समता का अधिकार | अनुच्छेद 14 | विधि के समक्ष समता अथवा विधियों के समान संरक्षण के अधिकार का वर्गीकरण के आधार | Classification of Right to Equality

समता का अधिकार | अनुच्छेद 14 | विधि के समक्ष समता अथवा विधियों के समान संरक्षण के अधिकार का वर्गीकरण के आधार | Classification of Right to Equality




        जैसा कि विदित है, किसी अधिनियम की संविधानिकता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके द्वारा किये गये वर्गीकरण का कोई समुचित आधार है या नहीं। यह वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया जा सकता है, जैसे-समय तथा स्थान में अन्तर, मनुष्य की प्रकृति में अन्तर, भौगोलिक कारण, मनुष्य के पेशा कार्य आदि के आधार पर आदि । उदाहरण के लिए कुछ मुख्य आधारों का विवरण दिया जा रहा है-

1-भौगोलिक दशाओं पर आधारित वर्गीकरण:

        अनुच्छेद 14 में प्रयुक्त "भारत क्षेत्र के अन्दर" वाक्यांश का यह तात्पर्य नहीं है कि सम्पूर्ण  देश के लिए एक ही कानून हो। भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न कानून लागू किये जा सकते हैं। एक ही प्रान्त कई भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है, और उसकी विशेष परिस्थितियों के आधार पर भिन्न-भिन्न कानून लागू किये जा सकते हैं। ऐसे वर्गीकरण पर यह कहकर आपत्ति नहीं उठाई जा सकती कि एक कानून प्रान्त के एक भाग में तो लागू होता है, लेकिन उसके दूसरे भाग में लागू नहीं होता। विभिन्न भागों की भौगोलिक स्थिति भिन्न होने के कारण यह आवश्यक होता है कि उनके लिए अलग-अलग कानून हों। उदाहरण के लिए निम्नलिखित मामले दिये जा रहे हैं-
        कृष्ण सिंह बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान' के मामले में मारवाड़ लैण्ड रेवेन्यू ऐक्ट, 1949 की सांविधानिकता पर इस आधार पर आपत्ति की गई थी कि यह राज्य के केवल मारवाड़ क्षेत्र में लागू होता है, पूरे राज्य में नहीं लागू होता है, अतः यह विभेदकारी है। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि उक्त अधिनियम अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण नहीं करता है और वैध है। न्यायालय ने कहा कि मारवाड़ क्षेत्र में एक विशेष स्थिति का सामना करने के लिए विशेष कानून को लागू करना आवश्यक था। इसी प्रकार यदि विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में उनकी विशेष परिस्थितियों के अनु- सार चुनाव कराने के लिए भिन्न-भिन्न तिथियाँ निर्धारित की जाती हैं तो यह वर्गीकरण विभेदकारी भाव नहीं माना जायेगा
        रामचन्द्र बनाम स्टेट ऑफ उड़ीसा के मामले में उड़ीसा विधानसभा ने सड़क यातायत का राष्ट्रीयकरण करने के लिए दो अधिनियम पारित किये। एक अधिनियम राज्य के एक भाग में लागू होता था और दूसरा राज्य के दूसरे भाग में लागू होता था, क्योंकि दोनों भागों की परिस्थितियों में काफी अन्तर था। उच्चतम न्यायालय ने इस वर्गीकरण को युक्तियुक्त अभिनिर्धारित किया।
        गोपीचन्द्र बनाम दिल्ली प्रशासन के मामले में ईस्ट पंजाब पब्लिक सेफ्टी अधिनियम, 1949 के अन्तर्गत राज्य के कुछ क्षेत्रों को अशान्त क्षेत्र घोषित कर दिया गया था और उन क्षेत्रों के अपराध करने वाले अभियुक्तों के परीक्षण (trial) के लिए एक सरल, संक्षिप्त और शीघ्रतर परीक्षण की प्रक्रिया की व्यवस्था विहित की गई थी, जो सामान्य प्रक्रिया से भिन्न थी। उच्चतम न्यायालय ने इस वर्गीकरण को युक्तियुक्त अभिनिर्धारित किया, क्योंकि इसमें वर्गीकरण एक विवेकपूर्ण और बोधगम्य अन्तरक पर आधारित था।
        पी० राजेन्द्र बनाम मद्रास राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने उस कानून को अवैध घोषित कर दिया जिसके अनुसार राज्य की जनसंख्या को जिले में विभाजित कर दिया गया था और प्रत्येक जिले की जनसंख्या के प्रतिशत के आधार पर राज्य के मेडिकल कालेजों में छात्रों के दाखिल करने का एक निश्चित कोटा निर्धारित किया गया था, क्योंकि वर्गीकरण का प्रश्नगत अधिनियम के उद्देश्य से कोई विवेकपूर्ण सम्बन्ध नहीं था। इस अधिनियम का उद्देश्य योग्यतम व्यक्तियों को मेडिकल कालेजों में भर्ती करने के लिए चुनना था, किन्तु जिले के अनुसार सीटों को निर्धारित करने के कारण इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकी, क्योंकि इस नियम के कारण किसी जिले की अच्छी योग्यता वाले छात्रों के दाखिले को अस्वीकार किया जा सकता था, जब कि दूसरे जिलों के कम योग्यता वाले अभ्यर्थियों को भर्ती किया जा सकता था। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यह वर्गीकरण प्रत्यक्षतः विभेदकारी है, अतः अमान्य है।

2- राज्य के पक्ष में विभेद:

        राज्य स्वयं एक वर्ग है और साधारण नागरिकों से भिन्न है। अतएव यदि कोई अधिनियम राज्य के साथ भिन्न व्यवहार करता है जो नागरिकों के साथ नहीं करता, तो वह विभेदकारी नहीं माना जायेगा।
        सोमदत्त बनाम पंजाब राज्य' के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह स्वीकार किया है कि राज्य को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए भूमि प्राप्त करने, विशेष उद्योगों का चुनाव करने और भूमि का अधिग्रहण कर उसे सार्वजनिक प्रयोजन में घोषित करने और विभिन्न प्रकार की सार्वजनिक उपयोगिताओं में प्राथमिकता निर्धारित करने के लिए सदैव अधिकार प्राप्त है, लेकिन ऐसा करते समय उसे राज्य की आवश्यकताओं, वर्तमान सुविधाओं तथा दूसरे तर्कसंगत तत्वों पर ध्यान रखना चाहिए। इसलिए इनमें कोई विभेद का प्रश्न नहीं उठेगा कि राज्य सरकार ने किसी निजी उद्योग संस्थान को सार्वजनिक संस्थान घोषित कर दिया है।
        इस आधार पर “सगीर अहमद बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश" के मामले में उच्चतम न्यायालय ने राज्य के पक्ष में एक विशेष व्यापार में सृजित एकाधिकार को वैध घोषित किया है। “बाबूराम बनाम बाम्बे हाउसिंग बोर्ड" के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि राज्य ऐसी विधि बना सकता है जो प्राइवेट फैक्टरियों को तो लागू होती है, किन्तु सरकार या किसी स्थानीय प्राधिकारी के द्वारा चलाई जाने वाली फैक्टरियों को लागू नहीं होती। ऐसी विधियां विभेदकारी नहीं होंगी। इसी प्रकार, सरकार यदि एक बैङ्कर के रूप में कार्य करती है तो उसे अपने बकाया रुपयों की वसूली के लिए विशेष सुविधाएं दी जा सकती हैं जो दूसरे बैङ्करों को नहीं दी जा सकती हैं, क्योंकि राज्य का बकाया धन राज्य की समस्त जनता की सम्पत्ति है। इसी आधार पर वह विधि जो राज्य सरकार को निजी व्यक्तियों की अपेक्षा अपने दावों को प्रवर्तित कराने के लिए अधिकतम परिसीमावधि का उपबन्ध करती है, भी वैध होगी।

3- अनुच्छेद 14 तथा कर-विधान [ Taxing Laws ]:

        राज्य को उन व्यक्तियों और वस्तुओं के चुनाव करने में जिन पर वह कर लगायेगी, व्यापक शक्ति प्राप्त है और किसी अधिनियम पर केवल इस प्रकार पर आपत्ति नहीं की जा सकती कि वह कुछ व्यक्तियों और विषयों पर कर लगाता है और दूसरों पर नहीं। कर लगाने के प्रयोजन के लिए राज्य व्यक्तियों और वस्तुओं का समुचित वर्गीकरण कर सकता है। विधानमण्डल को न केवल कराधान की वस्तुओं में और कराधान की रीति में चयन करने की काफी गुंजाइश और मूल्यांकन करने की काफी स्वतन्त्रता बल्कि लागू होने वाली दर या दरों के अवधारण के लिये भी काफी गुंजाइश और स्वतन्त्रता है। ऐसी विधियों की वैधता को केवल तभी चुनौती दी जा सकती है जब कि चुनाव के क्षेत्र में वह कानून असमान रूप से व्यवहार करता है और वह किसी मान्य वर्गीकरण के आधार पर न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है और अनुच्छेद 14 में विहित समता के अधिकार का अतिलंघन करता है।
        ईस्ट इंडिया टोबॅको कम्पनी बनाम आन्ध्र प्रदेश के मामले में विदेशों से आयात की जाने वाली वर्जिनिया तम्बाकू पर बिक्री कर लगाया गया था; लेकिन देश में बनी तम्बाकू को इस कर से मुक्त रखा गया था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि विदेशी तम्बाकू पर लगाया गया कर वैध है। वेस्टर्न इंडिया थियेटर्स बनाम कैन्टोनमेंट बोर्ड के मामले में ऐसे सिनेमा गृहों पर जो बहुत बड़े तथा धनी आबादी वाले मुहल्ले में स्थित थे तथा जहाँ शौकीन मिजाज के धनी लोग रहते थे, जो सिनेमा के अधिक शौकीन होते हैं, उन सिनेमा-गृहों की अपेक्षा अधिक कर लगाया गया था जो छोटे थे जिनमें कम सीटें थीं और ऐसे मुहल्ले में स्थित थे जहाँ के निवासी गरीब थे और कम सिनेमा देखते थे। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कर वैध है, क्योंकि पहले किस्म के सिनेमा-गृहों को अधिक आमदनी होती थी, अतः उन्हें अधिक कर देना चाहिये।
        ट्वाईफ़ोर्ड टी कम्पनी लिमिटेड बनाम केरल राज्य के मामले में केरल प्लान्टेशन एडीशनल टैक्स ऐक्ट, 1960 (1967 के संशोधन अधिनियम द्वारा संशोधित) के अधीन केरल सरकार ने 1- नारियल, 2- सुपारी, 3- रबर, 4- काफी, 5- चाय, 6- इलायची और 7- मिर्च, इन सात प्रकार के पौधों की खेती पर एक दर से 50 रुपये कर लगाया । पिटिशनर ने अधिनियम की वैधता को इस आधार पर चुनौती दी कि वह अयुक्तियुक्त वर्गीकरण करता है तथा असमानों के साथ समान व्यवहार करता है और सभी प्रकार के पौधों पर उनकी पैदावर पर बिना ध्यान दिये हुए, एक-समान कर लगाता है जो अनु० 14 का अतिलंघन करता है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम अनु० 14 का अतिक्रमण नहीं करता है। न्यायालय ने कहा कि यद्यपि अधिनियम 7 प्रकार के पौधों पर एक-समान कर लगाता है, किन्तु वह ऐसे नियम भी विहित करता है जिससे समान व्यवहार सुनिश्चित है। नारियल, सुपारी, रबर, काफी और मिर्च के पौधे गिन लिये जाते हैं और हेक्टेयर निर्धारित करने के लिए पौधों की कुल संख्या को ए निश्चित संख्या से विभाजित कर दिया जाता है। चाय और इलायची के मामले में फसल पैदा किये जाने वाले क्षेत्र को ही कर लगाने की माप (Measure) के रूप में ले लिया जाता है। ऐसा विभिन्न पौधों को कर लगाने के लिए समान करने के उद्देश्य से किया गया है, दो प्रकार के पौधों की पैदावार में विभिन्नता की स्थिति वर्षा आदि के कारण भी होती है, किन्तु इसके अलावा इसके अन्य कारण भी हो सकते हैं, अतः अधिनियम विभेदकारी नहीं है।
        जयपुर होजरी मिल्स बनाम राजस्थान राज्य के मामले में सेल्स टेक्स अधिनियम के अधीन जारी की गयी राजकीय अधिसूचना की वैधता को चुनौती दी गयी थी, जिसके द्वारा चार रुपये से कम दाम वाले साधारण वस्त्रों को विक्रय कर से छूट प्रदान की गयी थी, किन्तु सुई से बुने वस्त्रों को विक्रय-कर से छूट नहीं दी गयी थी। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि वर्गीकरण युक्तियुक्त है, क्योंकि दोनों प्रकार के वस्त्रों में भेद है। इस बात का निर्धारण न्यायालय का कार्य नहीं है कि होजरी के वस्त्रों को दूसरे वस्त्रों की भाँति कर से विमुक्ति क्यों नहीं दी गयी है। यह विधायिका का कार्यक्षेत्र है।
        आर० के० गर्ग बनाम भारत संघ' (स्पेशल बिययर बाण्ड केस) के मामले में स्पेशल बियरर बाण्ड्स (इम्यूनिटीज एण्ड इक्जेम्सन्स) आर्डिनेन्स, 1981 और वाद में अधिनियम विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि अधिनियम के द्वारा किया गया वर्गीकरण अयुक्तियुक्त और बिना तर्कसंगत आधार पर किया गया है, अतः वह अनु० 14 का अतिक्रमण करता है। अधिनियम की धारा 3 के अधीन उन व्यक्तियों को कुछ विमुक्तियाँ प्रदान की गई हैं, जो स्पेशल बियरर बाण्ड क्रय करने में अपना धन लगाते हैं। स्पेशल बियरर बाण्ड में धन लगाने वाले व्यक्तियों को धन के स्रोत को प्रकट करने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा और न ही ऐसे व्यक्तियों के विरुद्ध कोई जाँच की जा सकेगी। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि काला धन रखने वाले और काला धन न रखने वाले व्यक्तियों के बीच किया गया वर्गीकरण युक्तियुक्त और बोधगम्य अन्तरक पर आधारित है अतः वह संवैधानिक है। अधिनियम के उद्देश्य और अन्तरक में तर्कसंगत सम्बन्ध है। अधिनियम का उद्देश्य काला धन को निकालना है ताकि उसका प्रयोग उत्पादन के प्रयोजनों में किया जा सके और देश की सामाजिक-आर्थिक योजनाओं को अधिक प्रभावी बनाया जा सके। सरकार द्वारा किये गये समस्त प्रयासों के बावजूद काला धन का निकालना सम्भव नहीं हो सका था, अतएव यह तरीका अपनाना पड़ा। किन्तु न्यायाधिपति ए० सी० गुप्त ने विसम्मत (dissent) व्यक्त करते यह निर्णय दिया कि ईमानदार करदाता और कर अपवंचनकर्ताओं अर्थात् बाण्ड धारकों के बीच किया गया वर्गीकरण अयुक्तियुक्त है और अधिनियम के उद्देश्य से उसका तर्कसंगत सम्बन्ध नहीं है, अतः अधिनियम अनु० 14 का अतिक्रमण करता है और असंवैधानिक है।
        “विवियन जोसेफ फेरोरा बनाम नगरपालिका निगम बृहत्तर मुम्बई " के मामले में बाम्बे बिल्डिंग रिपेयर्स ऐण्ड रीकंस्ट्रक्शन बोर्ड ऐक्ट, 1969 की संवैधानिक विधिमान्यता को चुनौती दी गयी थी। अधिनियम का उद्देश्य मुम्बई शहर में वास - सुविधा में वृद्धि करना और पुरानी इमारतों से उत्पन्न होने वाले जीवन-संकट को दूर करना था। मुम्बई शहर की बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण वास-सुविधा की अत्यन्त कठिनाई उत्पन्न हो गयी है। पुरानी इमारतें जो किराये पर उठाई गई थीं और जीर्ण-शीर्ण हो गई थीं, उनकी उनके मालिक या तो मरम्मत कराते नहीं थे या फिर अपूर्ण मरम्मत कराते थे। ऐसी इमारतें अचानक गिर जाती थीं और दुर्घटनाओं का कारण बन जाती थीं। दुर्घटनाओं से बचने के लिए एवं अच्छी वास-सुविधा उपलब्ध करने की दृष्टि से मुम्बई विधानमण्डल ने उक्त अधिनियम पारित किया। पुरानी इमारतों को गिराने या उनकी मरम्मत कराने में होने वाले व्यय को पूरा करने के लिए अधिनियम की धारा 27 के अधीन निवास-गृहों पर एक उपकर लगाया गया। उपकर की दृष्टि से इमारतों को उनकी आयु एवं बनावट के आधार पर तीन वर्गों में बाँटा गया था। पुरानी इमारतों पर उपकर की मात्रा नई इमारतों की तुलना में अधिक थी। एक वर्ग में आने वाली सभी इमारतों पर, चाहे वे नई हों या पुरानी, उपकर की मात्रा समान दर से लगाई गई थी। लगाये गए उपकर की मात्रा इस बात पर आधारित नहीं थी कि इमारत में मरम्मत की जरूरत है या नहीं। अपीलार्थी ने यह दलील दी कि अधिनियम संविधान के अनु० 14 एवं 19 (1) (च) का अतिक्रमण करता है, अतः वह असंवैधानिक है।
         उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम द्वारा भवनों का वर्गीकरण युक्तियुक्त आधारों पर किया गया है और वह अधिनियम के उद्देश्यों से युक्तियुक्त सम्बद्ध है, अतः यह अनु० 14 का अतिक्रमण नहीं करता है। निवास गृह एवं अन्य गृहों के बीच अन्तर करके निवास-गृहों पर कर अधिरोपित करना विभेदकारी नहीं है। जीवन संकट निवास गृहों के गिरने से अधिक उत्पन्न होता था। यद्यपि निवास गृहों से भिन्न इमारतों से भी ऐसा संकट उत्पन्न हो सकता था। तथापि उसकी गम्भीरता इतनी नहीं थी। अतः पूर्विकता के आधार पर कर लगाना अविधिमान्य या विभेदकारी नहीं है। यदि विधानमण्डल किसी एक पक्ष पर कर लगाना चाहे तो उसके लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह अन्य सभी पक्षों पर भी कर लगाये। न्यायालय ने अपीलार्थी के इस तर्क को भी अस्वीकार कर दिया कि अधिनियम के अधीन मरम्मत कार्य से पुराने मकानों या उपेक्षित इमारतों के स्वामियों को लाभ पहुँचाने के लिये नई इमारतों के या सतर्क एवं कर्त्तव्यरत स्वामियों से कर वसूल किया जाता है। वस्तुतः ऐसा नहीं है। आर्थिक समायोजनों की अन्तर्निहित जटिलताओं को सुलझाने की दृष्टि से यह आवश्यक हो गया है कि विधानमण्डलों को वर्गीकरण सम्बन्धी बातों में अधिक से अधिक स्वविवेक प्रदान किया जाय, अर्थात् वर्गीकरण ऐसे बोधगम्य अन्तर पर आधारित हो जिसका अधिनियम के उद्देश्य से युक्तियुक्त सम्बन्ध हो। ऐसा हो सकता है कि वर्गीकरण के कारण किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में किसी विशिष्ट पक्ष को लाभ हो जाए, किन्तु ऐसा विधान विभेदकारी तभी माना जायेगा जबकि यह साबित कर दिया जाये कि वर्गीकरण का उद्देश्य उस व्यक्ति या वर्ग विशेष को लाभ पहुँचाना मात्र था। वस्तुतः मामले में यह हो सकता है कि नये मकानों के स्वामियों को बिना किसी प्रतिफल के उपकर देना पड़े और पुराने जीर्ण-शीर्ण मकानों के स्वामियों को अपनी ही उपेक्षा के कारण उक्त उपकर की रकम का लाभ प्राप्त हो; किन्तु इस कारण विधान पुराने मकानों के स्वामियों को लाभ पहुँचाने वाला नहीं माना जा सकता है। लोकप्रयोजन की कसौटी यह है कि लाभ किसे प्राप्त होता है, उसकी कसौटी यह है कि किन प्रयोजनों में वह खर्च किया जाता है और उसकी प्रकृति क्या है. धारा 27 के अधीन किया गया वर्गीकरण और उद्देश्य सभी निवास गृहों की मरम्मत करना नहीं हैइसका उद्देश्य इमारतों की मरम्मत करके उन्हें अधिक स्थायित्व प्रदान करना है जिससे वास सुविधा में वृद्धि हो और जन-जीवन आकालिक संकटों से सुरक्षित हो। इन कार्यों के सम्पादन हेतु धन की आवश्यकता स्वाभाविक थी। इसी पूर्ति के लिये ही उपकर लगाया गया है, अतः वह युक्तियुक्त एवं जनोपयोगी है।
         जी० के० कृष्णन बनाम तमिलनाडु राज्य, के मामले में तमिलनाडु सरकार ने एक आदेश जारी करके मद्रास मोटर ह्रीकिल्स टॅक्सेशन ऐक्ट, 1930 के अधीन संविदा पर चलाये जाने वाले वाहनों पर तिमाही 30 रुपये प्रति सीट से बढ़ाकर 100 रुपये प्रति सीट कर दिया। पेटिशनरों ने इस आदेश को इस आधार पर चुनौती दी कि संविदा पर चलाये जाने वाले वाहनों तथा राजकीय वाहनों में कर-अधिरोपण के सम्बन्ध में किया गया वर्गीकरण विभेदकारी है और अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण करता है। यह तर्क दिया गया कि संविदा पर चलाये जाने वाले वाहनों पर राजकीय वाहनों की तुलना में अधिक कर लगाए जाने का कोई समुचित कारण नहीं है, क्योंकि दोनों प्रयोग की दृष्टि से समान परिस्थिति में हैं।
        उच्चतम न्यायालय ने पेटीशनर के तर्क को अस्वीकार करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि संविदा पर चलाये जाने वाले वाहनों पर लगाया गया कर वैध है और इससे अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण नहीं होता है। संविदा पर चलाये जाने वाले वाहनों और राजकीय वाहनों में किया गया वर्गीकरण युक्तियुक्त है। दोनों प्रकार के वाहनों में वर्गीकरण स्थानीय परिस्थितियों (Local conditions) पर आधारित है जिसके सम्बन्ध में पूरी जानकारी केवल विधानमण्डल को ही हो सकती है, न्यायालय को नहीं। संविदा पर चलाये जाने वाले वाहन अधिक माल और यात्री ढोते हैं, अधिक दूरी तय करते हैं, किसी भी समय वाहनों को चलाते हैं और इस प्रकार राजकीय वाहनों की तुलना में जो निश्चित यात्रियों की संख्या, मार्गों और निश्चित समयों पर चलाये जाते हैं, सड़क का अधिक प्रयोग करते हैं। अतः उन्हें अधिक कर देना चाहिये। वर्गीकरण और अधिनियम के उद्देश्य में वास्तविक सम्बन्ध है। अधिनियम का उद्देश्य संविदा पर चलाये जाने वाले वाहनों तथा राजकीय वाहनों के बीच हानिकारक प्रतिद्वन्द्विता को समाप्त करना है ताकि राजकीय वाहनों को हानि न पहुँचे और सड़कों की मरम्मत एवं निर्माण के लिये आवश्यक धन एकत्र किया जा सके। वर्गीकरण अयुक्तियुक्त है, इस बात को सिद्ध करने का भार उस व्यक्ति पर होता है जो उसे चुनौती देता है। इस बात की सदैव उपधारणा (Presumption) की जाती है कि वर्गीकरण वैध होगा, विशेषकर कर लगाने वाले अधिनियम में। वाणिज्यिक विनियमन के सन्दर्भ में अनुच्छेद 14 का अतिलंघन केवल तभी होगा जब वर्गीकरण ऐसे आधारों पर आधारित है जो अधिनियम के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये बिल्कुल असम्बद्ध हैं।
         इन्कम टॅक्स आफिसर, शिलांग बनाम एन० टी० आर० रेमबाय' के मामले में प्रत्यर्थी एक आदिवासी जाति का सदस्य है और मेघालय के खासी जयन्तिया पहाड़ी जिले का निवासी है। वह सन् 1970-71 में आसाम राज्य के सचिव के रूप में शिलांग में पदासीन था। आसाम सचिवालय शिलांग नगरपालिका के क्षेत्र में शामिल है और यह उस क्षेत्र में नहीं आता है जो संविधान में छठा अनुसूचित जाति क्षेत्र घोषित किया गया है। आयकर अधिकारियों ने यह दलील दी कि उसकी उक्त वर्ष की वेतन के रूप में हुई आय अनुसूचित जाति के क्षेत्र से नहीं हुई है, अतः उसे आयकर अधिनियम की धारा 10 में विमुक्ति नहीं प्राप्त है। इस धारा के अधीन उक्त वर्गों की उसी आय को आयकर से छूट प्राप्त है जो आदिवासी क्षेत्र से प्राप्त होती हो। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि आयकर के प्रयोजन के लिये आयकर अधिनियम की धारा 10 में किया गया वर्गीकरण बोधगम्य अन्तरक पर आधारित है और वह अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण नहीं करता है। आदिवासी जाति के सदस्यों की केवल उसी आय को आयकर से छूट प्राप्त है जिसे वे उस क्षेत्र में किसी स्रोत से प्राप्त करते हैं। यदि उस क्षेत्र से बाहर किसी स्रोत से कोई आय प्राप्त होती है तो उस पर कर लगाया जा सकता है। ऐसे वर्ग के लोग जो अपने क्षेत्र से निकल कर देश के सामान्य नागरिकों के साथ सफलतापूर्वक प्रतिद्वन्द्विता कर सरकारी सेवा में या व्यापार के क्षेत्र में अच्छी आय प्राप्त करते हैं, वे समाज के 'कमजोर वर्ग' नहीं रह जाते हैं। धारा 10 के अधीन आयकर ह से विमुक्ति प्राप्त करने के लिये तीन आवश्यक शर्तें हैं - (1) वह संविधान के अनु० 366 (25) के अन्तर्गत पारिभाषित आदिवासी वर्ग का सदस्य हो; (2) वह संविधान की छठी अनुसूची में उल्लिखित क्षेत्र में का निवासी हो; (3) आय, जिसके सम्बन्ध में विमुक्ति का दावा किया जाए, वह उसे उसी क्षेत्र में मौजूद किसी स्रोत से प्राप्त होती हो । चूंकि प्रत्यर्थी की प्रश्नास्पद वर्ष में हुई आय इस क्षेत्र से बाहर के स्रोत से प्राप्त होती है, अतः वह आयकर से विमुक्ति का हकदार नहीं है।

4- विशेष न्यायालय और विशेष प्रक्रिया:

        अनुच्छेद 246 के और समवर्ती सूची की प्रविष्टि 11- क के अधीन संसद् को विधि बनाकर विशिष्ट न्यायालयों की स्थापना करने की शक्ति प्राप्त है तथा संसद् ऐसे न्यायालयों में कुछ निश्चित अपराधों या 'अपराधों के वर्गों' के परीक्षण के लिये विशिष्ट प्रक्रिया भी विहित कर सकती है। ऐसे कानूनों से अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण नहीं होगा, यदि ऐसी विधि विशिष्ट न्यायालयों के परीक्षण के लिए "अपराधों के वर्गों' या 'मामलों के वर्गों' के वर्गीकरण के समुचित मार्गदर्शन के लिये नियम विहित करती है। ऐसी विधि द्वारा विहित प्रक्रिया साधारण विधि के अधीन विहित प्रक्रिया से साधारण रूप से भिन्न नहीं होनी चाहिये।
        स्टेट आफ बंगाल बनाम अनवर अली का मामला इस विषय पर प्रथम प्रमुख मामला है। इस मामले में वेस्ट बंगाल स्पेशल कोर्ट ऐक्ट 1950 की धारा 5 (1) की वैधता को चुनौती दी गयी थी। उक्त अधिनियम की धारा 5 (1) राज्य सरकार को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह कुछ प्रकार के अपराधों, जिनका उल्लेख अधिनियम की प्रस्तावना में किया गया था, के शीघ्रतर परीक्षण के लिये, जैसा कि वह उचित समझे, विशेष न्यायालयों की स्थापना कर सकती है। अधिनियम में ऐसे मामलों में न्यायालय द्वारा अनुसरण करने के लिए विशेष प्रक्रिया भी निर्धारित की गयी थी। राज्य सरकार ने अनवर अली और अन्य के मामले में 49 अभियुक्तों के मामलों को परीक्षण के लिए ऐसे ही एक न्यायालय को सौंप दिया जिसने उन्हें जुर्म का दोषी ठहराया और कारावास का दण्ड दिया। अभियुक्तों ने धारा 5 (1) की वैधता पर आपत्ति उठायी और कहा कि वह असंवैधानिक एवं शून्य है, क्योंकि वह उन्हें विधि के समक्ष समता के अधिकार से वंचित करती है। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि उक्त धारा अनु० 14 का अतिक्रमण करती है और इसलिये शून्य है। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम ने कोई ऐसा आधार नहीं निर्धारित किया है कि जिस पर वर्गीकरण किया जा सके और न तो यही स्पष्ट किया है कि सरकार किस तरह के मामलों को परीक्षण के लिये लिये विशेष न्यायालयों को निर्दिष्ट कर सकती है। विशेष न्यायालयों द्वारा परीक्षण के लिये जो प्रक्रिया विहित की गयी थी, वह दण्ड प्रक्रिया संहिता में विहित प्रक्रिया से सारतः सिद्ध थी। अधिनियम की प्रस्तावना में यह कहा गया था, अधिनियम  "कुछ अपराधों के शीघ्रतर परीक्षण" के उद्देश्य से बनाया गया था। न्यायालय के अनुसार यह उद्देश्य इतना स्पष्ट और अनिश्चित है कि यह युक्तियुक्त वर्गीकरण का आधार नहीं हो सकता है। अनु० 14 प्रक्रिया विधि द्वारा किये जाने वाले विभेद को भी निषिद्ध करता है, इसलिए यह आवश्यक है कि समान परिस्थिति वाले सभी व्यक्तियों को समान प्रक्रिया का संरक्षण प्रदान किया जाए।
        काठी रेनिंग बनाम स्टेट आफ सौराष्ट्र " के मामले में सौराष्ट्र स्टेट पब्लिक सेफ्टी ऑर्डिनेन्स की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। यह अध्यादेश राज्य सरकार को कुछ निश्चित वर्ग के अपराधों के संक्षिप्त और सरल प्रक्रिया के अनुसार परीक्षण (trial) के लिये आपराधिक क्षेत्राधिकार के विशेष न्यायालयों की स्थापना करने की शक्ति प्रदान करता था। अध्यादेश के जारी करने का उद्देश्य राज्य में "लोक-सुरक्षा एवं लोक-व्यवस्था को कायम रखना और शान्ति को बनाये रखना था।" राज्य सरकार ने अध्यादेश के अन्तर्गत प्राप्त अपनी शक्ति के प्रयोग में एक अधिसूचना द्वारा ऐसे न्यायालयों की स्थापना की और उन्हें उपर्युक्त निश्चित वर्ग के अपराधों के परीक्षण की शक्ति प्रदान की। अपीलार्थी का मामला, जिसके ऊपर भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं 302, 307 और 392 के अन्तर्गत वर्णित अपराधों के करने का आरोप लगाया गया था, ऐसे विशेष न्यायालय द्वारा परीक्षण करने के लिये सौंपा गया। अपीलार्थी ने यह दलील दी कि अध्यादेश विभेदकारी है क्योंकि यह कार्यपालिका को असीमित विवेकाधिकार की शक्ति प्रदान करता है कि वे किसी भी मामले या निश्चित वर्ग के अपराधों को विशेष न्यायालय को एक विशेष प्रक्रिया द्वारा परीक्षण करने के लिये सौंप सकते हैं जो सामान्य प्रक्रिया की तुलना में कम हितकारी हैं।
         उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अध्यादेश अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण नहीं करता है और विधिमान्य है। न्यायालय ने कहा कि अध्यादेश में उन उद्देश्यों का स्पष्ट उल्लेख है जिनके आधार पर युक्तियुक्त वर्गीकरण किया गया है और राज्य सरकार ऐसे न्यायालयों के परीक्षण हेतु केवल उन्हीं अपराधों या मामलों का चुनाव कर सकती है जो "लोक सुरक्षा, लोक- व्यवस्था तथा राज्य में शान्ति व्यवस्था को प्रभावित करते हैं।" अध्यादेश केवल उपर्युक्त प्रकार के मामलों के परीक्षण के लिये विशेष प्रक्रिया की व्यवस्था करता है। अपीलार्थी के इस तर्क को कि अध्यादेश कार्यपालिका को अनियन्त्रित शक्ति प्रदान करता है, अस्वीकार करते हुए न्यायालय ने यह बात व्यक्त किया कि यदि अधिनियम में विधायी नीति निश्चित और सुस्पष्ट है और उस नीति के संचालन को प्रभावी बनाने के लिए प्रशासकों या कार्यपालिका अधिकारियों को विवेकाधिकार की शक्ति प्रदान की जाती है जिससे वे उस विधि को व्यक्तियों के किसी निश्चित वर्ग या समूह पर लागू कर सकें तो उस अधिनियम को विभेदकारी नहीं कहा जा सकता है। ऐसे मामलों में कार्यपालिका-अधिकारियों से अपेक्षा की जाती है कि वे विधान की विषय-वस्तु का वर्गीकरण अधिनियम में निर्दिष्ट उद्देश्यों के अनुसार ही करेंगे। ऐसी परिस्थिति में अधिकारियों को दी हुई विवेकाधिकार की शक्ति अनियन्त्रित शक्ति नहीं होती, वरन् उन्हें उनका प्रयोग विधान में विहित नीति के अनुसार ही करना होता है और उनके द्वारा किये गये वर्गीकरण के औचित्य को विधान में उल्लिखित उद्देश्य के आधार पर ही जांचा जाना चाहिये।
         अपीलार्थी ने अध्यादेश के विरोध में यह भी तर्क दिया था कि वह बंगाल अधिनियम के समान ही है जिसे न्यायालय द्वारा अनवर अली के वाद में अवैध घोषित कर दिया गया। न्यायाधिपति श्री फजल अली ने यह कहा कि यद्यपि बंगाल ऐक्ट और सौराष्ट्र अध्यादेश दोनों में एक से उपबंध हैं, किन्तु उनमें एक महत्वपूर्ण अन्तर है। पहले में अधिकारियों की विवेकाधिकार की शक्तियों के प्रयोग के लिए कोई मार्गदर्शक सिद्धान्त निर्धारित नहीं किया गया है, जबकि सौराष्ट्र अध्यादेश में उन मार्गदर्शक सिद्धान्तों का स्पष्ट उल्लेख है जिनके अनुसार उन्हें अपनी विवेकाधिकार की शक्तियों का प्रयोग करना है। देखना यह है कि क्या विभेद का कोई युक्तियुक्त आधार है या नहीं। वेस्ट बंगाल अधिनियम में विभेद करने के लिए कोई विवेकपूर्ण या तर्कपूर्ण आधार नहीं दिया गया है। अधिनियम की प्रस्तावना में यह कहा गया है कि अधिनियम कुछ अपराधों के "शीघ्रतर परीक्षण" के उद्देश्य से बनाया गया है। न्यायालय के अनुसार 'शीघ्रतर परीक्षण' पदावली इतनी अस्पष्ट और अनिश्चित है कि वह युक्तियुक्त वर्गीकरण का कोई आधार नहीं प्रस्तुत करती है कि किस प्रकार के मामलों को शीघ्रतर परीक्षण के लिए चुना जायेगा, जबकि सौराष्ट्र अध्यादेश में एक निश्चित उद्देश्य का उल्लेख है और अधिकारीक्षण केवल ऐसे मामलों को विशेष न्यायालयों द्वारा परीक्षण के लिए चुन सकते हैं जो "लोक-सुरक्षा, लोक व्यवस्था और राज्य में शांति व्यवस्था को प्रभावित करते हैं।”
        स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल बनाम अनवर अली सरकार के विनिश्चय के पश्चात् बंगाल विधान मण्डल ने वेस्ट बंगाल ट्रिब्युनल्स ऑफ क्रिमिनल जूरिस्डिक्शन ऐक्ट, 1952 पारित किया। इस ऐक्ट के अन्तर्गत राज्य सरकार को विशेष न्यायालयों को स्थापित करने की शक्ति प्रदान की गयी थी। ऐक्ट की प्रस्तावना में ऐसे न्यायालयों की स्थापना "राज्य की सुरक्षा, लोक-शांति को कायम रखना तथा व्यापार एवं उद्योग की सुरक्षा के उद्देश्य से की गई थी और इस प्रयोजन के लिए अशांत इलाकों में उपरिलिखित अपराधों के शीघ्रतर परीक्षण का भी प्रावधान था। ऐक्ट में ऐसे मामलों के परीक्षण के लिए जो प्रक्रिया विहित की गई थी, वह भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता से सारतः भिन्न थी। उच्चतम न्यायालय ने इस आधार पर मान्यता दे दी कि इसके द्वारा किया गया वर्गीकरण युक्तियुक्त वर्गीकरण है क्योंकि ऐक्ट की प्रस्तावना में विधान-नीति स्पष्ट रूप से दी हुई थी और जिस आधार पर अपराधियों का वर्गीकरण विशेष न्यायालयों के परीक्षण के लिए किया गया था, वह अधिनियम के उद्देश्य से एक तर्कसंगत सम्बन्ध रखता था। देखिये - के० हल्दर बनाम वेस्ट बंगाल स्टेट' का विनिश्चय
        इन-री स्पेशल कोर्ट बिल के महत्वपूर्ण मामले में उच्चतम न्यायालय के विचारार्थं यह प्रश्न था कि क्या स्पेशल कोर्ट बिल, 1978 संवैधानिक है। विधेयक संसद् में एक प्राइवेट सदस्य ने पेश किया था। विधेयक का उद्देश्य, जैसा कि उसकी प्रस्तावना में उल्लिखित था, उच्च पद धारण करने वाले व्यक्तियों द्वारा आपात् के दौरान किये गये अपराधों के परीक्षण के लिए सरकार को विशेष न्यायालयों की स्थापना करने के लिये शक्ति प्रदान करना था। संविधान के अधीन स्थापित संसदीय लोकतन्त्र के सुचारु रूप से कार्य करने के लिए ऐसे व्यक्तियों के अपराधों का एक निष्पक्ष न्यायालय द्वारा परीक्षण किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। विधेयक का खण्ड (2) सरकार को ऐसे न्यायालयों की स्थापना करने की शक्ति प्रदान करता है। खण्ड 10 (1) इन न्यायालयों से उच्चतम न्यायालय में अपील का उपबन्ध करता है। विधेयक की विधि- मान्यता को निम्नलिखित आधारों पर चुनौती दी गयी-
        1- संसद् को उक्त विधेयक पारित करने की शक्ति नहीं है क्योंकि संविधान के भाग 5 (संघ न्यायपालिका) में न्यायालयों के लिये पूर्ण व्यवस्था की गयी है, अतएव अन्य न्यायालयों की स्थापना नहीं की जा सकती है।
        2- विधेयक के उपबन्ध अनु० 14 और 21 का अतिक्रमण करते हैं क्योंकि इसके द्वारा किया गया वर्गीकरण ( उच्च पद धारण करने वाले व्यक्ति) अयुक्तियुक्त है। विधेयक में मामलों के वर्गों को चुनने के लिये कोई समुचित मार्गदर्शन नहीं है। विधेयक द्वारा विहित प्रक्रिया अनु० 21 का अतिक्रमण करती है क्योंकि यह न्यायपूर्ण नहीं है।
        उच्चतम न्यायालय की सात न्यायाधीशों की पीठ ने एकमत से यह अभिनिर्धारित किया कि संसद् को उपर्युक्त विधेयक पारित करने की पूर्ण शक्ति प्राप्त है। समवर्ती सूची की प्रविष्टि 11 में उच्चतम तथा उच्च न्यायालयों के अतिरिक्त अन्य न्यायालयों के संगठन और न्याय-प्रशासन का उपबन्ध है। अनु० 246 के अधीन संसद् ऐसे न्यायालयों की स्थापना कर सकती है। भाग 5 के उपबन्ध अन्य न्यायालयों की स्थापना और उच्चतम न्यायालय के क्षेत्राधिकार को बढ़ाने की संसद् की शक्ति पर कोई परिसीमा नहीं लगाते हैं। भाग 5 के उपबन्धों को संविधान के अन्य उपबन्धों के साथ सामंजस्यपूर्ण तरीके से पढ़ा जाना चाहिये ताकि दोनों को प्रभाव दिया जा सके। संसद् विधेयक के खण्ड 10 (1) के अधीन विशेष न्यायालयों से उच्चतम न्यायालय में अपील का उपबन्ध करने के लिए सक्षम है। संसद् प्रथम सूची की प्रविष्टि 77 के अधीन उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता को बढ़ा सकती है।
न्यायालय ने विधेयक की धारा 4 द्वारा किये गये वर्गीकरण को भी विधिमान्य घोषित किया। विधेयक 'अपराध के वर्ग' और 'अपराधियों के वर्गो' दोनों का सुनिश्चित वर्गीकरण करता है। अधिनियम 27 फरवरी, 1975 से 25 जून तक की अवधि में किये गये अपराधों के तथा उच्च पद धारण करने वाले लोक अधिकारियों या राजनीतिक पद धारण करने वाले व्यक्तियों द्वारा किये गये अपराधों तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा किये अपराधों में वर्गीकरण करता है। उपर्युक्त शर्तों के पूरी होने पर ही मामले विशेष न्यायालयों में परीक्षण के लिए भेजे जा सकते हैं। आपात्काल में किये गये अपराध एक विशिष्ट वर्ग के अपराध हैं। इसी प्रकार इन अपराध के करने वाले व्यक्ति भी एक विशेष वर्ग के हैं जिन्हें आपात्काल में उपर्युक्त अपराधों के करने का अवसर मिला था जो अवसर अन्य व्यक्तियों को नहीं मिल सकता था। आपात्काल ने ऐसे व्यक्तियों को अपने उच्च पदों के दुरुपयोग करने और इस प्रकार विधि-शासन को नष्ट करने तथा समाज पर विभिन्न राजनीतिक अपराधों के करने का अनोखा अवसर प्रदान किया था। इस प्रकार वर्गीकरण के आधार और विधेयक के उद्देश्य (शीघ्रतर परीक्षण) में गहरा सम्बन्ध है। विधेयक कार्यकारिणी द्वारा 'अपराध' और 'अपराधियों' के मामलों में विशेष न्यायालय द्वारा परीक्षण के लिए चयन करने के लिये समुचित मार्गदर्शक सिद्धान्त विहित करता है। विशेष न्यायालयों के परीक्षण के लिए केवल वे ही मामले सौंपे जा सकते हैं जिनके विषय में खण्ड (4) के अधीन सरकार घोषणा करती है। ऐसी घोषणा तभी की जायेगी जब ऐसे व्यक्तियों द्वारा आपात्काल में अपराध करने के विषय में प्रथम- दृष्ट्या प्रमाण मिल गया है।
        यद्यपि न्यायालय ने उपर्युक्त वर्गीकरण को विधिमान्य घोषित किया, किन्तु आपात्काल की अवधि को जून से बढ़ा कर फरवरी 1975 से करने के उपबन्ध को अविधिमान्य घोषित किया। विधेयक में आपात् घोषणा लागू करने की “तैयारी" को भी शामिल करने का उपबन्ध था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि जब वर्गीकरण वैध है तो प्रक्रिया पर आपत्ति नहीं की जा सकती कि वह सामान्य विधि के अधीन विहित प्रक्रिया से कठोर या अहितकर है।
न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यद्यपि विधेयक अनु० 14 की शर्तों को पूरी करता है, किन्तु यही पर्याप्त नहीं है; उसे संविधान के अन्य उपबन्धों की कसौटी पर भी विधिमान्य होना चाहिये। विधेयक में विहित प्रक्रिया अनु० 21 के अनुसार होनी चाहिये, अर्थात् न्यायपूर्ण होनी चाहिये। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि विधेयक में विहित प्रक्रिया निम्नलिखित तीन कारणों से अन्यायपूर्ण है-
        1- विधेयक एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय को मामलों के अन्तरण का उपबन्ध नहीं करता है।
        2- उच्च न्यायालय के निवर्तमान न्यायाधीशों की नियुक्ति का उपबन्ध करता है।

        3- विधेयक भारत के मुख्य न्यायाधिपति के “परामर्श" से नियुक्ति का उपबन्ध करता है।

        न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि उपर्युक्त प्रक्रिया-सम्बन्धी दोषों को विधेयक से निकाल दिया जाये तो विधेयक संवैधानिक हो जायगा।
         प्रथम, केवल कार्यरत उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति विशेष न्यायालय में की जायेगी,
     द्वितीय, ऐसी नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधिपति की “सहमति” (concurrence) से न कि "परामर्श" (consultation) से की जायेगी,
      तृतीय, अभियुक्त को अपने मामले को एक विशेष न्यायालय से दूसरे विशेष न्यायालय में हस्तान्तरण का अधिकार होना चाहिये।
        उपर्युक्त तीनों प्रक्रिया-सम्बन्धी संशोधनों के समाविष्ट कर लेने पर विधेयक द्वारा विहित प्रक्रिया न्यायपूर्ण, उचित तथा सम्यक् ( fair and just ) हो जायेगी और अनु० 21 का अतिक्रमण नहीं होगा। चूँकि केन्द्र सरकार उपर्युक्त तीनों संशोधनों को करने के लिए सहमत है, अतएव विधेयक वैध तथा संवैधानिक है।
        न्यायाधीश पी० एन० सिंघल ने केवल एक विषय पर अपना विसम्मत निर्णय दिया। उन्होंने यह अभिनिर्धारित किया कि विधेयक का खण्ड 5 और 7 असंवैधानिक है क्योंकि यह सरकार को यह निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करता है कि इसके द्वारा कौन से नामजद किये गये न्यायाधीश किस अभियुक्त के मामले का परीक्षण करेंगे। उन्होंने वर्तमान उच्च न्यायालय को ही ऐसे न्यायालयों की शक्ति देने का विचार व्यक्त किया।

5- प्रशासनिक प्राधिकारियों की वैवेकिक (discretionary) शक्ति:

         कभी-कभी ऐसा होता है कि अधिनियम स्वयं वर्गीकरण करने के बजाय इस कार्य को सरकार या प्रशासनिक अधिकारियों पर छोड़ देता है। प्रायः उनकी शक्तियाँ बड़ी विस्तृत होती हैं और उनके प्रयोग में वे मनमाने ढंग से कार्य कर सकते हैं जो अनुच्छेद 14 में विहित समता के सिद्धान्त के विपरीत है। प्रशासनिक अधिकारी अपनी वैवेकिक शक्तियों का प्रयोग सही ढंग से करें, इसके लिए यह आवश्यक है कि अधिनियम में उनके मार्गदर्शन के लिए नीति-निर्धारण किया जाये। वैवेकिक शक्तियों को नियन्त्रित और उनके ठीक-ठीक सम्पादन कराने के लिए न्यायालयों ने समय-समय पर अनु० 14 की सहायता ली है। ऐसे मामलों में यह आवश्यक है कि अधिनियम में उन मार्गदर्शक सिद्धान्तों का उल्लेख किया जाए जिनके अनुसार वैवेकिक शक्तियों का प्रयोग किया जाना है। यदि प्रशासनिक अधिकारियों को दी गई शक्तियाँ सही रूप से परिभाषित और सुनिश्चित हैं और उनका प्रयोग अधिनियम में विहित सीमाओं के अन्दर किया जाता है तो ऐसा अधिनियम अनुच्छेद 14 का अतिलंघन नहीं करता। किन्तु यदि वैवेकिक शक्तियों के प्रयोग के लिए अधिनियम में कोई निश्चित नीति निर्धारित नहीं है तो उसे न्यायालय अवैध घोषित कर सकते हैं। कोई भी कानून अपने प्रशासनिक अधिकारियों को भेदभाव करने की शक्ति नहीं प्रदान कर सकता है। उपधारणा (presumption) सदैव विधि की विधिमान्यता की होती है जब तक कि यह न सिद्ध हो जाय कि अधिनियम में वैवेकिक शक्तियों के प्रयोग की कोई निश्चित नीति निर्धारित नहीं को गई है और उसके दुरुपयोग की संभावना प्रबल है। इसके सिद्ध करने का भार उस व्यक्ति पर होता है जो अधिनियम की विधिमान्यता को चुनौती देता है। लेकिन यदि वह अधिकारी, जिसे विवेकाधिकार दिया जाता है, उसके प्रयोग में मनमाने ढंग से कार्य करता है तो ऐसी दशा में उस अधिनियम को रद्द नहीं किया जाता है, बल्कि सम्बन्धित अधिकारी के कार्य को रद्द कर दिया जाता है। प्रशासन अपने अधिकारियों से इस विवेकाधिकार का ईमानदारी से और उचित रूप से प्रयोग करने की अपेक्षा करता है। देखिये - रामकृष्ण डालमिया बनाम जस्टिस टेन्डोलकर 1 का विनिश्चय।
        उपर्युक्त वर्णित दोनों मुकदमे अनवर अली और काठी रेनिंग इस विषय पर अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। अनवर अली के मामले में वेस्ट बंगाल अधिनियम को उच्चतम न्यायालय ने इसी आधार पर अभिखंडित कर दिया था क्योंकि इसमें प्रशासनिक अधिकारियों की दी हुई वैवेकिक शक्तियों के प्रयोग के लिये कोई निश्चित नीति या मार्गदर्शन का सिद्धान्त विहित नहीं किया गया था। 'शीघ्रतर परीक्षण' पदावली इतनी अस्पष्ट और अनिश्चित थी कि वह युक्तियुक्त वर्गीकरण का आधार नहीं प्रस्तुत करती थी। ऐसी दशा में सरकार और उसके अधिकारियों को मनमानी करने की छूट थी जो अनु० 14 में विहित समता के अधिकार के प्रतिकूल था। इसके विपरीत काठी रेनिंग के मामले में इसी प्रकृति के एक कानून (सौराष्ट्र अधिनियम) को उच्चतम न्यायालय ने वैध घोषित किया क्योंकि सौराष्ट्र अधिनियम में उन नीतियों और मार्गदर्शक सिद्धान्तों का स्पष्ट उल्लेख किया गया था जिसके अनुसार सरकार और उसके अधिकारी अपनी वैवेकिक शक्तियों का प्रयोग करेंगे। सरकार वर्गीकरण के लिए केवल उन्हीं अपराधों के मामलों को चुनेगी और उनको विशेष न्यायालय के परीक्षण के लिये भेजेगी जो 'लोक-सुरक्षा, लोक व्यवस्था और राज्य की शान्ति व्यवस्था' को प्रभावित करते हैं।
        “इन-रि केरल एजुकेशन बिल" के मामले में बिल द्वारा सरकार को प्राइवेट स्कूलों के ऊपर बड़ी शक्ति प्रदान की गयी थी। सरकार को नये स्थापित किये गये स्कूलों को मान्यता देने, न देने या उन स्कूलों को अधिगृहीत करने की शक्ति दी गयी थी। इस अधिनियम को उच्चतम न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि यह सरकार को बड़ी विस्तृत विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है जो अनु० 14 के प्रतिकूल है, अतः इसे अमान्य घोषित कर दिया जाना चाहिये। उच्चतम न्यायालय ने इस दलील को अस्वीकार कर दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि इसकी प्रस्तावना और शीर्षक में अधिनियम की सामान्य नीति का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। स्कूलों को ले लेने की सरकार को दी गयी शक्ति का प्रयोग केवल अधिनियम में उल्लिखित नीतियों के कार्यान्वयन में ही किया जा सकता है, इसलिये यह अनु० 14 के प्रतिकूल नहीं है, बशर्ते कि उस नीति को कार्यान्वित करने में कोई विभेद न किया जाये।

6-एक व्यक्ति स्वयं एक वर्ग माना जा सकता है:

         कोई अधिनियम, जो युक्तियुक्त वर्गीकरण करता है, केवल इस आधार पर अवैध नहीं हो जाता कि वह वर्ग जिसको वह लागू होता है, उसमें केवल एक ही व्यक्ति है, यदि किन्हीं विशेष परिस्थितियों के कारण वह केवल एक व्यक्ति को लागू होता है और दूसरों को नहीं, तो उस एक व्यक्ति को ही वर्ग माना जा सकता है। चिरंजीत लाल बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया का वाद इस विषय पर एक प्रमुख वाद है। इस बाद में शोलापुर कम्पनी कपड़े की एक बहुत बड़ी मिल थी जिसमें 2000 मजदूर कार्य करते थे। कम्पनी में कुव्यवस्था व्याप्त हो जाने के कारण प्रबन्धकों ने कम्पनी को बन्द करने का निर्णय किया। संसद् ने शोलापुर स्पिनिंग ऐण्ड वीविंग कं० (इमर्जेंसी प्राविजंस ) ऐक्ट पारित किया जिसने केन्द्रीय सरकार को यह शक्ति दी कि वह सरकारी निदेशकों को नियुक्त करके कम्पनी के प्रबन्ध एवं सम्पत्ति को सरकारी नियंत्रण में ले ले। कम्पनी के एक अंशधारी ने इस अधिनियम की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी कि केवल उसी कम्पनी के साथ विभेदकारी व्यवहार किया जा रहा है जबकि अन्य कम्पनियों में भी ऐसी कुव्यवस्था व्याप्त है और इस तरह उसे अनुच्छेद 14 में विहित समता के अधिकार से वंचित किया जा रहा है। उच्चतम न्यायालय ने बहुमत से शोलापुर स्पिनिंग ऐण्ड वीविंग अधिनियम को विधिमान्य घोषित किया। न्यायालय ने कहा कि कोई अधिनियम, जो युक्तियुक्त वर्गीकरण करता है, इस आधार पर असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता है कि वह केवल एक ही व्यक्ति को लागू होता है, दूसरों को नहीं। यदि किसी विशेष परिस्थिति के कारण, जो केवल एक व्यक्ति को लागू होता है, दूसरों को नहीं तो उस एक व्यक्ति को ही एक वर्ग माना जा सकता है। उपधारणा (Presumption) सर्वदा अधिनियम की संवेधानिकता के पक्ष में की जाती है और यह सिद्ध करने का भार कि कानून "अयुक्तियुक्त और निरंकुशतापूर्ण" है, पिटीशनर पर होता है। न्यायालय ने कहा कि शोलापुर कम्पनी के प्रबन्ध में गड़बड़ी हो जाने के कारण एक आवश्यक पदार्थ (कपड़ा) का उत्पादन होना बन्द हो गया है और उसमें काम करने वाले मजदूर बेकार हो गये हैं। यह असाधारण परिस्थिति है जो केवल शोलापुर कम्पनी से सम्बन्धित है। ऐसी स्थिति में शोलापुर कम्पनी को स्वयं एक वर्ग के रूप में माना जाना सर्वथा न्यायोचित है। न्यायालय के अनुसार पिटीशनर इसमें यह सिद्ध करने में भी असफल रहा है कि देश में अन्य कम्पनियाँ भी हैं जो समान परिस्थितियों में स्थित हैं। किन्तु न्यायालय के अल्पमत के अनुसार अधिनियम अमान्य है क्योंकि वह कोई वर्गीकरण नहीं करता है और स्पष्ट रूप से एक विभेदकारी कानून है। स्टेट ऑफ जम्मू ऐण्ड काश्मीर बनाम बख्शी गुलाम मुहम्मद' का निर्णय देखिये।
        “अमीरुन्निशा बनाम महबूब बेगम' के वाद में हैदराबाद के निजाम की मृत्यु हो जाने पर बहुत से लोगों ने अपने को उनके उत्तराधिकारी होने का दावा किया और उनकी सम्पत्ति में हक पाने के लिए मुकदमे दायर किये। फलतः मुकदमेबाजी ने दीर्घकालीन रूप धारण कर लिया। इस दीर्घकालीन मुकदमेबाजी को समाप्त करने के उद्देश्य से हैदराबाद के विधानमंडल ने एक वलीउद्दौला उत्तराधिकार अधिनियम, 1950 पारित किया। इस अधिनियम के अन्तर्गत एक पक्ष के दावे को स्वीकार किया गया था और दूसरे पक्ष के दावे को अस्वीकार कर दिया गया था। पीड़ित पक्ष ने अधिनियम की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी कि अधिनियम के फलस्वरूप उन्हें अपने दावे को न्यायालय द्वारा प्रचलित कराने के अधिकार से इन्कार करके एक अमूल्य अधिकार से वंचित किया जा रहा है जिसे कानून सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्रदान करता है। सरकार ने अधिनियम द्वारा किये गये वर्गीकरण को दो आधारों पर उचित बताया। एक यह कि उक्त व्यक्तियों के विरुद्ध राज्य के वकील ने प्रतिकूल रिपोर्ट दिया है और दूसरा यह कि विवाद एक दीर्घकालीन विवाद बन गया है जिसको समाप्त करना आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय ने वलीउद्दौला उत्तराधिकार अधिनियम, 1950 को अवैध घोषित कर दिया और कहा कि सरकार द्वारा पेश किये गये दोनों आधार कानून द्वारा किये गये वर्गीकरण के लिए कोई युक्तिसंगत आधार नहीं प्रस्तुत करते और वह एक पक्ष को न्यायालय द्वारा प्रवर्तित कराने के उस दावे के अधिकार से वंचित करके उनके और उसी समुदाय के शेष व्यक्तियों में एक अमूल्य अधिकार के सम्बन्ध में विभेदकारी व्यवहार करता है। कोई भी कानून किसी व्यक्ति को बिना किसी विवेकपूर्ण आधार के उसके विधिक अधिकारों से वंचित नहीं कर सकता है। न्यायालय ने वर्गीकरण के पक्ष में दिये दूसरे तर्क को भी अस्वीकार कर दिया और कहा कि लम्बे अर्से से चलने वाली मुकमेबाजी को समाप्त करने का उद्देश्य एक ही समुदाय के व्यक्तियों में विभेद करने के लिए कोई विवेकपूर्ण आधार नहीं प्रस्तुत करता है। एक निजी व्यक्ति की सम्पत्ति के दो विरोधी दावेदारों में एक लम्बे अर्से से चलने वाला विवाद, चाहे वह कितना ही दीर्घकालीन क्यों न हो, कोई ऐसी असाधारण परिस्थिति नहीं है जिसके आधार पर कुछ व्यक्तियों को स्वयं एक वर्ग माना जाय और उस समुदाय के अन्य दावेदारों और उनके बीच किए गये विभेद को न्यायोचित माना जाय। वस्तुतः अधिनियम के उद्देश्य और उसके द्वारा किये गये वर्गीकरण में कोई तर्कपूर्ण सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता है। चिरंजीतलाल के मामले में जो असाधारण परिस्थिति थी, वह इस मामले में नहीं है। जहाँ कानून का प्रभाव पूरे समाज के हित को प्रभावित करता है, वहीं न्यायालय यह मान लेता है कि वर्गीकरण के लिए कोई विवेकपूर्ण आधार मौजूद है। चिरंजीतलाल के मामले में कम्पनी के बन्द हो जाने से पूरे समुदाय के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया था। प्रस्तुत मामले में विवाद कुछ निजी पक्षकारों के बीच विवाद था जिससे समाज के हित के लिए कोई खतरा नहीं था।
        राम प्रसाद बनाम बिहार राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अमीरुन्निसा बेगम के निर्णय के आधार पर बिहार लॅण्ड्स (रेस्टोरेशन) ऐक्ट, 1950 को अवैध घोषित कर दिया। इस मामले में अपीलार्थी ने सन् 1946 में कोर्टस ऑफ वार्ड की कुछ जमीन का पट्टा लिया। उस क्षेत्र के अन्य काश्तकारों में इस पट्टे के दिये जाने से बड़ा क्षोभ उत्पन्न हो गया और वे इसके विरुद्ध आन्दोलन पर उतारू हो गये। सरकार के विचार से पट्टा गैरकानूनी था, इसलिए अपीलार्थी को वह जमीन खाली करने को कहा गया जिसे उसने इन्कार कर दिया। इसके पश्चात् बिहार विधान- मण्डल ने बिहार लेण्ड्स (रेस्टोरेशन) ऐक्ट, 1950 पारित करके अपीलार्थी के पट्टे को रद्द कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम को अवैध घोषित कर दिया, क्योंकि यह केवल अपीलार्थी को लागू होता था जब कि उसी परिस्थिति में रहने वाले अन्य लोगों पर नहीं लागू होता था। विवाद निजी पक्षकारों के बीच था और उन्हें अपने अधिकारों को न्यायालय द्वारा प्रवर्तित कराने का पूरा अधिकार प्राप्त था। यह अधिकार प्रत्येक नागरिक को समान रूप से प्राप्त है। प्रस्तुत वाद में अधिनियम एक समुदाय के कुछ लोगों को इस अधिकार से वंचित करके अनु० 14 में गारण्टी किये गये समता के अधिकार का उल्लंघन करता है, अतः वह असंवैधानिक है। स्थानीय काश्तकारों द्वारा अपीलार्थी की भूमि के पट्टे का विरोध करना मात्र कोई ऐसा विवेकपूर्ण आधार नहीं है जिसके आधार पर उसके विरुद्ध विभेद का व्यवहार किया जाय। जहाँ तक अधिनियम की संवैधानिकता का प्रश्न है, न्यायालय ने कहा कि यह सामान्य नियम है कि उपधारणा हमेशा संवैधानिकता के पक्ष में ही की जाती है, किन्तु जब प्रत्यक्षतः अधिनियम में कोई वर्गीकरण नहीं किया गया है, और न ही यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि चुने हुए व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूह में ऐसी विशिष्टता है जिसके आधार पर उन्हें अन्य व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूह से भिन्न व्यवहार के लिये चुना गया है जो अन्य में नहीं है, तो अधिनियम की संवैधानिकता की उपधारणा का लाभ सरकार को नहीं मिल सकता है। संक्षेप में, उपधारणा को इस सीमा तक नहीं ले जाया जा सकता है कि कुछ निश्चित व्यक्तियों या निगम को शत्रुतापूर्ण या विभेदकारी विधान के अधीन करने के लिए अवश्य ही कोई अप्रकट और अज्ञात कारण है।

सामान्य दृष्टान्त

        बैंक नेशनलाइजेशन का मामला 1969 में संसद् ने बैङ्क नेशनलाइजेशन ऐक्ट पारित किया जिसके द्वारा देश के 14 प्रमुख बैंकों जिनकी कुल जमा धनराशि 50 करोड़ रुपये से अधिक थी, का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
        प्रत्यर्थी ने जिन आधारों पर अधिनियम को सांविधानिकता को चुनौती दी थी, उनमें से एक यह था कि वह अनुच्छेद 14 में प्रदत्त उसके समता के अधिकार का हनन करता है । उसके अनुसार यह विभेदकारी वर्गीकरण करता है, क्योंकि इसके अन्तर्गत उक्त बैंकों को अधिगृहीत करके उन्हें बैंकिग व्यापार करने से रोक दिया गया है जब कि अन्य बैंकों को इस प्रकार के व्यापार करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। यही नहीं, वे बैङ्किग व्यापार के अलावा अन्य व्यापार भी नहीं कर सकते हैं क्योंकि उसके लिये उनके पास कोई साधन नहीं है। उन्हें तत्काल मुआवजे की कुछ धनराशि भी नहीं दी गयी है। भारत सरकार ने अधिनियम की सांविधानिकता के पक्ष में यह तर्क प्रस्तुत किया कि यह अधिनियम युक्तियुक्त वर्गीकरण करता है और अधिनियम के उद्देश्य और वर्गीकरण के बीच एक विवेकपूर्ण सम्बन्ध है।
        उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यह अधिनियम असंवैधानिक है क्योंकि अधिनियम गृहीत किये गये बैंकों तथा अन्य बैंकों के बीच अन्यायपूर्ण विभेद करता है। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम ने उक्त बैकों की सारी परिसम्पत्ति, कारोबार, संगठन-व्यवस्था और ख्याति- लाभ को अधिग्रहण करके उन्हें बैङ्किग व्यापार करने से रोक दिया है, जबकि अन्य बैकों को इसी प्रकार के व्यापार करने की छूट है। न्यायालय के अनुसार यह खुल्लम-खुल्ला एक अन्यायपूर्ण भेद- भाव है जो अनुच्छेद 14 द्वारा वर्जित है। यही नहीं, बल्कि उक्त बैंकों को दूसरे व्यापार करने से भी अक्षम कर दिया गया है, क्योंकि एक तो उनके सारे कारोबार को ले लिया गया है और दूसरे उन्हें अन्य कारोबार करने के लिए आवश्यक धनराशि भी नहीं दी गयी है। यह स्पष्टतः प्रत्यर्थी के समता के अधिकार पर आघात है, अतः असंवैधानिक और अवैध है।
        के० ए० अब्बास बनाम भारत संघ' के वाद में पिटीशनर ने चलचित्र अधिनियम, 1952 की संवैधानिक विधि से मान्यता को इस आधार पर चुनौती दी थी कि वह अयुक्तियुक्त वर्गीकरण करता है जिससे अनु० 14 में उसके अधिकार पर अतिक्रमण होता है, अतः वह असंवैधानिक है। अधिनियम के अन्तर्गत चलचित्रों को दो वर्गों में विभाजित किया गया था, जैसे 'यू' और 'अ' । 'यू' वर्ग के चलचित्रों का प्रदर्शन अप्रतिबन्धित किया जाता है जबकि "अ" वर्ग के चलचित्रों का प्रदर्शन केवल बालिगों के लिये ही किया जा सकता है। पिटीशनर ने यह दलील दी कि चलचित्र भी अभिव्यक्ति का एक माध्यम है और उसे अन्य अभिव्यक्ति के माध्यमों के साथ समान व्यवहार के संरक्षण का अधिकार प्राप्त है। चलचित्रों पर पूर्ण अवरोध लगाया गया है जब कि अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों पर ऐसा प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया है। पिटीशनर ने दावा किया कि चलचित्रों के साथ कला और अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों से भिन्न प्रकार का व्यवहार करना अयुक्तियुक्त वर्गीकरण है।
        उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि चलचित्रों के साथ कला और अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों से भिन्न व्यवहार करना एक युक्तियुक्त वर्गीकरण है। चलचित्रों के साथ कला की अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों से अवश्य ही भिन्न व्यवहार किया जाना चाहिए। ऐसा चलचित्रों के तात्कालिक प्रभाव, बहुमुखी प्रतिभा, यथार्थवाद और दृष्टिक एवं कर्णीय इन्द्रियों के साथ-साथ प्रभावित होने के कारण उत्पन्न होता है। चलचित्र कला के अन्य साधनों की तुलना में हमारी भावनाओं को अत्यन्त तेजी से जागृत करने सक्षम है। विशेष रूप से बच्चों और किशोरों पर इसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है क्योंकि वे चलचित्रों में होने वाले अभिनयों को याद रखते हैं और उनका अनुकरण करने का प्रयास करते हैं। इसके विपरीत, एक व्यक्ति, जो एक पुस्तक या अन्य लेख पढ़ता है या भाषण सुनता है या चित्रकला या मूर्तिकला देखता है, उतनी तेजी से उद्वेलित नहीं होता है जितना कि एक चलचित्र देखने वाला व्यक्ति उद्वेलित हो जाता है। उपर्युक्त कारणों से चलचित्रों को 2 वर्गों में बाँटा गया है जो सर्वथा युक्तियुक्त वर्गीकरण है और विधिमान्य है।
        केरल राज्य बनाम टी० पी० रोशना' के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि विभिन्न विश्वविद्यालयों को एक इकाई मानकर उनको छात्र संख्या के आधार पर उनके अधीन मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए पदों का आबंटन अनु० 14 का अतिक्रमण करता है, अतएव असंवैधानिक है।
        एयर इण्डिया बनाम नरगेस मिर्जा के मामले में उच्चतम न्यायालय ने एयर इण्डिया और इण्डियन एयर लाइन्स द्वारा बनाये गये विनियमों को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया कि उनके अधीन वायुयान परिचारिकाओं की भी सेवा शर्तों को विनियमित करने वाली शर्तें अयुक्तियुक्त और विभेदकारी हैं। विनियम 46 यह उपबन्धित करता है कि वायुयान परिचारिकाएं कारपोरेशन की सेवा से 35 वर्ष की आयु में या विवाह करने पर, यदि वह सेवा के 4 वर्षों के अन्दर होता है, या पहली बार गर्भवती होने पर, जो पहले घटित हो, अवकाश प्राप्त करेंगी। विनियम 47 के अधीन प्रबन्ध निदेशक को अवकाश प्राप्त करने की अवधि को एक बार में एक वर्ष करके अधिकतम 45 वर्ष तक अपनी मर्जी से बढ़ाने की शक्ति प्राप्त है यदि वायु परिचारिका चिकित्सीय परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाती है। निर्णय दिया गया कि पहली बार गर्भवती होने पर सेवा से पदमुक्ति की शर्त अत्यन्त अयुक्तियुक्त और विभेदकारी है और अनु० 14 का सरासर अतिक्रमण करती है। विनियम सेवा में आने के 4 वर्ष बाद विवाह करने का निषेध नहीं करता है किन्तु यदि कोई वायु परिचारिका यदि इस पहली शर्त को पूरा करने के पश्चात् गर्भवती हो जाती है तो उसे सेवा से पदमुक्त करने की शर्त अत्यन्त अयुक्तियुक्त है क्योंकि इसके परिणामस्वरूप वह बच्चा पैदा न करने के लिए बाध्य हो जाती है। इस प्रकार यह मानव जीवन के साधारण प्रवाह को ही बदल देता है। ऐसी परिस्थिति में वायु परिचारिका की सेवा से पदमुक्ति न केबल निर्दयतापूर्ण कृत्य है वरन् भारतीय नारी का खुला अपमान है। प्रबन्ध निदेशक की वायु परिचारिकाओं की अवकाश प्राप्त करने की अवधि को अपनी मर्जी से वृद्धि प्रयोग करने का प्रावधान किसी मार्गदर्शक सिद्धान्त के विहित किए बिना विवेकीय (Discretionary) शक्ति प्रदान करता है जो सर्वथा असंवैधानिक है क्योंकि इसका प्रयोग किसी के पक्ष में किया जा सकता है और किसी के विपक्ष में
        जीवन बीमा निगम अति बोनस अधिनियम, 1981 के मामले में जीवन बीमा निगम संशोधन अधिनियम, 1981 और उसके अधीन निर्मित नियमों को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि वह अनु० 14 का अतिक्रमण करता है क्योंकि वह प्रशासनिक प्राधिकारियों को अत्यधिक शक्ति का प्रत्यायोजन (delegation) करता है। इस अधिनियम के अधीन बने नियमों द्वारा सरकार ने जीवन बीमा निगम के चतुर्थ और तृतीय श्रेणी के कर्मचारियो को भत्ते और बोनस देने के आधार में परिवर्तन कर दिया है। 1974 में सरकार और बीमा निगम के बीच हुए करार के अन्तर्गत उक्त कर्मचारियों को वार्षिक वेतन का 15 प्रतिशत बोनस देने का प्रावधान किया गया था। उक्त नियम को भूतलक्षी (retrospective) प्रभाव से लागू किया गया था। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि उक्त अधिनियम और उसके अधीन निर्मित नियम संवैधानिक रूप से वैध हैं किन्तु उनको भूतलक्षी प्रभाव नहीं दिया जा सकता है। वे 2 फरवरी, 1981 जिस दिन इन नियमों को जारी किया गया था, से ही लागू किए जा सकते हैं। अतः इस तिथि के पूर्व कर्मचारियों के भत्ते और बोनस 1974 के समझौते की शर्तों के अनुसार दिये जायेंगे। न्यायालय ने कहा कि 1974 के समझौते को नये समझौते, या कारखाना पंचाट अथवा विधायन के द्वारा बदला जा सकता है किन्तु यह परिवर्तन केवल भविष्यलक्षी ही हो सकता है, भूतलक्षी नहीं। पिटीशनरों ने कोई ऐसा तथ्य नहीं प्रस्तुत किया है जिसके आधार पर यह कहा जाये कि उक्त नियम अनु० 14 का अतिक्रमण करते हैं। सरकार विधान द्वारा 1974 के समझौते की शर्तों को परिवर्तित कर सकती है। इस नियम के अधीन नये भत्ते और बोनस की दरों के निर्धारित करने के लिए समुचित मार्गदर्शक सिद्धान्त विहित किये गये हैं अतएव इसमें अत्यधिक प्रत्यायोजन का प्रश्न निराधार है।

समता का अधिकार | अनुच्छेद 14 | विधि के समक्ष समता अथवा विधियों के समान संरक्षण का अधिकार

 


    समता का अधिकार | अनुच्छेद 14 | विधि के समक्ष समता अथवा विधियों के समान संरक्षण का अधिकार




     अनुच्छेद 14 से 18 द्वारा संविधान प्रत्येक व्यक्ति को समता का अधिकार प्रदान करता है। अनुच्छेद 14 में सामान्य नियम दिया गया है नागरिकों के बीच धर्म, जाति, मूलवंश, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर भेदभाव करने का निषेध करता है । संविधान की प्रस्तावना में परिकल्पित समता का आदर्श अनुच्छेद 14 में निहित है । अनुच्छेद 15, 16, 17 और 18 अनुच्छेद 14 में निहित सामान्य नियम के विशिष्ट उदाहरण हैं । अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान के आधारों पर भेदभाव का प्रतिषेध करता है । अनुच्छेद 16 सार्वजनिक नियोजन के मामलों में अवसर की समानता की गारण्टी करता है । अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का उन्मूलन करता है और अनुच्छेद 18 उपाधियों का उन्मूलन करता है ।


     अनुच्छेद 14 – विधि के समक्ष समता अथवा विधियों के समान संरक्षण का अधिकार

अनुच्छेद 14 यह उपबन्धित करता है कि 'भारत राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से अथवा विधियों के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जायेगा । इस अनुच्छेद में दो वाक्यांशों का प्रयोग किया गया है। एक है 'विधि के समक्ष समता' तथा दूसरा है 'विधियों का समान संरक्षण ।' 'विधि के समक्ष समता' वाक्यांश करीब-करीब सभी लिखित संविधान में पाया जाता है जो नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान करते हैं । 'संयुक्त राष्ट्र मानवीय अधिकार घोषणापत्र' के अनुच्छेद 7 में उक्त दोनों वाक्यांश प्रयुक्त किये गये हैं । मानव अधिकार घोषणापत्र का अनुच्छेद 7 यह कहता है कि “विधि के समक्ष सभी समान हैं और बिना किसी भेदभाव के सभी विधि के संरक्षण के अधिकारी हैं ।" 


     'विधि के समक्ष समता' वाक्यांश ब्रिटिश संविधान से लिया गया है जिसे प्रोफेसर डाइसी के अनुसार 'विधि-शासन' (Rule of Law) कहते हैं । दूसरा वाक्यांश अमेरिका के संविधान से लिया गया है । इन दोनों वाक्यांशों का उद्देश्य भारतीय संविधान की प्रस्तावना में परिकल्पित प्रतिष्ठा की समानता ( equality of status) की स्थापना करना है ।


     वैसे तो यदि देखा जाय तो दोनों वाक्यांशों में समानता है, किन्तु जहाँ तक अर्थ का प्रश्न है, दोनों में कुछ अन्तर है । "विधि के समक्ष समता" एक नकारात्मक वाक्यांश है जिसका तात्पर्य है समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों के साथ विधि द्वारा दिये गये विशेषाधिकारों तथा अधिरोपित कर्त्तव्यों दोनों के मामले में समान व्यवहार किया जायेगा और प्रत्येक व्यक्ति देश की साधारण विधि के अधीन होगा । “विधि का समान संरक्षण" वाक्यांश समानता का स्वीकारात्मक रूप है जिसका तात्पर्य है समान परिस्थिति वाले प्रत्येक व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार करना, अर्थात् समान कानूनों को लागू करना । 1 किन्तु यदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो दोनों वाक्यांशों में एक ही उद्देश्य निहित है और वह है-समान न्याय । 2 स्टेट आफ वेस्ट बंगाल बनाम अनवर अली सरकार के वाद में मुख्य न्यायाधिपति पातंजलि शास्त्री ने ठीक ही कहा है कि "विधि का समान संरक्षण", "विधि के समक्ष समता" का ही उपसिद्धान्त है, क्योंकि उन परिस्थितियों की कल्पना करना कठिन है, जब "विधि के समान संरक्षण" के अधिकार को इंकार करके “विधि के समक्ष समता" के अधिकार को कायम रखा जा सकता है । इस प्रकार वस्तुतः दोनों पदावलियों का अर्थ एक ही है । सिद्धान्ततः उक्त दोनों वाक्यों में अन्तर हो सकता है, लेकिन व्यवहारतः दोनों में कोई अन्तर नहीं है ।


     'विधि के समक्ष समता' का तात्पर्य व्यक्तियों के बीच पूर्ण समानता की स्थापना से नहीं है, जो व्यवहारतः सम्भव भी नहीं है । इसका तात्पर्य केवल यह है कि जन्म, मूलवंश, आदि के आधार पर व्यक्तियों के बीच विशेषाधिकारों को प्रदान करने और कर्त्तव्यों के अधिरोपण में कोई विभेद नहीं किया जायगा और प्रत्येक व्यक्ति देश की साधारण विधि के अधीन होगा । जैसा कि डा० जेनिंग्स' ने कहा है- "विधि के समक्ष समता का तात्पर्य यह है कि समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों के बीच समान विधि होनी चाहिये और समान रूप से लागू की जानी चाहिए तथा एक तरह के व्यक्तियों के साथ एक तरह का व्यवहार करना चाहिये । समान कार्य के लिये किसी पर मुकदमा दायर करने या किसी के द्वारा मुकदमा दायर किये जाने तथा किसी पर अभियोजन चलाने या किसी के द्वारा अभियोजित किये जाने का अधिकार पूर्ण आयु के सभी व्यक्तियों को समान रूप से दिया जाना चाहिये और यह बिना किसी धर्म, मूलवंश, सम्पत्ति, सामाजिक स्तर या राजनीतिक भेदभाव के होना चाहिये ।" "विधि के समक्ष समता" की गारण्टी उसी के समान है जिसे प्रो० डाइसी इंग्लैण्ड में "विधि - शासन" (Rule of law) कहते हैं । "विधि - शासन का अर्थ है कि कोई भी व्यक्ति विधि से ऊपर नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति, चाहे उसकी अवस्था या पद जो कुछ भी हो, देश की सामा न्य विधियों के अधीन और साधारण न्यायालयों के क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत है । राष्ट्रपति से लेकर देश का गरीब से गरीब व्यक्ति सभी समान विधि के अधीन हैं और बिना औचित्य के किसी कृत्य के लिए समान रूप से उत्तरदायी होते हैं। इस सम्बन्ध में सरकारी अधिकारियों और साधारण नाग- रिकों में कोई विभेद नहीं किया गया है ।" 


     "विधि के समान संरक्षण" का अधिकार अमेरिकी संविधान के 14वें संशोधन द्वारा दिये गये अधिकार के समान ही है । इसका अर्थ है समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों को समान कानूनों के अधीन रखा जाना और उनके साथ समान कानूनों को लागू करना, चाहे वह विशेषाधिकार हों या दायित्व हों । इस पदावली का निर्देश है कि समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों में कोई भेदभाव. नहीं करना चाहिए और यदि परिस्थिति एक है तो कानून भी एक होना चाहिए। यदि विधायन की विषय-वस्तु एक समान है तो कानून भी एक समान होना चाहिये । इस प्रकार नियम यह है कि समानों के साथ समान कानून लागू करना चाहिए, न कि असमानों के साथ समान कानून लागू करना चाहिए ।


विधि शासन राज्य से यह अपेक्षा करता है कि वह पुलिस द्वारा अभियुक्तों के साथ किये गये बर्बर व्यवहार से उन्हें संरक्षण प्रदान करने के लिए हर सम्भव तरीकों को अपनाये तथा ऐसे लोगों को दण्ड भी दे । यदि राज्य ऐसा नहीं करता है तो विधि शासन पर से लोगों का विश्वास समाप्त हो जायेगा ।


     समता के नियम के अपवाद - अनुच्छेद 14 में निहित समता का नियम आत्यन्तिक (absolute ) नियम नहीं है और उनके अनेक अपवाद भी हैं । उदाहरण के लिए; विदेशी कूट- नीतिज्ञों को न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से विमुक्ति प्राप्त है । इसी प्रकार भारतीय संविधान भी कुछ अधिकारियों को साधारण नागरिकों से अधिक विशेषाधिकार प्रदान करता है और दायित्वों से विमुक्ति प्रदान करता है । अनुच्छेद 361 के अन्तर्गत भारत के राष्ट्रपति, प्रान्तों के राज्यपालों, लोक अधिकारियों, न्यायालयों के न्यायाधीशों और भूतपूर्व राज्यों के नरेशों को ऐसी विमुक्तियाँ प्रदान की गयी हैं । ऐसा उनकी विशेष स्थिति, विशेष पद और विशेष जिम्मेदारियों के कारण किया गया है, ताकि वे देश के प्रति अपने कर्त्तव्य का समुचित रूप से पालन कर सकें ।


     अनु० 14 का संरक्षण नागरिक तथा अनागरिक दोनों को प्राप्त है-अनुच्छेद 14 में 'नागरिक' शब्द के स्थान पर 'व्यक्ति' शब्द का प्रयोग किया गया है । इसका तात्पर्य यह है कि यह अनुच्छेद भारत भू-क्षेत्र में रहने वाले सभी व्यक्तियों को, चाहे वह भारत का नागरिक हो या विदेशी हो, विधि के समक्ष समता का अधिकार प्रदान करता है । भारत में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति, चाहे भारतीय नागरिक हो अथवा नहीं, समान विधि के अधीन होगा और उसे विधि का समान संरक्षण प्रदान किया जायेगा । इसके विपरीत, अनुच्छेद 15, 16, 17, 18 आदि के उपबन्धों का लाभ केवल 'नागरिकों' को ही प्राप्त है। अनुच्छेद 19 में उल्लिखित मूल स्वतन्त्रताएँ भी केवल 'नागरिकों' को ही प्राप्त हैं। अनुच्छेद 14 नागरिक और अनागरिक में कोई भेद नहीं करता है। विधि के समक्ष समता का अधिकार सभी व्यक्तियों को बिना किसी मूलवंश, रंगभेद और राष्ट्रीयता (Nationality) के भेद-भाव के प्रदान किया गया है ।


     अनुच्छेद 14 में विधिक व्यक्ति भी शामिल हैं—क्या 'व्यक्ति' शब्द में विधिक व्यक्ति भी सम्मिलित किये जा सकते हैं ? यह प्रश्न चिरंजीत लाल बनाम यूनियन आफ इण्डिया' के वाद में उच्चतम न्यायालय के विचारार्थ आया था । उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि अनु० 14 में प्रयुक्त "व्यक्ति" शब्द के अन्तर्गत 'विधिक व्यक्ति' भी सम्मिलित हैं । इसलिए एक कारपोरेशन, जो 'विधिक व्यक्ति' है, को भी विधि के समक्ष समता का अधिकार उपलब्ध है ।


     अनुच्छेद 14 वर्गीकरण की अनुमति देता है, किन्तु वर्ग-विधान का निषेध करता है- "विधि के समक्ष समता" का अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक विधि सामान्य प्रकृति की हो तथा एक ही विधि सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू की जा सकती हो । समानता का अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक विधि का सार्वदेशिक ( universal) प्रयोग (application) होना चाहिये, क्योंकि सभी लोग प्रकृति, योग्यता या परिस्थितियों से एक-सी स्थिति में नहीं हैं । व्यक्तियों के विभिन्न वर्गों की आवश्यकताएँ प्रायः भिन्न-भिन्न व्यवहार की अपेक्षा करती हैं ।" इसलिए भिन्न व्यक्तियों और स्थानों के लिए भिन्न-भिन्न विधि होनी चाहिये । एक ही विधि प्रत्येक स्थान में लागू नहीं होनी चाहिए। वस्तुतः असमान परिस्थितियों में रहने वाले लोगों के लिए एक ही विधि लागू करना असमानता होगी ।" अस्तु, युक्तियुक्त वर्गीकरण अपेक्षित ही नहीं, वरन् आवश्यक भी है । अनेक न्यायिक निर्णयों में न्यायपालिका ने यह स्वीकार किया है कि सामाजिक व्यवस्था को समुचित ढंग से चलाने के लिए अनु० 14 में राज्य को वर्गीकरण करने की शक्ति प्राप्त है । 4 अतएव राज्य समुचित प्रयोजनों के लिए व्यक्तियों और वस्तुओं का वर्गीकरण कर सकता है । यह वर्गीकरण भिन्न-भिन्न आधार पर हो सकता है, जैसे भौगोलिक स्थितियाँ या उद्देश्यों या पेशों या ऐसी अन्य बातों के आधार पर ।


     अनु० 14 वहाँ लागू होता है जहाँ समान परिस्थिति वालों के साथ असमान व्यवहार किया जाता है जिसके लिए कोई युक्तियुक्त आधार नहीं होता ।


व्यक्तियों के विभिन्न वर्गों की विभिन्न आवश्यकताओं के कारण उनमें विभिन्न तथा पृथक् व्यवहार की अपेक्षा होती है । व्यक्तियों को उनके आवश्यकतानुसार विधि वर्गों में बाँटा जाता है । इस सम्बन्ध में विधायिका को विस्तृत शक्ति प्राप्त है । विधायिका उन नीतियों और आधारों को निर्धारित और नियन्त्रित करती है जिसके अनुसार वर्गीकरण किया जा सकता है । ऐसे कानूनों का निर्माण वह समाज के अधिकतम हित और देश की सुरक्षा को ध्यान में रखकर ही करती है ।


      अमीरुन्निसा बनाम महबूब' के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अवलोकन किया है कि विधान- मण्डल को मनुष्यों के पारस्परिक सम्बन्धों से उत्पन्न विभिन्न समस्याओं को हल करना पड़ता है और इस प्रयोजन के लिए यह आवश्यक है कि उसे विस्तृत शक्ति प्रदान की जाय जिससे वह व्यक्तियों और वस्तुओं का वर्गीकरण करे, जिन पर कानूनों को लागू होना है।" इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अनुच्छेद 14 केवल वर्ग-विधान का निषेध करता है, किन्तु वैधानिक प्रयोजनों (Legislative purposes) के लिए युक्तियुक्त वर्गीकरण की अनुमति देता है । परन्तु शर्त यह है कि वर्गीकरण मनमाना ( arbitrary) व भ्रामक (artificial) न हो और युक्तियुक्त आधारों पर आधारित हो । "


     युक्तियुक्त वर्गीकरण की कसौटी (Test of Reasonable Classification)

अनु० 14 वर्ग-विधान का निषेध करता है, किन्तु वर्गीकरण की अनुमति देता है । किन्तु वर्गीकरण युक्तियुक्त होना चाहिए मनमाना नहीं अन्यथा वह असंवैधानिक होगा । यह सच है कि प्रत्येक वर्गीकरण कुछ मात्रा में असमानता उत्पन्न करता है, लेकिन केवल असमानता पैदा करना मात्र ही पर्याप्त नहीं है । उत्पन्न हुई असमानता अयुक्तियुक्त और स्वेच्छाचारी होनी चाहिये । यदि कोई विधि किसी विशेष वर्ग के सभी सदस्यों के साथ समान व्यवहार करती है तो उस पर यह आपत्ति नहीं की जा सकती है कि वह अन्य व्यक्तियों पर लागू नहीं होती और इसलिए व्यक्ति विशेष को समता के संरक्षण से वंचित करती है । यदि एक वर्ग के सभी व्यक्तियों में कोई विभेद नहीं किया गया है तो ऐसी विधि संवैधानिक होगी । इस प्रकार अनु० 14 राज्य द्वारा व्यक्तियों तथा वस्तुओं में वर्गीकरण की शक्ति पर केवल एक ही निर्बन्धन लगाता है और वह यह कि वर्गीकरण अयुक्तियुक्त और मनमाना नहीं होना चाहिए। वर्गीकरण के युक्तियुक्त होने के लिए निम्नलिखित दो शर्तें हैं--

  (1) वर्गीकरण को एक बोधगम्य अन्तरक (intelligible differentia) पर आधारित होना आवश्यक है जो एक वर्ग में शामिल किये गये व्यक्तियों तथा वस्तुओं और उसके बाहर रहने वाले व्यक्तियों तथा वस्तुओं में विभेद करता है ।

  (2) अन्तरक ( differentia) और उस उद्देश्य में तर्कसंगत सम्बन्ध होना आवश्यक है जिसे प्रश्नगत अधिनियम बनाकर विधानमण्डल प्राप्त करना चाहता है ।

   इससे यह स्पष्ट है कि राज्य द्वारा व्यक्तियों अथवा वस्तुओं के वर्गीकरण की शक्ति पर केवल एक ही प्रतिबन्ध है और वह यह कि वर्गीकरण अयुक्तियुक्त और मनमाना नहीं होना चाहिये ।

   अन्तरक, जो वर्गीकरण का आधार है और अधिनियम का उद्देश्य, दोनों भिन्न-भिन्न चीजें हैं । किन्तु आवश्यक यह है कि वर्गीकरण के आधार और प्रश्नगत अधिनियम के उद्देश्य में एक निकटतम सम्बन्ध हो । ' साथ विधानमण्डल को कर अधिरोपित करने के सम्बन्ध में वस्तुओं और व्यक्तियों के चयन और वर्गीकरण करने की विस्तृत शक्ति प्राप्त है और यदि वह एक निश्चित वर्ग के सभी व्यक्तियों के समान व्यवहार करता है तो आमतौर से उस पर आपत्ति नहीं की जा सकती कि वह समान संरक्षण से इन्कार करता है, बशर्ते कि वर्गीकरण मनमाना न हो । वर्गीकरण को किसी वास्तविक और सात्विक भेद पर आधारित होना चाहिये और जिस उद्देश्य की पूर्ति वह करना चाहता है, उससे उसका तर्कसंगत और न्यायोचित सम्बन्ध होना चाहिये, अर्थात् मनमाना और बिना किसी उचित आधार पर किया हुआ वर्गीकरण विभेदकारी होगा और उसे अमान्य घोषित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, विधायिका उस आयु को निर्धारित कर सकती है जिन व्यक्तियों को आपस में संविदा करने के लिये सक्षम समझा जाएगा, लेकिन कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि संविदा करने की सक्षमता व्यक्तियों की शारीरिक बनावट या बालों के रंग इत्यादि पर आधारित की जानी चाहिये, क्योंकि ऐसा वर्गीकरण उस प्रयोजन के लिये मनमाना वर्गीकरण होगा, देखिये - वेस्ट बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार का विनिश्चय ।


     उच्चतम न्यायालय ने अनेक विनिश्चयों में अनुच्छेद 14 के अर्थ एवं क्षेत्र विस्तार का विवेचन किया है । 1 रामकृष्ण डालमिया बनाम जस्टिस टेण्डोलकर " के प्रमुख वाद में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 14 से सम्बन्धित सभी महत्वपूर्ण विनिश्चयों पर पुनर्विलोकन किया है और उसमें स्थापित किये गये उन नियमों का सारांश प्रस्तुत किया है जिसके आधार पर वर्गीकरण की स्वीकृति दी जा सकती है । वे नियम इस प्रकार हैं-

  (1) कोई कानून संवैधानिक हो सकता है यद्यपि वह एक व्यक्ति विशेष से ही संबंध रखता है यदि किन्हीं विशेष परिस्थितियों के कारण जो उस पर लागू होती हैं किन्तु दूसरों पर लागू नहीं होतीं तो ऐसी दशा में उस अकेले व्यक्ति को ही एक वर्ग माना जा सकता है ।

  (2) उपधारणा (presumption) सदैव किसी अधिनियम की सांविधानिकता के पक्ष में की जाती है और यह साबित करने का भार कि वर्गीकरण अयुक्तियुक्त है, उस पर होता है जो उसे चुनौती देता है ।

  (3) यह उपधारणा की जाती है कि विधानमण्डल अपनी जनता की आवश्यकताओं को समझता है और उनका सही मूल्यांकन करता है और यह कि उसकी विधियाँ अनुभूत समस्याओं की अभिव्यक्ति के स्वरूप हैं और उसने जो विभेद कर रखा है, उसके समुचित आधार हैं ।

  (4) इस उपधारणा को यह दिखाकर खंडित (rebutted) किया जा सकता है कि प्रत्यक्षतः कानून में कोई वर्गीकरण नहीं किया गया है और कोई ऐसा विशिष्ट अन्तर नहीं है जो कानून प्रभावित उस व्यक्ति या वर्ग में विशेष रूप से मौजूद है, किन्तु दूसरे व्यक्ति या वर्ग को लागू नहीं होती है जिस पर भी विधि एक वर्ग को आघात पहुँचाती है ।

  (5) सांविधानिकता की उपधारणा को बनाये रखने की पूरी स्वतन्त्रता सामान्य ज्ञान के विषयों को, प्रतिवेदनों को, तत्कालीन इतिहास और तथ्यों की प्रत्येक दशा के ऊपर विचार किया जायेगा जो विधि बनाने के समय मौजूद थीं। ऐसा तभी किया जाता है जब वर्गीकरण का आधार अधिनियम में स्पष्ट रूप में नहीं दिया रहता है ।

  (6) विधानमण्डल को हानि की मात्रा को निर्धारित करने की पूरी स्वतन्त्रता है और वह प्रतिबन्धों को केवल उन्हीं मामलों तक सीमित रख सकता है जहाँ इसकी स्पष्ट रूप से आव- श्यकता है ।

   (7) यदि प्रत्यक्षतः अधिनियम में कोई वर्गीकरण नहीं किया गया है तो संवैधानिकता की प्रकल्पना आवश्यकता से अधिक मात्रा तक नहीं की जा सकती है, अर्थात् सदैव यह मानने तक नहीं की जा सकती है कि कुछ निश्चित व्यक्तियों या निगमों को शत्रुतापूर्ण या विभेदकारी विधान के अधीन करने के लिए अवश्य ही कोई अप्रकट तथा अज्ञात कारण है ।