड़े हुए रूप को दर्शित करती है, जैसे आन्तरिक विक्षोभ या विद्रोह, राज्य के विरुद्ध युद्ध प्रारम्भ करना आदि, न कि लोक व्यवस्था तथा लोक-सुरक्षा के साधारण भंगों को, जैसे अवैध सभा, बलवा या हंगामा आदि। इस प्रकार ऐसे भाषण या अभिव्यक्तियाँ, जो कत्ल जैसे हिंसात्मक अपराध को उकसाती या प्रोत्साहित करती हैं, राज्य की सुरक्षा को खतरा पहुँचाने वाली समझी जायेंगी। सरकार की आलोचना मात्र या सरकार के प्रति अनादर एवं दुर्भावना उकसाना राज्य सुरक्षा को खतरे में डालने वाला नहीं माना जायेगा। नागरिकों के वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर तभी निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं जब उससे राज्य की सुरक्षा पर आघात पहुँचने की आशंका हो। प्रत्येक ऐसे कृत्य, जिससे लोक व्यवस्था या लोक सुरक्षा भंग होती है, किसी न किसी रूप में राज्य की सुरक्षा को आघात पहुँचाने वाले हो सकते हैं। चूंकि अनु० 19 (2) में 'लोक-व्यवस्था' निर्बन्धन के आधार के रूप में समाविष्ट नहीं किया गया था, अतएव इसके आधार पर नागरिकों की स्वतन्त्रता पर निर्बन्धन नहीं लगाया जा सकता था। उपर्युक्त मामले में दिये गये निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के लिए संविधान के प्रथम संशोधन (1951) द्वारा अनु० 19 (2) में 'लोक-व्यवस्था' के आधार को जोड़ा गया। संशोधन के परिणामस्वरूप अब लोक-व्यवस्था का साधारण भंगीकरण या अपराध करने के लिये उकसाना भी इस स्वतन्त्रता पर निर्बन्धन लगाने के उचित अधार हो सकते हैं। देखिये - बिहार राज्य बनाम शैलबाला' का निर्णय। संशोधित अनु० 19 (2) में 'राज्य - सुरक्षा' पदावली के पहले "उसके हित में" पदावली के प्रयोग का अर्थ यह है कि यदि किसी कार्य से राज्य सुरक्षा को खतरे की आशंका भी हो तो उस पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है, भले ही उस कार्य से वस्तुतः देश की सुरक्षा को कोई आघात न पहुँचता हो। इस प्रकार के सरकार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह को उकसाना, भले ही वह विफल हो जाय, राज्य-सुरक्षा को खतरा पहुँचाने वाला माना जायगा। देखिये- रामजी मोदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य " का निर्णय।

2-विदेशी राज्यों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के हित में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
        विदेशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध से सम्बंधित निर्बन्धन का यह आधार संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा अनु० 19 (2) में जोड़ा गया है। संसद् में बहस के दौरान इस विधेयक की बड़ी आलोचना की गयी थी और यह कहा गया था कि इसका क्षेत्र बड़ा विस्तृत है और इसका प्रयोग सरकार की विदेशी नीतियों की उचित आलोचना के विरुद्ध भी किया जा सकता है।" सरकार की ओर से यह आश्वासन दिया गया था कि इस उपबन्ध का इस प्रकार प्रयोग करने का आशय नहीं है। इस खण्ड का अन्तर्निहित उद्देश्य केवल अपलेख और मानहानि के क्षेत्र को विस्तृत करना है और किसी व्यक्ति को ऐसी मिथ्या या झूठी अफवाहें फैलाने से रोकना है जिससे किसी विदेशी राज्य के साथ हमारे मंत्रीपूर्ण सम्बन्धों को आघात पहुँचता हो। संसार के किसी संविधान में इस प्रकार के उपबन्ध नहीं है। किन्तु प्रत्येक देश की साधारण विधि में इस प्रकार के उपबन्ध पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। भारतीय संविधान का यह उपबन्ध निश्चित ही बड़ा विस्तृत है। इसका प्रयोग सरकार की विदेशी नीतियों की वैध आलोचना को दबाने में किया भी जा सकता है। प्रेस आयोग ने भी इस बात की सिफारिश की है कि इस उपबन्ध का प्रयोग केवल उन्हीं मामलों तक सीमित रखा जाना चाहिये जिनमें मिथ्या या गलत अफवाहों का संचार किया जाता है जो विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को नष्ट करता है, न कि सत्य तथ्यों के कथन को, भले ही इसमें विदेशी राज्यों के साथ सम्बन्धों के बिगाड़ने की प्रवृत्ति हो। हम प्रेस कमीशन के विचार से सहमत हैं। आशा है सरकार अपने आश्वासन को नहीं भूलेगी। ध्यान रहे कि यह उपबन्ध केवल विदेशी राज्यों को लागू होता है। संविधान के प्रयोजन के लिये 'विदेशी राज्य' में कामनवेल्थ के सदस्य सम्मिलित नहीं हैं। पाकिस्तान चूंकि कामनवेल्थ का सदस्य है अतः इस प्रयोजन के लिये वह विदेशी राज्य नहीं माना जाता। अतएव इस आधार पर वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता कि वह पाकिस्तान या अन्य कामनवेल्थ के देशों के प्रतिकूल है। देखिये - जगन्नाथ बनाम भारत संघ का निर्णय।

3- सार्वजनिक व्यवस्था के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
        'सार्वजनिक व्यवस्था' पद के अन्तर्गत विधि के हर प्रकार के व्यतिक्रम नहीं आते हैं। यदि किसी व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति पर मकान या किसी गली में हमला किया जाता है तो उससे अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है, किन्तु लोक-व्यवस्था नहीं उत्पन्न हो सकती क्योंकि लोक व्यवस्था एक ऐसी स्थिति है जिससे समुदाय या आम जनता पर प्रभाव पड़ता है। लोक व्यवस्था को कायम रखने के लिए सरकार अग्रिम कार्यवाही भी कर सकती है। उदाहरण के लिये, बाबू लाल पराटे बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 को जो मजिस्ट्रेट को जुलूसों और सभाओं पर प्रतिबन्ध लगाने की शक्ति प्रदान करती है, इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि वह अनुच्छेद 19 (1) (क) में दिये अधिकारों पर अयुक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाती है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उक्त धारा अनु० 19 (1) (क) का अतिक्रमण नहीं करती, क्योंकि इसके अन्तर्गत दिये गये आदेशों की प्रकृति बिल्कुल अस्थायी है और इसका प्रयोग उत्तरदायी मजिस्ट्रेटों द्वारा न्यायिक ढंग से किया जाता है।
4- शिष्टाचार या सदाचार के हित में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
        ऐसे कथनों या प्रकाशनों पर, जिनसे लोक-नैतिकता एवं शिष्टता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है; सरकार प्रतिबन्ध लगा सकती है। प्रश्न यह है कि नैतिकता एवं शिष्टता की कसौटी क्या है? इस शब्दावली की परिभाषा न तो संविधान में दी गयी है और न किसी अन्य अधिनियम में। किन्तु भारतीय न्यायालयों ने एक आंग्ल वाद आर० बनाम हिकलिन में दी हुई परिभाषा को अपनाया है। आंग्ल विधि में उपर्युक्त दोनों शब्दों के स्थान पर एक ही शब्द 'अश्लील' का प्रयोग किया गया है। उपर्युक्त वाद में न्यायालय ने 'अश्लीलता' की परिभाषा निम्नलिखित शब्दों में की है- 'ऐसे कथन और प्रकाशन सामान्यतया अश्लील समझे जाते हैं, जो उन व्यक्तियों के मन में, जिनके हाथ में वे पड़ जाते हैं, अनैतिक व भ्रष्ट विचारों को पैदा करते हैं। इस प्रकार, ऐसे प्रकाशन जो उन व्यक्तियों के मन में जो उन्हें पढ़ते हैं, कामुक विचार और वासनामय इच्छा उत्पन्न करते हैं, अश्लील समझे जाते हैं। भारतीय दण्ड विधान की धारा 292 से लेकर 294 तक नैतिकता एवं शिष्टता के हित में वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध का उपबन्ध करती है। किसी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर ये धाराएं अश्लील प्रकाशनों को बेचने, प्रचार या प्रदर्शन करने, अश्लील कृत्यों को करने, अश्लील गानों या अश्लील भाषणों आदि का निषेध करती है। किन्तु भारतीय दंड विधान में 'अश्लीलता' की कोई कसौटी नहीं दी गई है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने अंग्रेजी निर्णय हिकालिन में प्रतिपादित अश्लीलता की कसौटी को स्वीकार किया है। इस कसौटी का अनेक भारतीय निर्णयों में अनुसरण किया गया है। रनजीत डी० उडेसी बनाम महाराष्ट्र राज्य" इस विषय पर उच्चतम न्यायालय का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय है। इस वाद में अपीलार्थी का धारा 292 के अन्तर्गत 'लेडी चैटर्लीज लवर' नामक पुस्तक जिसमें आधुनिक युग में लैंगिक समागम में निराशा का वर्णन किया गया है, के बेचने के अपराध में दण्डित किया गया था। उच्चतम न्यायालय ने इस पुस्तक के कुछ अंशों को हिकलिन की कसौटी के आधार पर अश्लील घोषित कर दिया और अपीलार्थी की सजा को बहाल रखा। यहाँ यह बता देना अनुचित न होगा कि उक्त कसोटी बड़ी पुरानी हो गई है और यह आधुनिक विचारों से मेल नहीं खाती है। न्यायालय ने इस वाद में हिकलिन कसौटी को स्वीकार करके एक बड़ी भूल की है। यह कसौटी आज से करीब सौ वर्ष पहले इंग्लैण्ड के न्यायालय द्वारा प्रतिपादित की गयी थी। तब और आज में नैतिक मूल्यों एवं विचारधाराओं में बड़े परिवर्तन हो चुके हैं। उक्त नियम अश्लीलता के निर्धारण का एक अस्पष्ट और मनमाना मानदण्ड निर्धारित करता है जिसमें नागरिकों के वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को कम करने की प्रवृत्ति मौजूद है। " क्या अनैतिक या अभद्र है, इसका कोई निश्चित मानदण्ड निर्धारित नहीं किया जा सकता है। नैतिकता का स्तर समय और स्थान के साथ-साथ बदलता रहता है। परिवार नियोजन, जो किसी समय भारत में अनैतिक समझा जाता था, आज आबादी की वृद्धि को नियंत्रित करने के साधन के रूप में उचित एवं नैतिक माना जाता है।
5- न्यायालय अवमान के संबंध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
        न्यायालय अवमान की भी संविधान में कोई परिभाषा नहीं दी गयी है। संसद् ने न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 पारित करके इस कमी को पूरा कर दिया है। इस अधिनियम के अनुसार 'न्यायालय अवमान' शब्दावली के अन्तर्गत दीवानी और फौजदारी दोनों प्रकार के न्यायालयों का अवमान शामिल है। 'न्यायालय अवमान' का अर्थ है जानबूझ कर न्यायालय के फैसले, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट या उसकी किसी विधान प्रक्रिया की अवहेलना करना या न्यायालय को दिये हुए वचन को जानबूझ कर तोड़ना। 'फौजदारी अवमान' का अर्थ है, ऐसे प्रकाशनों (चाहे वे मौखिक या लिखित या किसी भी माध्यम से हों) से है, जो- अ- न्यायालयों या न्यायाधीशों की निन्दा या निन्दा की प्रवृत्ति वाला या उसके प्राधिकार को कम करने वाला हो, या ब- जो पक्षपात का लांछन लगाता हो, या न्यायिक कार्यवाहियों में हस्तक्षेप करता हो या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति वाला हो, या स- किसी भी प्रकार से न्याय - प्रशासन के कार्य में हस्तक्षेप करता हो या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति वाला हो या इस कार्य में अवरोध करता हो या अवरोध की प्रवृत्ति वाला हो । किन्तु निम्नलिखित कृत्यों से न्यायालय का अवमान नहीं होता है-     1- निर्दोष प्रकाशन और उसका वितरण,     2- न्यायिक कार्यवाहियों का उचित और सही प्रकाशन;     3- न्यायिक कृत्य की उचित आलोचना,     4- न्यायाधीशों के विरुद्ध ईमानदारी से की हुई शिकायत;     5- वाद की न्यायिक कार्यवाहियों का सही प्रकाशन।         न्यायालय अवमान के लिये अधिनियम में 6 महीने की सजा या 2000 रुपये तक जुर्माना या दोनों दिया जा सकता है। अधिनियम के अधीन न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों या न्यायिक कृत्य करने वाले व्यक्तियों को भी अपने ही न्यायालय के लिये अवमान के साधारण व्यक्तियों की ही भाँति दंडित किया जा सकता है। वरदकांत बनाम रजिस्ट्रार, उड़ीसा के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि उच्च न्यायालय के प्रशासनिक कार्यों के सम्बन्ध में अवमानात्मक आरोप लगाना आपराधिक अवमान है। प्रशासनिक न्याय न्यायिक न्याय से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। न्यायालय को प्रशासन के लिये विविध कार्य करने होते हैं। इन कार्यों के निर्वहन में किये गये तनिक मात्र लोप होने से न्याय-प्रशासन आवश्यक रूप से प्रभावित होता है। न्यायालय की स्थापना ही न्याय सम्पादन के प्रयोजन के लिये की जाती है और एक न्यायाधीश का अपने सहायकों पर नियन्त्रण का उद्देश्य भी न्याय की शुद्धता को कायम रखना होता है। इसलिये उच्च न्यायालयों के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है कि वे अधीनस्थ न्यायालय के न्याय प्रशासन से सम्बन्धित आचरण के सम्बन्ध में सचेत रहें। पक्षकारों के मध्य विवादों का निर्णय ही न्याय-प्रशासन का सम्पूर्ण सार नहीं है। अनुशासनिक नियन्त्रण का कार्य भी समुचित न्याय प्रशासन में उतना ही सहायक है जितना कि विधि-स्थापना या पक्षकारों के मध्य न्याय निर्णयन। अनु० 235 के अधीन जहाँ उच्च न्यायालय अनुशासनिक हैसियत से कार्य करता है तो वह न्याय-प्रशासन की वृद्धि करता है। प्रस्तुत मामले में अपीलार्थी जो जिला न्यायाधीश द्वारा इसी आधार पर न्यायालय के अवमान के लिये दण्डित किया गया था कि उसने उच्च न्यायालय को लिखे गये पत्रों में न्यायालय के प्रशासनिक कार्यों के सम्बन्ध में अनेक अवमानात्मक आरोप लगाये थे।
6- मानहानि के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
        कोई भी ऐसा कथन या प्रकाशन जो किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाता है, मानहानि कहलाता है। ऐसे कथन के प्रकाशन को मानहानि कहा जाता है जो किसी व्यक्ति को समाज में घृणा, हंसी या अपमान का पात्र बनाता है। उक्त कथन या प्रकाशन पर अनुच्छेद 19 (2) के अन्तर्गत युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 419 में मानहानि से सम्बन्धित विधि दी हुई है। इस धारा के अनुसार इंग्लैण्ड की भाँति अपलेख या अपवचन में कोई विभेद नहीं किया गया है। मानहानिकारी कथन, चाहे वह अपलेख हो या अपवचन, इस धारा के अन्तर्गत एक दण्डनीय अपराध है। न्यायालयों ने यह अभिनिर्धारित किया है कि यह धारा वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाती है। भारत में इस विषय से सम्बन्धित दीवानी-विधि अभी असंहिताबद्ध है और कुछ अन्तर के साथ आंग्ल सामान्य विधि का ही अनुसरण करती है।"
7- अपराध उद्दीपन के मामले में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-
        यह आधार संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा जोड़ा गया है। वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता किसी व्यक्ति को इस बात का अधिकार नहीं देती कि वे लोगों को अपराध करने के लिये भड़कायें या उकसायें। अपराध करने की उत्तेजना देने वाले भाषणों को विधि द्वारा रोका व दंडित किया जा सकता है। 'उकसाना' शब्द के अन्तर्गत क्या सम्मिलित है, इसका निर्धारण न्यायालय करेंगे, जो प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।
8- भारत की संप्रभुता एवं अखंडता के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बन्धन के आधार-

        यह आधार अनुच्छेद 19 (2) में संविधान के सोलहवें संशोधन अधिनियम, 1963 द्वारा जोड़ा गया है। इसके अन्तर्गत ऐसे कथन या प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है, जिससे भारत की अखंडता एवं सम्प्रभुता पर किसी प्रकार की आंच आती हो या भारत के किसी भाग को संघ से पृथक् होने के लिये उकसाया जाता हो। FAQ- 1- वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है? इस स्वतंत्रता की सीमाएं क्या हैं? 2- वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से आप क्या समझते हैं? 3- विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतीय संविधान के आधार मूल्य कैसे हैं टिप्पणी कीजिए? 4- स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति का अधिकार कैसे प्रतिबंधों के अधीन है समझाइए? 5- आप कैसे कह सकते हैं कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की आवश्यक विशेषताओं में से एक है? 6- लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का क्या महत्व है? 7- वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है? इस स्वतंत्रता की सीमाएं क्या हैं?

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19(1)(क) | Freedom of speech and freedom of expression Article 19(1)(a)

 वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनुच्छेद 19(1)(क) | Freedom of speech and freedom of expression Article 19(1)(a)



 इस लेख में अनुच्छेद 19 में क्या लिखा हुआ है? अनुच्छेद 19 में कितने प्रकार की स्वतंत्रता है? भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 में क्या है? आदि प्रश्नो के उत्तर और वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ एवं उसका विस्तार क्षेत्र, समाचार पत्रों की स्वतंत्रता, स्वतंत्रताओं का क्षेत्र विस्तार, वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर  प्रतिबन्ध लगाने वाले कानून के प्रत्यक्ष प्रभाव की कसौटी, हड़ताल का अधिकार आदि तथा विभिन्न न्यायालयों के निर्णय देखने को मिलेंगे

1- वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अनु० 19 (1) (क)
वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था की आधारशिला है। प्रत्येक प्रजातान्त्रिक सरकार इस स्वतन्त्रता को बड़ा महत्व देती है। इसके बिना जनता की तार्किक एवं आलोचनात्मक शक्ति, जो प्रजातान्त्रिक सरकार के समुचित संचालन के लिए आवश्यक है, को विकसित करना सम्भव नहीं है।

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अर्थ एवं विस्तार-

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ है शब्दों, लेखों, मुद्रणों, चिह्नों या किसी अन्य प्रकार से अपने विचारों को व्यक्त करना, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में किसी व्यक्ति के विचारों को किसी ऐसे माध्यम से अभिव्यक्त करना सम्मिलित है जिससे वह दूसरों तक उन्हें संप्रेषित कर सके। इस प्रकार इनमें संकेतों, अंकों, चिह्नों तथा ऐसी ही अन्य क्रियाओं द्वारा किसी व्यक्ति के विचारों की अभिव्यक्ति सम्मिलित है। अनु० 19 में प्रयुक्त 'अभिव्यक्ति' शब्द इसके क्षेत्र को बहुत विस्तृत कर देता है। विचारों के व्यक्त करने के जितने भी माध्यम हैं 'अभिव्यक्ति' पदावली के अन्तर्गत आ जाते हैं। इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में प्रेस की स्वतन्त्रता भी सम्मिलित है। विचारों का स्वतन्त्र प्रसारण ही इस स्वतन्त्रता का मुख्य उद्देश्य है। यह भाषण द्वारा या समाचारपत्रों द्वारा किया जा सकता है। रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि वाक और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में विचारों के प्रसार की स्वतन्त्रता सम्मिलित है और वह स्वतन्त्रता विचारों के प्रसारण की स्वतन्त्रता द्वारा सुनिश्चित है। उस स्वतन्त्रता के लिए परिचालन की स्वतन्त्रता उतनी ही आवश्यक है जितनी कि प्रकाशन की स्वतन्त्रता। निस्संदेह परिचालन के बिना प्रकाशन का कोई महत्व ही नहीं होगा। वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता केवल अपने ही विचारों के प्रसार की स्वतन्त्रता तक सीमित नहीं है। इसमें दूसरों के विचारों के प्रसार एवं प्रकाशन की स्वतन्त्रता भी सम्मिलित है जो प्रेस की स्वतन्त्रता द्वारा ही सम्भव है।

समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता-
          समाचारपत्र विचारों के अभिव्यक्त करने का एक महत्वपूर्ण साधन है। राजनीतिक स्वतंत्रता तथा प्रजातन्त्र की सफलता के लिए समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता अपरिहार्य है। अमेरिका के प्रेस कमीशन ने प्रेस की स्वतन्त्रता के महत्व के बारे में निम्नलिखित विचार व्यक्त किये हैं- 'प्रेस की स्वतन्त्रता राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक है। जिस समाज में मनुष्य को अपने विचारों को एक दूसरे तक पहुँचाने की स्वतन्त्रता नहीं है वहाँ अन्य स्वतन्त्रताएं भी सुरक्षित नहीं रह सकती हैं। वस्तुतः जहाँ वाक्-स्वातन्त्र्य है वहीं स्वतन्त्र समाज का प्रारम्भ होता है और स्वतन्त्रता के बनाए रखने के सभी साधन मौजूद रहते हैं। इसीलिए वाक्-स्वातन्त्र्य को स्वतन्त्रताओं में एक अनोखा स्थान प्राप्त है         भारतीय प्रेस कमीशन ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किये हैं- "प्रजातन्त्र केवल विधानमंडल के सचेत देख-भाल में ही नहीं वरन् लोकमत में की और मार्गदर्शन के अन्तर्गत भी फलता-फूलता है । प्रेस की यही सबसे बड़ी विशिष्टता है कि उसके ही माध्यम से लोकमत स्पष्ट होता है।"         अमेरिका के संविधान की भाँति भारतीय संविधान में प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए कोई स्पष्ट उपबन्ध नहीं है। बाबासाहब डॉ० अम्बेदकर ने संविधान सभा में इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि "प्रेस को कोई ऐसे विशिष्ट अधिकार नहीं प्राप्त हैं जो एक साधारण नागरिक को नहीं प्रदान किये जा सकते हैं। उनके संपादक या मैनेजर समाचार-पत्रों द्वारा ही अपने अभिव्यक्ति के अधिकार का ही प्रयोग करते हैं। इसलिए इसके लिए संविधान में विशेष उपबन्ध की कोई आवश्यकता नहीं है।" न्यायिक निर्णयों में भी इस मत की पुष्टि हो चुकी है। उच्चतम न्यायालय ने साकल पेपर्स लिमिटेड बनाम भारत संघ के मामले में यह अभिनिर्धारित किया है कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में प्रेस की स्वतन्त्रता भी शामिल है, क्योंकि समाचार-पत्र विचारों को अभिव्यक्त करने के एक माध्यम मात्र ही हैं। प्रेस की स्वतन्त्रता एक साधारण नागरिक की स्वतन्त्रता से बढ़कर नहीं है और यह उन प्रतिबन्धों के अधीन है जो अनुच्छेद 19 (2) द्वारा नागरिकों के वाक् और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता पर लगाये गये हैं।         लार्ड मेन्ग्सफील्ड के अनुसार प्रेस की स्वतन्त्रता का अर्थ है बिना सरकारी अनुज्ञा के विचारों को प्रकाशित करना, बशर्ते कि देश की साधारण विधि का उल्लंघन न किया गया हो। प्रेस की स्वतन्त्रता केवल दैनिक समाचार-पत्रों और साप्ताहिक पत्रों तक ही सीमित नहीं है। इसके अन्तर्गत इसी प्रकार के प्रशासन सम्मिलित हैं जिनके द्वारा व्यक्ति अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचा सकता है, जैसे पत्रिका, पत्रक, परिपत्र आदि।         प्रेस की स्वतन्त्रता में सूचनाओं तथा समाचारों को जानने का अधिकार शामिल है। प्रेस को व्यक्तियों से इन्टरव्यू के माध्यम से सूचनाएं जानने की स्वतन्त्रता है। किन्तु जानने की स्वतन्त्रता अत्यधिक नहीं है और उसके ऊपर युक्तियुक्त निर्बंन्धन अधिरोपित किए जा सकते हैं। प्रेस की जानने की स्वतन्त्रता किसी व्यक्ति पर प्रेस को सूचना अथवा समाचार देने का कोई विधिक कर्त्तव्य अधिरोपित नहीं करती है। प्रेस नागरिकों से तभी सूचनाएं जान सकता है यदि वे प्रेस को अपनी स्वेच्छा से बताना चाहते हों। प्रभूदत्त बनाम भारत संघ' 1982 के मामले में यह निर्णय दिया गया है कि यदि मृत्यु दण्ड के अभियुक्त अपनी स्वेच्छा से कोई बात बताना चाहते हैं तो प्रेस को उनसे पूछने की अनुमति दी जानी चाहिए। यदि किसी मामले में उन्हें इन्टरव्यू करने की अनुमति नहीं दी जाती है तो उसके कारणों का लिखित उल्लेख किया जाना चाहिए। प्रस्तुत मामले में हिन्दुस्तान टाइम्स के चीफ रिपोर्टर द्वारा रंगा, बिल्ला को इन्टरव्यू करने की अनुमति देने से इन्कार कर दिया गया था जब कि दोनों सिद्धदोष अभियुक्त स्वेच्छा से इन्टरव्यू देना चाहते थे।

वाक् और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रताओं का क्षेत्र विस्तार-

        अनु० 19 द्वारा प्रदत्त स्वतन्त्रताओं को किसी भौगोलिक परिसीमा में बाँधा नहीं जा सकता है। इन अधिकारों का प्रयोग नागरिक के द्वारा भारत की सीमा के भीतर ही नहीं वरन् विश्व के किसी देश की भूमि पर किया जा सकता है। यदि राज्य किसी व्यक्ति द्वारा इन अधिकारों के प्रयोग पर देश की सीमा के आधार पर रोक लगाता है तो उससे अनु० 19 का अतिक्रमण होगा। आधुनिक काल में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को देश की सीमा में बाँधा नहीं जा सकता है। अभिव्यक्ति से तात्पर्य है किसी व्यक्ति से विचारों का आदान-प्रदान करना चाहे वह विश्व के किसी भाग में क्यों न निवास करता हो। उपर्युक्त सिद्धान्त मेनका गाँधी बनाम भारत संघ" के मामले में उच्चतम न्यायालय ने विहित किये हैं। इसमें वादी को विदेश जाने के लिये दिये गये पासपोर्ट को वापस करने का आदेश दिया गया था। वादी ने इस आदेश की वैधता को चुनौती दिया और यह तर्क दिया कि यदि उसका पासपोर्ट ले लिया जाता है तो वह एक पत्रकार के रूप में विदेश जाकर अपने भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकती है। संक्षेप में उसका तर्क था कि पासपोर्ट का अधिकार अनु० 19 के अधीन एक मूल अधिकार है।
            उच्चतम न्यायालय ने उसके इस तर्क को अस्वीकार कर दिया कि पासपोर्ट पाने का अधिकार अनु० 19 के अधीन एक मूल अधिकार है किन्तु यह अभिनिर्धारित किया कि अनु० 19 के अधिकारों का प्रयोग नागरिक केवल भारत में नहीं वरन् विदेश में भी कर सकता है। विदेश में उसके इस अधिकार पर वे सब निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं जो अनु० 19 (2) में उल्लिखित हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि यद्यपि पासपोर्ट का अधिकार अनु० 19 के अधीन एक मूल अधिकार नहीं है किन्तु यदि उसके ले लेने पर नागरिक के अनु० 19 के अधिकारों पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है तो उससे अनु० 19 का अतिक्रमण हो सकता है। यह तथ्य और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

वाक् और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता पर पूर्व अवरोध-         जैसा कि कहा गया है, प्रेस की स्वतन्त्रता का अर्थ है सरकार की बिना पूर्व अनुमति के अपने विचारों को प्रकाशित करना। अतः कोई भी कानून जो विचारों के प्रकाशन पर पूर्व-अवरोध / Censorship का प्रावधान करता है वह अनु० 19 (1) में दी हुई स्वतन्त्रता का अतिक्रमण करता है।             ब्रजभूषण बनाम दिल्ली राज्य के मामले में सर्वप्रथम प्रेस की स्वतन्त्रता पर पूर्व अवरोध की संवैधानिकता का प्रश्न उच्चतम न्यायालय के विचारार्थ आया। इस मामले में ईस्ट पंजाब पब्लिक सेफ्टी ऐक्ट, 1949 की धारा 7 के अन्तर्गत दिल्ली के चीफ कमिश्नर ने दिल्ली के एक साप्ताहिक समाचार-पत्र के विरुद्ध एक आदेश जारी किया; जिसके द्वारा उस पत्र के मुद्रक, प्रकाशक और सम्पादक को यह निदेश दिया गया था कि वे उस सभी प्रकार के साम्प्रदायिक मामलों या पाकिस्तान से सम्बन्धित समाचारों, चित्रों और हास्य चित्रों, जो सरकारी न्यूज एजेन्सियों द्वारा नहीं प्राप्त किये गये हैं, प्रकाशित करने के पहिले सरकारी परीक्षण के लिए भेजेंगे और उनकी पूर्व- अनुमति प्राप्त करने के पश्चात् ही उसे प्रकाशित करेंगे। उच्चतम न्यायालय ने उक्त आदेश को असंवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि किसी समाचार-पत्र पर पूर्व-अवरोध लगाना प्रेस की स्वतन्त्रता पर अनुचित प्रतिबन्ध है। वीरेन्द्र बनाम पंजाब राज्य" के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि “किसी समाचारपत्र को तत्कालीन महत्व के विषय पर अपने विचार प्रकाशित करने से रोकना वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर एक गम्भीर अतिक्रमण है।”         अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण विनिश्चय न्यूयार्क टाइम्स के मामले में पूर्व-अवरोध को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। इस मामले में अमेरिका के दो बड़े समाचार पत्रों में वियतनाम से सम्बन्धित कुछ गुप्त सरकारी, सूचनाएं, जिनके बारे में यह कहा गया था कि वे चोरी से प्राप्त की गयी थीं, प्रकाशित की गयी थीं। सरकार ने न्यायालय में यह दलील पेश किया कि इन सूचनाओं के प्रकाशन से देश की सुरक्षा को खतरे की सम्भावना है और प्रार्थना की कि इनके प्रकाशन को रोक दिया जाय। समाचारपत्रों के सम्पादकों की ओर से यह कहा गया कि इन सूचनाओं में केवल उन तथ्यों का वर्णन है जिस प्रकार अमेरिका को वियतनाम युद्ध में कूदना पड़ा और उसे जन, धन और प्रतिष्ठा की क्षति उठानी पड़ी। उन्होंने यह दावा किया कि इन सूचनाओं का प्रकाशन सार्वजनिक हित में है जिसके प्रकाशन पर सरकार को प्रतिबन्ध लगाने का कोई विधिक अधिकार संविधान में नहीं प्राप्त है। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत से यह अभिनिर्धारित किया कि सरकार को इन सूचनाओं के प्रकाशन पर पूर्व अवरोध लगाने का अधिकार नहीं है। सरकार यह सिद्ध करने में असफल रही है कि इन सूचनाओं के प्रकाशन से देश की सुरक्षा को वस्तुतः किसी खतरे की सम्भावना है।         एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसा कोई कानून, जो समाचारपत्रों पर पूर्व-अवरोध की व्यवस्था करता है या उनके परिचालन को कम करता है या उनके प्रारम्भ किये जाने को रोकता है या उनके चालू रहने के लिए सरकारी सहायता को आवश्यक बना देता है, वह अनुच्छेद 19 (1) (क) में प्रदान की गयी स्वतन्त्रता का अतिक्रमण करता है, अतः अवैध है। परिचालन की स्वतन्त्रता प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए उतनी ही आवश्यक है जितनी कि प्रकाशन की स्वतन्त्रता। निस्सन्देह बिना परिचालन की स्वतन्त्रता के प्रकाशन की स्वतन्त्रता का कोई महत्व नहीं है। इसी आधार पर उच्चतम न्यायालय ने अपने एक विनिश्चय में उस कानून को अवैध घोषित कर दिया है, जिसके द्वारा राज्य में एक दैनिक समाचार-पत्र के परिचालन पर रोक लगा दी गयी। देखिये- रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य का निर्णय।         साकल पेपर्स लि० बनाम भारत संघ के मामले में – दैनिक समाचारपत्र (कीमत एवं पृष्ठ) आदेश 1960, जिसके द्वारा अखबारों के पृष्ठ की अधिकतम संख्या और उनका मूल्य निर्धारित किया गया था, को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि इससे प्रेस की स्वतन्त्रता पर आघात पहुँचता है। उक्त व्यवस्था के अन्तर्गत पिटीशनर अपने समाचार-पत्नों का मूल्य तो बढ़ा सकते थे, लेकिन उनकी पृष्ठ संख्या को नहीं बढ़ा सकते थे। पिटीशनरों के अनुसार बिना पृष्ठ-संख्या के बढ़े दामों में वृद्धि हो जाने से उनका परिचालन कम हो जाता है, क्योंकि उनको कम लोग खरीदते हैं तथा पृष्ठ संख्या के घटा देने से उनमें समाचारों के प्रकाशन के लिए कम स्थान मिल पाता है। इस प्रकार सरकारी आदेश एक दुधारी छुरी का काम करता है। एक तरफ दाम बढ़ जाने से अखबारों का परिचालन कम होता है और दूसरी ओर पृष्ठों के कम होने से उनमें समाचारों, विचारों आदि के प्रकाशन के लिए स्थान की कमी हो जाती है। सरकार ने आदेश के पक्ष में तर्क दिया कि इसका उद्देश्य समाचारपत्रों में व्यापारिक विज्ञापन के स्थानों को विनियमित करना है तथा इस क्षेत्र में अनुचित प्रतियोगिता को रोकना और छोटे तथा नवचालित समाचारपत्रों को संरक्षण प्रदान करना है।         न्यायालय ने सरकार के इस तर्क को अस्वीकार करते हुए उक्त आदेश को अवैध घोषित कर दिया। उसने कहा कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को किसी नागरिक के व्यापारिक क्रियाकलाप पर प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से छीना नहीं जा सकता है। इन स्वतन्त्रताओं पर केवल अनुच्छेद 19 (2) में दिये गये आधारों पर ही प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं। व्यापार करने की स्वतन्त्रता की भाँति इस पर 'लोकहित' के आधार पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि अनुच्छेद 19 (2) में इस आधार का कोई उल्लेख नहीं है। सरकार छोटे तथा नवचालित समाचार- पत्नों को संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य को पूरा करने की दृष्टि से दूसरे समाचारपत्रों की स्वतन्त्रता का अतिक्रमण नहीं कर सकती है। न्यायालय के अनुसार आदेश के परिणामस्वरूप अखबारों का परिचालन निश्चय ही कम हो जायेगा, क्योंकि उसे कम लोग खरीदेंगे और इस प्रकार उनकी स्वतन्त्रता का हनन होगा। यदि विज्ञापनों में कटौती करने से उनके विचार प्रसारण की स्वतन्त्रता पर सीधा आघात पहुँचता है तो वह असंवैधानिक होगा। निष्कर्ष यह है कि ऐसा कोई भी कानून जो समाचारपत्तों के माध्यम से विचार प्रसारण को किसी भी ढंग से प्रत्यक्षतः अथवा अप्रत्यक्षतः कम करता है, अनुच्छेद 19 (1) (क) का अति- क्रमण करता है और अवैध है।         बेन्नेट कोलमैन ऐण्ड कम्पनी लिमिटेड बनाम भारत संघ के मामले में सन् 1972-73 की अखबारी कागज नीति और अखबारी कागज नियन्त्रण आदेश, 1962 की वैधता को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि वह संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (क) और अनुच्छेद 14 का अति- क्रमण करता है, अतः असंवैधानिक है। अखबारी कागज नीति के अधीन पृष्ठों की अधिकतम संख्या 10 तक सीमित कर दी गयी थी और समान स्वामित्व यूनिट अपने प्राधिकृत कोटे के आपसी अदला-बदली की इजाजत नहीं थी । पिटीशनरों ने अखबारी कागज नीति को निम्न आधारों पर चुनौती दी। पहली, यह कि अखबारी कागज के प्राधिकृत कोटे के भीतर रहते हुए भी किसी समान स्वामित्व यूनिट द्वारा कोई नया अखबार या नया संस्करण नहीं आरम्भ किया जा सकता है। दूसरी, यह कि पृष्ठों की अधिकतम संख्या 10 तक परिसीमित' है जिसके कारण परिचालन कम हो जायगा। तीसरी, यह कि समान स्वामित्व यूनिट के विभिन्न अखबारों या एक ही अखबार के विभिन्न संस्करणों के बीच आपसी अदला-बदली की स्वीकृति नहीं दी गयी है। चौथी, यह कि 10 से कम पृष्ठ के अखबारों की पृष्ठ संख्या बढ़ाने की स्वीकृत दी गयी है। उक्त प्रतिबन्ध बेतुके, मनमाने और अयुक्तियुक्त हैं। सरकार की ओर से अखबारी कागज नीति के समर्थन में यह कहा गया है कि वह छोटे-छोटे अखबारों का विकास करने और बड़े-बड़े अखबारों के एकाधिकार के संगठन को रोकने में सहायता करने के लिए है। विधायन का मुख्य उद्देश्य अखबारी कागज के आयात एवं देश में उसके आबंटन को विनियमित करना है, भले ही उसके परिणामस्वरूप परिचालन के कम करने का आनुषंगिक प्रभाव होता है। आनुषंगिक (incidental) प्रभाव से प्रेस का मूल अधिकार कम नहीं होगा।

        उच्चतम न्यायालय ने पिटीशनरों की दलील को स्वीकार करते हुए अखबारी कागज नीति को असंवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि प्रेस की स्वतन्त्रता अनुच्छेद 19 (1) (क) में प्रदत्त वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का एक आवश्यक अंग है। प्रेस को प्रकाशन पर पूर्व -अवरोध के बिना निर्बाध प्रसार और परिचालन का अधिकार प्राप्त है। ऐसी विधि जिससे अखबारों के परिचालन पर प्रतिबन्ध लगे या कार्मिकों के चयन में स्वातन्त्र्य को कुण्ठित करे अखबारों के आरम्भ किये जाने को रोकेगा और प्रेस को सरकारी सहायता प्राप्त करने के लिए विवश करेगा। इससे अनु० 19 (1) (क) का अतिक्रमण होगा और वह अनु० 19 (2) में विहित संरक्षण की परिधि के बाहर हो जायेगा। अखबारी कागज नीति अनु० 19 (2) की परिधि के भीतर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध नहीं है। अखबारी कागज नीति पिटीशनरों के वाक् और अभिव्यक्ति के मूल अधिकार को कम करती है। अखबारों को परिचालन के अधिकार की अनुज्ञा नहीं दी गयी है। उन्हें पृष्ठों में वृद्धि करने का अधिकार नहीं दिया गया है। अखबारों के समान स्वामित्व यूनिट नये अखबार या नये संस्करण नहीं निकाल सकता। दस पृष्ठ के स्तर से अधिक पर निकलने वाले और दस पृष्ठ के स्तर से कम पर निकलने वाले अखबारों को, अखबारों की जरूरतों और आवश्यकताओं को निर्धारित करते समय उन अखबारों के बराबर माना गया है जो उनके बराबर नहीं हैं। जब एक बार कोटा नियत कर दिया जाता है और अखबारी कागज नीति के अनुसार कोटे के उपयोग के लिए निर्देश दे दिया जाता है तब बड़े- बड़े अखबारों को पृष्ठ संख्या में वृद्धि करने से रोका जाता है। वृद्धियों के लिए मूल कोटा और भत्ते की संगणना के लिए पृष्ठ संख्या और परिचालन दोनों सुसंगत हैं। अखबारी कागज के वितरण के आवरण में सरकार ने अखबारों के विकास और परिचालन को नियन्त्रित करने का प्रयास किया है। प्रेस स्वातन्त्र्य गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों प्रकार का है। स्वतन्त्रता, परिचालन और अन्तर्वस्तु अर्थात् दोनों में ही निहित है। जो अखबारी कागज नीति, अखबारों की पृष्ठ संख्या, पृष्ठ-क्षेत्र और अवधि घटाकर परिचालन को बनाने की अनुमति देता है, वह उन्हें परिचालन घटाकर पृष्ठ संख्या, पृष्ठ क्षेत्र और अवधि बढ़ाने से रोकता है। ये प्रतिबन्ध अखबारों को अपनी पृष्ठ संख्या, और परिचालन के बीच समायोजन करने के लिए विवश करते हैं। अखबारों पर सरकारी नीति का प्रभाव और परिणाम अखबारों के विकास और परिचालन को प्रत्यक्षतः नियन्त्रित करना है। प्रत्यक्ष प्रभाव अखबारों के विकास और परिचालन पर प्रतिबन्ध लगाना है। प्रत्यक्ष प्रभाव यह है कि अखबार विज्ञापन के अपने क्षेत्र से वंचित हो जाते हैं। प्रत्यक्ष प्रभाव यह है कि उन्हें आर्थिक हानि उठानी पड़ती है तथा वाक् और अभिव्यक्ति स्वातन्त्र्य का अतिलंघन होता है।         सरकार ने पृष्ठ स्तर के घटाने को न केवल अखबारी कागज की कमी के आधार पर बल्कि इस आधार पर भी न्यायोचित बताया कि बड़े-बड़े दैनिक अखबार बहुत अधिक स्थान का उपयोग विज्ञापनों के लिए करते हैं और यदि वे अपने विज्ञापन-स्थान में कुछ समायोजन कर लें तो पृष्ठों में की गई कटौती से उन्हें कोई हानि नहीं होगी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अखबारों के लिये आय का मुख्य स्रोत विज्ञापन है पृष्ठ स्तर में कटौती के परिणामस्वरूप न केवल अखबारों की आय घटेगी, वरन् पृष्ठ घटाने से उसका परिचलन भी घटेगा क्योंकि उनमें पाठकों के लिए अपेक्षित समाचारों और विचारों के लिए भी स्थान कम हो जायेगा जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी प्रतिबन्धित हो जाएगी। पृष्ठ घटाने के परिणामस्वरूप अखबारों को अपनी आमदनी के स्रोत के लिए विज्ञापनों को बढ़ाना पड़ेगा जिसके परिणामस्वरूप समाचारों के लिए स्थान कप होगा। विज्ञापनों की कमी होने पर अखबारों की अर्थ-व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जायेगी और उन्हें अपना प्रकाशन भी बन्द करना पड़ेगा। वाक् और अभिव्यक्ति स्वातन्त्र्य न केवल परिचलन की मात्रा में है, बल्कि समाचारों और विचारों की मात्रा में है।

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर  प्रतिबन्ध लगाने वाले कानून के प्रत्यक्ष प्रभाव की कसौटी-

      किसी कानून से किसी मूल अधिकार का अतिक्रमण हुआ है या नहीं, इसका निर्धारण उस मूल अधिकार पर पड़े प्रत्यक्ष और आवश्यक प्रभाव पर किया जायेगा न कि कानून के उद्देश्य या सारतत्व के आधार पर। प्रस्तुत मामले में अखबारी कागज का कोटा नियत करने का प्रत्यक्ष और अवश्यम्भावी प्रभाव समाचार-पत्रों का नियंत्रित करना है। राज्य की ओर से यह तर्क दिया गया था कि अखबारी कागज नीति का मुख्य उद्देश्य अखबारी कागज के आबंटन को विनियमित और नियन्त्रित करना था, अखबारों की स्वतन्त्रता को नियन्त्रित करना नहीं था। संक्षेप में तर्क यह था कि कानून की विषय-वस्तु पर ध्यान देना चाहिये उसके किसी विशेष अधिकार या प्रभाव पर ध्यान नहीं देना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने उक्त तर्क को अस्वीकार करते हुए प्रत्यक्ष प्रभाव की कसौटी का अनुमोदन किया और यह अभिनिर्धारित किया कि यदि आक्षेपित कानून प्रत्यक्षतः किसी मूल अधिकार पर आघात पहुंचाता है या उसे न्यून करता है तो उसके उद्देश्य या विषय-वस्तु पर ध्यान देना व्यर्थ होगा। प्रस्तुत मामले में यद्यपि अखबारी कागज नोति की विषय-वस्तु अखबारी कागज के आबंटन को नियन्त्रित करना था किन्तु उसका 'प्रत्यक्ष प्रभाव' प्रेस की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को नियन्त्रित करना था।

विज्ञापन- अभिव्यक्ति के एक साधन-

        विज्ञापन भी विचारों की अभिव्यक्ति के एक साधन हैं। किन्तु यदि विज्ञापन व्यापारिक प्रकृति के हैं तो उन्हें देश की सामान्य कर-विधि से विमुक्ति नहीं मिलेगी और सरकार उन पर यथोचित कर लगा सकती है। व्यापारिक विज्ञापनों में विचारों के प्रसार से अधिक व्यापार एवं वाणिज्य का तत्व प्रधान रहता है। हमदर्द दवाखाना बनाम भारत संघ के मामले में सरकार ने औषधि और जादू उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम का उद्देश्य औषधियों के विज्ञापन को नियंत्रित करना और बीमारियों को अच्छा करने के लिए जादु के गुणवाली औषधियों के विज्ञापन को निषिद्ध करना था। इस अधिनियम पर इस आधार पर आपत्ति उठायी गयी कि विज्ञापनों पर प्रतिबन्ध वाक स्वातन्त्र्य पर प्रतिबन्ध है। उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम को विधिमान्य घोषित करते हुए यह अवलोकन किया कि यद्यपि विज्ञापन अभिव्यक्ति का ही एक माध्यम है, तथापि प्रत्येक विज्ञापन वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से सम्बन्धित नहीं होता है। प्रस्तुत मामले में विज्ञापन विशुद्ध रूप से व्यापार एवं वाणिज्य से सम्बन्धित है, विचारों के प्रसार से नहीं। यह स्पष्ट है कि निषिद्ध औषधियों का विज्ञापन अनु० 19 (1) (क) के क्षेत्र से बाहर है, अतः ऐसे विज्ञापनों पर प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं।         प्रेस की स्वतन्त्रता औद्योगिक सम्बन्धों को विनियमित करने वाले कानूनों के अधीन है। चूंकि प्रेस भी एक कारखाना है, इसलिए ऐसे कानून जो उसमें काम करने वाले श्रमिकों और पत्रकारों की दशाओं के सुधार की दृष्टि से बनाये जाते हैं, अनुच्छेद 19 (1) (क) का उल्लंघन नहीं करते हैं।         अमेरिका में औद्योगिक सम्बन्धों को विनियमित करने वाला नेशनल लेबर रिलेशन ऐक्ट प्रेस में कार्य करने वाले कर्मचारियों और पत्रकारों पर भी लागू होता है। यह अधिनियम नियोक्ताओं को किसी कर्मचारी को उसके ट्रेड यूनियन में भाग लेने के कारण नौकरी से निकालने से मना करता है। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम को संवैधानिक घोषित कर दिया है। भारत में भी औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947, औद्योगिक नियोजन (स्थायी आदेश) अधि- नियम, 1946, कर्मकार प्राविडेण्ट फण्ड्स अधिनियम, 1952; वर्किंग जर्नलिस्ट ऐक्ट, 1955 आदि अधिनियम प्रेस में कार्य करने वाले कर्मचारियों पर लागू होते हैं। वर्किंग जर्नलिस्ट ऐक्ट, 1955 विशेष रूप से प्रेस कारखानों में कार्य करने वाले कर्मचारियों एवं पत्रकारों की सेवा शर्तों को सुधारने के लिए पारित किया गया है। यह उनकी ग्रेच्युटी, कार्य करने के समय तथा मजदूरी इत्यादि की व्यवस्था करता है। उच्चतम न्यायालय ने इस अधिनियम को संवैधानिक घोषित कर दिया है। देखिये – एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स बनाम भारत संघ का निर्णयइसी प्रकार प्रेस की स्वतन्त्रता संसदीय विशेषाधिकारों के भी अधीन है। सर्च लाइट के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि कोई समाचारपत्र किसी सदस्य द्वारा विधानमण्डल में दिये गये भाषण को प्रकाशित नहीं कर सकता यदि उसे स्पीकर के आदेश द्वारा विधानमण्डल की कार्यवाही से निकाल दिया गया है।


धरना एवं प्रदर्शन- वाक् और अभिव्यक्ति का एक माध्यम-         धरना एवं प्रदर्शन भी अभिव्यक्ति के साधन हैं। किन्तु अनु० 19 (1) (क) केवल उन्हीं प्रदर्शनों या धरनों को संरक्षण प्रदान करता है जो निरायुध और शांतिपूर्ण हैं। देखिये – कामेश्वर सिंह बनाम स्टेट ऑफ बिहार '। हड़ताल करने का अधिकार अनु० 19 (1) (क) के अन्तर्गत कोई मूल अधिकार नहीं है, अतएव किसी भी व्यक्ति को हड़ताल करने से रोका जा सकता है। प्रदर्शन जब हड़ताल का रूप धारण कर लेता है तो वह विचारों के अभिव्यक्त करने का साधन मात्र नहीं रह जाता है। देखिए - ओ० के० घोष बनाम ई० एक्स० जोसेफ तथा राधेश्याम बनाम पी० । एम० जी० नागपुर के विनिश्चयों कोचलचित्रों पर पूर्व-अवरोध सांविधानिक है या असंवैधानिक-          भारत में इस विषय पर प्रस्तुत मामले के पहले कोई मामला न्यायालय के विचारार्थ नहीं आया था। चलचित्र प्रदर्शन भी वाक् और अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। के० ए० अब्बास बनाम भारत संघ' का मामला इस विषय पर पहला मामला है, जिसमें यह प्रश्न कि क्या अनु० 19 (2) के अन्तर्गत चलचित्रों पर पूर्व अवरोध लगाया जा सकता है, उच्चतम न्यायालय के समक्ष विचारार्थ आया। इस मामले में सिनेमैटोग्राफ ऐक्ट, 1952 की धारा 5 (ब) (2) की संवैधानिकता को चुनौती दी गयी थी। धारा 5 (ब) (2) केन्द्रीय सरकार को चलचित्रों के प्रदर्शन के लिए प्रमाण- पत्र देने वाले अधिकारियों के मार्गदर्शन के लिए ऐसे सिद्धान्तों को विहित करने का प्राधिकार देती है जिसे वह उचित समझे। इस अधिनियम के अधीन चलचित्रों को प्रदर्शन के पहले फिल्म ऑफ सेन्सर बोर्ड के समक्ष अनुमति प्राप्त करने के लिए भेजना पड़ता है, पिटीशनर ने अधिनियम के इस उपबन्ध को, जो चलचित्रों पर पूर्व-अवरोध लगाते हैं, को चुनौती दी और कहा कि यह अनु० 19 द्वारा प्रदत्त वाक् और अभिव्यक्ति के स्वातन्त्र्य का अतिक्रमण करता है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि चलचित्रों पर पूर्व-अवरोध (Precensorship) संवैधानिक हैं। चलचित्रों के निर्माण एवं प्रदर्शन पर पूर्व-अवरोध लोकहित में है। प्रश्नगत अधिनियम के उक्त उपबन्ध अनु० 19 (2) की परिधि के भीतर हैं, अतः संवैधानिक हैं। अमेरिका में चलचित्रों पर पूर्व-अवरोध को सांविधानिक माना गया है।