भारतीय संविधान का विकास | सन 1858-1919 | ईस्ट इंडिया कंपनी शासन का अंत

 भारतीय संविधान का विकास | सन 1858-1919 | ईस्ट इंडिया कंपनी शासन का अंत


            भारत सरकार अधिनियम - 1858-  पिट्स इंडिया एक्ट ने जिस उद्देश्य से दोहरी सरकार की स्थापना की थी, वह उद्देश्य पूरा नहीं हो सका।  बोर्ड आफ कंट्रोल कंपनी के ऊपर नियंत्रण नहीं रख सका। कंपनी की सरकार एक गैर जिम्मेदार सरकार की तरह काम करती रही। ब्रिटिश संसद भी भारतीय व्यवस्था को अच्छा नहीं समझतीथी। इंग्लैंड की साम्राज्ञी भी इसके विपरीत थीं। इसी समय जब परिस्थितियां कंपनी के विरुद्ध थीं, सन1857 का विद्रोह हुआ जिसने कंपनी के शासन को एक तरह से समाप्त कर दिया। इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमंत्री पामर्स्टन ने संसद के समक्ष कंपनी का शासन समाप्त करने के लिए जो विधेयक प्रस्तुत किया था, उसमें उन्होंने कंपनी के प्रशासन की त्रुटियों को एक पंक्ति में ही व्यक्त कर दिया था। उन्होंने कहा कि “कंपनी की दोहरी शासन व्यवस्था, उत्तरदायित्व हीन,असुविधाजनक, क्लेशकर और जटिल हो गई है।“ दुर्भाग्यवश पामर्स्टन द्वारा प्रस्तुत किया गया विधेयक पारित ना हो सका, परंतु आने वाली सरकार को उन्हीं नीतियों का अनुसरण करना पड़ा और एक दूसरा विधेयक संसद में पेश किया गया जिसे सन 1857 का “एक्ट फॉर द बेटर गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया” के नाम से जाना जाता है। सन 1858 के अधिनियम ने भारत में शासन को कंपनी के हाथों से सम्राट को हस्तांतरित कर दिया। भारत का शासन इंग्लैंड की सम्राट की के नाम से किया जाने लगा। बोर्ड आफ डायरेक्टर्स और बोर्ड आफ कंट्रोल को समाप्त कर दिया गया तथा उनके समस्त अधिकार भारत राज्य सचिव को सौंप दिए गए, जो एक 15 सदस्यों की परिषद की सहायता से भारत का प्रशासन चलाता था। भारतीय परिषद में 8 सदस्य सम्राट द्वारा नियुक्त किए जाते थे और 7 सदस्य निदेशक बोर्ड द्वारा नियुक्त किए जाते थे। इनमें से 9 सदस्य ऐसे होते थे जिनका भारत में रहने का 10 वर्ष का अनुभव रहा हो। परिषद राज्य सचिव के नियंत्रण तथा निरीक्षण में कार्य करती थी। वह इस परिषद काअध्यक्ष होता था। राज्य सचिव को भारत से प्राप्त मालगुजारी का लेखा प्रतिवर्ष संसद के सामने पेश करना पड़ता था। उसे भारत के नैतिक एवं भौतिक विकास की रिपोर्ट भी संसद को देनी होती थी। भारत में स्थित गवर्नर जनरल की काउंसिल के ला मेंबर  तथा एडवोकेट जनरल की नियुक्ति सम्राट के द्वारा होने लगी। भारत राज्य सचिव को एक निगम निकाय घोषित किया गया जिसके परिणामस्वरूप उसे वाद चलाने तथा वाद संस्थित किए जाने का अधिकार भी प्राप्त हो गया।

            भारत के प्रशासन का ब्रिटिश सम्राट की हाथों में हस्तांतरण का कार्य इंग्लैंड की साम्राज्ञी की एक राजकीय घोषणा द्वारा किया गया। इस घोषणा का भारत के संविधान के विकास के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। सन 1858 के अधिनियम ने भारतीय इतिहास में एक बड़े भारी युग को समाप्त कर नए युग का सूत्रपात कियाइससे भारतीय शासन इंग्लैंड के सम्राट के हाथों आ गया। राज्य सचिव की परिषद राज्य सचिव पर नियंत्रण रखने के लिए बनाई गई थी परंतु कालांतर में परिषद की शक्ति खत्म की गई और राज्य सचिव सर्व शक्तिमान बन गया।  राज्य सचिव ब्रिटिश मंत्रिमंडल का सदस्य होता था।  इसलिए वह  ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। ब्रिटिश संसद भी  इस ओर से उदासीन ही रही। इस प्रकार भारत के प्रशासन का पूर्ण प्राधिकार राज्य सचिव के हाथों में आ गया। लेकिन भारत से 6000 मील की दूरी पर इंग्लैंड में बैठकर भारत का शासन सूत्र संभालना उसके लिए संभव नहीं था इसलिए भारत की सरकार के ऊपर राज्य सचिव का नियंत्रण नाम मात्र का ही था             सन 1858 की क्रांति का मुख्य कारण यह था कि भारतीय जनता तथा अंग्रेजी शासन के बीच किसी प्रकार का  कोई संबंध नहीं रह गया था। शासन- प्रशासन तथा विधि निर्माण के कार्यों में भारतीय जनता को कोई प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त था। ब्रिटिश सरकार को भारतीय जनता के विचारों तथा इच्छाओं को जानने का अवसर नहीं मिल पाता था। सन 1857 की क्रांति इसी का एक परिणाम थी।             विधि निर्माण की प्रणाली भी दोषपूर्ण थी। भारतीय लोगों का विधानसभा में कोई प्रतिनिधित्व नहीं था। अन्य प्रांतों के लिए भी विधि निर्माण का कार्य गवर्नर जनरल की परिषद ही करती थी। भिन्न भिन्न प्रांतो की परिस्थितियों की जानकारी एवं समय न मिल पाने के कारण विधानसभा कोई कानून नहीं बना पाती थी। इसलिए कानून बनाने की प्रणाली  पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया था। प्रांतीय विधान मंडल द्वारा पारित कोई भी विधेयक बिना गवर्नर जनरल की अनुमति के कानून नहीं बन सकता था। गवर्नर जनरल की परिषद द्वारा प्रांतीय सरकारों तथा उनके क्षेत्र में निर्बाध रूप से हस्तक्षेप करना प्रांतों को खलता था। इस प्रकार प्रांतीय सरकारों और जनता में असंतोष बढ़ गया था। इन कमियों को दूर करने के लिए भारतीय परिषद अधिनियम-1891 पारित किया गया।

भारतीय परिषद अधिनियम 1891:             सन 1891 के अधिनियम ने भारत में प्रतिनिधिक संस्थाओं को प्रारंभ किया1891 का अधिनियम भारत के संविधान के विकास में दो कारणों से महत्वपूर्ण स्थान रखता है पहला- इस अधिनियम में कानून बनाने के कार्य भारतीय जनता  के सहयोग से  प्रारंभ किया गया और दूसरा- प्रांतीय विधानसभाओं को कानून बनाने का अधिकार भी दिया गया और इस प्रकार प्रांतीय स्वायत्तता की बुनियाद डाली गयी जिसकी परिणति सन 1919 में हुई। विधानसभाओं में भारतीय प्रतिनिधियों  को नामजद करने का अधिकार भी  गवर्नर जनरल को प्रदान किया गया। इस अधिनियम ने गवर्नर जनरल की परिषद्  की सदस्य संख्या को बढ़ाकर 5 कर दिया। पांचवां सदस्य विधि विशेषज्ञ होता था। इनमें से तीन सदस्य प्रशासन सेवा में से लिए जाते थे जिनको भारत में रहने का 10 वर्ष का अनुभव  होना आवश्यक था। बाकि 2 सदस्यों में से एक सदस्य को 5 वर्ष का अनुभव प्राप्त बैरिस्टर होना आवश्यक था। राज्य सचिव ब्रिटिश सदस्य के रूप में सर्वोच्च सेनापति को नियुक्त कर सकता था। गवर्नर जनरल की परिषद को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त था इसलिए केंद्रीय विधान मंडल में नामजद सदस्यों को भी बढ़ा दिया गया था। ऐसे सदस्यों की संख्या कम से कम 6 और अधिक से अधिक 12 होती थी जिन्हें अपर सदस्य कहा जाता था। ऐसे नामजद सदस्यों में से आधे सदस्य गैर सरकारी सदस्य होते थे इनकी कार्य-अवधि 2 वर्ष की होती थी। विधान परिषद की शक्ति अत्यंत सीमित थी। सार्वजनिक कर्ज, राजस्व, धर्म तथा सैनिक मामलों से संबंधित विधेयक गवर्नर जनरल की अनुमति से ही प्रस्तुत किए जा सकते थे। गवर्नर जनरल को विधानसभा द्वारा पारित कानूनों को नामंजूर करने का अधिकार था। वह अध्यादेश भी जारी कर सकता था। ब्रिटिश संसद किसी भी कानून को अमान्य कर सकती थी।             इस अधिनियम ने मद्रास और मुंबई प्रांतों की विधानसभाओं को भी कानून बनाने का अधिकार दे दिया। गवर्नर जनरल को प्रांतीय विधानसभा द्वारा पारित का विधेयकों को नामंजूर करने का अधिकार प्राप्त था। गवर्नर जनरल को नए प्रांतों की स्थापना करने और उनकी सीमाओं में परिवर्तन करने का भी अधिकार प्राप्त था। इन सभी परिवर्तनों के बावजूद भी इस अधिनियम में अनेक कमियाँ रह गई थी। इस अधिनियम के परिणाम स्वरुप गवर्नर जनरल को असीमित अधिकार मिल गए थे तथा विधान परिषद के सदस्यों को कोई भी महत्वपूर्ण अधिकार नहीं था। विधान परिषद् के सरकारी सदस्यों को विधेयक पर प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था। परिषद् के आधे सदस्य गैर सरकारी तथा देसी राजे एवं जमीदार होते हैं जिन्हें कानून का कोई ज्ञान नहीं होता था, और ना ही वे लोग  भारत के लिए बनाए जाने वाले कानूनों में कोई दिलचस्पी ही लेते थे। इस प्रकार भारतीयजनता को इस अधिनियम से कोई लाभ नहीं हुआ।         भारत के वायसराय लॉर्ड डफरिन ने उपर्युक्त परिस्थितियों में सुधार आवश्यक समझा। उनके द्वारा सन 1888 में प्रशासनिक सुधारों पर विचार करने के लिए एक समिति नियुक्त की गई। समिति की रिपोर्ट में की गयी सिफारिशों के आधार पर ब्रिटिश संसद में एक विधेयक प्रस्तुत किया गया जो 2 वर्ष बाद पारित हुआ। यह विधेयक भारतीय परिषद अधिनियम-1892 कहलाया। इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय तथा प्रांतीय परिषदों के सदस्यों की संख्याओं को बढ़ा दिया गया। केंद्रीय विधान परिषद् के काम से काम 10 और अधिक से अधिक 16 सदस्यों को नामजद करने का नियम बनाने का अधिकार गवर्नर जनरल के पास था। परिषद के भारतीय सदस्यों को वार्षिक बजट पर बहस करने और प्रश्न पूछने का अधिकार भी दिया गया परन्तु गवर्नर जनरल को इन सदस्यों द्वारा पूछे गए प्रश्नो को स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार प्राप्त था। बंबई तथा मद्रास की विधान परिषदों में 8से लेकर 20 सदस्य, बंगाल में अधिकतम 20 सदस्य, अवध तथा उत्तरी पश्चिमी प्रांतो की परिषदों में 15 सदस्य होते थे। परिषदों के अतिरिक्त सदस्यों की नियुक्ति स्थानीय सस्थाओं, नगर महापालिकाओं,राज्य जिला बोर्डो, विश्वविद्यालयों के द्वारा निर्वाचित करके किया जाता था।

भारतीय परिषद अधिनियम-1892:

इस अधिनियम ने भारत में प्रतिनिधिक सरकार की नींव डाली। इस अधिनियम में भी बहुत सारी कमियां थी जो निम्नलिखित हैं-         1 - निर्वाचन की प्रक्रिया अन्यायपूर्ण थी  और निर्वाचित व्यक्ति जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं करते थे।  जनता के कुछ विशेष वर्गों को प्रतिनिधित्व प्राप्त था जबकि कुछ वर्गों को बिल्कुल भी नहीं। मुंबई विधान परिषद में यूरोपियन व्यापारियों को 6 स्थान प्राप्त थे किन्तु भारतीय व्यापारियों को एक भी प्रतिनिधित्व नहीं था।         2 - विधान परिषदों की विधायिनी शक्ति अत्यंत सीमित थी और सदस्यों को अनुपूरक प्रश्न पूछने का भी अधिकार नहीं था।
        3 - गैर सरकारी सदस्यों की संख्या बहुत कम थी केंद्रीय विधान परिषद के 20 में से केवल 6 सदस्य गैर सरकारी होते थे और 14 सदस्य सरकारी होते थे। केंद्रीय विधान परिषदतथा प्रांतीय विधान परिषद् में  पंजाब प्रांत को कोई भी प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त था। गैर सरकारी सदस्यकिसी भी विधेयक में कोई भी संशोधन नहीं करा सकते थे, अतः उनको दिए गए अधिकार बेकार साबित हुए। प्रांतीय परिषद इतनी छोटी थी कि यह जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। बंगाल के 7000000 लोगों के लिए 7 सदस्य परिषद में थे। यह अधिनियम भारतीय जनता की सभी मांगों को पूरा नहीं कर सका परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में निर्वाचन प्रणाली को स्वीकार करके और विधान परिषदों का कार्यकारिणी के ऊपर कुछ नियंत्रण स्वीकार करके प्रतिनिधिक सरकार के गठन की दिशा में होने वाले विकास को गति प्रदान करने में काफी सहायक सिद्ध हुआ।

“मार्ले मिंटो सुधार” भारतीय परिषद अधिनियम-1919:

        नवंबर, सन 1919  में लार्ड कर्जन के स्थान पर लाडनू भारत का वायसराय तथा जान मार्ले  को भारत का राज्य सचिव नियुक्त किया गया। जॉन मार्ले भारतीय प्रशासन में सुधारों के समर्थक थे। भारत के वायसराय लॉर्ड मिंटो ने वाइसराय जॉन मार्ले के विचारो का समर्थन किया। इसीलिए इनके द्वारा किए गए सुधारों को मार्ले-मिंटो सुधार के नाम से जाना जाता है।         भारतीय परिषद अधिनियम-1919  द्वारा भारतीयों को प्रशासन तथा विधेयक पारित करने, दोनों कार्यों के लिए  प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया। केंद्रीय विधानसभा में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई।  इनमें से लगभग 32  गैर सरकारी सदस्य होते थे। इन  गैर सरकारी सदस्यों में से 27 सदस्य निर्वाचित होते थे और पांच सदस्य नामजदहोते थे। इसके लिए निर्वाचन मंडल तीन वर्गों में बाँट दिया गया था। 1  - सामान्य निर्वाचक वर्ग, 2  - वर्गीय निर्वाचक वर्ग, 3 - विशिष्ट निर्वाचक वर्ग,         प्रांतीय विधान परिषदों की सदस्य संख्या को भी बढ़ा दियागया। निर्वाचन की पद्धति केन्द्रीय विधान परिषद के निर्वाचन के समान ही थी। इस अधिनियम ने केंद्रीय विधान परिषद और प्रांतीय विधान परिषद्की  शक्ति को बढ़ा दिया। विधान परिषदों के सदस्यों को बजट पर बहस करने और उन पर प्रश्न पूछने का अधिकार दे दिया गया।  परन्तु इन सदस्यों को बजट पर मत देने का अधिकार प्राप्त नहीं था। सदस्यों को लोकहित के विषय पर विवेचना करने का भी अधिकार प्रदान किया गया था। इन सब  परिवर्तनों के बावजूद भी मार्ले मिंटो सुधार भारतीयों की आकांक्षाओं ( उत्तरदायी तथा प्रतिनिधिक  सरकार की स्थापना )को पूरा करने में असफल हो गया। केंद्रीय विधानमंडल के सरकारी सदस्य कोई प्रश्न नहीं पूछ सकते थे, वे मतदान में सदा सरकार का ही समर्थन करते थे। गैर सरकारी सदस्य भी सरकारी सदस्यों का ही अनुसरण करते थे। परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या बहुत कम थी। निर्वाचन की प्रक्रिया दोषपूर्ण थी। इस अधिनियम ने एक दोषपूर्ण,संकुचित और विभेदकारी निर्वाचन प्रक्रिया प्रदान की जिसने आगे चलकर देश का विभाजन कर दिया। मुस्लिमो को सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रदान करके अधिनियम ने मुसलमानों का पक्षपात किया। मुसलमान तथा हिन्दू मतदाताओं की अहर्ताएं भिन्न-भिन्न थीं, ऐसा मुस्लिमों को खुश करने के लिए किया गया था। स्त्रियों को मताधिकार नहीं प्राप्त था।
        अंग्रेजी सरकार  के विरुद्ध आंदोलन तीव्र गति से बढ़ने लगा। उसी समय विश्वपटल पर कुछ ऐसी घटनाएं घटीं, जिन्होंने भारतीयों की आंखें खोल दी। कांग्रेस ने अपना आंदोलन और तेज कर दिया। सन 1914 के प्रथम विश्वयुद्ध  ने जिसने भारतीयों की महत्वाकांक्षा को गति प्रदान की। अंग्रेजों ने वर्तमान व्यवस्था में सुधार करना आवश्यक समझा। सन 1917 में भारत के नए राज्य सचिव मिस्टर मांटेग्यू ने भारत में और अधिक सुधारों का समर्थन किया। उन्होंने ब्रिटिश संसद में यह घोषणा की कि आने वाले समय में ब्रिटिश सरकार की नीति होगी कि  प्रशासन की शाखा में भारतीयों के साहचर्य को बढ़ाया जाए ताकि ब्रिटिश साम्राज्य के रूप में विभिन्न भागो में उत्तरदायित्वपूर्ण शासन का विकास होता रहे। इस इस घोषणा के बाद वे भारत की राजनीतिक अवस्था की जांच करने के लिए भारत आए। उन्होंने राज प्रतिनिधि लॉर्ड चेम्सफोर्ड के साथ देशभर का दौरा किया और राजनीतिक समस्याओं का अध्ययन किया। उन्होंने 1918 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की इसे मांट-फोर्ड योजना कहते हैं। इस रिपोर्ट में उन्होंने भारत में किए जाने वाले सुधारों की एक रूपरेखा प्रस्तुत की। मांट-फोर्ड रिपोर्ट के आधार पर 1919 में ब्रिटिश संसद से एक विधेयक पारित किया गया जिसे गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट 1919 कहते हैं। 

भारतीय संविधान का विकास | सन 1765-1858 | ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना

 भारतीय संविधान का विकास | सन 1765-1858 | ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना
        भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भाग 2 में हम सन् 1765 से सन् 1858 तक के इतिहास पर नजर डालेंगे और यह जानने का प्रयास करेंगे कि इन 93 वर्षों में भारत के अंदर क्या कुछ हुआ, तो समय व्यर्थ न करते हुए चलते हैं अपने मकसद की ओर, भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : सन 1765 से सन् 1858 तक, यही वह समय है जब भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना हुई, कैसे? आइए जानते हैं।

सन् 1773 का रेगुलेटिंग एक्ट:

        दिवानी अनुदान के फलस्वरूप कंपनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा प्रांतों का वास्तविक शासक बन गई। बंगाल, बिहार और उड़ीसा प्रदेश का वास्तविक प्रशासन कंपनी के हाथों में आ जाने से कंपनी के अधिकारीगण स्वच्छंद हो गए। इन प्रदेशों में शासन की बागडोर कंपनी के सेवकों पर ही थी। कंपनी के सेवकों को बहुत कम वेतन मिलता था। उन लोगों ने इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाया और भारतवासियों का भरपूर शोषण करने लगे। उनके अंदर एक ही धुन लगी रहती थी कि वे कैसे भारत में लूट-खसोट कर अधिक से अधिक धन इंग्लैंड ले जा सकें। स्थिति यह थी कि जहां कंपनी के कर्मचारी इस प्रकार अधिक से अधिक धन इकट्ठा कर रहे थे, वही कंपनी का व्यापार घाटे में जा रहा था। इसलिए कंपनी ने  ब्रिटिश सरकार से ऋण की मांग की। इन परिस्थितियों के कारण ब्रिटिश सरकार तथा वहां के राजनीतिज्ञों के मन में यह धारणा बन गई थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन में बहुत बड़ी गड़बड़ी हो गई है। कंपनी के अवकाश प्राप्त कर्मचारियों के अमीर होकर इंग्लैंड लौटने और उनकी बढ़ती हुई अपकीर्ति  की ओर ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित हुए बिना ना रह सका। उनको यह विश्वास हो गया कि उनका धन एवं संपत्ति भारतीय जनता के शोषण का ही परिणाम है। इसके अलावा ब्रिटिश सरकार को कंपनी के बढ़ते हुए एवं वैभव को देखकर उनको कंपनी के  राज्य क्षेत्र में व्यवस्था स्थापित करने की आवश्यकता महसूस हुई। फलस्वरूप कंपनी के मामलों की जांच के लिए ब्रिटिश संसद ने एक गोपनीय समिति (Secret Committee) नियुक्त की। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कंपनी के प्रशासन में अनेक कमियां खामियां दिखाई तथा उनके शीघ्रातिशीघ्र सुधार करने के लिए  सिफारिश की। गोपनीय समिति की सिफारिशों के परिणाम स्वरूप  ब्रिटिश संसद ने सन 1773 में एक रेगुलेटिंग एक्ट पारित किया।  इस रेगुलेटिंग एक्ट द्वारा कंपनी के प्रशासन में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। रेगुलेटिंग ऐक्ट ने भारत में एक सुनिश्चित शासन पद्धति की शुरुआत की। रेगुलेटिंग एक्ट के पारित होने के पूर्व कोलकाता, बंबई और मद्रास की प्रेसिडेंशियां एक दूसरे से अलग तथा स्वतंत्र होती थी। उनका प्रशासन राज्यपाल और उसकी परिषद द्वारा होता था जो इंग्लैंड की स्थिति निदेशक बोर्ड के प्रति उत्तरदाई थी।  रेगुलेटिंग एक्ट ने बंगाल प्रेसीडेंसी के प्रशासन के लिए एक गवर्नर जनरल की नियुक्ति की।         प्रशासन का कार्य गवर्नर जनरल और उसकी परिषद करती थी। गवर्नर जनरल की परिषद में चार सदस्य होते थे। प्रथम गवर्नर जनरल और उसके चार सभासदों का नामांकन एक्ट में ही कर दिया गया था। संपूर्ण कोलकाता प्रेसीडेंसी का प्रशासन तथा सैनिक शक्ति इसी सरकार में निहित थी। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवानी इलाकों के प्रशासन का अधिकार भी गवर्नर जनरल और उसकी परिषद को ही प्राप्त था। कलकत्ते की सरकार को बंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी की सरकारों को शांति एवं युद्ध संबंधी मामलों में आदेश देने का अधिकार प्रदान किया गया।         गवर्नर जनरल की परिषद को कंपनी के फोर्ट विलियम सेटेलमेंट के प्रशासन एवं न्याय व्यवस्था के लिए कानून बनाने का अधिकार प्राप्त था। रेगुलेटिंग एक्ट ने कोलकाता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना भी की।  सुप्रीम कोर्ट को दीवानी,  फौजदारी, नौसेना तथा धार्मिक मामलों में क्षेत्राधिकार प्राप्त था। इनमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अपर न्यायाधीश होते थे। न्यायाधीशों को बैरिस्टरी के कार्य का 5 वर्ष का अनुभव होना अनिवार्य था। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध अपील प्रिवी कौंसिल में की जा सकती थी।         1781 का एक्ट ऑफ़ सेटलमेंट रेगुलेटिंग एक्ट की त्रुटियों को दूर करने के लिए पारित किया गया था। इस एक्ट ने कोलकाता की सरकार को बंगाल, बिहार और उड़ीसा क्षेत्र के लिए भी कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया।  इस प्रकार अब कोलकाता की सरकार को कानून बनाने के दो स्रोत प्राप्त हो गए। वह रेगुलेटिंग एक्ट के अधीन कोलकाता प्रेसीडेंसी के लिए तथा एक्ट ऑफ़ सेटलमेंट के अंतर्गत बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवानी प्रदेशों के लिए कानून बना सकती थी।         एक्ट ऑफ़ सेटलमेंट के पास होने के बावजूद भी कंपनी के प्रबंध में उचित सुधार  ना हो सका। अतः ब्रिटिश संसद ने कंपनी के ऊपर अपने नियंत्रण को बढ़ाने के उद्देश्य से 1784 में पिट्स इंडिया एक्ट  पारित किया।  इसमें कंपनी के व्यापारिक और राजनीतिक कार्य-कलापों को एक दूसरे से पृथक कर दिया। इस एक्ट ने कंपनी के व्यापारिक कार्यों का प्रबंध कंपनी के निदेशकों के हाथ में ही रहने दिया परंतु इसके ऊपर राजनीतिक नियंत्रण एवं निरीक्षण के लिए एक बोर्ड आफ कंट्रोल की स्थापना कर दी।  बोर्ड आफ कंट्रोल के सदस्यों की नियुक्ति इंग्लैंड का सम्राट करता था। पूर्वी देशों में ब्रिटिश उपनिवेशों  के प्रशासन के ऊपर नियंत्रण तथा निरीक्षण का भार बोर्ड ऑफ कंट्रोल पर था।   इस प्रकार भारतीय उपनिवेश के दो शासक हो गए।  एक- कंपनी का निदेशक बोर्ड, और दूसरा- बोर्ड ऑफ कंट्रोल के माध्यम से ब्रिटिश सम्राट। इसके परिणाम स्वरूप कंपनी के निदेशकों की शक्ति काफी घट गई और कंपनी के ऊपर ब्रिटिश संसद का नियंत्रण बढ़ गया। परंतु अभी भी निदेशकों को काफी अधिकार प्राप्त थे। ब्रिटिश सरकार कंपनी के ऊपर अपने नियंत्रण से संतुष्ट नहीं थी इसलिए ब्रिटिश संसद समय-समय पर कंपनी के प्रशासन पर अपना नियंत्रण बढ़ाने के उद्देश्य से अनेक अधिनियम पारित करती रही। सन 1793 के चार्टर ने कंपनी के व्यापार करने की अवधि को 20 वर्ष के लिए और बढ़ा दिया।

सन 1813 का राजपत्र :         1813 के राजपत्र द्वारा ब्रिटिश सरकार ने कंपनी के ऊपर अपने नियंत्रण को और अधिक बढ़ा दिया। राजपत्र के द्वारा कंपनी का भारत में व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया और सभी ब्रिटिश निवासियों को भारत से व्यापार करने की छूट दे दी गई। सबसे महत्वपूर्ण कार्य इस राजपत्र ने यह किया कि उसने कलकत्ता, बंबई और मद्रास की सरकारों द्वारा बनाए गए कानूनों का ब्रिटिश संसद द्वारा अनुमोदन किया जाना अनिवार्य बना दिया।

सन 1833 का राजपत्र :         1833 के राजपत्र ने देश की शासन प्रणाली में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। यह राजपत्र भारत में  ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत करने और एक केंद्रीय शासन प्रणाली प्रारंभ करने के लिए उत्तरदायी था। इस राजपत्र का प्रभाव अत्यंत व्यापक एवं दूरगामी था। इस राजपत्र ने गवर्नर जनरल के परिषद के संविधान एवं अधिकारों में काफी परिवर्तन कर दिया।  इसने बंगाल के गवर्नर जनरल को संपूर्ण भारत का गवर्नर जनरल बना दिया।  इस प्रकार देश के प्रशासन का केंद्रीकरण कर दिया गया।  गवर्नर जनरल की परिषद में एक और सदस्य बढ़ा दिया गया जिसे “ला मेंबर” कहा जाता था।  ला मेंबर केवल कानूनी मामलों में सलाह देने का कार्य करता था।  गवर्नर जनरल को कंपनी के क्षेत्र में स्थित सभी व्यक्तियों, सभी न्यायालयों, सभी स्थानों तथा सभी वस्तुओं के विषय में कानून बनाने का अधिकार दिया गया।  मद्रास तथा बंबई की परिषदों का कानून बनाने का अधिकार समाप्त कर दिया गया।   सरकार की कानून बनाने की शक्ति पर भी एक महत्वपूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया। इस राजपत्र ने ब्रिटिश संसद के भारतीय सरकार पर नियंत्रण रखने के अधिकार को भी सुरक्षित रखा। गवर्नर जनरल की परिषद द्वारा पारित कानूनों को संसद अस्वीकृत कर सकती थी और भारत के लिए स्वयं कानून बना सकती थी। अतः रेगुलेटिंग एक्ट ने प्रशासन के केंद्रीकरण की जिस प्रक्रिया को प्रारंभ किया था, इस राजपत्र ने गवर्नर जनरल के अधिकार को संपूर्ण ब्रिटिश भारत में स्थापित करके उसे पूरा कर दिया।         1837 के राजपत्र के पूर्व निर्मित कानूनों को रेगुलेशन कहा जाता था, किंतु इस  राजपत्र के अंतर्गत पारित किए गए कानूनों को अधिनियम कहा जाता था। भारतीय सरकार के बनाए गए कानून भी ब्रिटिश संसद के कानूनों की तरह ही मान्य होते थे।         इस राजपत्र में सरकारी नौकरियों के लिए भी उपबंध किया गया। इस राजपत्र के अनुच्छेद 87 के अनुसार यह व्यवस्था की गई कि कोई भी भारतीय केवल धर्म, जन्म स्थान,मूल वंश, और वर्ण के आधार पर सरकारी नौकरियों के लिए अयोग्य नहीं समझा जाएगा और दास प्रथा समूल समाप्त कर दी गई। गवर्नर जनरल को एक विधि आयोग नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। भारतीय विधियों के संहिताकरण के लिए प्रथम विधि आयोग की स्थापना इसी अधिनियम के अंतर्गत की गई थी।

सन् 1853 का राजपत्र :         इस राजपत्र ने कार्यकारिणी और विधायिनी शक्तियों को अलग अलग करने का निश्चित कदम उठाया। भारतवर्ष के लिए  एक अलग विधायिनी परिषद की नियुक्ति हुई। बंगाल के लिए एक नया लेफ्टिनेंट गवर्नर नियुक्त किया गया जो प्रशासन का कार्य संभालता था।  विधान परिषद में 12 सदस्य होते थे। कमांडर इन चीफ,  गवर्नर जनरल, गवर्नर जनरल की काउंसिल के चार सदस्य, 6 और विधायक सदस्य विधायिनी परिषद के सदस्य होते थे। अन्य 6 सदस्यों में बंगाल के चीफ जस्टिस, कोलकाता सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश, और  बंगाल, मद्रास मुंबई और आगरा चार प्रांतों के प्रतिनिधि शामिल थे। इस प्रकार सर्वप्रथम भारतीय विधान परिषद में क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व का सिद्धांत प्रारंभ किया गया।  विधान परिषद का मुख्य कार्य देश के लिए कानून बनाना था। विधायिनी परिषद द्वारा पारित विधेयकों को गवर्नर जनरल नामंजूर कर सकता था, चाहे वह परिषद की सभा में उपस्थित रहा हो या नहीं। सन 1853 के राजपत्र ने संपूर्ण भारत के लिए एक विधान मंडल की स्थापना की। कानून बनाना सरकार का एक विशेष कार्य माना गया जिसके लिए विशेष तंत्र विशेष प्रक्रिया अपेक्षित थी। इस राजपत्र ने  कंपनी के निदेशकों से भारत में की गई नियुक्तियों से संबंधित अधिकार छीन लिए। इससे कंपनी के निदेशकों के अधिकारों को काफी झटका लगा। इस राजपत्र ने भारतीय शासन को सम्राट को हस्तांतरित करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। सन 1857 के विद्रोह ने इस प्रक्रिया को और तेज गति प्रदान की और भारत से ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त कर दिया गया।

भारतीय संविधान का विकास | सन 1600 - 1765

भारतीय संविधान का विकास

        15 अगस्त 1947 का दिन भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा। इसी दिन भारत अपनी सदियों की गुलामी से मुक्त हुआ था।  इतने बलिदान के बाद अर्जित की गई स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए इसे अभी बहुत कुछ करना बाकी था। सर्वप्रथम देश के प्रशासन का महत्वपूर्ण कार्य सामने था। इसके लिए हमारे नेताओं को एक मजबूत ढांचा निर्मित करना था। भारत को एक संविधान की रचना करनी थी। यह कार्य आसान नहीं था।  अनेक बाधाएं थीं। इन सबके बावजूद संविधान निर्मात्री सभा ने अथक परिश्रम तथा कार्यकुशलता का परिचय दिया और एक सर्वमान्य संविधान की रचना करने में सफल रही। स्वतंत्रता के पवित्र दिन के पश्चात दूसरा ऐतिहासिक दिन था 26 जनवरी 1950,, जब भारत का संविधान लागू किया गया जिसने भारत को दुनिया के सामने एक नए रूप में प्रस्तुत किया।         किसी भी देश का संविधान एक दिन की उपज नहीं होता है। संविधान एक ऐतिहासिक विकास का परिणाम होता है। भारतीय संविधान के विकसित रूप को समझने के लिए उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की जानकारी होना आवश्यक है। ऐतिहासिक प्रक्रिया की जानकारी के बिना हम संविधान को अच्छी तरह नहीं समझ सकते। किंतु इसके लिए हमें अंग्रेजों के भारत आगमन काल से पहले नहीं जाना होगा,  क्योंकि भारत में संविधानिक परंपरा का विकास अंग्रेजों के भारत में आगमन के समय से ही प्रारंभ हुआ।  आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं का विकास भी इसी काल में प्रारम्भ हुआ। भारतीय संविधान के ऐतिहासिक विकास का काल सन 1600 से प्रारंभ होता है। इसी वर्ष इंग्लैंड में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गई थी।  यहां हम भारत में अंग्रेजों के आगमन के समय से लेकर आज तक के भारतीय संविधान के क्रमिक विकास का अध्ययन करेंगे। इस विकास काल को पांच भागों में बांटा जा सकता है 1 - सन 1600 - 1765 2 - सन 1765 - 1885 3 - सन 1885 - 1919 4 - सन 1919 -1947 5 - सन 1947 -1950

1 - सन 1600 से 1765,अंग्रेजों का भारत आगमन: ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना:

        16 वीं शताब्दी में इंग्लैंड में महारानी एलिजाबेथ का शासन था।  इस काल को इंग्लैंड के इतिहास का स्वर्णकाल कहा जाता है। जनता सुखी एवम संपन्न थी। अंग्रेजों ने साहसिक समुद्री यात्राएं करना आरंभ कर दिया था। इसी समय वहां भारतवर्ष की अपार धन-संपत्ति खबर पहुंची।  भारत वर्ष की धन-संपत्ति को प्राप्त करने की अभिलाषा तथा समुद्री यात्रा की उमंग ने अंग्रेजों को भारत की ओर आकर्षित किया। कुछ साहसिक अंग्रेज व्यापारियों ने एक कंपनी की स्थापना की जो आगे चलकर ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से प्रसिद्ध हुई। ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना महारानी एलिजाबेथ द्वारा जारी किए गए एक राजपत्र  द्वारा की गई जिसे सन 1600 ई.  का राजपत्र कहा जाता है। इस राजपत्र द्वारा कंपनी को पूर्वी देशों से व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया गया। कंपनी के प्रबंध की समस्त शक्ति एक गवर्नर और 24 सदस्यों की एक परिषद में निहित थी। गवर्नर एवं उसकी परिषद को ऐसे नियमों, कानूनों और आदेशों को बनाने का अधिकार दिया गया था जिससे कंपनी के प्रशासन एवं प्रबंधन को सुचारू रूप से चलाया जा सके तथा कर्मचारियों को अनुशासन में रखा जा सके। कंपनी को इन कानूनों का उल्लंघन करने वाले कर्मचारियों को दंड देने का प्राधिकार भी प्राप्त था। यद्यपि कंपनी की विधायिनी शक्ति अत्यंत सीमित थी फिर भी इसका बड़ा ऐतिहासिक महत्व था क्योंकि इसमें वे बीज निहित थे जिससे अंततोगत्वा एंग्लो-इंडियन विधि संहिताओं का विकास हुआ।         कंपनी ने भारत में अनेक स्थानों में कारखानों की स्थापना की।  भारत में कंपनी का  सबसे पहला व्यापारिक केंद्र सूरत था। सूरत में कारखाने की स्थापना करने की अनुमति उन्हें मुगल बादशाह जहांगीर से प्राप्त हुई थी।  सूरत में कारखाने की स्थापना करने के बाद कालांतर में कंपनी ने मुंबई, मद्रास और कोलकाता में भी अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित किए।  इन नगरों को प्रेसीडेंसी नगर कहा जाता था। इनका प्रशासन प्रेसिडेंट एवं उसकी परिषद करती थी। इस काल में अंग्रेजों ने भारत में अपने व्यापारिक केंद्र की स्थापना भारतीय शासकों की अनुमति से की थी किन्तु धीरे-धीरे कंपनी का व्यापारिक दृष्टिकोण बदलने लगा और यह पूरे भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने का विचार करने लगी। भारत में एक व्यापारिक संस्था के रूप में विकसित होकर उसने अंग्रेजी साम्राज्य की नींव डालने का काम किया। मिस्टर इल्बर्ट के अनुसार-  कंपनी को जो भी रियायतें मुगल शासकों से प्राप्त हुई थी, उन रियायतों ने कंपनी को भारत में संस्थापित कर दिया और ब्रिटिश सम्राट इस कंपनी के माध्यम से दूसरी शक्तियों के विरोध में प्रादेशिक संप्रभु बन गया। अंत में ब्रिटिश सम्राट ही संपूर्ण ब्रिटिश भारत में संप्रभुता रखने लगा और अधीनस्थ देशी रियायतों का सर्वोच्च अधिकारी बन गया।

सन 1726 का राजपत्र -

        सन 1726 में कंपनी को एक और महत्वपूर्ण राजपत्र प्रदान किया गया। इस राजपत्र द्वारा कोलकाता, मुंबई और मद्रास प्रेसीडेंसियों के राज्यपाल और उनकी परिषद को कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया। यह एक महत्वपूर्ण कदम था। अब तक कानून बनाने की शक्ति कंपनी के इंग्लैंड स्थित निदेशक बोर्ड के पास थी। यह लोग भारत की परिस्थितियों से बिल्कुल अनभिज्ञ होते थे। इस प्रकार 1726 के राजपत्र द्वारा भारत स्थित कंपनी की सरकार राज्यपाल और उसकी परिषद को उपनियम, नियम और अध्यादेश को पारित करने का अधिकार प्रदान किया गया और उनके उल्लंघन करने वालों को दंडित करने की शक्ति प्रदान की गयी, किंतु राज्यपाल और उसकी परिषद की कानून बनाने की शक्ति पर दो मुख्य प्रतिबंध थे- 1 -  यह कि उसके द्वारा बनाए गए कानून आंग्ल विधि के नियमों के विपरीत ना हो, 2 -  यह कि वे युक्तियुक्त हों         उपर्युक्त कानून तब तक प्रभावी नहीं होते थे जब तक कि इंग्लैंड स्थित कंपनी के निदेशकों की सभा द्वारा अनुमोदित ना कर दिए गए हों।         अभी तक कंपनी एक व्यापारिक संस्था के रूप में ही कार्य कर रही थी।  इसे शासक बनने का अवसर प्राप्त नहीं हो सका था,  किंतु इसके पश्चात कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं घटी जिनके परिणाम स्वरूप कंपनी ने अपना व्यापारिक चोला बदल दिया और बंगाल का शासन उसके हाथों में आ गया। यह काल भारत में मुगल साम्राज्य का पतन काल था। उसकी शक्ति समाप्तप्राय हो चली थी। इस अवसर का अंग्रेजों ने पूरा पूरा लाभ उठाया। सन 1757 ईस्वी में अंग्रेज प्लासी की लड़ाई में बंगाल के अंतिम शासक नवाब सिराजुद्दौला को हरा कर बंगाल प्रांत के वास्तविक शासक बन बैठे। प्लासी की जीत से ही भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की नींव पड़ी। सन 1765 में मुगल बादशाह शाह आलम ने कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा का दीवान बना दिया। इसके परिणामस्वरूप इन इलाकों में मालगुजारी वसूलने तथा दीवानी न्याय प्रशासन की जिम्मेदारी कंपनी पर आ गई।  मिस्टर ईल्बर्ट  ने कहा है कि सन 1765 ईस्वी को आंग्ल-भारतीय इतिहास का युग प्रवर्तक काल समझा जा सकता है क्योंकि इसी समय से ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत में प्रादेशिक सम्प्रभुता स्थापित करने का काल आरंभ होता है। अब कंपनी अपने व्यापारिक रूप को त्याग कर एक वास्तविक शासक के रूप में सामने आई।