समता का अधिकार | अनुच्छेद 14 | विधि के समक्ष समता अथवा विधियों के समान संरक्षण का अधिकार

 


    समता का अधिकार | अनुच्छेद 14 | विधि के समक्ष समता अथवा विधियों के समान संरक्षण का अधिकार




     अनुच्छेद 14 से 18 द्वारा संविधान प्रत्येक व्यक्ति को समता का अधिकार प्रदान करता है। अनुच्छेद 14 में सामान्य नियम दिया गया है नागरिकों के बीच धर्म, जाति, मूलवंश, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर भेदभाव करने का निषेध करता है । संविधान की प्रस्तावना में परिकल्पित समता का आदर्श अनुच्छेद 14 में निहित है । अनुच्छेद 15, 16, 17 और 18 अनुच्छेद 14 में निहित सामान्य नियम के विशिष्ट उदाहरण हैं । अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान के आधारों पर भेदभाव का प्रतिषेध करता है । अनुच्छेद 16 सार्वजनिक नियोजन के मामलों में अवसर की समानता की गारण्टी करता है । अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का उन्मूलन करता है और अनुच्छेद 18 उपाधियों का उन्मूलन करता है ।


     अनुच्छेद 14 – विधि के समक्ष समता अथवा विधियों के समान संरक्षण का अधिकार

अनुच्छेद 14 यह उपबन्धित करता है कि 'भारत राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से अथवा विधियों के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जायेगा । इस अनुच्छेद में दो वाक्यांशों का प्रयोग किया गया है। एक है 'विधि के समक्ष समता' तथा दूसरा है 'विधियों का समान संरक्षण ।' 'विधि के समक्ष समता' वाक्यांश करीब-करीब सभी लिखित संविधान में पाया जाता है जो नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान करते हैं । 'संयुक्त राष्ट्र मानवीय अधिकार घोषणापत्र' के अनुच्छेद 7 में उक्त दोनों वाक्यांश प्रयुक्त किये गये हैं । मानव अधिकार घोषणापत्र का अनुच्छेद 7 यह कहता है कि “विधि के समक्ष सभी समान हैं और बिना किसी भेदभाव के सभी विधि के संरक्षण के अधिकारी हैं ।" 


     'विधि के समक्ष समता' वाक्यांश ब्रिटिश संविधान से लिया गया है जिसे प्रोफेसर डाइसी के अनुसार 'विधि-शासन' (Rule of Law) कहते हैं । दूसरा वाक्यांश अमेरिका के संविधान से लिया गया है । इन दोनों वाक्यांशों का उद्देश्य भारतीय संविधान की प्रस्तावना में परिकल्पित प्रतिष्ठा की समानता ( equality of status) की स्थापना करना है ।


     वैसे तो यदि देखा जाय तो दोनों वाक्यांशों में समानता है, किन्तु जहाँ तक अर्थ का प्रश्न है, दोनों में कुछ अन्तर है । "विधि के समक्ष समता" एक नकारात्मक वाक्यांश है जिसका तात्पर्य है समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों के साथ विधि द्वारा दिये गये विशेषाधिकारों तथा अधिरोपित कर्त्तव्यों दोनों के मामले में समान व्यवहार किया जायेगा और प्रत्येक व्यक्ति देश की साधारण विधि के अधीन होगा । “विधि का समान संरक्षण" वाक्यांश समानता का स्वीकारात्मक रूप है जिसका तात्पर्य है समान परिस्थिति वाले प्रत्येक व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार करना, अर्थात् समान कानूनों को लागू करना । 1 किन्तु यदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो दोनों वाक्यांशों में एक ही उद्देश्य निहित है और वह है-समान न्याय । 2 स्टेट आफ वेस्ट बंगाल बनाम अनवर अली सरकार के वाद में मुख्य न्यायाधिपति पातंजलि शास्त्री ने ठीक ही कहा है कि "विधि का समान संरक्षण", "विधि के समक्ष समता" का ही उपसिद्धान्त है, क्योंकि उन परिस्थितियों की कल्पना करना कठिन है, जब "विधि के समान संरक्षण" के अधिकार को इंकार करके “विधि के समक्ष समता" के अधिकार को कायम रखा जा सकता है । इस प्रकार वस्तुतः दोनों पदावलियों का अर्थ एक ही है । सिद्धान्ततः उक्त दोनों वाक्यों में अन्तर हो सकता है, लेकिन व्यवहारतः दोनों में कोई अन्तर नहीं है ।


     'विधि के समक्ष समता' का तात्पर्य व्यक्तियों के बीच पूर्ण समानता की स्थापना से नहीं है, जो व्यवहारतः सम्भव भी नहीं है । इसका तात्पर्य केवल यह है कि जन्म, मूलवंश, आदि के आधार पर व्यक्तियों के बीच विशेषाधिकारों को प्रदान करने और कर्त्तव्यों के अधिरोपण में कोई विभेद नहीं किया जायगा और प्रत्येक व्यक्ति देश की साधारण विधि के अधीन होगा । जैसा कि डा० जेनिंग्स' ने कहा है- "विधि के समक्ष समता का तात्पर्य यह है कि समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों के बीच समान विधि होनी चाहिये और समान रूप से लागू की जानी चाहिए तथा एक तरह के व्यक्तियों के साथ एक तरह का व्यवहार करना चाहिये । समान कार्य के लिये किसी पर मुकदमा दायर करने या किसी के द्वारा मुकदमा दायर किये जाने तथा किसी पर अभियोजन चलाने या किसी के द्वारा अभियोजित किये जाने का अधिकार पूर्ण आयु के सभी व्यक्तियों को समान रूप से दिया जाना चाहिये और यह बिना किसी धर्म, मूलवंश, सम्पत्ति, सामाजिक स्तर या राजनीतिक भेदभाव के होना चाहिये ।" "विधि के समक्ष समता" की गारण्टी उसी के समान है जिसे प्रो० डाइसी इंग्लैण्ड में "विधि - शासन" (Rule of law) कहते हैं । "विधि - शासन का अर्थ है कि कोई भी व्यक्ति विधि से ऊपर नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति, चाहे उसकी अवस्था या पद जो कुछ भी हो, देश की सामा न्य विधियों के अधीन और साधारण न्यायालयों के क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत है । राष्ट्रपति से लेकर देश का गरीब से गरीब व्यक्ति सभी समान विधि के अधीन हैं और बिना औचित्य के किसी कृत्य के लिए समान रूप से उत्तरदायी होते हैं। इस सम्बन्ध में सरकारी अधिकारियों और साधारण नाग- रिकों में कोई विभेद नहीं किया गया है ।" 


     "विधि के समान संरक्षण" का अधिकार अमेरिकी संविधान के 14वें संशोधन द्वारा दिये गये अधिकार के समान ही है । इसका अर्थ है समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों को समान कानूनों के अधीन रखा जाना और उनके साथ समान कानूनों को लागू करना, चाहे वह विशेषाधिकार हों या दायित्व हों । इस पदावली का निर्देश है कि समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों में कोई भेदभाव. नहीं करना चाहिए और यदि परिस्थिति एक है तो कानून भी एक होना चाहिए। यदि विधायन की विषय-वस्तु एक समान है तो कानून भी एक समान होना चाहिये । इस प्रकार नियम यह है कि समानों के साथ समान कानून लागू करना चाहिए, न कि असमानों के साथ समान कानून लागू करना चाहिए ।


विधि शासन राज्य से यह अपेक्षा करता है कि वह पुलिस द्वारा अभियुक्तों के साथ किये गये बर्बर व्यवहार से उन्हें संरक्षण प्रदान करने के लिए हर सम्भव तरीकों को अपनाये तथा ऐसे लोगों को दण्ड भी दे । यदि राज्य ऐसा नहीं करता है तो विधि शासन पर से लोगों का विश्वास समाप्त हो जायेगा ।


     समता के नियम के अपवाद - अनुच्छेद 14 में निहित समता का नियम आत्यन्तिक (absolute ) नियम नहीं है और उनके अनेक अपवाद भी हैं । उदाहरण के लिए; विदेशी कूट- नीतिज्ञों को न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से विमुक्ति प्राप्त है । इसी प्रकार भारतीय संविधान भी कुछ अधिकारियों को साधारण नागरिकों से अधिक विशेषाधिकार प्रदान करता है और दायित्वों से विमुक्ति प्रदान करता है । अनुच्छेद 361 के अन्तर्गत भारत के राष्ट्रपति, प्रान्तों के राज्यपालों, लोक अधिकारियों, न्यायालयों के न्यायाधीशों और भूतपूर्व राज्यों के नरेशों को ऐसी विमुक्तियाँ प्रदान की गयी हैं । ऐसा उनकी विशेष स्थिति, विशेष पद और विशेष जिम्मेदारियों के कारण किया गया है, ताकि वे देश के प्रति अपने कर्त्तव्य का समुचित रूप से पालन कर सकें ।


     अनु० 14 का संरक्षण नागरिक तथा अनागरिक दोनों को प्राप्त है-अनुच्छेद 14 में 'नागरिक' शब्द के स्थान पर 'व्यक्ति' शब्द का प्रयोग किया गया है । इसका तात्पर्य यह है कि यह अनुच्छेद भारत भू-क्षेत्र में रहने वाले सभी व्यक्तियों को, चाहे वह भारत का नागरिक हो या विदेशी हो, विधि के समक्ष समता का अधिकार प्रदान करता है । भारत में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति, चाहे भारतीय नागरिक हो अथवा नहीं, समान विधि के अधीन होगा और उसे विधि का समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा । इसके विपरीत, अनुच्छेद 15, 16, 17, 18 आदि के उपबन्धों का लाभ केवल 'नागरिकों' को ही प्राप्त है। अनुच्छेद 19 में उल्लिखित मूल स्वतन्त्रताएँ भी केवल 'नागरिकों' को ही प्राप्त हैं। अनुच्छेद 14 नागरिक और अनागरिक में कोई भेद नहीं करता है। विधि के समक्ष समता का अधिकार सभी व्यक्तियों को बिना किसी मूलवंश, रंगभेद और राष्ट्रीयता (Nationality) के भेद-भाव के प्रदान किया गया है ।


     अनुच्छेद 14 में विधिक व्यक्ति भी शामिल हैं—क्या 'व्यक्ति' शब्द में विधिक व्यक्ति भी सम्मिलित किये जा सकते हैं ? यह प्रश्न चिरंजीत लाल बनाम यूनियन आफ इण्डिया' के वाद में उच्चतम न्यायालय के विचारार्थ आया था । उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि अनु० 14 में प्रयुक्त "व्यक्ति" शब्द के अन्तर्गत 'विधिक व्यक्ति' भी सम्मिलित हैं । इसलिए एक कारपोरेशन, जो 'विधिक व्यक्ति' है, को भी विधि के समक्ष समता का अधिकार उपलब्ध है ।


     अनुच्छेद 14 वर्गीकरण की अनुमति देता है, किन्तु वर्ग-विधान का निषेध करता है- "विधि के समक्ष समता" का अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक विधि सामान्य प्रकृति की हो तथा एक ही विधि सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू की जा सकती हो । समानता का अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक विधि का सार्वदेशिक ( universal) प्रयोग (application) होना चाहिये, क्योंकि सभी लोग प्रकृति, योग्यता या परिस्थितियों से एक-सी स्थिति में नहीं हैं । व्यक्तियों के विभिन्न वर्गों की आवश्यकताएँ प्रायः भिन्न-भिन्न व्यवहार की अपेक्षा करती हैं ।" इसलिए भिन्न व्यक्तियों और स्थानों के लिए भिन्न-भिन्न विधि होनी चाहिये । एक ही विधि प्रत्येक स्थान में लागू नहीं होनी चाहिए। वस्तुतः असमान परिस्थितियों में रहने वाले लोगों के लिए एक ही विधि लागू करना असमानता होगी ।" अस्तु, युक्तियुक्त वर्गीकरण अपेक्षित ही नहीं, वरन् आवश्यक भी है । अनेक न्यायिक निर्णयों में न्यायपालिका ने यह स्वीकार किया है कि सामाजिक व्यवस्था को समुचित ढंग से चलाने के लिए अनु० 14 में राज्य को वर्गीकरण करने की शक्ति प्राप्त है । 4 अतएव राज्य समुचित प्रयोजनों के लिए व्यक्तियों और वस्तुओं का वर्गीकरण कर सकता है । यह वर्गीकरण भिन्न-भिन्न आधार पर हो सकता है, जैसे भौगोलिक स्थितियाँ या उद्देश्यों या पेशों या ऐसी अन्य बातों के आधार पर ।


     अनु० 14 वहाँ लागू होता है जहाँ समान परिस्थिति वालों के साथ असमान व्यवहार किया जाता है जिसके लिए कोई युक्तियुक्त आधार नहीं होता ।


व्यक्तियों के विभिन्न वर्गों की विभिन्न आवश्यकताओं के कारण उनमें विभिन्न तथा पृथक् व्यवहार की अपेक्षा होती है । व्यक्तियों को उनके आवश्यकतानुसार विधि वर्गों में बाँटा जाता है । इस सम्बन्ध में विधायिका को विस्तृत शक्ति प्राप्त है । विधायिका उन नीतियों और आधारों को निर्धारित और नियन्त्रित करती है जिसके अनुसार वर्गीकरण किया जा सकता है । ऐसे कानूनों का निर्माण वह समाज के अधिकतम हित और देश की सुरक्षा को ध्यान में रखकर ही करती है ।


      अमीरुन्निसा बनाम महबूब' के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अवलोकन किया है कि विधान- मण्डल को मनुष्यों के पारस्परिक सम्बन्धों से उत्पन्न विभिन्न समस्याओं को हल करना पड़ता है और इस प्रयोजन के लिए यह आवश्यक है कि उसे विस्तृत शक्ति प्रदान की जाय जिससे वह व्यक्तियों और वस्तुओं का वर्गीकरण करे, जिन पर कानूनों को लागू होना है।" इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अनुच्छेद 14 केवल वर्ग-विधान का निषेध करता है, किन्तु वैधानिक प्रयोजनों (Legislative purposes) के लिए युक्तियुक्त वर्गीकरण की अनुमति देता है । परन्तु शर्त यह है कि वर्गीकरण मनमाना ( arbitrary) व भ्रामक (artificial) न हो और युक्तियुक्त आधारों पर आधारित हो । "


     युक्तियुक्त वर्गीकरण की कसौटी (Test of Reasonable Classification)

अनु० 14 वर्ग-विधान का निषेध करता है, किन्तु वर्गीकरण की अनुमति देता है । किन्तु वर्गीकरण युक्तियुक्त होना चाहिए मनमाना नहीं अन्यथा वह असंवैधानिक होगा । यह सच है कि प्रत्येक वर्गीकरण कुछ मात्रा में असमानता उत्पन्न करता है, लेकिन केवल असमानता पैदा करना मात्र ही पर्याप्त नहीं है । उत्पन्न हुई असमानता अयुक्तियुक्त और स्वेच्छाचारी होनी चाहिये । यदि कोई विधि किसी विशेष वर्ग के सभी सदस्यों के साथ समान व्यवहार करती है तो उस पर यह आपत्ति नहीं की जा सकती है कि वह अन्य व्यक्तियों पर लागू नहीं होती और इसलिए व्यक्ति विशेष को समता के संरक्षण से वंचित करती है । यदि एक वर्ग के सभी व्यक्तियों में कोई विभेद नहीं किया गया है तो ऐसी विधि संवैधानिक होगी । इस प्रकार अनु० 14 राज्य द्वारा व्यक्तियों तथा वस्तुओं में वर्गीकरण की शक्ति पर केवल एक ही निर्बन्धन लगाता है और वह यह कि वर्गीकरण अयुक्तियुक्त और मनमाना नहीं होना चाहिए। वर्गीकरण के युक्तियुक्त होने के लिए निम्नलिखित दो शर्तें हैं--

  (1) वर्गीकरण को एक बोधगम्य अन्तरक (intelligible differentia) पर आधारित होना आवश्यक है जो एक वर्ग में शामिल किये गये व्यक्तियों तथा वस्तुओं और उसके बाहर रहने वाले व्यक्तियों तथा वस्तुओं में विभेद करता है ।

  (2) अन्तरक ( differentia) और उस उद्देश्य में तर्कसंगत सम्बन्ध होना आवश्यक है जिसे प्रश्नगत अधिनियम बनाकर विधानमण्डल प्राप्त करना चाहता है ।

   इससे यह स्पष्ट है कि राज्य द्वारा व्यक्तियों अथवा वस्तुओं के वर्गीकरण की शक्ति पर केवल एक ही प्रतिबन्ध है और वह यह कि वर्गीकरण अयुक्तियुक्त और मनमाना नहीं होना चाहिये ।

   अन्तरक, जो वर्गीकरण का आधार है और अधिनियम का उद्देश्य, दोनों भिन्न-भिन्न चीजें हैं । किन्तु आवश्यक यह है कि वर्गीकरण के आधार और प्रश्नगत अधिनियम के उद्देश्य में एक निकटतम सम्बन्ध हो । ' साथ विधानमण्डल को कर अधिरोपित करने के सम्बन्ध में वस्तुओं और व्यक्तियों के चयन और वर्गीकरण करने की विस्तृत शक्ति प्राप्त है और यदि वह एक निश्चित वर्ग के सभी व्यक्तियों के समान व्यवहार करता है तो आमतौर से उस पर आपत्ति नहीं की जा सकती कि वह समान संरक्षण से इन्कार करता है, बशर्ते कि वर्गीकरण मनमाना न हो । वर्गीकरण को किसी वास्तविक और सात्विक भेद पर आधारित होना चाहिये और जिस उद्देश्य की पूर्ति वह करना चाहता है, उससे उसका तर्कसंगत और न्यायोचित सम्बन्ध होना चाहिये, अर्थात् मनमाना और बिना किसी उचित आधार पर किया हुआ वर्गीकरण विभेदकारी होगा और उसे अमान्य घोषित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, विधायिका उस आयु को निर्धारित कर सकती है जिन व्यक्तियों को आपस में संविदा करने के लिये सक्षम समझा जाएगा, लेकिन कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि संविदा करने की सक्षमता व्यक्तियों की शारीरिक बनावट या बालों के रंग इत्यादि पर आधारित की जानी चाहिये, क्योंकि ऐसा वर्गीकरण उस प्रयोजन के लिये मनमाना वर्गीकरण होगा, देखिये - वेस्ट बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार का विनिश्चय ।


     उच्चतम न्यायालय ने अनेक विनिश्चयों में अनुच्छेद 14 के अर्थ एवं क्षेत्र विस्तार का विवेचन किया है । 1 रामकृष्ण डालमिया बनाम जस्टिस टेण्डोलकर " के प्रमुख वाद में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 14 से सम्बन्धित सभी महत्वपूर्ण विनिश्चयों पर पुनर्विलोकन किया है और उसमें स्थापित किये गये उन नियमों का सारांश प्रस्तुत किया है जिसके आधार पर वर्गीकरण की स्वीकृति दी जा सकती है । वे नियम इस प्रकार हैं-

  (1) कोई कानून संवैधानिक हो सकता है यद्यपि वह एक व्यक्ति विशेष से ही संबंध रखता है यदि किन्हीं विशेष परिस्थितियों के कारण जो उस पर लागू होती हैं किन्तु दूसरों पर लागू नहीं होतीं तो ऐसी दशा में उस अकेले व्यक्ति को ही एक वर्ग माना जा सकता है ।

  (2) उपधारणा (presumption) सदैव किसी अधिनियम की सांविधानिकता के पक्ष में की जाती है और यह साबित करने का भार कि वर्गीकरण अयुक्तियुक्त है, उस पर होता है जो उसे चुनौती देता है ।

  (3) यह उपधारणा की जाती है कि विधानमण्डल अपनी जनता की आवश्यकताओं को समझता है और उनका सही मूल्यांकन करता है और यह कि उसकी विधियाँ अनुभूत समस्याओं की अभिव्यक्ति के स्वरूप हैं और उसने जो विभेद कर रखा है, उसके समुचित आधार हैं ।

  (4) इस उपधारणा को यह दिखाकर खंडित (rebutted) किया जा सकता है कि प्रत्यक्षतः कानून में कोई वर्गीकरण नहीं किया गया है और कोई ऐसा विशिष्ट अन्तर नहीं है जो कानून प्रभावित उस व्यक्ति या वर्ग में विशेष रूप से मौजूद है, किन्तु दूसरे व्यक्ति या वर्ग को लागू नहीं होती है जिस पर भी विधि एक वर्ग को आघात पहुँचाती है ।

  (5) सांविधानिकता की उपधारणा को बनाये रखने की पूरी स्वतन्त्रता सामान्य ज्ञान के विषयों को, प्रतिवेदनों को, तत्कालीन इतिहास और तथ्यों की प्रत्येक दशा के ऊपर विचार किया जायेगा जो विधि बनाने के समय मौजूद थीं। ऐसा तभी किया जाता है जब वर्गीकरण का आधार अधिनियम में स्पष्ट रूप में नहीं दिया रहता है ।

  (6) विधानमण्डल को हानि की मात्रा को निर्धारित करने की पूरी स्वतन्त्रता है और वह प्रतिबन्धों को केवल उन्हीं मामलों तक सीमित रख सकता है जहाँ इसकी स्पष्ट रूप से आव- श्यकता है ।

   (7) यदि प्रत्यक्षतः अधिनियम में कोई वर्गीकरण नहीं किया गया है तो संवैधानिकता की प्रकल्पना आवश्यकता से अधिक मात्रा तक नहीं की जा सकती है, अर्थात् सदैव यह मानने तक नहीं की जा सकती है कि कुछ निश्चित व्यक्तियों या निगमों को शत्रुतापूर्ण या विभेदकारी विधान के अधीन करने के लिए अवश्य ही कोई अप्रकट तथा अज्ञात कारण है ।







संविधानोत्तर विधियों पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव || Effect of Article 13 on post-constitutional laws

संविधानोत्तर विधियों पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव || Effect of Article 13 on post-constitutional laws 

Legal Jankari- Effect Of Article 13 on Post Constitutional Laws

     अनुच्छेद 13 (2) राज्य को ऐसी विधि को पारित करने का निषेध करता है जो भाग तीन में दिए गए अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है। यदि राज्य ऐसी कोई भी विधि बनाता है जो मूल अधिकारों से असंगत है तो वह विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी। ऐसी विधियां प्रारंभ से ही शून्य होंगी। यह विधि एक मृत विधि होती है। ऐसी विधि को संविधान में संशोधन करके या संविधानिक प्रतिबंधों को हटा कर पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता है। इसे फिर से पारित करना आवश्यक होगा। यद्यपि मूल अधिकारों से असंगत संविधानोत्तर विधियां प्रारंभ से ही शून्य होती हैं, फिर भी उनकी अवैधता की घोषणा न्यायालय द्वारा किया जाना आवश्यक है। न्यायालय केवल उन्हीं व्यक्तियों की प्रार्थना पर संविधानोत्तर विधियों को शून्य घोषित करता है, जिन्हें मूल अधिकार प्राप्त हैं और जिनके  मूल अधिकारों का अतिक्रमण किया गया है। वह केवल स्वेच्छकों की प्रार्थना पर विधियों को असंवैधानिक घोषित नहीं करता है।
     संविधान-पूर्व विधि और संविधानोत्तर विधि में अंतर यह होता है कि संविधान-पूर्व विधि प्रारंभ से ही शून्य नहीं होती बल्कि संविधान लागू होने पर ही शून्य होती है जबकि संविधानोत्तर विधि प्रारंभ से ही शून्य होती है। संविधान-पूर्व विधि संविधान के पूर्व अर्जित अधिकारों एवं दायित्वों के संबंध में पूर्णतः वैध होती है किंतु संविधानोत्तर विधि क्योंकि प्रारंभ से ही शून्य होती है, अतः इस विधि के अंतर्गत किया गया कोई कार्य चाहे वह पूरा हो गया हो या चल रहा हो, पूर्णतः अवैध होगा तथा ऐसी विधि से यदि कोई व्यक्ति से प्रभावित हुआ है तो उसे अनुतोष पाने का अधिकार होगा। दीपचन्द बनाम उत्तर प्रदेश राज्य का वाद  इसका एक अच्छा उदहारण है। 

आच्छादन का सिद्धांत

सगीर अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया था कि आच्छादन का सिद्धांत संविधानोत्तर विधियों पर लागू नहीं होता है, क्योंकि मूल अधिकारों से असंगत विधि प्रारंभ से ही असंवैधानिक होती है, अतः बाद में किया गया संविधान का संशोधन उसे मान्य नहीं बना सकता। ऐसी विधि को फिर से नए सिरे से पारित करना आवश्यक होता है। दीपचन्द बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने सगीर अहमद के विनिश्चय का अनुमोदन करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि, कोई संविधानोत्तर विधि जो मूल अधिकारों से असंगत है. एक मृत विधि होती है। अतः वह अपने जन्म से ही शून्य होती है। अतएव ऐसे कानूनों पर आच्छादन का सिद्धांत लागू नहीं होता तथा बाद में किया जाने वाला संविधानिक संशोधन भी उसे पुनर्जीवित नहीं कर सकता है। ऐसे कानूनों को फिर से पारित करना आवश्यक होता है। इस विनिश्चय के विपरीत अल्पमत का यह विचार था कि आच्छादन का सिद्धांत संविधानोत्तर विधियों पर भी लागू होता है। महेंद्र लाल जैनी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने सगीर अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में दिए गए अपने बहुमत के निर्णय का अनुमोदन किया और यह अभिनिर्धारित किया कि यू. पी. लैंड टैन्योर्स (रेगुलेशन आफ ट्रांसपोर्ट) एक्ट  1952 असंवैधानिक है, क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 13 (2) का उल्लंघन करता है, और बाद में किए गए चौथे संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता है। इस अधिनियम को फिर से पारित करना आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय का यह विचार था कि आच्छादन का सिद्धांत संविधान-पूर्व विधियों पर लागू होता है। जो अनुच्छेद 13 (1) द्वारा प्रशासित है, न कि संविधानोत्तर विधियों पर जो अनुच्छेद 13 (2) द्वारा प्रशासित होती है। अनुच्छेद 13(1) के अंतर्गत अधिनियम मृत नहीं पैदा होते हैं, इसलिए आच्छादन का सिद्धांत लागू होता है जबकि अनुच्छेद 13(2) के अंतर्गत अधिनियम मृत  पैदा होते हैं इसलिए इन विधियों पर आच्छादन का सिद्धांत लागू नहीं होता है। 
       गुजरात राज्य बनाम श्री अंबिका मिल्स के मामले में उच्चतम न्यायालय ने दीपचन्द और महेंद्र लाल जैनी  के मामलों में दिए गए अपने विनिश्चय को काफी बदल दिया और यह अभिनिर्धारित किया है कि एक संविधानोत्तर विधि जो मूल-अधिकारों से असंगत है वह सभी प्रयोजनों के लिए प्रारंभ से शून्य और अकृत नहीं होती है। पूर्ण-अकृतता का नियम एक सर्वव्यापी नियम नहीं है, और इसके अनेक अपवाद हैं। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि एक संविधानोत्तर विधि जो अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को प्रदत्त किए गए मूल-अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है, वह और अनागरिकों के प्रति प्रवर्तनीय रहती है, क्योंकि विधि केवल नागरिकों को प्रदत्त अधिकारों से उल्लंघन की मात्रा तक शून्य है। अनुच्छेद 13(2) में प्रयुक्त शून्य शब्द से तात्पर्य ऐसे व्यक्तियों के अधिकारों के उल्लंघन पर शून्य है जिन का अधिकार कानून बना कर लिया जा सकता है। ऐसे व्यक्तियों के मूल-अधिकारों के विरुद्ध उक्त प्रकार के कानून शून्य होते हैं। परन्तु जिन व्यक्तियों को कोई मूल-अधिकार प्राप्त नहीं है, उनके प्रति संविधानोतर विधियों के शून्य होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यदि कोई कानून वैध है, और वह उनके मूल-अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है, तो एक नागरिक उसके शून्य होने का लाभ इस आधार पर नहीं उठा सकता है कि, वह नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है। अतः यह कोई विधि ही नहीं है, और न ही इस प्रस्थापना से विधि के समक्ष समता के सिद्धांत का अतिक्रमण होता है, क्योंकि नागरिक और अनागरिक एक ही जैसी स्थिति में नहीं है, क्योंकि नागरिकों को अधिकार प्राप्त हैं जो अनागरिकों को प्राप्त नहीं है। इस प्रकार यदि यह मान लिया जाए कि एक कंपनी जो नागरिक नहीं है, उसे अनुच्छेद 226 के अंतर्गत अपनी संपत्ति के अधिकार के अतिलंघन के लिए न्यायालय में याचिका दाखिल करने और उपचार पाने का अधिकार है, तो भी बॉम्बे लेबर वेलफेयर फंड एक वैध कानून है, और गैर-नागरिकों को पूर्ण रुप से लागू होता है। कंपनी यह तर्क नहीं ले सकती है कि उसका संपत्ति का धारण, अर्जन और व्ययन का अधिकार विधि के प्राधिकार के बिना छीना या न्यून किया जा रहा है।
       संक्षेप में संविधानोत्तर विधि तभी शून्य या मृत होती है, जब वह नागरिकों के मूल अधिकारों से असंगत होती है। जहां तक अनागरिकों का प्रश्न है, ऐसी विधि प्रवर्तनीय रहती है औरवैध बनी रहती है, क्योंकि कंपनी एक नागरिक नहीं है, तथा  संविधानोत्तरविधि उस पर भी लागू होगी। 

  विधि की परिभाषा

अनुच्छेद 13 के प्रयोजन के लिए विधि शब्द के अंतर्गत कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, अधिसूचना, रूढ़िया, और प्रथाएं सम्मिलित हैं। इस अनुच्छेद में विधि शब्द को बड़े विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। सम्मिलित शब्द यह सूचित करता है कि यह गणना उदाहरणात्मक है सर्वांगीण नहीं। अतः उपर्युक्त प्रकार की विधियांविधि शब्द के अंतर्गत शामिल हैं। न्यायालयों द्वारा अनेक विनिश्चयों में अभिनिर्धारित किया गया है कि कार्यपालिका अधिकारियों द्वारा जारी किया गया प्रशासनिक आदेश भी इस शब्द के अंतर्गत सम्मिलित है, किंतु इसमें सरकार द्वारा अपने अधिकारियों को दिए गए निर्देश सम्मिलित नहीं है। स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल बनाम अनवर अली सरकार हबीब  का वाद इसका एक उदहारण है। विधि शब्द के अंतर्गत केवल अधिनियम ही नहीं आते हैं, बल्कि ऐसी रूढ़ियां और प्रथाएं भी आती हैं जिनमें कानून का बल है, रूढ़िया या प्रथाएं मूल-अधिकारों से असंगत नहीं हो सकती हैं। किंतु मुस्लिम या हिंदू या  क्रिश्चियन वैयक्तिक विधि विधि शब्द के अंतर्गत नहीं आती हैं। संविधान का भाग 3 पक्षकारों की वैयक्तिक की विधियों को नष्ट नहीं करता है। 

  प्रवर्तित विधि

प्रवर्तित विधि के अंतर्गत वे सभी संविधान-पूर्व और वर्तमान विधियां सम्मिलित हैं, जो विधानमंडल या अन्य क्षमताशील प्राधिकारियों द्वारा पारित की गई हैं, और जिनका निरसन नहीं किया गया है, भले ही वे भारत के संपूर्ण या किसी एक भाग में पूर्णतः  या अंशतः प्रवर्तित नहीं है। ऐसी सभी विधियां प्रवर्तित विधि के अंतर्गत आती हैं, जब तक की स्पष्ट रुप से उनको प्रवर्तित होने से रोक न दिया गया हो। वर्तमान विधि पदावली का क्षेत्र बड़ा विस्तृत है, और उसके अंतर्गत विधानमंडल या अन्य प्राधिकृत निकाय या अधिकारी द्वारा निर्मित अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना तथा वैयक्तिक विधियां रूढ़ि, प्रथा आदि जो प्रवर्तित होने योग्य हैं, सम्मिलित हैं। इस प्रकार राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा जारी किया गया अध्यादेश, एक सरकारी अधिसूचना, म्युनिसिपल निकाय का एक नियम आदि प्रवर्तित विधि के उदाहरण है। प्रवर्तित विधि शब्दावली का तात्पर्य उन विधियों से है, जो न्यायालयों द्वारा लागू की जा सकती हो। किसी विशेष नियम को विधि कहा जा सकता है या नहीं, इसके लिए यह सिद्ध करना आवश्यक है कि, वह विधि न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय है। 

  "संविधानिक संशोधन" और अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त शब्द "विधि"

              यह महत्वपूर्ण प्रश्न सर्वप्रथम उच्चतम न्यायालय के विचारार्थ शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ के वाद में आया था। इस वाद में संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम 1951 ( जिसके द्वारा अनुच्छेद 31 में दो नए अनुच्छेद 31 क और 31 ख जोड़े गए )  की विधि मान्यता को चुनौती दी गई थी। अपीलार्थियों ने यह तर्क प्रस्तुत किया था कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत पारित विधि भी अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त विधि शब्द के अंतर्गत शामिल है, और क्योंकि वह मूल-अधिकारों का अतिक्रमण करती है अतः उसे अवैध घोषित किया जा सकता है।  उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद द्वारा पारित विधि अनुच्छेद 13 (2) में प्रयुक्त विधि शब्द की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आती है, और अनुच्छेद 13 (2) में प्रयुक्त विधि शब्द का तात्पर्य ऐसी विधि से है, जो विधान मंडल द्वारा अपनी साधारण विधायिनी शक्ति के प्रयोग द्वारा पारित की जाती है, न कि संविधानिक संशोधन, जो अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधानिक शक्ति के प्रयोग में पारित किया जाता है। दोनों विधियों में अंतर है, और अनुच्छेद 13 (2) किसी भी प्रकार से अनुच्छेद 368 के अंतर्गत पारित संविधानिक संशोधन पर लागू नहीं होता। सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ के वाद में दिए गए अपने निर्णय का अनुसरण किया है और यह अभिनिर्धरित किया है कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत पारित विधि अनुच्छेद 13 (2) में प्रयुक्त विधि शब्द की परिभाषा में सम्मिलित नहीं है। 
     परन्तु, गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के वाद में उपर्युक्त दोनों मुकदमों में दी गई विधि की परिभाषा को उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया। इस वाद में संविधान के 17वें  संशोधन 1964 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। न्यायालय के बहुमत का निर्णय सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश श्री सुब्बाराव ने यह कहा कि अनुच्छेद 12 (2) में प्रयुक्त विधि शब्द के अंतर्गत सभी प्रकार की विधियां सम्मिलित हैं, चाहे वह विधानमंडल के साधारण विधायिनी शक्ति के प्रयोग के द्वारा निर्मित की गई हो या अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संविधानिक संशोधन के प्रयोग में निर्मित की गई हो। अतः संविधान में किया गया कोई संशोधन नागरिकों के मूल-अधिकारों का हनन करता है तो वह अवैध होगा। न्यायालय के अनुसार अनुच्छेद 368 में केवल कानून बनाने की प्रक्रिया दी गई है, संविधान संशोधन करने की शक्ति नहीं। यह संसद को ऐसी शक्ति प्रदान नहीं करता जिसके द्वारा व नागरिकों के मूल-अधिकारों में संशोधन करें। विधि विधि है, चाहे साधारण कानून हो या संविधानिक संशोधन। 

 संविधान का 24 वां संशोधन 1971

उच्चतम न्यायालय द्वारा गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में दिए गए निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के लिए संसद ने संविधान का 24 वां संशोधन 1971 पारित किया इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 13 (2) में संशोधन किया गया है, और इसमें निम्नलिखित वाक्य जोड़ा गया है, संसद द्वारा अनुच्छेद 368 के अंतर्गत पारित कोई भी विधि अनुच्छेद 13 (2) में प्रयुक्त विधि शब्द के अंतर्गत शामिल नहीं होगी। केशवानंद भारती बनाम भारत संघ के बाद में उच्चतम न्यायालय ने 24 वें संविधान संशोधन 1971 को विधिमान्य घोषित कर दिया है और गोलक नाथ के मामले में दिए गए अपने निर्णय को पलट दिया है। 

        42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा अनुच्छेद 368  में संशोधन करके संविधानिक संशोधन को न्यायिक पुनर्विलोकन से सर्वथा परे कर दिया गया है। इस संशोधन द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अनुच्छेद 368 के अधीन किए गए संशोधनों की वैधता को किसी भी आधार पर किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी।  

राज्य द्वारा बनाई गयी विधियों पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव || Effect of Article 13 on the laws made by the State

 राज्य द्वारा बनाई गयी विधियों पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव || Effect of Article 13 on the laws made by the State


अनुच्छेद 13 का उपखंड (2) यह उपबंधित करता है कि राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनायेगा जो संविधान के इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गयी प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।  

पृथक्करणीयता का सिद्धांत

जब किसी अधिनियम का कोई भाग असंवैधानिक होता है तो प्रश्न यह उठता है कि क्या उस पूरी अधिनियम को ही शून्य घोषित कर दिया जाए या केवल उसके उसी भाग को ही अवैध घोषित किया जाए जो संविधान के उपबंधों से असंगत है। ऐसे मामलों में न्यायालय पृथक्करणीयता का सिद्धांत ( Dotrine of Severability ) लागू करते हैं। इस सिद्धांत का तात्पर्य यह है कि यदि किसी अधिनियम का असंवैधानिक भाग उसके शेष भाग से, बिना विधानमंडल के आशय को विफल किए या पूरे अधिनियम के मूल उद्देश्य को समाप्त किए, अलग किया जा सकता है, तब केवल मूल अधिकारों से असंगत वाला भाग ही अवैध घोषित किया जाएगा, पूरे अधिनियम को नहीं। अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त असंगत या विरोध की सीमा तक वाक्यांश से स्पष्ट है कि किसी अधिनियम के केवल वे भाग ही अवैध घोषित किए जाएंगे जो मूल अधिकारों से असंगत हैं या विरोध में हैं। पूर्ण अधिनियम को नहीं। 
         ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य के वाद में निवारक निरोध अधिनियम 1950 की धारा 14 की वैधता को चुनौती दी गई थी। उच्चतम न्यायालय ने धारा 14 को असंवैधानिक करार दिया और कहा कि इस धारा को अलग कर देने से उसकी प्रकृति, संरचना या उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं होगा। अतः धारा 14 को अवैध घोषित कर देने से अधिनियम के शेष भाग की वैधता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। प्
   बम्बई राज्य बनाम बालसरा  के मामले में मुंबई प्रांत मद्द्य-निषेध अधिनियम 1949 के कुछ उपबंधों को असंवैधानिक घोषित करने के बाद भी शेष अधिनियम पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा था और वह वैध बना रहा। 
    इसका एक अपवाद भी है। यदि अधिनियम का अवैध भाग वैध भाग से इस प्रकार अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है कि अवैध भाग को निकाल देने से अधिनियम का उद्देश्य विफल हो जाता है या शेष भाग का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रह जाता है तो न्यायालय पूरे अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर देगा। 

         किसी अधिनियम में विधानमंडल का आशय ही इस बात का निर्णायक तत्व है कि अवैध घोषित किए अंश पृथक किए जाने योग्य है अथवा नहीं। रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि जहां किसी विधि का आशय मूल अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने का प्राधिकार देना है, और वह ऐसी व्यापक भाषा में है, जो संविधान द्वारा निहित सीमाओं के अंदर और बाहर दोनों प्रकार के प्रतिबंधों में आती है, और जहां दोनों को पृथक करना संभव नहीं है, तो पूरी संविधि को ही रद्द कर दिया जाएगा, जब तक कि ऐसे प्रयोजनों के लिए, जो कि संविधान द्वारा अनुमोदित नहीं है, इसके लागू होने की संभावना को दूर नहीं कर दिया जाता, तब तक उस कानून को पूर्णत: असंवैधानिक घोषित किया जाना आवश्यक है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि किसी संविधि का एक अंश जो मूल अधिकारों से असंगत या विरोध में है, और यदि पूरी संविधि से बिना उसके मूल आशय को परिवर्तित किए, उसे पृथक नहीं किया जा सकता, तो ऐसी स्थिति में न्यायालय को पूरी विधि  को ही असंवैधानिक घोषित करना होगा। 

     पृथक्करणीयता का सिद्धांत आर.एम.डी.सी. बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष पुनः विचारार्थ  आया था। इस वाद में पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम की धारा (2)घ  की संवैधानिकता पर आपत्ति उठाई गई थी। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य जुआ-प्रकृति की प्रतियोगिता पर प्रतिबंध लगाने का था।  किंतु इसकी भाषा इतनी व्यापक थी कि उसके अंतर्गत ऐसी प्रतियोगिताएं, जिनमें कौशल भी शामिल था, आ जाती थी। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इस अधिनियम के उपबंध पृथक करने योग्य हैं, और केवल उन भागों को निकाल दिया जिनके अंतर्गत कौशल वाली प्रतियोगिताएं भी आ जाती थी। इस प्रकार न्यायालय ने रोमेश थापर के वाद में दिए गए अपने निर्णय को प्रभावी रूप से संशोधित कर दिया जिसमें यह कहा गया था कि जहां मूल अधिकारों से असंगत उपबंध ऐसी व्यापक भाषा में है कि उसके अंतर्गत संविधान द्वारा अनुमोदित सीमाओं के अंदर या बाहर दोनों प्रकार के प्रतिबंधों को शामिल करते हैं, और उन्हें संविधान द्वारा अनुमोदित सीमाओं के अंदर लागू नहीं किया जा सकता है, तो पूरे अधिनियम को शून्य घोषित करना आवश्यक होगा।


       संक्षेप में, आर.एम.डी.सी. बनाम भारत संघ के मामले में यह निर्णय था कि यदि अवैध अंश के निकाल देने के पश्चात जो शेष बचा रहता है वह एक अधिनियम बना रहता है तो पूरे अधिनियम को अमान्य घोषित करने की आवश्यकता नहीं है। इन मामलों में निर्णायक तत्व यह है कि विधानमंडल का आशय यह था कि किसी अधिनियम का वैध भाग अवैध घोषित किए गए भाग से पृथक किया जा सकता है अथवा नहीं। यदि शेष अधिनियम को बिना संशोधन के प्रवर्तित नहीं किया जा सकता तो पूरे अधिनियम को अवैध घोषित कर देना चाहिए। पृथक्करणीयता का सिद्धांत तथ्य का विषय है आकार का नहीं, और विधान मंडल के आशय को समझने के लिए विधि  निर्माण के इतिहास, उद्देश्य, शीर्षक और प्रस्तावना आदि बातों पर विचार करना आवश्यक है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है कर विधि। जब कुछ वस्तुओं पर कर लगाए जाते हैं और उसमें से कुछ को कर से भी विमुक्ति प्राप्त होती है, तो उसका केवल वहीं भाग अवैध घोषित किया जाएगा जो मूल अधिकारों से असंगत है पूरे कर विधान को नहीं। पृथक्करणीयता के सिंद्धांत को समझने के लिए स्टेट आफ मुंबई बनाम यूनाइटेड मोटर्स के मामले में भी देखा जा सकता है।