संविधान-पूर्व विधियों पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव || Effect of Article 13 on Pre-Constitution Laws

संविधान-पूर्व विधियों पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव



     अनुच्छेद 13 का उपखंड (1) यह उपबन्धित करता है कि इस संविधान के लागू होने के ठीक पहले भारत में प्रवृत्त सभी विधियां उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस मात्रा तक वे भाग-3 के उपबन्धों से असंगत हैं। 

संविधान-पूर्व विधियों (Pre-Constitutional Laws) पर अनुच्छेद 13 का प्रभाव भूतलक्षी नहीं (Not  Retrospective) है

अनुच्छेद 13 का प्रभाव भूतलक्षी नहीं है। यह उसी दिन से एक प्रभावी होता है, जिस दिन से संविधान लागू किया गया है। संविधान-पूर्व विधियां प्रारंभ से ही अवैध नहीं होती हैं। मूल अधिकारों से असंगत संविधान-पूर्व विधियां केवल संविधान लागू होने के पश्चात ही अवैध होंगी। चूँकि मूल अधिकारों का अस्तित्व संविधान लागू होने के दिन से हुआ था, इसलिए उसके पहले से प्रवृत विधियों पर उसका प्रभाव भी उसी दिन से प्रारंभ होगा। जहां तक भूतकाल में किए गए कृत्यों का प्रश्न है, संविधान-पूर्व विधियां उन पर पूर्ण रुप से लागू होंगी और वैध होंगी। संविधान लागू होने के पहले किए गए कार्यों के प्रति उनका प्रभाव यथावत बना रहता है। यदि किसी व्यक्ति ने संविधान लागू होने से पहले कोई ऐसा काम किया है, जो उस समय प्रवृत्त किसी विधि के अनुसार अपराध था, तो वह संविधान लागू होने के बाद यह नहीं कह सकता कि उसे अपराध की सजा नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि संविधान ऐसी सजा को वर्जित करता है। यदि उसका कृत्य उस समय प्रवृत्त किसी विधि के अंतर्गत अपराध था तो उसे उसमें दी गई सजा भुगतनी होगी और संविधान के लागू होने का उस पर कोई प्रभाव नहीं होगा। 
        केशव माधव मेनन बनाम मुंबई राज का मामला इसका एक अच्छा उदाहरण है। इस मामले में सन 1949 में प्रेस एमरजैंसी पावर्स एक्ट 1931 के अंतर्गत अपीलार्थी के विरुद्ध एक पत्रक छापने के कारण अभियोग चलाया गया। इस एक्ट के अंतर्गत ऐसा पत्रक छापना एक दंडनीय अपराध था। न्यायालय में कार्यवाही चल ही रही थी कि संविधान लागू हो गया। अपीलार्थी ने न्यायालय के समक्ष यह तर्क प्रस्तुत किया कि 1931 का कानून अनुच्छेद 19 (1) (क) में दिए गए मूल अधिकार से असंगत है, इसलिए शून्य है। अतः उसके विरुद्ध कार्यवाही चालू नहीं रही नहीं रखी जा सकती है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि उसके मामले में अनुच्छेद 13 नहीं लागू होगा, क्योंकि अपराध संविधान लागू होने के पहले किया गया था। अतः सन 1949 में प्रारंभ की गई कार्यवाही पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि, चूँकि मूल-अधिकार संविधान के लागू होने के दिन से ही प्रवर्तित हुए, इसलिए संविधान-पूर्व विधियों से उनकी असंगति का प्रश्न भी उसी दिन से उत्पन्न हुआ माना जाएगा। ऐसी विधियां संविधान लागू होने के बाद मूल अधिकारों के विरोध में होने के कारण ही शून्य होंगी। अनुच्छेद 13 ऐसी असंगत विधियों के प्रवर्तन को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करना उसको भूतलक्षी प्रभाव प्रदान कर देगा जो उसे नहीं दिया गया है। 
        परन्तु, इसका अभिप्राय यह नहीं है कि यदि संविधान लागू होने के पहले किसी अधिनियम में कोई विभेदकारी प्रक्रिया दी गई है तो वह प्रक्रिया संविधान लागू होने के बाद संविधान के पहले के अर्जित अधिकारों या दायित्वों को क्रियान्वित करने के लिए लागू की जाएगी। यद्यपि संविधान लागू होने से पहले अर्जित सारभूत अधिकार और दायित्वों के प्रवर्तन कराने का अधिकार यथावत बना रहता है परन्तु कोई व्यक्ति इन अधिकारों और दायित्वों को किसी संविधान-पूर्व प्रक्रिया के अंतर्गत प्रवर्तित कराने का दावा नहीं कर सकता है जो संविधान के उपबंधों के लागू होने के कारण असंगत हो गई हो।

  आच्छादन का सिद्धांत

आच्छादन का सिद्धांत अनुच्छेद 13 के उपखंड एक पर आधारित है जिसके अनुसार संविधान-पूर्व विधियां संविधान लागू होने पर उस मात्रा तक अवैध होंगी जिस तक यह मूल अधिकारों से असंगत है। ऐसी विधियां प्रारंभ से ही शून्य नहीं होती हैं, बल्कि अधिकारों के प्रवर्तन हो जाने के कारण मृतप्राय हो जाती हैं, और उनका प्रवर्तन नहीं किया जा सकता है। ऐसे कानून बिल्कुल मिट नहीं जाते। वह केवल मूल अधिकारों द्वारा आच्छादित हो जाते हैं और सुषुप्त (मृतप्राय) अवस्था में रहते हैं। संविधान लागू होने के पहले के सभी संव्यवहारों के लिए उनका अस्तित्व यथावत वैध बना रहता है और ऐसी विधि के अंतर्गत अर्जित किए गए अधिकारों और दायित्वों को प्रवर्तित किया जा सकता है। 

   संविधान में संशोधन करके  ऐसी विधियों को पुनर्जीवित किया जाना जो संविधान लागू होने पर मृतप्राय हो जाती हैं

भीकाजी बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में यह प्रश्न विचारणीय था। इसी प्रश्न को हल करने के लिए उच्चतम न्यायालय ने आच्छादन का सिद्धांत प्रतिपादित किया। इस वाद में एक संविधान-पूर्व विधि में एक ऐसा उपबंध था जो राज्य सरकार को प्राधिकृत करता था कि वह सभी निजी व्यक्तियों को मोटर यातायात व्यापार से बहिष्कृत कर सकती है। यद्यपि जब यह कानून बना था, वैध था, परन्तु सन 1950 में संविधान लागू होने पर यह अधिनियम शून्य हो गया, क्योंकि यह अधिनियम अनुच्छेद 19 (1) का उल्लंघन करता था, जो नागरिकों को जीविका,व्यापार, पेशा या वाणिज्य करने का मूल अधिकार प्रदान करता है। परंतु सन 1951 में संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 19 (1) में संशोधन किया गया और राज्य को किसी व्यापार को करने का एकाधिकार प्रदान कर दिया गया। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इस संशोधन के परिणामस्वरुप मृतप्राय विधि पुनः सजीव होती है, क्योंकि संशोधन ने उस पर से मूल अधिकारों के आच्छादन को हटा लिया और विधि को सभी दोषों एवं अयोग्यताओं से मुक्त कर दिया। ऐसी विधि केवल कुछ समय के लिए मूल अधिकारों द्वारा आच्छादित होती है किंतु जैसे ही उस पर से आच्छादन हटा लिया जाता है, वह सजीव हो जाती है और उसी दिन से प्रवर्तनीय हो जाती है। ऐसी विधि को फिर से अधिनियमित करने की आवश्यकता नहीं होती। 

मूल अधिकार: न्यायालयों की न्यायिक-पुनर्विलोकन की शक्ति और उसका अपवर्जन || Power of Judicial Review and Exclusion of Courts


मूल अधिकार: न्यायालयों की न्यायिक-पुनर्विलोकन की शक्ति



न्यायालयों की न्यायिक-पुनर्विलोकन की शक्ति || Power of judicial review of courts


    वस्तुतः  अनुच्छेद 13 न्यायालयों को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्रदान करता है। संविधान ने इस शक्ति को भारत के उच्चतम न्यायालय को प्रदान किया है। उच्चतम न्यायालय किसी भी विधि को जो मूल अधिकारों से असंगत है, अवैध घोषित कर सकता है।

न्यायिक पुनर्विलोकन का अर्थ एवं आधार 

प्रोफेसर कारविन के अनुसार, न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति न्यायालयों की वह शक्ति है जिसके अंतर्गत न्यायलय विधान मंडलों द्वारा पारित अधिनियमों की संवैधानिकता की जांच करते हैं तथा ऐसी किसी भी विधि को प्रवर्तित होने से इंकार कर सकते हैं जो संविधान के उपबंधों से असंगत है। यह कार्य न्यायालयों के साधारण क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आता है। 
      मानव के विकास का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब किसी व्यक्ति को असीमित शक्ति मिल जाती है तो वह भ्रष्ट हो जाता है और वह उस असीमित शक्ति के प्रयोग से समाज में अत्याचार, अराजकता और  अव्यवस्था उत्पन्न कर देता है। मनुष्य की शक्ति को सीमित करने के लिए सर्वदा से प्रयास किया जाता रहा है और इसी उद्देश्य से ऐसी संस्थाओं की स्थापना की गई है जो इस शक्ति के प्रयोग पर अंकुश लगा सकें। समस्या तब और कठिन हो जाती है जब सरकार मनमाने ढंग से कार्य करने लगती है। मांटेस्क्यू ने सरकार के सभी अंगों के अबाधित और अनियंत्रित शक्ति के प्रयोग पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से ही शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका के सम्मिलित नाम को सरकार कहते हैं। सरकार के अंतर्गत यही तीनों शक्तियां होती हैं। इस सिद्धांत के अनुसार इन तीनों शक्तियों का पृथक्करण आवश्यक है। यह आवश्यक है कि राज्य की एक शक्ति दूसरी शक्ति के संचालन में हस्तक्षेप ना करें और प्रत्येक अंग अपनी अपनी सीमा में रहकर कार्य करें तथा सरकार के एक अंग में सारी शक्ति का केंद्रीकरण ना हो। इन शक्तियों में आपस में संतुलन स्थापित करके ही मनुष्य के निरंकुश स्वभाव पर अंकुश लगाया जा सकता है और संविधान प्रदत्त स्वतंत्रताओं की रक्षा की जा सकती है। 

    इस प्रकार न्यायिक पुनर्विलोकन विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों के प्रयोग पर नियंत्रण रखने की शक्ति है। न्यायिक पुनर्विलोकन की धारणा का उद्भव सीमित शक्ति वाली सरकार के सिद्धांत से हुआ है। इस सिद्धांत के अनुसार विधि दो प्रकार की होती है: एक- साधारण विधि और दूसरी- सर्वोच्च विधि अर्थात संविधान। देश की सर्वोच्च विधि अन्य सभी विधियों का आधार और स्रोत होती है। ऐसी कोई भी विधि जो संविधान के उपबंधों  का उल्लंघन या अतिक्रमण करती है, असंवैधानिक मानी जाएगी। ऐसी दशा में किसी संस्था को उन विधियों को असंवैधानिक घोषित करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए और वह संस्था निसंदेह रूप से न्यायपालिका है। 

     केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के वाद में न्यायाधीश खन्ना  ने न्यायिक पुनर्विलोकन के बारे में कहा है कि फेडरल प्रणाली में जहां विधायी शक्तियों का केंद्रीय विधान मंडल और राज्य विधान मंडल में बंटवारा होता है, ऐसे विवादों के निपटारे के लिए कि, क्या एक विधान मंडल ने दूसरे के विधान मंडल के क्षेत्र में अतिक्रमण किया है? न्यायालयों की व्यवस्था की गयी है और विधान मंडलों द्वारा पारित किए गए अधिनियम की विधि मान्यता का अवधारण करने के लिए न्यायालयों में न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति निहित की गई है।  न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति केवल इस बात का विनिश्चय करने तक सीमित नहीं है कि, क्या अपेक्षित विधियां बनाने में विधान मंडलों ने अपने निश्चित विधायी सूचियों की परिधि के भीतर काम किया है बल्कि न्यायालय इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि, क्या विधियां संविधान के अनुच्छेदों के अनुरूप बनाई गई हैं और उनमें संविधान के अन्य उपबंधों का उल्लंघन तो नहीं होता है। इस प्रकार न्यायिक पुनर्विलोकन हमारी संविधानिक पद्धति का एक अभिन्न अंग बन गया है। 

  अमेरिका के संविधान में न्यायिक पुनर्विलोकन से संबंधित कोई स्पष्ट उपबंध नहीं है परन्तु अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की व्याख्या द्वारा विधान मंडल द्वारा निर्मित कानून की वैधता को जांचने की विस्तृत शक्ति को स्वयं धारण किया है। यह महत्वपूर्ण सिद्धांत मारवाड़ी बनाम मेडिसन के प्रमुख वाद में चीफ जस्टिस मार्शल द्वारा पारित किया गया था। न्यायालय का निर्णय सुनाते हुए उन्होंने कहा था कि, संविधान देश की सर्वोच्च विधि होता है। इसमें परिवर्तन एक विशेष प्रक्रिया द्वारा ही किया जा सकता है। अन्य सभी विधियां संविधान के अधीन होती हैं और उनमे आसानी से परिवर्तन किए जा सकते हैं। जिन लोगों ने लिखित संविधान की रचना की थी, उनकी निसंदेह रूप से यह धारणा थी कि संविधान देश की मूल और सर्वोच्च विधि हो। इस सिद्धांत का स्वाभाविक परिणाम होता है कि विधान मंडल द्वारा निर्मित वे विधियां जो संविधान के उपबंधों के विरुद्ध हैं, अवैध घोषित की जा सकती हैं। संविधान के विरुद्ध विधियों को अवैध घोषित करने की शक्ति किसे होगी ? इस बात पर न्यायालय ने कहा कि यह सत्य निसंदेह रूप से न्यायपालिका को ही होगी। 

मूल अधिकार: राज्य के विरुद्ध संरक्षण || Fundamental Rights: Protection against the state

मूल अधिकार: राज्य के विरुद्ध संरक्षण





मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध संरक्षण हैं-  

मूल अधिकारों का जन्म जनता और राज्य शक्ति के बीच संघर्ष का परिणाम है। व्यक्ति अपने अधिकारों की संवैधानिक सुरक्षा राज्य शक्ति के विरुद्ध ही आवश्यक समझता है।  राज्य शक्ति के समक्ष वह कमजोर होता है। भारतीय संविधान के भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकार राज्य शक्ति के विरुद्ध गारंटी किए गए हैं ना कि सामान्य व्यक्तियों के अवैध कृतियों के विरुद्ध। व्यक्तियों के अनुचित कृत्यों के विरुद्ध साधारण विधि में अनेक उपचार उपलब्ध हैं। इसके अलावा वह और दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध उतना असहाय और अशक्त नहीं होता है जितना कि राज्य-शक्ति  के विरुद्ध। पी. डी. शामदासिनी बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के मामले में, सेंट्रल बैंक के अधिकारियों ने अपने एक कर्मचारी की संपत्ति जप्त करने का आदेश जारी किया। कर्मचारी ने संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय में एक याचिका प्रस्तुत की, जिसमें उसने यह कहा कि बैंक के कार्यों के फलस्वरुप वह अनुच्छेद 19 और 31 में दिए गए अपने संपत्ति के अधिकार से वंचित किया जा रहा है। अतः न्यायालय को समुचित लेख जारी करके बैंक को ऐसा करने से रोकना चाहिए। न्यायालय ने उसकी याचिका को खारिज कर दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 19 तथा 31 में निहित संरक्षण व्यक्तियों के अनुचित कार्यों के विरुद्ध नहीं प्राप्य हैं, वरन राज्य शक्ति के विरुद्ध प्राप्य हैं। किसी अन्य व्यक्ति द्वारा मूल अधिकारों के अतिलंघन करने का उपचार साधारण विधि में खोजे जाने चाहिए संविधान में नहीं। क्योंकि सेंट्रल बैंक एक व्यक्ति है, इसलिए उसके कार्यों के विरुद्ध उपचार साधारण विधि में खोजा जाना चाहिए। किंतु यदि किसी व्यक्ति का कार्य राज्य द्वारा समर्थित है, तो उससे पीड़ित व्यक्ति उस  कार्य की संवैधानिकता को चुनौती दे सकता है।

राज्य ( The State ) शब्द की परिभाषा अनुच्छेद 12-

जैसा कि विदित है, संविधान के भाग 3 में निहित मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध प्राप्त हैं। अनुच्छेद 12 संविधान के भाग 3 के प्रयोजन के लिए राज्य शब्द की परिभाषा करता है। यह परिभाषा संविधान के अन्य अनुच्छेद में प्रयुक्त राज्य शब्द पर लागू नहीं होती है, जैसे- अनुच्छेद 31 में प्रयुक्त राज्य शब्द।  अनुच्छेद 12 के अनुसार राज्य शब्द के अंतर्गत निम्नलिखित शामिल हैं:
1-  भारत सरकार एवं संसद,
2-  राज्य सरकार एवं विधान मंडल,
3-  सभी स्थानीय  और अन्य प्राधिकारी जो भारत में है या भारत सरकार के अधीन है,


प्राधिकारी ( Authorities )-

  साधारण अर्थ में प्राधिकारी शब्द का अर्थ उस व्यक्ति या निकाय से है, जो शक्ति का प्रयोग करते हैं। किंतु अनुच्छेद 12 के संदर्भ में, प्राधिकारी शब्द का अर्थ है जिन्हें विधि, उपविधि, आदेश, अधिसूचना आदि के निर्माण या जारी करने की शक्ति होती है और साथ ही प्रवर्तित करने की भी शक्ति होती है।  यदि किसी अधिकारी को ऐसी शक्ति प्राप्त है तो वह राज्य शब्द की परिभाषा में के अंतर्गत आता है। उदाहरण के लिए, केशव बनाम लोक सेवा आयोग ऑफ मैसूर में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि लोक सेवा आयोग राज्य शब्द के अंतर्गत ऐसा प्राधिकारी नहीं है, क्योंकि वह राज्य सरकार द्वारा निर्दिष्ट किए बगैर स्वयं अपने निर्णय को कार्यान्वित करने की शक्ति नहीं रखता है। उसे संविधान के द्वारा ऐसी शक्ति प्राप्त नहीं है कि वह अपने कार्यों को स्वतंत्र रूप से कार्यान्वित कर सके।

स्थानीय प्राधिकारी ( Local Authorities ) -

स्थानीय प्राधिकारी शब्द के अंतर्गत नगर पालिकाएं, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, पंचायत, इंप्रूवमेंट ट्रस्ट, माइनिंग सेटेलमेंट बोर्ड, आदि संस्थाएं आती हैं। मोहम्मद यामीन बनाम टाउन एरिया कमेटी के वाद में शहर की न्यायपालिका ने थोक विक्रेताओं के ऊपर निश्चित बिक्रीकर लगाया, उसे एक उपविधि के अंतर्गत ऐसा प्राधिकार प्राप्त था। उच्चतम न्यायालय ने नगरपालिका को अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त राज्य शब्द के अंतर्गत माना और यह निर्णय दिया कि उसका कर लगाने का आदेश अवैध है, क्योंकि वह अनुच्छेद 19 1 (3) में दिए गए मूल अधिकार का अतिक्रमण करता है। इसी प्रकार श्रीराम बनाम दि नोटिफाइड एरिया कमिटी के वाद में न्यायालय ने उत्तर प्रदेश नगर पालिका अधिनियम 1916 की धारा 294 के अंतर्गत लगाए गए कर को अवैध घोषित कर दिया है।

मूल-अधिकारों का निलंबन || Suspension of the Fundamental Rights

मूल-अधिकारों का निलंबन


मूल-अधिकारों का निलंबन || Suspension of the Fundamental Rights


जैसा कि विदित है, मूल-अधिकार अत्यंतिक अधिकार नहीं है। इन अधिकारों के प्रयोग पर युक्तियुक्त निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। संविधान में उन परिस्थितियों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है जब राज्य को यह अधिकार होगा कि लोक-साधारण के हित में नागरिकों के मूल अधिकारों को निलंबित कर सके या उनके प्रयोग पर निर्बंधन लगा सके। निम्नलिखित अवस्थाओं में नागरिकों के मूल-अधिकारों को निर्बंधित अथवा निलंबित किया जा सकता है:


1- प्रतिरक्षा सेना के सदस्यों के संबंध में (अनुच्छेद-33)

2 -  जब सैनिक विधि लागू हो (अनुच्छेद-34)

3 -  संविधान में संशोधन द्वारा (अनुच्छेद-368)

4-  आपात उद्घोषणा के अधीन (अनुच्छेद-352)


1-  प्रतिरक्षा सेना से संबंधित व्यक्तियों के संबंध में मूल अधिकारों का निलंबन -  अनुच्छेद 13 के अनुसार, राज्य द्वारा पारित ऐसी सभी विधियां अवैध एवं असंवैधानिक होंगी जो संविधान की भाग 3 में प्रदत्त मूल-अधिकारों को किसी भी भांति न्यून करती हैं या छीनती हैं। परन्तु अनुच्छेद 33 में एक अपवाद भी है, जिसके अनुसार संसद को यह अधिकार प्राप्त है कि वह उक्त व्यक्तियों के मूल अधिकारों को निर्बंधित या न्यून कर सकती है। अनुच्छेद 33 संसद को यह अधिकार देता है कि वह प्रतिरक्षा सेना के सदस्यों के संबंध में मूल अधिकारों को किस मात्रा तक निर्बंधित या समाप्त कर सकती है, ताकि वे अपने कर्तव्यों का उचित पालन कर सकें और उनमें अनुशासन बना रहे। संसद ऐसा केवल विधि द्वारा ही कर सकती है। अनुच्छेद 33 के प्रयोग में संसद ने निम्नलिखित अधिनियम को पारित किया है। जैसे- सेना अधिनियम-1950वायु सेना अधिनियम-1950नौसेना अधिनियम-1957

2-  सैनिक विधि लागू होने पर मूल अधिकारों का निलंबन- अनुच्छेद 34 संसद को नागरिकों के मूल अधिकारों पर, जब किसी क्षेत्र में सैनिक विधि लागू हो, प्रतिबंध लगाने की शक्ति प्रदान करता है। ऐसे समय में संसद विधि द्वारा मूल अधिकारों के उपभोग पर पूर्णतः या अंशतः प्रतिबंध लगा सकती है। वस्तुतः जहां सैनिक विधि लागू होती है वहां नागरिकों के मूल अधिकार स्वतः निलंबित हो जाते हैं या उनको निलंबित घोषित कर दिया जाता है। जब सैनिक विधि के प्रवर्तन के समय साधारण नागरिक न्यायालयों का निलंबन हो जाता है और उनके स्थान पर सैनिक न्यायालय कार्य करने लगते हैं। संसद क्षतिपूर्ति अधिनियम पारित करके ऐसी अवधि में अधिकारियों द्वारा किए गए कार्यों के दायित्व से उन्हें भी मुक्ति प्रदान कर सकती है। 

3- संविधान संशोधन द्वारा मूल अधिकारों का निलंबन-  संसद अनुच्छेद 368 के उपबंधों के अनुसार संविधान में समुचित संशोधन करके नागरिकों के मूल अधिकारों को न्यून सकती है या उन्हें छीन सकती है। शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ तथा सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य के मामलों में न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत पारित कानूनों द्वारा मूल अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है और ऐसा कानून अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त विधि शब्द के अंतर्गत नहीं आता है। लेकिन गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के बाद में उच्चतम न्यायालय ने शंकरी प्रसाद और सज्जन सिंह के मामले में दिए गए अपने निर्णय को गलत घोषित कर दिया और अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 368 द्वारा विहित प्रक्रिया के अनुसार संविधान में संशोधन करने के लिए पारित विधि के द्वारा मूल अधिकारों में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। अनुच्छेद 368 में केवल संविधान संशोधन से संबंधित कानूनों को पारित करने की प्रक्रिया निहित है। वह संसद को मूल अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति प्रदान नहीं करता है। इस अनुच्छेद के अंतर्गत पारित विधि अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त विधि शब्द के अंतर्गत आते हैं और यदि वे भाग 3 में दिए गए उपबंधों  से असंगत हैं तो उन्हें अवैध एवं असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है। 
     संविधान के 24-वें संशोधन अधिनियम-1971 द्वारा गोलकनाथ के मामले में दिए गए निर्णय के प्रभाव को समाप्त कर दिया गया। इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 13 में एक नया उपखंड-4  जोड़ा गया और अनुच्छेद 368 में संशोधन किया गया। इस संशोधन का उद्देश्य संसद की मूल अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति को पुनः स्थापित करना है । उपखंड-4 उपबंधित करता है कि अनुच्छेद 13 की कोई बात अनुच्छेद 368 के अधीन पारित किए गए संशोधन को लागू नहीं होगी अर्थात अनुच्छेद 368 के अधीन पारित संविधानिक संशोधन अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त विधि  शब्द के अंतर्गत  नहीं आएंगे। 
    24 वें संविधान संशोधन अधिनियम की विधिमान्यता को केशवानंद भारती बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई। यद्यपि न्यायालय ने उपर्युक्त संशोधन अधिनियम को विधिमान्य घोषित कर दिया, परन्तु संसद की संविधान संशोधन की शक्ति पर महत्वपूर्ण परिसीमा भी लगाया है। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि संसद की संशोधन शक्ति विस्तृत है किंतु असीमित नहीं है और संसद संविधान संशोधन की शक्ति का प्रयोग इस तरह नहीं कर सकती है जिससे कि संविधान का आधारभूत ढांचा ही नष्ट हो जाए। 
    केशवानंद भारती के विनिश्चय से उत्पन्न कठिनाई को दूर करने के लिए 42-वां संविधान संशोधन अधिनियम-1976 पारित किया गया। इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 368 में एक नया खंड जोड़कर यह स्पष्ट कर दिया गया है कि संसद की संविधान संशोधन शक्ति सर्वोच्च है और उस पर किसी भी प्रकार की परिसीमा नहीं लगाई जा सकती है। अनुच्छेद 368 के अंतर्गत किए गए संशोधनों को किसी भी आधार पर किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है। 

   4- आपात उद्घोषणा के अधीन मूल अधिकारों का निलंबन- संविधान निर्माताओं ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि राष्ट्रीय संकट के समय वैयक्तिक स्वतंत्रता की अपेक्षा राष्ट्र की सुरक्षा अधिक महत्वपूर्ण है और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए संविधान में ऐसे उपबंधों का समावेश किया गया है जिससे इस ध्येय की प्राप्ति की जा सके। 
    अनुच्छेद 352 यह उपबंधित करता है कि यदि राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाय कि गंभीर आपात विद्यमान हैं जिससे गृहयुद्ध या वाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से भारत या उसकी राज्य-क्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा संकट में है तो वह आपात-स्थिति की घोषणा कर सकता है। ऐसी घोषणा संकट सन्निकट होने पर भी की जा सकती है, चाहे वास्तव में गृहयुद्ध या वाह्य आक्रमण या आंतरिक अशांति ना हुई हो। राष्ट्रपति द्वारा देश में आपात स्थिति के विद्यमान होने की घोषणा का नागरिकों के मूल-अधिकारों पर महत्वपूर्ण प्रभाव होता है। अनुच्छेद 358 यह उपबंधित करता है कि जब आपात की घोषणा प्रवर्तन में है तो नागरिकों को अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त अधिकार स्वतः निलंबित हो जाते हैं और सरकार की विधायिनी और कार्यपालिका-शक्ति  पर से अनुच्छेद 19 द्वारा लगाए गए निर्बंधन समाप्त हो जाते हैं। आपातकाल में सरकार द्वारा पारित किसी भी विधि या उसी कार्यपालिका शक्ति में प्रयोग किए गए किसी कृत्य को इस आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वह अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त अधिकार का अतिक्रमण करते हैं। आपातकाल के दौरान किए गए कृत्यों  के विरुद्ध आपातकाल की समाप्ति के पश्चात भी कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है। इतना ही नहीं,  अनुच्छेद 359  राष्ट्रपति को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को न्यायालयों द्वारा प्रवर्तन के अधिकार का भी निलंबन कर सके। ऐसा करने के लिए राष्ट्रपति को इस आशय का एक आदेश जारी करना होगा जिसमें वह उन अधिकारों का उल्लेख करेगा जिन्हे वह आपातकाल में निलंबित करना चाहता है। 
            सन 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया तब अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रपति ने इस बात की घोषणा की कि देश पर गंभीर संकट विद्यमान है जिससे भारत की सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है।  इसके पश्चात राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 368 के अंतर्गत एक आदेश जारी करके अनुच्छेद 14, 21 और 22 द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन को निलंबित कर दिया। इस संकट से उत्पन्न स्थिति का सामना करने के लिए सरकार ने भारत सुरक्षा अधिनियम-1962 पारित किया।
    
 माखन सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में अनुच्छेद 359 (1) के अधीन राष्ट्रपति के आदेश की विधिमान्यता को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई थी। पिटीशनरों को भारत रक्षा अधिनियम-1968 के अधीन निरुद्ध किया गया था, पिटीशनरों यह दलील दी कि यद्यपि उन्हें अनुच्छेद 32, और अनुच्छेद 226, के अंतर्गत अपने अधिकारों को न्यायालयों द्वारा प्रवर्तन कराने का अधिकार निलंबित कर दिया गया है, परन्तु वे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 491 के अधीन बंदी-प्रत्यक्षीकरण के लिए उच्चतम न्यायालय में आवेदन कर सकते हैं। उच्चतम न्यायालय ने उनकी दलील को अस्वीकार करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि आपात-उद्घोषणा के प्रवर्तन के दौरान किसी भी व्यक्ति को राष्ट्रपति के आदेश में उल्लिखित किसी भी मूल अधिकार के प्रवर्तन के लिए किसी भी न्यायालय में समावेदन करने का कोई अधिकार नहीं है। किंतु न्यायालय ने यह भी अवलोकन किया कि राष्ट्रपति के आदेश के बावजूद भी निरुद्ध व्यक्ति अपने निरोध आदेश की वैधता को इस आधार पर न्यायालय में चुनौती दे सकता है कि निरोध आदेश अधिनियम के उपबंधों के अनुकूल नहीं किया गया है या असदभावपूर्ण किया गया है या अतिशय प्रत्यायोजन के दोष से युक्त है। 

सन 1962 में की गई आपात उद्घोषणा 10 जनवरी को समाप्त हुई। पाकिस्तान के आक्रमण के परिणाम स्वरूप राष्ट्रपति ने 3 दिसंबर, 1971 को आपातकाल की उद्घोषणा इस आधार पर की कि बाह्य  आक्रमण से देश की सुरक्षा को खतरा था। अनुच्छेद 368 के अधीन एक आदेश द्वारा अनुच्छेद 14 21 और 22 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को न्यायालयों द्वारा प्रवर्तित कराने के अधिकार को निलंबित कर दिया गया। 25 जून, 1975 को राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 352 के अधीन पुनः आपात-उद्घोषणा इस बाबत की कि गंभीर आपात  विद्यमान है जिससे आंतरिक अशांति द्वारा देश को खतरा है। अनुच्छेद 368 के अधीन एक आदेश जारी कर राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 14 21 और 22 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को न्यायालय द्वारा प्रवर्तित कराए जाने के अधिकार को निलंबित कर दिया। 

बंदी प्रत्यक्षीकरण के मामले में आंतरिक सुरक्षा अधिनियम की धारा 3 के अधीन निरुद्ध अनेक व्यक्तियों ने अपने निरोध की वैधता को चुनौती देते हुए विभिन्न उच्च न्यायालयों में बंदी प्रत्यक्षीकरण के लिए रिट पिटीशन दाखिल किए। सरकार की ओर से यह आपत्ति उठाई गई कि राष्ट्रपति के आदेश के परिणाम स्वरूप इन पिटीशनों को आरंभ में ही खारिज कर दिया जाना चाहिए। उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की इस आपत्ति को नामंजूर करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि राष्ट्रपति के आदेश के बावजूद विरुद्ध व्यक्ति अपने निरोध को इस आधार पर चुनौती दे सकते हैं कि वह अधिकारातीत है अर्थात ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया है जिसे यह अधिकार नहीं है या अत्यधिक प्रत्यायोजन का दोषी है या नियमित अधिनियम के उपबंधों के अनुरूप नहीं है।  राज्य ने उच्च न्यायालय के इस निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की। उच्चतम न्यायालय ने सरकार द्वारा उठाई गई आपत्ति को स्वीकार करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि अनुच्छेद 368 के अधीन राष्ट्रपति के आदेश को ध्यान में रखते हुए किसी भी व्यक्ति को अनुच्छेद 226 के अधीन बंदी-प्रत्यक्षीकरण के रिट के लिए अपने निरोध-आदेश की वैधता पर किसी भी आधार पर आपत्ति करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं होगा कि आदेश अधिनियम के बंधुओं के उल्लंघन में किया गया है या अवैध है या असद्भावपूर्वक किया गया है या असंगत बातों पर आधारित है।  न्यायालय ने यह कहा कि प्रस्तुत मामले में माखन सिंह का विनिश्चय लागू नहीं होगा, क्योंकि सन 1962 और सन 1975 के आदेशों में एक महत्वपूर्ण अंतर है। 1962 का आदेश सशर्त आदेश था जबकि 1975 का आदेश शर्त रहित आदेश है। 

  न्यायाधिपति श्री खन्ना ने अपना विसम्मत दिया और उन्होंने अभिनिर्धरित किया कि आपात स्थिति में भी निरूद्ध व्यक्ति अपने निरोध आदेश की वैधता को न्यायालयों के समक्ष चुनौती दे सकता है। इस विनिश्चय का प्रभाव यह है कि आपातकाल के दौरान नागरिकों को संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों के निलंबन के विरुद्ध कोई भी उपचार प्राप्त नहीं होंगे। न्यायालय ने माखन सिंह के मामले में दिए गए निर्णय को भी प्रस्तुत मामले में लागू करने से अस्वीकार कर दिया कि आपातकाल में भी कानून का पालन किया जाना चाहिए। बंदी-प्रत्यक्षीकरण के मामले में दिया गया निर्णय नागरिकों के अधिकारों के लिए बड़ा ही घातक है। इस निर्णय के फलस्वरूप कार्यपालिका को अनियंत्रित शक्ति प्राप्त हो गई है। 

  जनता सरकार ने इस निर्णय के प्रभाव को दूर करने के लिए तथा आपात-शक्ति का कार्य-पालिका द्वारा दुरुपयोग को रोकने के उद्देश्य से संविधान में महत्वपूर्ण संशोधन किया । संविधान के 44-वें संशोधन अधिनियम-1978 द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अनुच्छेद 19-क मे प्रदत्त अधिकारों को अब केवल देश पर बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण देश की सुरक्षा के लिए संकट उत्पन्न होने की दशा में निलंबित किया जा सकता है, आंतरिक अशांति के आधार पर नहीं, जो एक स्पष्ट पदावली है। दूसरे अनुच्छेद 368 केवल उन कानूनों को संरक्षण प्रदान करेगा जो आपात स्थिति से संबंधित है। अन्य कानूनों को आपातकाल के दौरान भी न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

        इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 359 में संशोधन करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि राष्ट्रपति को अब अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत प्राण एवं दैहिक स्वाधीनता के अधिकार को निलंबित करने की शक्ति नहीं होगी। भविष्य में अब अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत्त अधिकार को निलंबित नहीं किया जा सकेगा, जैसा कि सन 1975 में प्रवर्तित आपातकाल के दौरान कांग्रेसी सरकार द्वारा किया गया था। इस संशोधन अधिनियम का उद्देश्य सन 1975 में प्रवर्तित आपातकाल के दौरान हुई घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकना है।