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समता का अधिकार | अनुच्छेद 17 | अस्पृश्यता का अन्त

समता का अधिकार | अनुच्छेद 17 | अस्पृश्यता का अन्त



        अनुच्छेद 17, अस्पृश्यता का अन्त: अस्पृश्यता का अन्त का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।        अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करता है और उसका किसी भी रूप में पालन करने का निषेध करता है। यह अस्पृश्यता से  उत्पन्न किसी अयोग्यता को लागू करने को दंडनीय अपराध घोषित करता है। इस प्रकार संविधान भारतीय समाज के परम्परागत रूप से चले आ रहे इस महान कलंक को केवल समाप्त करने की ही घोषणा नहीं करता, वरन् भविष्य में इसके किसी भी रूप में पालन करने को भी मना करता है।
        अनुच्छेद 17 और 35 के अधीन प्राप्त अपनी शक्ति के प्रयोग में संसद् ने सन् 1955 में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 पारित किया था। यह अधिनियम अस्पृश्यता के अपराध के लिए दंड की व्यवस्था करता है। इसके अनुसार अस्पृश्यता के अपराध के लिए अधिकतम 500 रुपया जुर्माना या 6 माह की सजा या दोनों सजायें साथ-साथ दी जा सकती हैं। 1955 के अस्पृश्यता अधिनियम में अस्पृश्यता (अपराध) संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा संशोधन करके अस्पृश्यता के पालन करने के लिए विहित दंड को और कठोर बना दिया गया है। इसके नाम को बदलकर प्रोटेक्शन आफ सिविल राइट एक्ट (Protection of Civil Rights Act) कर दिया गया है। इसके अधीन लोकसेवकों का यह कर्त्तव्य होगा कि उक्त अपराधों की जांच करें। यदि कोई लोकसेवक उक्त अधिनियम के अधीन किये गये अपराधों की जांच करने में जानबूझकर उपेक्षा करता है तो यह माना जायेगा कि वह ऐसे अपराध को उत्प्रेरित करता है।
        न तो अनुच्छेद 17 और न ही अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 में 'अस्पृश्यता' की कोई परिभाषा दी गयी है। किन्तु मैसूर उच्च न्यायालय ने अपने एक विनिश्चय में इसके अर्थ को स्पष्ट किया है। न्यायालय ने कहा है कि इस शब्द का शाब्दिक अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिये। शाब्दिक अर्थ में व्यक्तियों को कई कारणों से अस्पृश्य माना जा सकता है जैसे जन्म, रोग, मृत्यु एवं अन्य कारणों से उत्पन्न अस्पृश्यता। इसका अर्थ उन सामाजिक कुरीतियों से समझना चाहिये जो भारतवर्ष में जाति-प्रथा के संदर्भ में परम्परा से विकसित हुई हैं। अनुच्छेद 17 इसी सामाजिक बुराई का निवारण करता है जो जाति-प्रथा की देन है, न कि शाब्दिक अस्पृश्यता का। देखिये- देवराजी बनाम पद्मन्ना 1 का विनिश्चय।


समता का अधिकार | अनुच्छेद 16 | लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता का अधिकार

समता का अधिकार | अनुच्छेद 16 | लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता का अधिकार



        अनुच्छेद 16 यह उपबन्धित करता है कि राज्याधीन नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में सब नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी। राज्याधीन नौकरी या पद के विषय में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, वंशक्रम, जन्म-स्थान, निवास के आधार पर किसी नागरिक को अपात्र नहीं समझा जायगा और न ही विभेद किया जायगा। अवसर की समानता के सामान्य नियम के तीन अपवाद हैं जो खंड 3, 4, 5 में उल्लिखित हैं।

        ध्यान रहे कि अनु० 16 केवल राज्य के अधीन नौकरियों में अवसर की समानता का अधिकार प्रदान करता है। गैर-सरकारी नौकरियों में यह अधिकार नहीं प्राप्त है। यह संविदा सम्बन्धी सेवाओं के मामले में लागू नहीं होता है। उदाहरण के लिए, एस० के० अच्युतन बनाम केरल राज्य के मामले में प्रार्थी को सरकारी अस्पतालों में दूध आपूर्ति करने का ठेका सरकार ने दिया था, किन्तु बाद में यह रद्द कर दिया गया और दूसरों को दे दिया गया जो सरकार की सहकारी दुग्ध संस्था थी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि सरकार उत्तरदायी नहीं है, क्योंकि ठेकेदार को ठेका संविदा अधिनियम के अन्तर्गत दिया गया था, वह कोई लोक-सेवक नहीं था। किसी व्यक्ति को ठेका देना अनु० 16 के अर्थान्तर्गत नियोजन नहीं माना जाता है।
        अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत राज्याधीन नौकरियों के मामले में अवसर की समानता का तात्पर्य यह है कि एक वर्ग के कर्मचारियों को समानता का अवसर प्रदान करना न कि पृथक् एवं स्वतन्त्र वर्गों के कर्मचारियों को समानता प्रदान करना। यह अनुच्छेद यह अपेक्षा करता है कि प्रत्येक नागरिक को उसकी योग्यता एवं प्रतिभा के आधार पर राज्य के अधीन नौकरियों में नियुक्ति के लिए समान अवसर प्रदान किया जायगा।         ध्यान रहे कि अवसर की समता का तात्पर्य अर्हताओं या मानदण्डों का उन्मूलन नहीं है। अनु० 16 राज्य को पूर्ण अधिकार देता है कि वह लोक-सेवाओं के लिए आवश्यक अर्हताओं एवं मानदण्डों को निर्धारित कर सके। राज्य द्वारा निर्धारित अर्हताओं में मानसिक योग्यता के अतिरिक्त शारीरिक पुष्टि, अनुशासन, नैतिक स्तर और जनहित आदि भी सम्मिलित हैं। जिन नौकरियों में तकनीकी ज्ञान आवश्यक है, उनके लिए तकनीकी अर्हतायें निर्धारित की जा सकती है। प्रत्याशियों के पूर्व चरित्र आदि के बारे में भी विचार किया जा सकता है तथा उनमें अनुशासन बनाये रखने के लिए आवश्यक नियम भी बनाये जा सकते हैं। किन्तु शर्त यह है कि चयन की कसौटी मनमाने ढंग की न हो। निर्धारित मानदण्ड और पद या नियुक्ति में युक्तियुक्त सम्बन्ध का होना आवश्यक है। पद की प्रकृति के अनुसार ही अर्हता का मानदण्ड निर्धारित किया जाना चाहिये; उदाहरण – मैसूर राज्य बनाम पी० नरसिंहराव का निर्णय।
        पाण्डुरंग बनाम आन्ध्र प्रदेश लोक सेवा आयोग के मामले में पिटीशनर आन्ध्र प्रदेश के चुनाव के गुण्टूर जिले में वकालत करता था। वह मुन्सिफ के पद के लिए एक प्रत्याशी था जिसके लिए लोक सेवा आयोग ने आवेदन-पत्र आमन्त्रित किया था। विज्ञापन में इस पद के लिए जिन अर्हताओं का उल्लेख था, उनमें से दो इस प्रकार थीं-
    1- क्षेत्रीय विधि का ज्ञान आवश्यक है, तथा
    2- आवेदन-पत्र देने के समय प्रत्याशी आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में वकालत कर रहा हो।
        पिटीशनर इस पद के लिए अपेक्षित सभी अर्हतायें रखता था, किन्तु वह आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में वकालत नहीं कर रहा था। लोक सेवा आयोग ने उसके आवेदन-पत्र को इस आधार पर अस्वी- कार कर दिया था क्योंकि वह आन्ध्र प्रदेश के उच्च न्यायालय में वकालत नहीं कर रहा था। उच्चतम न्यायालय ने इस नियम को तथा उसके अन्तर्गत जारी की गयी अधिसूचना को असंवैधानिक घोषित कर दिया, क्योंकि उपर्युक्त अर्हता में उच्च न्यायालय में वकालत करना और प्रत्याशी द्वारा क्षेत्रीय विधियों के ज्ञान के उद्देश्य के बीच कोई युक्तिसंगत संबंध नहीं था। क्षेत्रीय विधियों का ज्ञान किसी भी न्यायालय में वकालत करने वाले वकील द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार असद्भावपूर्ण कार्रवाई के आधार पर किये गये विभेद से भी अनुच्छेद 16 का अतिक्रमण होता है। प्रादेशिक प्रबन्धक बनाम पवनकुमार के मामले में प्रत्यर्थी के स्थानापन्न पद से अपने अधिष्ठायी पद पर प्रतिवर्तित कर दिया गया था। प्रतिवर्तित करने वाले आदेश में प्रतिवर्तन का कारण यह बताया गया था कि वह उच्चतर पद पर कार्य करने के योग्य नहीं है। प्रत्यर्थी से कनिष्ठ व्यक्ति भी उच्चतर पदों पर स्थानापन्न रूप में कार्य कर रहे थे। प्रतिवर्तन आदेश में एक ओर तो उसके द्वारा किये गये सराहनीय कार्य की प्रशंसा की गई थी और दूसरी ओर उसकी बहुत ही अस्पष्ट शिकायतें और प्रतिकूल टिप्पणियां भी की गई थीं। प्रत्यर्थी को अपनी सफाई प्रस्तुत करने का कोई अवसर नहीं दिया गया था। उच्चतम न्यायालय निर्णय दिया कि असद्भावनापूर्ण कार्रवाई के आधार पर किया गया प्रतिवर्तन का आदेश अनुच्छेद 16 का अतिक्रमण करता है क्योंकि प्रत्यर्थी के प्रतिवर्तन का कोई प्रशासनिक कारण नहीं बताया गया था।         लोक-सेवा में अवसर की समानता का अर्थ कर्मचारियों के एक वर्ग के सदस्यों के बीच समानता से है, पृथक् और स्वतन्त्र वर्ग के सदस्यों के बीच समानता से नही। आल इण्डिया स्टेशनमास्टर्स एसोसियेशन बनाम जनरल मैनेजर सेन्ट्रल रेलवे का वाद इसका अच्छा उदाहरण है। इस मामले में न्यायालय ने उस नियम को, जिसके अनुसार गार्डों की हायर ग्रेड स्टेशन मास्टर के पद पर रोड साइड स्टेशन मास्टरों की तुलना में पहले पदोन्नति हो जाती थी, संवैधानिक घोषित कर दिया। रोड साइड स्टेशन मास्टर और गार्डों की अलग-अलग भर्ती की जाती है, उसकी अलग- अलग ट्रेनिंग होती है और उनकी पदोन्नति के लिए अलग-अलग रास्ते हैं। इस प्रकार उनके दो भिन्न तथा पृथक् वर्ग होते हैं। अतः उनकी पदोन्नति के मामलों में अवसर की समानता या असमानता करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। कर्मचारियों के दो भिन्न तथा पृथक् वर्गों के लिये पदोन्नति के नियम भी दो प्रकार के होने चाहिये।

इस प्रकार अनु० 16 राज्य को लोक-सेवा में विभिन्न श्रेणियों की सृष्टि करने का भी अधिकार प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, 1944 में सरकार ने एक आदेश द्वारा आयकर सेवाओं का पुनर्गठन किया और आयकर अफसरों की एक श्रेणी के स्थान पर दो श्रेणियां बना दी गयीं। इनमें से एक प्रथम श्रेणी हुई और दूसरी द्वितीय श्रेणी। द्वितीय श्रेणी में वे अफसर रखे गये जो उस समय आयकर अफसर थे। नियम के अनुसार प्रथम श्रेणी के आयकर अफसर, सहायक कमिश्नर के पद पाने योग्य थे। किन्तु द्वितीय के श्रेणी के आयकर अफसर ऐसे पद पर तरक्की से पहले प्रथम श्रेणी के अफसर पद पर पहुँचने के बाद ही पा सकते थे। प्रार्थी ने इस नियम को अनु० 16 के विरुद्ध बताया, क्योंकि इस नियम के अन्तर्गत प्रथम श्रेणी के अफसरों की सीधे उच्चतर पदों पर पदोन्नति हो जाती है, किन्तु द्वितीय श्रेणी के अफसरों को उच्चतर पदों पर पदोन्नति के समान अवसर के अधिकार से वंचित कर दिया गया था। अतः यह अनु० 16 का उल्लंघन करता है। उच्चतम न्यायालय ने प्रार्थी की इस दलील को अस्वीकार करते हुए नियम को संवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि अनु० 16 का उल्लंघन तब होता है जब एक श्रेणी में विभिन्न पदों को धारण करने वाले व्यक्तियों के बीच पदोन्नति के लिए अवसर की अस- मानता बरती जाती है, किन्तु विभिन्न श्रेणी के पदों को धारण करने वाले व्यक्ति पदोन्नति के समान अवसर का दावा नहीं कर सकते हैं। प्रस्तुत मामले में अफसरों की दो पृथक् श्रेणियाँ हैं, अतः उनकी पदोन्नति के लिए अलग-अलग नियमों का होना अनु० 16 का अतिक्रमण नहीं है, देखिये- किशोरी बनाम भारत संघ, पंजाब राज्य बनाम जोगिन्दर सिंह,  व्यम्बक लाल बनाम भारत संघ और श्याम सुन्दर बनाम भारत संघ के निर्णयों को।         अनुच्छेद 16 (1) केवल प्रारम्भिक नियुक्तियों के मामले में ही नहीं, वरन् पदोन्नति आदि के मामले में भी लागू होता है। अनु० 16 (1) में प्रयुक्त 'नियोजन से संबंधित मामले' पदावली यह दर्शित करती है कि इस अनुच्छेद का विस्तार केवल 'प्रारम्भिक नियुक्तियों' के मामलों तक ही सीमित नहीं है, वरन् इसमें नियुक्ति संबंधी अनुवर्ती बातें भी सम्मिलित हैं, जैसा पदोन्नति, पदच्युति, वेतन, पदोत्तर, अवकाश, ग्रेच्युटी, पेन्शन और अधिवार्षिकी भत्ता आदि।

अनुच्छेद 16 के अधीन अनिवार्य सेवानिवृत्ति के लिए युक्तियुक्त नियमों का विहित किया जाना प्रतिषिद्ध नहीं करता है। सरकारी सेवा से अनिवार्य सेवानिवृत्ति अनुज्ञात करने वाले नियमों की विधिमान्यता के सम्बन्ध में विधि इस न्यायालय के पूर्ववर्ती विनिश्चय द्वारा सुस्थापित है। लोकहित में अनिवार्य सेवानिवृत्ति का उपबंध सभी सरकारी सेवकों को लागू होता है और इसलिए अनुच्छेद 16 के अधीन इसे चुनौती नहीं दी जा सकती है, देखिये- राधाकृष्ण नायडू बनाम आन्ध्र प्रदेश सरकार।

अनुच्छेद 16, खंड (2) वंशक्रम और निवास-स्थान

        अनुच्छेद 16 (2) में सामान्य आधारों के अलावा दो अतिरिक्त आधार 'वंशक्रम' और 'निवास स्थान' भी सम्मिलित किये गये हैं जो अनुच्छेद 15 में नहीं हैं। इस अर्थ में अनु० 16 का क्षेत्र अनु० 15 से अधिक विस्तृत है। लोक सेवाओं के मामले में उपर्युक्त आधारों पर कोई विभेद नहीं किया जायगा। इस उपबन्ध को संविधान में समाविष्ट करने का मुख्य उद्देश्य सरकारी सेवाओं के मामलों में प्रान्तीयतावाद और भाईभतीजावाद की भावना को सर्वदा के लिए समाप्त कर देना था। मद्रास मद्रासियों के लिये, बंगाल बंगालियों के लिये, कर्नाटक कन्नड़ वालों के लिये आदि प्रान्तीयतावाद के नारे देश की एकता के लिये घातक हैं और सच्चे प्रजातंत्र के विकास के मार्ग को अवरुद्ध कर देते हैं। ये अनिष्टकारी विचार दासता काल के मुख्य लक्षण हैं। स्वतन्त्र भारत में ऐसे विचारों को कोई स्थान नहीं है और इन्हीं को समाप्त करने के लिये अनुच्छेद 16 (2) को संविधान में समाविष्ट किया गया है। अत्याचारपूर्ण असमानता के लिये 'वंशक्रम' का आधार एक कलंक है।

दशरथ रामाराव बनाम आन्ध्र प्रदेश के वाद में मद्रास वंशक्रमानुगत ग्रामपद अधिनियम, 1895 Madras Heredity Village Officers Act की संवैधानिकता को चुनौती दी गयी थी। इस अधिनियम की धारा 6 के अनुसार ग्राम मुन्सिफ के पद के लिये इस पद के अन्तिम धारक के परिवार के लोगों में से ही चुनाव करना आवश्यक था। उच्चतम न्यायालय ने इस धारा को अवैध घोषित कर दिया, क्योंकि यह केवल 'वंशक्रम' के आधार पर भेदभाव करती है जो अनुच्छेद 16 (2) द्वारा वर्जित है। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम के अनुसार ग्राम मुन्सिफ का पद राज्य के अधीन एक पद है क्योंकि इस पद पर नियुक्ति जिलाधीश द्वारा की जाती है और वेतन या भत्ते राज्य द्वारा दिये जाते हैं। अतः इस पद पर नियुक्ति केवल 'वंशक्रम' के आधार पर नहीं की जा सकती है।

अनुच्छेद 16 (3)

        अनुच्छेद 16 (3) अनुच्छेद 16 (2) का एक अपवाद प्रस्तुत करता है। खण्ड (2) 'निवास-स्थान' के आधार पर असमानता को वर्जित करता है। लेकिन सरकार कुछ सेवाओं को केवल राज्य के निवासियों के लिये आरक्षित कर सकती है, बशर्ते कि इसके लिए उचित कारण हो। यह अनुच्छेद संसद को प्राधिकृत करता है कि कानून द्वारा उस सीमा को निर्धारित करे जहाँ तक राज्य को उक्त नियम के पालन करने की छूट है। यदि किसी पद के लिये निवास स्थान की अर्हता के लिये कोई उचित कारण नहीं है तो उसके लिए ऐसी अर्हता को निहित करना अनु० 16 (3) का अतिक्रमण होगा। राज्य द्वारा इस अधिकार के दुरुपयोग को रोकने के लिए ही खण्ड (3) को संविधान में समाविष्ट किया गया है। इसी कारण यह शक्ति केवल संसद् को प्रदान की गयी है।

        अनुच्छेद 16 (3) के अन्तर्गत प्राप्त शक्ति के प्रयोग में संसद् ने पब्लिक एम्प्लायमेंट रिक्वायरमेंट ऐज टु रेजीडेन्स ऐक्ट, 1957 [Public Employment (Requirement as to Residence) Act, 1957] पारित किया है। यह अधिनियम उन सभी प्रवृत्त कानूनों को निरसित ( repeal) करता है जो लोक-सेवाओं के लिये राज्य या संघ क्षेत्र में 'निवास-स्थान' संबंधी योग्यता का विधान करते हैं। यह उपबंधित करता है कि कोई भी व्यक्ति लोक-सेवाओं पर नियुक्ति के लिये इस आधार पर अयोग्य नहीं होगा कि वह किसी विशेष राज्य का निवासी नहीं है। किन्तु यह अधिनियम हिमाचल प्रदेश, मनीपुर, त्रिपुरा और तेलंगाना आदि में लागू नहीं होगा, अर्थात् इन क्षेत्रों में 'निवास-स्थान' सरकारी नौकरियों पर नियुक्ति के लिये एक आवश्यक योग्यता हो सकती है। यह अपवाद प्रारम्भ में केवल पाँच वर्ष की अवधि के लिये था। लेकिन सन् 1969 में इस अधिनियम में संशोधन करके इस अवधि को बढ़ाकर सन् 1974 तक के लिये कर दिया गया। ऐसी छूट देने का मुख्य कारण इन क्षेत्रों का पिछड़ापन है।

        नरसिंह राव बनाम आंध्र प्रदेश के मामले में केन्द्रीय सरकार ने एक अधिनियम पारित किया जिसके अधीन आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र के लोक-पदों के लिये 'निवास-स्थान' की योग्यता निर्धारित की गयी थी। न्यायालय ने अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर दिया, क्योंकि यह पूरे राज्य में लागू नहीं होता था। अनुच्छेद 16 में प्रयुक्त 'राज्य' शब्द से तात्पर्य पूरे राज्य से है। अतः निवास-स्थान सम्बन्धी योग्यता राज्य भर के लिये होनी चाहिये, केवल एक भाग के लिये नहीं। यद्यपि संसद् कुछ लोकपदों को राज्य के निवासियों के लिये आरक्षित कर सकती है, लेकिन वह तेलंगाना क्षेत्र में केवल तेलंगाना के निवासियों के लिये आरक्षित नहीं कर सकती, जो उसी राज्य का एक भाग है।

अनुच्छेद 16 (4) पिछड़ी जातियों के लिये आरक्षण:

        अनुच्छेद 16 (4) इस अनुच्छेद 16 (1) और (2) का दूसरा अपवाद है। इसके अनुसार राज्य पिछड़ी जातियों के लिये, जिनको उसकी सम्पत्ति में लोक-सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है, लोकपदों को सुरक्षित रख सकती है । इस प्रकार खण्ड (4) में लागू होने के लिये दो शर्तें हैं-

    1-वर्ग पिछड़ा हो, अर्थात् सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से, और

    2-उसे राज्याधीन पदों पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिल सका हो । केवल दूसरी शर्त ही एकमात्र कसौटी नहीं हो सकती है।

        'पिछड़ापन' शब्द यहाँ उसी अर्थ में प्रयुक्त किया गया है जिस अर्थ में अनु० 15 (4) में | इस अर्थ में इसके अन्तर्गत सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक या किसी अन्य प्रकार का पिछड़ापन शामिल है। देखिये - बालाजी बनाम मैसूर राज्य' का निर्णय। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि समुदाय को विभिन्न वर्गों में बांटकर ऐसा विभेद किया जाय।
        'पिछड़ा वर्ग' की संविधान में कोई परिभाषा नहीं दी गई है। अनु० 340 राष्ट्रपति को पिछड़े वर्गों के अवधारण के लिए आयोग की स्थापना करने की शक्ति प्रदान करता है। आयोग इस बात की जाँच करके अपनी सिफारिश राष्ट्रपति को देगा कि कौन सा वर्ग पिछड़ा वर्ग की कोटि में आता है। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर सरकार पिछड़े वर्ग में आने वाले वर्गों को विनिर्दिष्ट करेगी। सरकार का निर्णय एक वाद योग्य विषय होगा अर्थात् न्यायालय इस बात की जाँच करेगा कि वर्गीकरण मनमाना तो नहीं किया गया है अथवा बोधगम्य सिद्धान्त पर आधारित है। राम कृष्ण सिंह बनाम मैसूर राज्य के वाद में मैसूर उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि सन् 1941 की जनगणना के आधार पर सन् 1959 में 'पिछड़े वर्गों' का अवधारण किये जाने का कोई औचित्य नहीं है और उसे किसी बोधगम्य सिद्धान्त पर आधारित नहीं कहा जा सकता है क्योंकि 1941 से 1959 की अवधि के बीच समाज में काफी परिवर्तन हो चुके हैं।         बालाजी के मामले में यह निर्णय दिया गया था कि 'जाति' को पिछड़ेपन के अवधारण की कसौटी नहीं बनाया जा सकता है। इसके लिये गरीबी, पेशा, जन्म-स्थान, सामाजिक विचारधारा, आर्थिक उन्नति के साधन, शिक्षात्मक प्रगति आदि सभी बातों पर विचार किया जाना चाहिये। कोई विशेष जाति पिछड़े वर्ग में आ सकती है यदि उस जाति के 90 प्रतिशत लोग सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हों। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि यदि एक बार किसी जाति को पिछड़े वर्ग की सूची में शामिल कर लिया गया है तो यह सर्वदा के लिये पिछड़ी जांति बनी रहेगी। सरकार को समय-समय पर पूर्ण विचार करते रहना चाहिये और यदि उसे यह समाधान हो जाता है कि कोई जाति विकास के उस स्तर पर पहुँच गई है जहाँ उसके लिये आरक्षण की आवश्यकता नहीं है तो उसे उस जाति को पिछड़े वर्ग की सूची से निकाल देना चाहिये।

        आरक्षण करते समय प्रशासनिक कार्यपटुता पर ध्यान रखना चाहिये - खण्ड (3) एक अपवाद है। इसका प्रयोग खण्ड (1) की गारण्टी को नष्ट करने के लिये नहीं किया जा सकता है। आरक्षण करते समय सरकार को प्रशासन में कार्यपटुता बनाये रखने पर ध्यान रखना चाहिये। आरक्षण को योग्यता और कार्य-कुशलता की उपेक्षा करने का आधार नहीं बनाया जा सकता है।

        'पिछड़े वर्गों' के लिये सरकारी सेवाओं में किया गया आरक्षण अयुक्तियुक्त नहीं होना चाहिये, अर्थात् लोक साधारण की नियुक्ति के अवसरों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।         देवदासन बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 16 (4) के क्षेत्र पर पूर्ण रूप से विचार करने का अवसर मिला। सरकार ने पिछड़ी जातियों के लिये लोकपदों के आरक्षण के लिए एक नियम बनाया था जिसको अग्रनयन नियम (carry forward rule) कहते थे। इस नियम के अन्तर्गत 17.5 % पद पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए प्रतिवर्ष आरक्षित रखे गये थे। यदि आरक्षित कोटे के पदों पर नियुक्ति के लिये अनुसूचित जातियों और आदिवासियों के योग्य उम्मीदवार पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं होते हैं तो उन रिक्त स्थानों को अनारक्षित माना जायेगा और रिक्त स्थानों को इन जातियों के लिये निश्चित अगले वर्ष के कोटे में जोड़ दिया जायेगा। ऐसा अगले 2 वर्षों तक किया जा सकता है। इस नियम के परिणामस्वरूप 68% लोकपद अनुसूचित और आदिम जातियों के लिए आरक्षित हो जाते थे।

        उच्चतम न्यायालय ने 4-1 के बहुमत से 'कैरी फारवर्ड' नियम को असंवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि प्रत्येक वर्ष के कोटे को उसी तक सीमित रखना चाहिए और साथ ही साथ प्रत्येक वर्ष पिछड़ी जातियों के लिए पदों का आरक्षण इतना अधिक नहीं होना चाहिए कि एकाधिकार उत्पन्न कर दे या अन्य समुदाय के विधिक अधिकारों में अनुचित रूप से हस्तक्षेप कर दे। बालाजी बनाम मैसूर राज्य' के निर्णय का अनुसरण करते हुए न्यायालय ने कहा कि एक वर्ष में 50 % से अधिक स्थानों को पिछड़ी जातियों के लिये आरक्षित करना सर्वथा अनुचित एवं अनु० 16 (4) के विरुद्ध है। पिछड़ी जातियों के विकास के नाम पर राज्य को दूसरे नागरिकों के अधिकारों की पूर्णतया उपेक्षा नहीं करना चाहिए। न्यायालय के विचार में इस प्रकार का आरक्षण सामान्यतया 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। किन्तु यह 50 प्रतिशत से कितना कम हो, यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के ऊपर निर्भर करेगा।

        किन्तु आरती राय बनाम भारत संघ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि यदि किसी अग्रनयन नियम (carry forward rule) के फलस्वरूप किसी भर्ती वाले वर्ष में सामान्य आरक्षित रिक्तियों की संख्या और अग्रनीत आरक्षित रिक्तियों की संख्या को मिलाकर रिक्तियों की कुल संख्या 45 प्रतिशत से अधिक नहीं है तो वह वैध होगा। नियमों के अन्तर्गत अग्रनयन वाला उपबन्ध संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का अतिक्रमण नहीं करता है। फिर भी यदि केवल दो रिक्तियाँ हैं तो उनमें से एक को आरक्षित माना जायगा, किन्तु यदि केवल एक ही रिक्ति है तो उसे अनारक्षित माना जायगा। 45 प्रतिशत से अधिक रिक्तियों को पश्चात्वर्ती भर्ती वाले वर्ष के लिए अग्रनीत किया जायगा, किन्तु यह इस शर्त के अधीन होगा कि अग्रनीत की गई रिक्तियाँ सिर्फ दो वर्ष से अधिक पुरानी होने के कारण विहित किये गये समय के बाहर हो जायँ।

        वेंकटरमन बनाम मद्रास राज्य के वाद में मद्रास सरकार ने मुन्सिफ के पद के लिए न केवल हरिजन और पिछड़ी जातियों के लिए, वरन् दूसरे समुदायों जैसे मुस्लिम, ईसाइयों, पिछड़े ब्राह्मणों के लिए भी स्थानों को आरक्षित किया था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 16 (4) के अन्तर्गत केवल पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण किये जा सकते हैं। चूंकि उक्त समुदाय पिछड़े नहीं हैं, अतः उनके लिए लोक-पदों का आरक्षण अनुच्छेद 16 (4) के विरुद्ध है और अनुच्छेद 16 (1) और (2) में दिये नागरिकों के मूल अधिकारों का अतिक्रमण करता है।

        त्रिलोकीनाथ टीकू बनाम जम्मू ऐण्ड काश्मीर के मामले में सरकार ने लोकपदों के आरक्षण की एक नीति निर्धारित की थी जिसके अनुसार 50 प्रतिशत पद राज्य के मुसलमानों के लिए 40% जम्मू के हिन्दुओं के लिए और 10% काश्मीर में रहने वाले हिन्दुओं के लिए सरकारी नौकरियों में स्थान आरक्षित किया गया था। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह आरक्षण पिछड़ी जातियों के लिए नहीं है, अतः अनुच्छेद 16 (4) का अतिलंघन करता है अनुच्छेद 16 (4) में प्रयुक्त 'पिछड़े वर्ग' का तात्पर्य 'पिछड़ी जाति' या 'पिछड़े समुदाय' से नहीं है। । विभिन्न समुदायों और जातियों के आधार पर किया गया आरक्षण अनुच्छेद 16 (1), (2) द्वारा वर्जित है ।

        स्टेट ऑफ केरल बनाम एन० एम० थोमस ' आरक्षण के प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय का एक महत्वपूर्ण निर्णय है। इस निर्णय के फलस्वरूप देवदासन के मामले, जिसमें कैरी फारवर्ड रूल अवैधानिक घोषित किया गया था, और बालाजी के मामले, जिसमें आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% नियत की गई थी, में दिये गये 'नर्णयों की विधिमान्यता पर प्रश्न चिह्न लग गया है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न विचारार्थ आया कि क्या अनुसूचित जातियों को अनु० 16 (1) के अन्तर्गत अर्थात् अनु० 16 (4) की परिधि से बाहर प्राथमिकता दी जा सकती है। केरल सरकार ने एक नियम बनाया था जिसके अधीन अनुसूचित जातियों के सेवकों की प्रोन्नति के लिए विभागीय परीक्षा पास करने के लिए दो वर्ष की छूट दी गयी थी जबकि अन्य वर्गों के सेवकों के लिए यह छूट नहीं दी गयी। उच्चतम न्यायालय ने 5-2 के निर्णय से यह अभिनिर्धारित किया कि अनुसूचित जातियों के सेवकों और अन्य सेवकों में उच्चपदों पर प्रोन्नति के लिए परीक्षा पास करने के मामले में उक्त नियम के अधीन किया गया वर्गीकरण युक्तियुक्त है। अनुसूचित जातियों के पिछड़ेपन को देखते हुए सरकारी सेवा में प्रोन्नति के लिए अर्हता परीक्षा में अस्थाई छूट देना आवश्यक है। उक्त नियम से प्रशासन में कार्यकुशलता का ह्रास नहीं होगा क्योंकि जिनकी प्रोन्नति हो चुकी है, उन्हें अन्ततोगत्वा परीक्षा पास करनी ही होगी। उन्हें केवल एक छूट दी जा रही है कि उन्हें प्रोन्नति परीक्षा पास करने के लिए अन्य लोगों की अपेक्षा 2 वर्ष का और अतिरिक्त समय दिया जा रहा है। अल्पमत,न्यायाधिपति श्री खन्ना और गुप्ता, ने यह मत व्यक्त किया कि अनुसूचित जातियों को अनु० 16 (4) से बाहर अर्थात् अनु० 16 (1) के अधीन वर्गीकरण के आधार पर अन्य वर्गों की अपेक्षा प्राथमिकता नहीं दी जा सकती है। एक ही वर्ग के और एक अर्हता रखने वाले सेवकों के बीच प्रोन्नति के लिए वर्गीकरण को इस न्यायालय ने कभी मान्यता नहीं दी है। एक वर्ग के सेवकों को प्रोन्नति के लिए विभागीय परीक्षा पास करने के मामले में छूट देने से (भले ही वह अस्थायी क्यों न हो) प्रशासन में कार्यकुशलता नष्ट हो जाती है। 51 में 34 व्यक्तियों को विभागीय परीक्षा पास किये बिना ही प्रोन्नत करना और जो परीक्षा पास कर चुके हैं उन्हें प्रोन्नत न करना निश्चित ही कार्यकुशलता को नष्ट करता है। अनु० 14 के अधीन वर्गीकरण के सिद्धान्त को अनु० 16 (1) के निर्वचन में प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। अनु० 14 और अनु० 16 (1) दोनों का क्षेत्र भिन्न-भिन्न है। लेखक के विचार से अल्पमत का निर्णय अधिक उचित है। इस निर्णय द्वारा न्यायालय ने राजनीतिज्ञों के लिए आरक्षण शक्ति के दुरुपयोग करने की शक्ति प्रदान कर दी है। यह सर्वविदित है कि आरक्षण की शक्ति का प्रयोग जनता सरकार के शासन में बिहार और उत्तर प्रदेश में राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया था।

        अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ रेलवे बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने एन० एम० थोमस के मामले में दिये निर्णय का अनुसरण करते हुए कि रेलवे बोर्ड द्वारा जारी किये गये उन परिपत्रों को संवैधानिक घोषित किया है जिसके अधीन रेलवे विभाग में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को प्रोन्नति के मामले में अन्य वर्गों की अपेक्षा अधिक सुविधा दी गयी थी। न्यायाधिपति श्री कृष्ण अय्यर ने बहुमत का निर्णय सुनाते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि सरकारी सेवाओं के प्रयोजन के लिए अनु० 16 (1) के अधीन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को एक अलग वर्ग में रखा जा सकता है और उनमें और भारत के अन्य समुदायों के बीच किया गया वर्गीकरण युक्तियुक्त है। उक्त परिपत्रों के अधीन अग्रनयन नियम (carry forward rule) 2 वर्ष से 3 वर्ष तक के लिए बढ़ा दिया गया था जिसके फलस्वरूप उक्त वर्गों के लिए प्रोमोशन पदों पर आरक्षण का कोटा 65% हो गया था। कुल 45 पदों में से 29 पदों पर अनुसूचित जाति/जनजाति को प्रोन्नति दी गई है जो करीब 65% है। बालाजी के मामले के आधार पर (50%) यह नियम अवैध होना चाहिए। किन्तु न्यायाधिपति कृष्ण अय्यर ने कहा कि मानवीय समस्याओं में गणितीय सूक्ष्मता नहीं लागू की जा सकती है और आरक्षण का कुछ अधिक हो जाना अनुचित नहीं है किन्तु यदि वह सारवान् (sub- stantial) रूप से अधिक है तो चयन को अवैध बना देगा। अतः इस शर्त के अधीन रहते हुए अग्रनयन का नियम विधिमान्य है। न्यायाधिपति चिनप्पा रेड्डी ने अवलोकन किया कि उक्त वर्गों के लिए आरक्षण की कोई निश्चित सीमा नहीं नियत की जा सकती है, पूर्व-निर्णयों में 50% की सीमा का नियम तो केवल न्यायालयों के मार्गदर्शन के लिए है वे उससे बाध्य नहीं हैं।

        थोमस और अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ के मामलों में यद्यपि न्यायालय ने बालाजी और देवदासन के मामलों में दिये गये निर्णयों को उलटा (overrule) नहीं है किन्तु उनमें प्रतिपादित सिद्धान्तों का मूल आधार नष्ट कर उन्हें विवक्षित रूप से उलट दिया है। प्रस्तुत वाद में न्यायालय ने 50% से अधिक आरक्षण तथा अग्रनयन नियम जिसके फलस्वरूप आरक्षण 50% से अधिक हो गया था, दोनों को संवैधानिक घोषित किया है। परिपत्र में प्रयुक्त शब्दावली कि उक्त वर्ग के अभ्यर्थियों के साथ सहानुभूतिपूर्ण बर्ताव करना चाहिये जैसी अस्पष्ट शब्दावली को न्यायालय ने विधिमान्य घोषित करके कार्यकारिणी को आरक्षण का राजनैतिक दृष्टि से प्रयोग करने का लाइसेन्स प्रदान कर दिया है। इन निर्णयों के परिणाम दूरगामी हो सकते हैं। गुजरात प्रान्त का आरक्षण विरोधी आन्दोलन इसका ज्वलन्त दृष्टान्त है जिसमें जन, धन को भारी क्षति पहुँची है। ये घटनाएँ आगे आने वाले वर्ग संघर्ष का एक संकेत मात्र हैं।

अनुच्छेद 16, खण्ड (5)

अनुच्छेद 16 (5) इस अनुच्छेद 16 (1) और (2) का तीसरा अपवाद है जिसके अनुसार लोकपदों के लिए धर्म के आधार पर असमानता कहना वर्जित है। अनुच्छेद 16 (5) के अन्तर्गत राज्य किसी धार्मिक या साम्प्रदायिक संस्थाओं के प्रबन्ध के लिए किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय को मानने वाले लोगों की नियुक्ति का उपबन्ध कर सकता है।

समता का अधिकार | अनुच्छेद 15 | धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध

समता का अधिकार | अनुच्छेद 15 | धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध




        जैसा कि विदित है, अनु० 15, अनु० 14 में निहित समता के सामान्य नियम का उदाहरण है । जो विधि अनु० 15 के अन्तर्गत अवैध है, वह अनु० 14 के अन्तर्गत करण के सिद्धान्त के आधार पर वैध नहीं घोषित की जा सकती है । ऐसे कानून द्वारा किये गए  वर्गीकरण की युक्तियुक्तता पर अनु० 14 के अन्तर्गत तभी विचार किया जायेगा जब असमानता अनु० 15 में दिये गये किसी एक आधार पर आधारित हो।


        अनुच्छेद 15 में दिये गये अधिकार केवल नागरिकों को ही प्रदान किये गए हैं विदेशियों को नहीं, जब कि अनु० 14 के अधिकार नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों को समान रूप से प्राप्त हैं।


        अनुच्छेद 15 का प्रथम खंड राज्य को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान अथवा इनमें से किसी आधार पर किसी नागरिक के विरुद्ध असमानता का व्यवहार करने से रोकता है। अनुच्छेद 15 का दूसरा खंड यह उपबन्धित करता है कि केवल धर्म, जाति, लिंग अथवा जन्म- स्थान के आधार पर कोई नागरिक दुकानों, होटलों, मनोरंजन-स्थानों, कुओं, तालाब, घाटों, सड़कों एवं अन्य सार्वजनिक स्थान जो जनता के उपयोग के लिए समर्पित कर दिये गये हैं, अथवा पूर्ण या आंशिक रूप से राज्य-निधि द्वारा घोषित हैं, के उपयोग के सम्बन्ध में किसी शर्त, प्रतिबन्ध, उत्तर- दायित्व व अयोग्यता से प्रभावित न होगा। प्रथम खंड उन आधारों पर विभेद का प्रतिषेध करता है जो राज्य के नियन्त्रण में हैं और दूसरा खंड राज्य और निजी व्यक्तियों, दोनों को सार्वजनिक। से अधिक स्थानों के सम्बन्ध में विभेद करने का निषेध करता है। इस अर्थ में खंड (2), खंड (1) विस्तृत है। इस अनुच्छेद का तीसरा खंड राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिये विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति प्रदान करता है। चौथा खंड 1951 में संविधान के प्रथम संशोधन द्वारा जोड़ा गया है जो राज्य को सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों एवं आदिवासियों के लिये विशेष व्यवस्थाओं के करने की अनुमति देता है । उपर्युक्त सभी खंडों पर अब अलग-अलग विचार किया जायेगा।


अनुच्छेद 15 (1)- राज्य द्वारा किसी नागरिक के विरुद्द केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान या इनमे से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा 

        इस अनुच्छेद का प्रथम खंड केवल धर्म, जाति, वर्ण, लिंग, जन्म-स्थान अथवा इनमें से किसी आधार पर नागरिकों के विरुद्ध कोई विभेद करने से राज्य को निषिद्ध करता है। 'विभेद' शब्द का तात्पर्य किसी व्यक्ति के साथ दूसरों की तुलना में प्रतिकूल व्यवहार करना है। यदि कोई कानून उक्त किसी भी आधार पर असमानता बरतता है तो वह शून्य होगा। इसके कुछ उदाहरण निम्न- लिखित हैं-नैनसुख बनाम स्टेट ऑफ यू० पी० " के वाद में उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार के एक कानून को इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया कि वह विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के लिए पृथक् निर्वाचक-मंडल का प्रावधान करता था जो अनु० 15 (1) द्वारा वर्जित है। प्रताप सिंह बनाम राजस्थान राज्य के मामले में सरकार ने पुलिस अधिनियम, 1861 के अधीन एक अधिसूचना जारी करके राज्य के कुछ क्षेत्रों को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया था। इस क्षेत्र में शांति- व्यवस्था बनाये रखने के लिये अतिरिक्त पुलिस दल रखे गये थे। इस अतिरिक्त पुलिस के खर्चे को पूरा करने के लिये इन क्षेत्रों में रहने वाले निवासियों पर अतिरिक्त कर लगाया गया। किन्तु हरिजनों और मुसलमान निवासियों को इस कर से छूट प्रदान की गयी थी। यह छूट केवल जाति और धर्म के आधार पर दी गयी थी और इसलिये अनु० 15 (1) का अतिक्रमण करती थी। न्यायालय ने उक्त सरकारी अधिसूचना को अवैध एवं असंवैधानिक घोषित कर दिया।         इस अनुच्छेद में 'केवल' शब्द का प्रयोग ध्यान देने योग्य है। इसका तात्पर्य यह है कि विभेद केवल उपर्युक्त आधारों पर वर्जित है, अर्थात् यदि अन्य बातें एक समान हैं तो जाति, धर्म, लिंग आदि किसी के लिये योग्यता व अयोग्यता का आधार नहीं बनाया जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि यदि कोई विभेद उपर्युक्त आधारों में से किसी एक पर न होकर किसी दूसरे आधार पर भी आधारित है, तो वह अनु० 15 (1) द्वारा प्रभावित नहीं होगा। उदाहरण के लिए अनु० 15 (1) जन्म-स्थान पर असमानता को वर्जित करता है, किन्तु यदि विभेद आवास-स्थान के आधार पर किया जाता है तो वह मान्य होगा, क्योंकि यह अनु० 15 में उल्लिखित आधारों में से नहीं है।         डी० पी० जोशी बनाम मध्य प्रदेश के वाद में मध्य प्रदेश मेडिकल कालेज के एक नियम के अनुसार मध्य प्रदेश से बाहर रहने वाले छात्रों को अतिरिक्त प्रवेश शुल्क देना पड़ता था, किन्तु मध्य प्रदेश में रहने वाले छात्रों को ऐसा कोई प्रवेश शुल्क नहीं देना पड़ता था। पेटीशनर ने इस नियम की वैधता को चुनौती दी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त नियम वैध है क्योंकि विभेद 'जन्म-स्थान' के आधार पर नहीं, वरन् आवास के आधार पर किया गया था जो उचित है। 'जन्म-स्थान' 'आवास-स्थान' से भिन्न होता है। अनु० 15 केवल 'जन्म-स्थान' के आधार पर विभेद को वर्जित करता है, न कि 'आवास-स्थान' के आधार पर किये गये विभेद को, बशर्ते कि इसके लिये उचित कारण हो। सरकारी नौकरियों में जाने के इच्छुक व्यक्तियों के लिये क्षेत्रीय भाषा में परीक्षण का नियम अनु० 15 का उल्लंघन नहीं करता है, क्योंकि परीक्षण राज्य की नौकरियों में जाने वाले सभी व्यक्तियों के लिये आवश्यक है। 2 इसी निष्क्रान्त सम्पत्ति (evacuee property) के सम्बन्ध में बनाया गया कानून अनु० 15 (1) का अतिलंघन नहीं करेगा, यद्यपि इससे प्रभावित होने वाले लोगों में से अधिकतर मुसलमान ही हैं क्योंकि यदि कोई गैर-मुस्लिम व्यक्ति भी “निष्क्रान्त" ( evacuee) की परिभाषा के अन्तर्गत आता है तो उसको भी वह समान रूप से लागू होगा। यह कानून केवल धर्म के आधार पर हिन्दू-मुसलमान में विभेद नहीं करता, वरन् एक अन्य आधार पर विभेद करता है जो विशेष परिस्थितियों में आवश्यक और उचित है । देखिये - एम० बी० नमाजी बनाम डिप्टी कस्टोडियन ऑफ इवैक्यूई प्रापर्टी का निर्णय।


अनुच्छेद 15 (2)- कोई नागरिक केवल धर्म मूलवंश जाति लिंग जन्म स्थान या इनमे से किसी के आधार पर,
क- दुकानों, सार्वजानिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजानिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश, या
ख- पूर्णतः या भागतःराज्य-निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग के सम्बन्ध में किसी भी निर्योग्यता, दायित्व, निर्बन्धन या शर्त के अधीन नहीं होगा

        यह अनुच्छेद अनु० 15 (1) में दिये गये सामान्य नियम का विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। अनु० 15 (2) के अनुसार केवल धर्म, जाति, वर्ण, लिंग अथवा जन्म-स्थान के आधार पर किसी नागरिक को दूकानों, होटलों, मनोरंजन-स्थानों, कुओं, तालाब, स्नान घाटों, सड़कों एवं अन्य सार्व- जनिक स्थानों (Places of Public resort), जो जनता के उपयोग के लिए समर्पित कर दिये गये हैं अथवा पूर्ण या आंशिक रूप से राज्य-निधि द्वारा पोषित हैं, के उपयोग के सम्बन्ध में किसी शर्त, प्रतिबन्ध, उत्तरदायित्व या अयोग्यता के अधीन न होगा। 'सार्वजनिक स्थान' उसे कहते हैं जहाँ लोग प्रायः जाते आते हैं, जैसे सार्वजनिक पार्क, सड़क, बसें, पटरी, रेलगाड़ियाँ, अस्पताल आदि। दूसरा खण्ड पहले खण्ड से अधिक विस्तृत है क्योंकि यह राज्य के साथ-साथ निजी व्यक्तियों को भी उक्त आधारों पर विभेद का प्रतिषेध करता है।         अनुच्छेद 15 (2) का मुख्य उद्देश्य हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करके भारत में एक नये समाज की स्थापना का है। संविधान में विहित आदर्श को मूर्त रूप देने के उद्देश्य से ही मद्रास सरकार ने मद्रास रिमूवल ऑफ सिविल डिस-एबिलिटीज ऐक्ट पारित किया है जिसके अधीन सामाजिक कुरीतियों को अपराध माना गया है। किसी भी कानून, रूढ़ि अथवा प्रथा के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति अधिनियम में उल्लिखित सार्वजनिक स्थानों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और निम्न वर्ग के लोगों को जाने से नहीं रोक सकता है।


अनु० 15 (3)- इस अनुच्छेद की कोई बात स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी,

        अनुच्छेद 15 (3), अनु० 15 (1) और (2) में दिये गये सामान्य नियम का अपवाद है। यह अनुच्छेद यह उपबन्धित करता है कि अनु० 15 की कोई बात राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष प्रावधान बनाने से नहीं रोकेगी। स्त्रियों और बालकों की स्वाभाविक प्रकृति ही ऐसी होती है जिसके कारण उन्हें विशेष संरक्षण की आवश्यकता होती है। भारत में स्त्रियों की दशा बड़ी शोचनीय थी। वे अपनी सामाजिक कुरीतियों, जैसे बाल-विवाह, बहु-विवाह आदि की शिकार थीं और पूर्णरूप से पुरुषों पर आश्रित थीं। इसी कारण राज्य को उनके लिए विशेष कानून बनाने का अधिकार प्रदान करना उचित है। स्त्रियों के प्रति इस वैधानिक सहानुभूति के आधार के बारे में अमेरिका के न्यायालय ने मूलर बनाम ओरेगन' के वाद में कहा है कि 'अस्तित्व के संघर्ष स्त्रियों की शारीरिक बनावट तथा उनके स्त्रीजन्य कार्य उन्हें दु:खद स्थिति में कर देते हैं। अतः उनकी शारीरिक कुशलता का संरक्षण जनहित का उद्देश्य हो जाता है जिससे जाति, शक्ति और निपुणता को सुरक्षित रखा जा सके। इस प्रकार अनु० 42 के अन्तर्गत स्त्रियों को विशेष प्रसूति अवकाश (maternity relief) प्रदान किया जा सकता है और इससे सम्बन्धित कानून द्वारा अनु० 15 (1) का अतिक्रमण नहीं होता है। राज्य केवल स्त्रियों के लिए शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कर सकता है तथा अन्य ऐसी संस्थाओं में उनके लिए स्थान भी आरक्षित कर सकता है । देखिये- दत्तात्रेय बनाम स्टेट" का विनिश्चय। यूसुफ अब्दुल अजीज बनाम बम्बई राज्य के मामले में भारतीय दण्ड विधान की धारा 497 की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। इस धारा के अधीन जारकर्म (adultery) के अपराध के लिए केवल पुरुष ही दण्डनीय होता है, स्त्री नहीं। प्रार्थी को भारतीय दंड विधान की धारा 497 के अन्तर्गत जारकर्म के अपराध के लिए दंडित किया गया था। उसने उच्चतम न्यायालय में रिट प्रस्तुत करके धारा 497 को संविधान के अनु० 15 (1) के विरुद्ध बताया क्योंकि धारा 497 के अन्तर्गत इस अपराध के लिए केवल पुरुष मुख्य अभियुक्त के रूप में दण्डनीय है, किन्तु व्यभिचारिणी को गौण अभियुक्त (abettor) के रूप में भी दण्डित नहीं किया जाता, अतः विभेद केवल लिंग के आधार पर आधारित है और अनुचित है। उच्चतम न्यायालय ने धारा 497 को वैध माना, क्योंकि वर्गीकरण केवल 'लिंग' के आधार पर नहीं, बल्कि समाज में स्त्रियों की विशेष स्थिति के आधार पर किया गया था। इस कानून में अब परिवर्तन कर दिया गया है। संशोधित दण्डविधि के अनुसार अब स्त्री को भी समान दण्ड दिया जायगा यदि वह अपराध को उकसाने में हिस्सा लेती है।         इसी प्रकार बच्चों के लिये भी विशेष उपबन्ध किये जा सकते हैं, जैसे बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा या उनके शोषण से संरक्षण के उद्देश्य से बनाये प्रावधान अनु० 15 (1) के अनुकूल होंगे। किन्तु यह ध्यान रहे कि अनु० 15 (3) स्त्रियों और बालकों के कल्याण के लिए केवल विशेष प्रावधान बनाने की अनुमति देता है, प्रत्येक बात में पुरुषों के समान सुविधा देने का उपबन्ध नहीं करता है। देखिये - अंजनराय राय बनाम सेक्रेटरी वेस्ट बंगाल राज्य का निर्णय।

अनु० 15 (4) सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिये विशेष प्रावधान | इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड 2 की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्ही वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवृत नहीं करेगी

        अनुच्छेद 15 (4), अनु० 15 (1) और (2) के सामान्य नियम का दूसरा अपवाद है। यह खंड संविधान में संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा जोड़ा गया है। यह संशोधन मद्रास राज्य बनाम चम्पाकम दोराई राजन के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के परिणाम स्वरूप जोड़ा गया था। इस मामले में मद्रास सरकार ने एक साम्प्रदायिक राजाज्ञा जारी करके राज्य के मेडिकल और इन्जीनियरिंग कालेजों में विभिन्न जातियों और समुदायों के विद्यार्थियों के लिए कुछ स्थानों का निश्चित अनुपात नियत किया था। स्थानों का आरक्षण धर्म, वर्ण और जाति पर आधारित था, क्योंकि ब्राह्मणों के लिए कुछ ही स्थान थे जिनके पूरे होने के कारण इस के योग्यतम विद्यार्थियों को भी प्रवेश नहीं मिल सकता था, जब कि दूसरे समुदाय के अपेक्षा- समुदाय कृत कम योग्यता रखने वाले विद्यार्थियों को स्वतः प्रवेश मिल जाता था। सरकार ने उक्त कानून को इस आधार पर न्यायोचित बताया कि इसका उद्देश्य जनता के सभी वर्गों के लिये सामाजिक न्याय प्रदान करना था, जैसा कि राज्य के नीति-निदेशक तत्वों के अनु० 45 के अन्तर्गत अपेक्षित है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि राजाज्ञा असंवैधानिक है, क्योंकि इसमें किया गया वर्गीकरण धर्म, मूलवंश और जाति के आधार पर किया गया था, विद्यार्थियों की योग्यता पर नहीं। राज्य के नीति-निदेशक तत्व नागरिकों के मूल अधिकारों पर प्रभावी नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार बम्बई उच्च न्यायालय ने एक मामले में राज्य द्वारा हरिजन कालोनी बनाने के लिए भूमि के अधिग्रहण को अनु० 15 (1) के अन्तर्गत शून्य घोषित कर दिया।

        इन दो निर्णयों के प्रभाव को दूर करने के लिए संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 द्वारा अनु० 15 संशोधित किया गया। अनु० 15 (4) के अन्तर्गत राज्य किन्हीं सामाजिक तथा शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों एवं अनुसूचित जातियों और आदिवासियों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान कर सकती है।

        ध्यान रहे कि खंड (4) केवल राज्य को उक्त वर्गों के लिए उपबन्ध करने के लिए सक्षम बनाता है, न कि उस पर विशेष कार्यों को करने के लिए कोई दायित्व आरोपित करता है। यह राज्य को केवल विवेकीय शक्ति प्रदान करता है, अर्थात् यदि राज्य उचित समझे तो पिछड़े वर्गों के नागरिकों के लिए विशेष प्रावधान बना सकता है बशर्ते कि वह विशेष वर्ग सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ हो। प्रश्न समाज का कौन-सा वर्ग उक्त श्रेणी के अन्तर्गत आता है ? सामाजिक और शैक्षिक पिछड़े वर्ग करने की शक्ति राज्य को है, किन्तु इस मामले में राज्य का निर्णय अंतिम नहीं है। उचित मामलों में न्यायालय को हस्तक्षेप करने और इस प्रयोजन के लिए राज्य द्वारा निर्धारित मापदण्डों के जाँचने की पूर्ण शक्ति प्राप्त है। पिछड़े' और 'अधिक पिछड़े वर्ग' में वर्गीकरण असंवैधानिक है:         बालाजी बनाम मैसूर राज्य के मामले में सरकार ने अनु० 15 (4) के अन्तर्गत मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों में प्रवेश हेतु पिछड़े वर्गों के लिए स्थानों का आरक्षण किया था जो इस प्रकार था : पिछड़े वर्गों के लिए 28 प्रतिशत, अधिक पिछड़े वर्गों के लिए 22 प्रतिशत, अनुसूचित जातियों और आदिवासियों के लिए 18 प्रतिशत । इस प्रकार कुल मिलाकर 68 प्रतिशत स्थान उपर्युक्त वर्गों के लिए आरक्षित थे। कुछ योग्यतम प्रत्याशियों ने उक्त राजाज्ञा की वैधता को चुनौती दी क्योंकि उसके अनुसार कम अंक पाने वाले पिछड़े वर्ग के प्रत्याशियों को स्वतः प्रवेश मिल जाता था, जब कि अधिकतम अंक प्राप्त करने के पश्चात् भी इस राजाज्ञा के कारण उन्हें प्रवेश नहीं मिल पाता था। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि 'पिछड़े वर्गों' और 'अधिक पिछड़े वर्गों' के बीच किया गया उप-वर्गीकरण अनु० 15 (4) के अन्तर्गत न्यायोचित नहीं माना जा सकता है। अनु० 15 (4) सामाजिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से पिछड़ेपन की परिकल्पना करता है, न कि केवल सामाजिक या केवल आर्थिक। कोई विशेष वर्ग पिछड़ा वर्ग है या नहीं, इनके निर्धारण के लिए व्यक्ति की जाति ही एक मात्र कसौटी नहीं हो सकती है। गरीबी, पेशा और निवास स्थान आदि बातों पर भी विचार किया जाना चाहिए। प्रस्तुत राजाज्ञा में किसी वर्ग के पिछड़ेपन को निर्धारित करने के लिए केवल जाति को आधार बनाया गया है। मैसूर राज्य द्वारा अपनाये गये तरीके के परिणामस्वरूप पिछड़े वर्गों की सूची में उन सभी जातियों और समुदायों को सम्मिलित किया गया था जिनके विद्यार्थियों की संख्या का औसत प्रति हजार सरकारी औसत से कुछ ही ऊपर या उसके लगभग था। इस व्यवस्था का मुख्य दोष यह था कि इसके अन्तर्गत पिछड़े वर्गों की सूची में राज्य की 90 प्रतिशत जनसंख्या सम्मिलित हो गयी थी और इससे भी विचित्र बात यह थी कि इसमें से 68 प्रतिशत स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित कर दिये गये थे।         उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि इस प्रकार राज्य की जनसंख्या के अधिकतम भाग को पिछड़े वर्गों में शामिल करना न्यायोचित नहीं है और यह अनु० 15 (4) का सरासर अतिक्रमण करता है। शिक्षण संस्थाओं में पिछड़े वर्गों के लिए 68 प्रतिशत स्थान आरक्षित करना संविधान के साथ कपट ( fraud ) करने के समान है। अनुच्छेद 15 (4) पिछड़े वर्गों के लिए केवल विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति देता है, किन्तु उनके लिए अनन्य रूप से प्रावधान बनाने की शक्ति नहीं देता। राज्य द्वारा पिछड़े वर्गों की उन्नति करने के उत्साह में समाज के शेष वर्गों की उन्नति की उपेक्षा करना न्यायोचित नहीं। यदि योग्य और कुशल विद्यार्थियों को उच्चतम शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश पाने से वंचित किया जायेगा तो राष्ट्रपति हित की क्षति होगी। न्यायालय ने यह कहा कि इस प्रकार के विशेष प्रावधान राज्य की कुल जनसंख्या 50 प्रतिशत से अधिक लोगों के लिए नहीं होना चाहिए।         जनार्दन सुब्बाराया बनाम मैसूर राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि बालाजी के मुकदमे में दिया गया निर्णय केवल सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिये गये आरक्षणों को लागू होता है, अतएव मैसूर सरकार की राजाज्ञा द्वारा अनुसूचित और आदिवासियों के लिए किया गया आरक्षण उस निर्णय से प्रभावित नहीं है।         आन्ध्र प्रदेश बनाम यू० एस० वी० दलराम' के मामले में आन्ध्र प्रदेश सरकार ने एक आदेश द्वारा सरकारी मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए नियम बनाये। इन नियमों के अधीन मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए एक प्रतियोगी परीक्षा का प्रावधान किया गया। इसमें बैठने के लिए यह अनिवार्य था कि अभ्यर्थी या तो प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स पास हो या हायर सेकेंडरी कोर्स। प्रतियोगी परीक्षा में प्रवेश उच्चतम अंक पाने वाले व्यक्तियों को योग्यतानुसार दिया जाना था। 40 प्रतिशत स्थान हायर सेकेंड्री कोर्स पास अभ्यर्थियों के लिए आरक्षित थे। सरकार ने एक दूसरे आदेश द्वारा 25 प्रतिशत स्थान पिछड़े वर्गों के अभ्यर्थियों के लिए आरक्षित कर दिया। पिछड़े वर्गों की सूची बँकवर्ड क्लासेज कमीशन की रिपोर्ट पर आधारित थी। प्रत्यर्थी ने, जो प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स पास था, अभ्यर्थियों के बीच उन योग्यताओं (प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स और हायर सेकेंडरी कोर्स) के आधार पर किये गये वर्गीकरण पर हायर सेकेंडरी कोर्स के लिए 40 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने पर तथा पिछड़े वर्गों के लिए 25 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने पर आपत्ति की। उसका कहना था कि उक्त नियम अनु० 14 का अतिक्रमण करते हैं। उसने दलील दी कि उसने प्रतियोगी परीक्षा में हायर सेकेंडरी कोर्स पास अभ्यर्थी से कहीं अधिक अंक प्राप्त किये हैं, फिर भी उसे प्रवेश नहीं मिल रहा है।         न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जब प्रवेश के लिए आधार प्रतियोगी परीक्षा बनाई गयी थी तो परीक्षा के लिए पात्र होने के लिए विहित शैक्षिक योग्यताओं के बीच अन्तर करना और उनमें से किसी वर्ग में आने वाले लोगों के लिए स्थानों का आरक्षण किसी भी दृष्टि से न्यायोचित नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसे आरक्षण का परिणाम यह होगा कि एक वर्ग को (प्री-यूनिवर्सटी कोर्स पास विद्यार्थी) को उस दशा में भी प्रवेश प्राप्त न हो सकेगा जब कि उसके अंक द्वितीय वर्ग (हायर सेकेंडरी कोर्स पास विद्यार्थी) के अभ्यर्थी से अधिक हों। अतः प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स और हायर सेकेंडरी कोर्स के आधार पर अभ्यिर्थयों का वर्गीकरण मनमाना वर्गीकरण है क्योंकि इन दो प्रकार के अभ्यर्थियों के बीच किया गया अन्तर किसी भी दृष्टि के नियम के उद्देश्य (मेडिकल कालेज के लिए योग्यतम व्यक्तियों का चयन) से युक्तियुक्त सम्बन्ध नहीं रखता है। उक्त नियम अनु० 14 का अतिक्रमण करते हैं, अतः असंवैधानिक हैं।         पिछड़े वर्गों के 25 प्रतिशत आरक्षण के बारे में न्यायालय ने कहा कि उस आदेश को अनु० 15 (4) का संरक्षण प्राप्त है। पिछड़े वर्गों की ऐसी सूची तैयार करने की शक्ति सरकार को है जिसके लिए वह आधार निश्चित करेगी। किन्तु जाति को आधार बनाने के लिए व्यक्तियों के आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक, निवास, उपजीविका आदि के स्तर को आधार बनाना सरकार के लिए अधिक श्रेयस्कर है। विचारणीय मुख्य प्रश्न यह है कि सरकार ने उक्त सूची किन-किन बातों को ध्यान में रखकर बनाई है। सम्बन्धित व्यक्तियों की वर्गों की रूढ़ियों, समाज के अन्य वर्गों से उसका सम्बन्ध, उनकी सभी प्रकार की समस्याओं को ध्यान में रखकर तैयार की गई सूची निश्चय ही एक युक्तियुक्त सूची मानी जायेगी। प्रस्तुत मामले में जो सरकारी आदेश निकाला गया है, वह बँकवर्ड क्लासेज कमीशन की रिपोर्ट पर आधारित है। उसने राज्य के सभी जिलों का दौरा किया है, विभिन्न जातियों के प्रतिनिधियों को साथ लिया है। उनके निवास स्थान पर जाकर उनसे जानकारी प्राप्त की है। निवास की समस्याओं पर ध्यान दिया है। उनके रहन-सहन के स्तर का विश्लेषण किया है। समाज में उनके बारे में अन्वेषण किया है। शिक्षण-संस्थाओं में उनकी संख्या तथा तत्सम्बन्धी आँकड़े प्राप्त करके उनके शैक्षिक स्तर के बारे में जानकारी प्राप्त की है और उनकी रूढ़ियों आदि को भी ध्यान में लिया है। इन सबसे प्रकट होता है कि आयोग की रिपोर्ट विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर आधारित है जिसे युक्तियुक्त एवं विश्वसनीय माना जाना चाहिए। प्रस्तुत मामले में सरकार द्वारा तैयार की गई सूची आयोग की कुशल रिपोर्ट पर आधारित है, अतः विधिमान्य है और उसे अनु० 15 (4) का संरक्षण प्राप्त है।         जहाँ तक आरक्षण की सीमा का प्रश्न है, यह सुस्थिर सिद्धान्त है कि आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। चूंकि प्रस्तुत मामले में आरक्षण कुल 43 प्रतिशत है, अतः युक्तियुक्त एवं न्यायोचित है। उच्चतम न्यायालय ने यह अवलोकन किया है कि यद्यपि किसी वर्ग या समुदाय को केवल जाति के आधार पर पिछड़ा वर्ग नहीं माना जा सकता है तथापि यदि सम्पूर्ण जाति ही सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी हुई पायी जाती है तो ऐसी जाति को उसके नाम से ही पिछड़े वर्गों की सूची में सम्मिलित किया जा सकता है और ऐसा करने से अनुच्छेद 15 (4) का अतिक्रमण नहीं होगा क्योंकि स्वयं जाति भी नागरिक का एक वर्ग है। ऐसी जाति के लिए अनु० 15 (4) के अधीन आरक्षण सांविधानिक होगा। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि यदि एक जाति को एक बार पिछड़े वर्गों की सूची में सम्मिलित कर लिया गया है तो वह सर्वदा उस सूची में बनी रहेगी। न्यायालय ने यह सलाह दी कि सरकार को इस बात पर समय-समय पर विचार करते रहना चाहिए और यदि सरकार यह समझती है कि कोई जाति, जिसे पिछड़े वर्गों की सूची में सम्मिलित किया गया था, उन्नति के ऐसे स्तर पर पहुँच गयी है जिसके आधार पर यह माना जा सकता है कि उसे सांविधानिक संरक्षण की आवश्यकता नहीं है; तो सरकार को पिछड़े वर्गों की सूची का समुचित पुनर्विलोकन करना चाहिए और उस जाति को उस सूची से निकाल देना चाहिये। इस मामले में सरकार द्वारा लिया गया निर्णय एक वाद योग्य विषय होगा।         उत्तर प्रदेश राज्य बनाम प्रदीप टण्डन' के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार ने एक सरकारी राजाज्ञा द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों, पहाड़ी क्षेत्रों और उत्तराखंड क्षेत्रों के अभ्यर्थियों के लिए प्रदेश के मेडिकल कालेजों में दाखिले के लिए स्थानों का आरक्षण किया। सरकार की ओर से दलील दी गयी कि इन क्षेत्रों के लोग सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं, अतः यह आरक्षण आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ग्रामीण क्षेत्रों के अभ्यर्थियों के लिए मेडिकल कालेज में प्रवेश हेतु स्थानों का आरक्षण असंवैधानिक है, किन्तु पहाड़ी और उत्तराखंड के अभ्यर्थियों के लिए पदों का आरक्षण विधिमान्य है। ग्रामीण क्षेत्रों के आरक्षण को सामाजिक शैक्षिक पिछड़े वर्ग के आधार पर मान्य नहीं ठहराया जा सकता है। आरक्षण राज्य की जनसंख्या के बहुमत के लिये किया जाता है। राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों की 80 प्रतिशत जनसंख्या एक सजातीय वर्ग नहीं हो सकती है। वे एक प्रकार के लोग नहीं हैं । उनके पेशे विभिन्न हैं। उनका जीवन-स्तर विभिन्न है। जनसंख्या को स्वयं एक वर्ग नहीं माना जा सकता है। गाँवों में रहने से कोई एक वर्ग का नहीं हो जाता है। गाँवों में डाक्टरों की विशेष आवश्यकता होना वहाँ के लोगों को सामाजिक एवं आर्थिक पिछड़े वर्गों के नागरिक नहीं बना देता है। ग्रामीण क्षेत्रों की गरीबी भी उनके वर्गीकरण का आधार नहीं हो सकती है जिसके आधार पर उनके लिए स्थानों का आरक्षण किया जा सकता हो। गरीबी तो सारे भारतवर्ष में है।         पहाड़ी एवं उत्तराखंड के अभ्यर्थियों के आरक्षण को विधिमान्य बताते हुए न्यायालय ने कहा कि इन क्षेत्रों के नागरिक सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं। पिछड़ेपन को आर्थिकआधार पर जांचा जाना चाहिये कि प्रत्येक भाग को कितने मनुष्यों को सम्भावित रूप से भरण- पोषण करने की क्षमता है। उनका जीवन-स्तर क्या है और उनकी सम्पत्ति की सीमा क्या है। आर्थिक दृष्टि से ऐसे लोगों को एक पिछड़ा वर्ग माना जायेगा यदि वे उपलब्ध साधनों का प्रभावी ढंग से उपयोग नहीं कर पाते हैं। जहाँ काफी भूमि खाली पड़ी है, अव्यवस्थित है, लोग अनपढ़ हैं और जिनके पास नाममात्र की सम्पत्ति है, यह सब सामाजिक पिछड़ेपन की निशानी है। आवागमन और तकनीकी प्रक्रिया के उपलब्ध न होने से इन क्षेत्रों में प्रभावी विशेषज्ञता सम्भव नहीं है। यहाँ लोग सामाजिक रूप से पिछड़े हैं। पहाड़ी और उत्तराखंड के लोग शैक्षिक रूप से भी पिछड़े वर्ग के नागरिक हैं क्योंकि शैक्षिक सुविधाओं के न होने से उनके विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है और न तो उन्हें शिक्षा के अर्थ और महत्व का ज्ञान होता है और न उसके प्रति वे जागरूक ही रहते हैं। जहाँ सामाजिक परिवेश या पेशे सम्बन्धी बाधाओं के कारण लोगों में शिक्षा के प्रति परम्परागत उदासीनता है। यह एक शैक्षिक पिछड़ेपन का उदाहरण है। पहाड़ी और उत्तराखंड क्षेत्र दुर्गम क्षेत्र हैं। उनमें शिक्षण संस्थाओं की कमी है।         कुमारी के० एस० जयश्री बनाम केरल राज्य के मामले में पिटीशनर केरल राज्य में इजहावा समुदाय की थी। यद्यपि वह आरक्षणों की कोटि के अन्तर्गत आती थी तथापि उसे इस आधार पर स्थानीय मेडिकल कालेज में प्रवेश पाने नहीं दिया गया कि उसके कुटुम्ब की आय विहित सीमा से अधिक थी। राज्य सरकार द्वारा यह सीमा उस आयोग की सिफारिश के आधार पर विहित की गई थी जो कि सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों के लिए शिक्षण संस्थानों के आरक्षण का अवधारण करने के लिए नियुक्त किया गया था। आयोग इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि आरक्षण की वर्तमान पद्धति का फायदा मुख्य रूप से केवल जाति या समुदाय के आधार पर ही था और इसका लाभ धनाढ्य लोगों को मिल रहा था, न कि निर्धन लोगों को। अतएव आयोग ने यह सुझाव दिया कि वर्गीकरण के लिये साधन एवं जाति या समुदाय की कसौटी अपनाई जानी चाहिये जिससे निर्धन और योग्य व्यक्तियों को शामिल किया जा सके। आयोग ने इस दृष्टि से आय के स्तर को आधार माना और यह निष्कर्ष निकाला कि जिनकी आय सभी स्रोतों से 10,000 रुपये से कम है वे सामाजिक एवं शिक्षात्मक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्ग में आते हैं। पिटीशनर के कुटुम्ब की आय 10,000 रुपये से अधिक थी, अतएव उसका नाम मेडिकल कालेज में प्रवेश के लिए अपवर्जित कर दिया गया।         उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि आय के आधार पर पिटीशनर के अपवर्जन से अनुच्छेद 15 का अतिक्रमण नहीं होता है। अनुच्छेद 15 (4) के अधीन पिछड़ापन सामाजिक एवं शिक्षात्मक होना चाहिये। किसी नागरिक वर्ग के सामाजिक पिछड़ेपन को अभिनिश्चित करने के लिए किसी नागरिक की जाति मुख्य कसौटी नहीं हो सकती है। जिस प्रकार कोई जाति एकमात्र अथवा मुख्य कसोटी नहीं होती, उसी प्रकार सामाजिक पिछड़ेपन के लिए निर्धनता निश्चयात्मक और अवधारक तत्व नहीं होती है। सामाजिक पिछड़ापन काफी हद तक निर्धनता का परिणाम होता है। निर्धनता के परिणामस्वरूप होने वाले सामाजिक पिछड़ेपन के बारे में सम्भाव्य है कि वह उनकी जाति के कारण और तीव्र बन जाये। इससे यह दर्शित होता है कि नागरिकों के पिछड़ेपन का अवधारण करने में जाति और निर्धनता दोनों ही सुसंगत हैं। निर्धनता स्वयं सामाजिक पिछड़ेपन का अवधारक तत्व नहीं है। निर्धनता सामाजिक पिछड़ेपन के सन्दर्भ में सुसंगत होती है। सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछड़े वर्ग का निर्धारण कोई आसान बात नहीं है।         इसका अवधारण राज्य का काम है। न्यायालय की अधिकारिता इस बात का विनिश्चय करने से सम्बन्धित है कि क्या लागू की गई कसौटियाँ विधिमान्य हैं। यदि यह दिखाई देता है कि जो कसौटियाँ लागू की गई हैं, वे उचित और विधिमान्य हैं तो इन कसौटियों के आधार पर सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों का वर्गीकरण अनुच्छेद 15 (4) की अपेक्षाओं के अनुकूल होगा।         मध्य प्रदेश राज्य बनाम निवेदिता जैन' (1981) का मामला उच्चतम न्यायालय के अनु० 15 (4) पर आधुनिकतम और एक महत्वपूर्ण मामला है। इस मामले में न्यायालय ने राज्य सरकार के एक कार्यपालिक आदेश को विधिमान्य घोषित किया है जिसके अधीन राज्य के प्री-मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए मेडिकल परीक्षा में अनुसूचित जाति और अनु- सूचित जनजाति के अभ्यर्थियों के लिए अर्हता अंक सम्बन्धी शर्तों को पूर्णरूप से समाप्त कर दिया गया था। राज्य के 6 मेडिकल कालेजों में MBBS कोर्स के लिए कुल स्थान 720 थे जिसमें से 15 स्थान अनुसूचित जाति/अनु० जनजाति के लिए आरक्षित थे। विनियम 20 के अधीन प्रवेश के लिए न्यूनतम अर्हता अंक 50% कुल अंक का और 33% प्रत्येक विषय में विहित किया गया था। किन्तु अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थियों के लिये यह केवल 40% और 30% ही विहित किये गये थे। विनियम के अधीन राज्य सरकार को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अभ्यिर्थयों के लिए न्यूनतम अर्हता अंक में छूट देने की शक्ति प्राप्त थी। प्रवेश परीक्षा में कुल 9400 छात्र शामिल हुए जिनमें से 623 अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के छात्र थे। प्रवेश परीक्षा के आधार पर अनुसूचित जाति के 108 में से केवल 18 और अनुसूचित जनजाति के 108 में से केवल 2 छात्र न्यूनतम अर्हता अंक पाकर उत्तीर्ण हुए। इसके पश्चात् परीक्षा समिति ने इन वर्गों के लिए अर्हता अंक में 5% की छूट प्रदान की। इस छूट के बावजूद अनुसूचित जाति के केवल 25 और अनुसूचित जनजाति के केवल 3 स्थान भरे जा सके। इस दूसरी बार छूट के बावजूद में इन वर्गों के लिए आरक्षित स्थानों में से काफी स्थान रिक्त रह गये। तत्पश्चात् राज्य सरकार ने प्रश्नास्पद कार्यपालिक आदेश जारी करके इन दो वर्गों के लिए न्यूनतम अर्हता अंक की शर्त को बिल्कुल समाप्त कर दिया। राज्य के उच्च न्यायालय ने अनु० 15 (4) के अतिक्रमण करने के आधार पर इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया। किन्तु अपील में उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया और कार्यपालिक आदेश द्वारा न्यूनतम अर्हता अंक प्राप्त करने की शर्त को घटाने के आदेश को संवैधानिक घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि मेडिकल परिषद् का विनियम 2 जो न्यूनतम अर्हता अंक की शर्त विहित करता है, वह आदेशात्मक नहीं वरन् केवल निदेशात्मक है अतः कार्यपालिक आदेश उसका अतिक्रमण नहीं करता है और इस अर्हता को बदला जा सकता है। अनु० 15 (4) के अधीन राज्य का सांविधानिक दायित्व है कि वह इन वर्गों की उन्नति के लिए हर सम्भव प्रयास करे और वह मेडिकल कालेजों और अन्य टेकनिकल शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश के लिए स्थानों का आरक्षण कर सकती है। राज्य आरक्षण को प्रभावी बनाने के लिए शर्तें लगा सकती है। विशेष परिस्थितियों में यदि आरक्षण को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक हो तो राज्य सरकार प्रवेश सम्बन्धी अर्हता और शर्तों में यथोचित परिवर्तन कर सकती है। विनियम 20 के अधीन राज्य को न्यूनतम अर्हता अंक में आवश्यकतानुसार छूट प्रदान करने की शक्ति प्राप्त है। इस प्रकार सरकार द्वारा इन वर्गों के अभ्यर्थियों को न्यूनतम अर्हता अंक की शर्त में पूर्ण छूट देना अयुक्तियुक्त नहीं है और इससे अनु० 15 (4) का उल्लंघन नहीं होता है। उच्चतम न्यायालय ने बिहार उच्च न्यायालय द्वारा अमलेन्दु कुमार बनाम बिहार राज्य के निर्णय को उलट दिया जिसमें यह निर्णय दिया गया था कि उक्त वर्ग के लोगों के लिए अर्हता अंक को कार्यपालिक आदेश से कम करना असंवैधानिक है और वह अनु० 15 (4) का अतिक्रमण करता है। क्या ऐसे माता-पिता से उत्पन्न व्यक्ति जो पहले अनुसूचित जाति के थे किन्तु बाद में ईसाई धर्म में संपरिवर्तित हो गये थे, द्वारा पुनः संपरिवर्तित करके अनुसूचित जाति का सदस्य बन जाने पर धारा 15 और 29 के अधीन मेडिकल कालेज में प्रवेश के लिए पदों के आरक्षण का दावा किया जा सकता है ?         यह प्रश्न प्रधानाचार्य गुण्टूर मेडिकल कालेज बनाम वाई मोहन राव" के मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष उठाया गया था। इस मामले में प्रत्यर्थी के माता-पिता प्रारम्भ से अनुसूचित जाति के थे। वे दोनों किसी समय ईसाई धर्म में संपरिवर्तित हो गये थे। प्रत्यर्थी अपने माता-पिता के सम्परिवर्तन के पश्चात् पैदा हुआ था। आन्ध्र प्रदेश राज्य में मेडिकल कालेज में प्रवेश के प्रयोजन के लिए ईसाई धर्म में संपरिवर्तित जाने वालों को पिछड़ी जाति का माना जाता है। प्रत्यर्थी ने प्रवेश के लिए दिये आवेदन में अपने को पिछड़े वर्ग का सदस्य उल्लिखित किया। किन्तु वह प्रवेश पाने में सफल न हो सका। तत्पश्चात् वह हिन्दू धर्म में संपरिवर्तित हो गया और "हिन्दू धर्म की अनुसूचित जाति में उसे पुनः स्वीकार कर लिया गया था।" पर उसने मेडिकल कालेज में प्रवेश के लिए इस आधार पर आवेदन किया कि वह अनुसूचित जाति गुण्टूर का सदस्य था। उसका चयन कर लिया गया। किन्तु बाद में कालेज के प्रधानाचार्य द्वारा उसके चयन को इस आधार पर रद्द कर दिया गया कि वह जन्म से हिन्दू नहीं था। प्रधानाचार्य ने इसके लिए आन्ध्र सरकार के एक आदेश का अवलम्बन किया। प्रत्यर्थी ने अपने प्रवेश को रद्द करने की विधिमान्यता को न्यायालय में चुनौती दी।         उच्चतम न्यायालय ने प्रत्यर्थी के पिटीशन को स्वीकार करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि जब किसी जाति के सदस्य, जिस जाति से उस व्यक्ति के माता-पिता ईसाई धर्म में संपरिवर्तित हुए थे, उस व्यक्ति को पुनः उस जाति के सदस्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं तो वह पुन: उस जाति का सदस्य बन जाता है, और उस जाति का सदस्य होने के नाते जो कि अनुसूचित है; वह मेडिकल कालेज में पदों के आरक्षण के लिए दावा कर सकता है। इस बात का विनिश्चय करना उस जाति के सदस्यों का काम है कि वे उस जाति के अन्तर्गत उस व्यक्ति को स्वीकार करते हैं अथवा नहीं। चूँकि जाति व्यक्तियों का एक सामाजिक संगठन है जो कि उनके रीति-रिवाजों में शासित होता है, अतः वे यदि उनके रीति-रिवाजों में यह व्यवस्था हो, तो उसी प्रकार से किसी नए सदस्य को सम्मिलित कर सकते हैं जिस प्रकार वे किसी विद्यमान सदस्य का बहिष्कार कर सकते हैं। अतएव आन्ध्र प्रदेश सरकार द्वारा प्रवेश पाने के लिये जारी किए गये नियम में यह उपबन्ध कि अनुसूचित जाति का सदस्य होने के लिए जन्म से हिन्दू या सिक्ख होना चाहिए, अवैध हैं क्योंकि आदेश के खण्ड 3 के अनुसार किसी व्यक्ति को अनुसूचित जाति का सदस्य होने के लिए जन्म से हिन्दू या सिक्ख होना आवश्यक नहीं है, बल्कि सुसंगत समय पर हिन्दू या सिवख धर्म का मानने वाला होना चाहिए।         जगदीश सरन बनाम भारत संघ' के मामले में प्रत्यर्थी मद्रास विश्वविद्यालय का एक मेडिकल स्नातक था। उसके पिता का स्थानान्तरण दिल्ली हो गया। प्रत्यर्थी ने चर्म-चिकित्सा में स्नातकोत्तर डिग्री के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए आवेदन किया। प्रवेश परीक्षा में प्रत्यर्थी को प्रवेश के लिए पर्याप्त अंक मिले किन्तु फिर भी उसे इसलिए प्रवेश नहीं मिला क्योंकि एक नियम के अधीन 60% प्रतिशत स्थान दिल्ली के स्नातकों के लिए आरक्षित कर दिये गये थे। 35% प्रतिशत स्थान सामान्य प्रत्यर्थियों के लिए, जिसमें दिल्ली भी शामिल था, प्रत्यर्थी ने उक्त नियम की विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती दी कि इससे अनु० 14 और 15 का अतिक्रमण होता था। रेस्पान्डेण्ट की ओर से उक्त नियम को दो आधारों पर उचित बताया गया। प्रथम यह कि अन्य विश्वविद्यालय भी ऐसी नीति का अनुसरण करते हैं और दूसरे यह कि छात्रों के आन्दोलन के कारण ऐसा करना पड़ा। न्यायालय ने सर्वसम्मति से यह निर्णय दिया कि किसी विशेष विश्वविद्यालय में उसी के छात्रों के लिए प्रवेश के लिए स्थानों का आरक्षण अनु० 15 का अतिक्रमण करता है। संस्थागत आरक्षण शिक्षात्मक एवं सामाजिक तथ्यों पर आधारित होना चाहिये। राजनैतिक उद्देश्य के आधार पर नहीं। दिल्ली शिक्षात्मक या आर्थिक दृष्टि से देश के अन्य भाग की अपेक्षा पिछड़ा क्षेत्र नहीं है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण योग्यता के आधार पर होना चाहिये। दिल्ली विश्वविद्यालय में चिकित्सा विज्ञान में स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए आरक्षण छात्रों के आन्दोलन के आधार पर नहीं किया जा सकता है। अतः 60% प्रतिशत का आरक्षण अत्यधिक होने के कारण असंवैधानिक है। न्यायालय ने कहा कि संस्थागत आरक्षण किया जा सकता है यदि किसी क्षेत्र विशेष में विशिष्ट परिस्थितियाँ विद्यमान हैं जैसे असन्तुलन दूर करना या पिछड़ापन आदि।         आरती बनाम जम्मू एण्ड काश्मीर' 1981 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के आधार पर सरकार के मेडिकल कालेजों में एम० बी० बी० एस० पाठ्यक्रम में प्रवेश के आरक्षण को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया कि वर्गीकरण अस्पष्ट और मनमाना है क्योंकि उन क्षेत्रों का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है जिनमें असन्तुलन है अतः वह अनु० 15 (4) का अतिक्रमण करता है। राज्य सरकार ने कुल 50 स्थानों में से 25% स्थान राज्य के विभिन्न भागों में व्याप्त क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के लिए आरक्षित कर दिया था। एक अधिसूचना जारी करके क्षेत्रीय असन्तुलन के सिद्धान्त को लागू करने के उद्देश्य से कुछ गाँवों का विवरण दिया गया था जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े थे। न्यायालय ने निर्णय दिया कि इन गांवों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े मानने के लिए कोई ठोस आधार नहीं था अतः इन गाँवों और अन्य गाँवों के बीच किया गया वर्गीकरण विभेदकारी और असंवैधानिक था।

समता का अधिकार | अनुच्छेद 14 | विधि के समक्ष समता अथवा विधियों के समान संरक्षण के अधिकार का वर्गीकरण के आधार | Classification of Right to Equality

समता का अधिकार | अनुच्छेद 14 | विधि के समक्ष समता अथवा विधियों के समान संरक्षण के अधिकार का वर्गीकरण के आधार | Classification of Right to Equality




        जैसा कि विदित है, किसी अधिनियम की संविधानिकता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके द्वारा किये गये वर्गीकरण का कोई समुचित आधार है या नहीं। यह वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया जा सकता है, जैसे-समय तथा स्थान में अन्तर, मनुष्य की प्रकृति में अन्तर, भौगोलिक कारण, मनुष्य के पेशा कार्य आदि के आधार पर आदि । उदाहरण के लिए कुछ मुख्य आधारों का विवरण दिया जा रहा है-

1-भौगोलिक दशाओं पर आधारित वर्गीकरण:

        अनुच्छेद 14 में प्रयुक्त "भारत क्षेत्र के अन्दर" वाक्यांश का यह तात्पर्य नहीं है कि सम्पूर्ण  देश के लिए एक ही कानून हो। भिन्न-भिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न कानून लागू किये जा सकते हैं। एक ही प्रान्त कई भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है, और उसकी विशेष परिस्थितियों के आधार पर भिन्न-भिन्न कानून लागू किये जा सकते हैं। ऐसे वर्गीकरण पर यह कहकर आपत्ति नहीं उठाई जा सकती कि एक कानून प्रान्त के एक भाग में तो लागू होता है, लेकिन उसके दूसरे भाग में लागू नहीं होता। विभिन्न भागों की भौगोलिक स्थिति भिन्न होने के कारण यह आवश्यक होता है कि उनके लिए अलग-अलग कानून हों। उदाहरण के लिए निम्नलिखित मामले दिये जा रहे हैं-
        कृष्ण सिंह बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान' के मामले में मारवाड़ लैण्ड रेवेन्यू ऐक्ट, 1949 की सांविधानिकता पर इस आधार पर आपत्ति की गई थी कि यह राज्य के केवल मारवाड़ क्षेत्र में लागू होता है, पूरे राज्य में नहीं लागू होता है, अतः यह विभेदकारी है। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि उक्त अधिनियम अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण नहीं करता है और वैध है। न्यायालय ने कहा कि मारवाड़ क्षेत्र में एक विशेष स्थिति का सामना करने के लिए विशेष कानून को लागू करना आवश्यक था। इसी प्रकार यदि विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में उनकी विशेष परिस्थितियों के अनु- सार चुनाव कराने के लिए भिन्न-भिन्न तिथियाँ निर्धारित की जाती हैं तो यह वर्गीकरण विभेदकारी भाव नहीं माना जायेगा
        रामचन्द्र बनाम स्टेट ऑफ उड़ीसा के मामले में उड़ीसा विधानसभा ने सड़क यातायत का राष्ट्रीयकरण करने के लिए दो अधिनियम पारित किये। एक अधिनियम राज्य के एक भाग में लागू होता था और दूसरा राज्य के दूसरे भाग में लागू होता था, क्योंकि दोनों भागों की परिस्थितियों में काफी अन्तर था। उच्चतम न्यायालय ने इस वर्गीकरण को युक्तियुक्त अभिनिर्धारित किया।
        गोपीचन्द्र बनाम दिल्ली प्रशासन के मामले में ईस्ट पंजाब पब्लिक सेफ्टी अधिनियम, 1949 के अन्तर्गत राज्य के कुछ क्षेत्रों को अशान्त क्षेत्र घोषित कर दिया गया था और उन क्षेत्रों के अपराध करने वाले अभियुक्तों के परीक्षण (trial) के लिए एक सरल, संक्षिप्त और शीघ्रतर परीक्षण की प्रक्रिया की व्यवस्था विहित की गई थी, जो सामान्य प्रक्रिया से भिन्न थी। उच्चतम न्यायालय ने इस वर्गीकरण को युक्तियुक्त अभिनिर्धारित किया, क्योंकि इसमें वर्गीकरण एक विवेकपूर्ण और बोधगम्य अन्तरक पर आधारित था।
        पी० राजेन्द्र बनाम मद्रास राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने उस कानून को अवैध घोषित कर दिया जिसके अनुसार राज्य की जनसंख्या को जिले में विभाजित कर दिया गया था और प्रत्येक जिले की जनसंख्या के प्रतिशत के आधार पर राज्य के मेडिकल कालेजों में छात्रों के दाखिल करने का एक निश्चित कोटा निर्धारित किया गया था, क्योंकि वर्गीकरण का प्रश्नगत अधिनियम के उद्देश्य से कोई विवेकपूर्ण सम्बन्ध नहीं था। इस अधिनियम का उद्देश्य योग्यतम व्यक्तियों को मेडिकल कालेजों में भर्ती करने के लिए चुनना था, किन्तु जिले के अनुसार सीटों को निर्धारित करने के कारण इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकी, क्योंकि इस नियम के कारण किसी जिले की अच्छी योग्यता वाले छात्रों के दाखिले को अस्वीकार किया जा सकता था, जब कि दूसरे जिलों के कम योग्यता वाले अभ्यर्थियों को भर्ती किया जा सकता था। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यह वर्गीकरण प्रत्यक्षतः विभेदकारी है, अतः अमान्य है।

2- राज्य के पक्ष में विभेद:

        राज्य स्वयं एक वर्ग है और साधारण नागरिकों से भिन्न है। अतएव यदि कोई अधिनियम राज्य के साथ भिन्न व्यवहार करता है जो नागरिकों के साथ नहीं करता, तो वह विभेदकारी नहीं माना जायेगा।
        सोमदत्त बनाम पंजाब राज्य' के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह स्वीकार किया है कि राज्य को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए भूमि प्राप्त करने, विशेष उद्योगों का चुनाव करने और भूमि का अधिग्रहण कर उसे सार्वजनिक प्रयोजन में घोषित करने और विभिन्न प्रकार की सार्वजनिक उपयोगिताओं में प्राथमिकता निर्धारित करने के लिए सदैव अधिकार प्राप्त है, लेकिन ऐसा करते समय उसे राज्य की आवश्यकताओं, वर्तमान सुविधाओं तथा दूसरे तर्कसंगत तत्वों पर ध्यान रखना चाहिए। इसलिए इनमें कोई विभेद का प्रश्न नहीं उठेगा कि राज्य सरकार ने किसी निजी उद्योग संस्थान को सार्वजनिक संस्थान घोषित कर दिया है।
        इस आधार पर “सगीर अहमद बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश" के मामले में उच्चतम न्यायालय ने राज्य के पक्ष में एक विशेष व्यापार में सृजित एकाधिकार को वैध घोषित किया है। “बाबूराम बनाम बाम्बे हाउसिंग बोर्ड" के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया था कि राज्य ऐसी विधि बना सकता है जो प्राइवेट फैक्टरियों को तो लागू होती है, किन्तु सरकार या किसी स्थानीय प्राधिकारी के द्वारा चलाई जाने वाली फैक्टरियों को लागू नहीं होती। ऐसी विधियां विभेदकारी नहीं होंगी। इसी प्रकार, सरकार यदि एक बैङ्कर के रूप में कार्य करती है तो उसे अपने बकाया रुपयों की वसूली के लिए विशेष सुविधाएं दी जा सकती हैं जो दूसरे बैङ्करों को नहीं दी जा सकती हैं, क्योंकि राज्य का बकाया धन राज्य की समस्त जनता की सम्पत्ति है। इसी आधार पर वह विधि जो राज्य सरकार को निजी व्यक्तियों की अपेक्षा अपने दावों को प्रवर्तित कराने के लिए अधिकतम परिसीमावधि का उपबन्ध करती है, भी वैध होगी।

3- अनुच्छेद 14 तथा कर-विधान [ Taxing Laws ]:

        राज्य को उन व्यक्तियों और वस्तुओं के चुनाव करने में जिन पर वह कर लगायेगी, व्यापक शक्ति प्राप्त है और किसी अधिनियम पर केवल इस प्रकार पर आपत्ति नहीं की जा सकती कि वह कुछ व्यक्तियों और विषयों पर कर लगाता है और दूसरों पर नहीं। कर लगाने के प्रयोजन के लिए राज्य व्यक्तियों और वस्तुओं का समुचित वर्गीकरण कर सकता है। विधानमण्डल को न केवल कराधान की वस्तुओं में और कराधान की रीति में चयन करने की काफी गुंजाइश और मूल्यांकन करने की काफी स्वतन्त्रता बल्कि लागू होने वाली दर या दरों के अवधारण के लिये भी काफी गुंजाइश और स्वतन्त्रता है। ऐसी विधियों की वैधता को केवल तभी चुनौती दी जा सकती है जब कि चुनाव के क्षेत्र में वह कानून असमान रूप से व्यवहार करता है और वह किसी मान्य वर्गीकरण के आधार पर न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है और अनुच्छेद 14 में विहित समता के अधिकार का अतिलंघन करता है।
        ईस्ट इंडिया टोबॅको कम्पनी बनाम आन्ध्र प्रदेश के मामले में विदेशों से आयात की जाने वाली वर्जिनिया तम्बाकू पर बिक्री कर लगाया गया था; लेकिन देश में बनी तम्बाकू को इस कर से मुक्त रखा गया था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि विदेशी तम्बाकू पर लगाया गया कर वैध है। वेस्टर्न इंडिया थियेटर्स बनाम कैन्टोनमेंट बोर्ड के मामले में ऐसे सिनेमा गृहों पर जो बहुत बड़े तथा धनी आबादी वाले मुहल्ले में स्थित थे तथा जहाँ शौकीन मिजाज के धनी लोग रहते थे, जो सिनेमा के अधिक शौकीन होते हैं, उन सिनेमा-गृहों की अपेक्षा अधिक कर लगाया गया था जो छोटे थे जिनमें कम सीटें थीं और ऐसे मुहल्ले में स्थित थे जहाँ के निवासी गरीब थे और कम सिनेमा देखते थे। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कर वैध है, क्योंकि पहले किस्म के सिनेमा-गृहों को अधिक आमदनी होती थी, अतः उन्हें अधिक कर देना चाहिये।
        ट्वाईफ़ोर्ड टी कम्पनी लिमिटेड बनाम केरल राज्य के मामले में केरल प्लान्टेशन एडीशनल टैक्स ऐक्ट, 1960 (1967 के संशोधन अधिनियम द्वारा संशोधित) के अधीन केरल सरकार ने 1- नारियल, 2- सुपारी, 3- रबर, 4- काफी, 5- चाय, 6- इलायची और 7- मिर्च, इन सात प्रकार के पौधों की खेती पर एक दर से 50 रुपये कर लगाया । पिटिशनर ने अधिनियम की वैधता को इस आधार पर चुनौती दी कि वह अयुक्तियुक्त वर्गीकरण करता है तथा असमानों के साथ समान व्यवहार करता है और सभी प्रकार के पौधों पर उनकी पैदावर पर बिना ध्यान दिये हुए, एक-समान कर लगाता है जो अनु० 14 का अतिलंघन करता है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम अनु० 14 का अतिक्रमण नहीं करता है। न्यायालय ने कहा कि यद्यपि अधिनियम 7 प्रकार के पौधों पर एक-समान कर लगाता है, किन्तु वह ऐसे नियम भी विहित करता है जिससे समान व्यवहार सुनिश्चित है। नारियल, सुपारी, रबर, काफी और मिर्च के पौधे गिन लिये जाते हैं और हेक्टेयर निर्धारित करने के लिए पौधों की कुल संख्या को ए निश्चित संख्या से विभाजित कर दिया जाता है। चाय और इलायची के मामले में फसल पैदा किये जाने वाले क्षेत्र को ही कर लगाने की माप (Measure) के रूप में ले लिया जाता है। ऐसा विभिन्न पौधों को कर लगाने के लिए समान करने के उद्देश्य से किया गया है, दो प्रकार के पौधों की पैदावार में विभिन्नता की स्थिति वर्षा आदि के कारण भी होती है, किन्तु इसके अलावा इसके अन्य कारण भी हो सकते हैं, अतः अधिनियम विभेदकारी नहीं है।
        जयपुर होजरी मिल्स बनाम राजस्थान राज्य के मामले में सेल्स टेक्स अधिनियम के अधीन जारी की गयी राजकीय अधिसूचना की वैधता को चुनौती दी गयी थी, जिसके द्वारा चार रुपये से कम दाम वाले साधारण वस्त्रों को विक्रय कर से छूट प्रदान की गयी थी, किन्तु सुई से बुने वस्त्रों को विक्रय-कर से छूट नहीं दी गयी थी। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि वर्गीकरण युक्तियुक्त है, क्योंकि दोनों प्रकार के वस्त्रों में भेद है। इस बात का निर्धारण न्यायालय का कार्य नहीं है कि होजरी के वस्त्रों को दूसरे वस्त्रों की भाँति कर से विमुक्ति क्यों नहीं दी गयी है। यह विधायिका का कार्यक्षेत्र है।
        आर० के० गर्ग बनाम भारत संघ' (स्पेशल बिययर बाण्ड केस) के मामले में स्पेशल बियरर बाण्ड्स (इम्यूनिटीज एण्ड इक्जेम्सन्स) आर्डिनेन्स, 1981 और वाद में अधिनियम विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि अधिनियम के द्वारा किया गया वर्गीकरण अयुक्तियुक्त और बिना तर्कसंगत आधार पर किया गया है, अतः वह अनु० 14 का अतिक्रमण करता है। अधिनियम की धारा 3 के अधीन उन व्यक्तियों को कुछ विमुक्तियाँ प्रदान की गई हैं, जो स्पेशल बियरर बाण्ड क्रय करने में अपना धन लगाते हैं। स्पेशल बियरर बाण्ड में धन लगाने वाले व्यक्तियों को धन के स्रोत को प्रकट करने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा और न ही ऐसे व्यक्तियों के विरुद्ध कोई जाँच की जा सकेगी। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि काला धन रखने वाले और काला धन न रखने वाले व्यक्तियों के बीच किया गया वर्गीकरण युक्तियुक्त और बोधगम्य अन्तरक पर आधारित है अतः वह संवैधानिक है। अधिनियम के उद्देश्य और अन्तरक में तर्कसंगत सम्बन्ध है। अधिनियम का उद्देश्य काला धन को निकालना है ताकि उसका प्रयोग उत्पादन के प्रयोजनों में किया जा सके और देश की सामाजिक-आर्थिक योजनाओं को अधिक प्रभावी बनाया जा सके। सरकार द्वारा किये गये समस्त प्रयासों के बावजूद काला धन का निकालना सम्भव नहीं हो सका था, अतएव यह तरीका अपनाना पड़ा। किन्तु न्यायाधिपति ए० सी० गुप्त ने विसम्मत (dissent) व्यक्त करते यह निर्णय दिया कि ईमानदार करदाता और कर अपवंचनकर्ताओं अर्थात् बाण्ड धारकों के बीच किया गया वर्गीकरण अयुक्तियुक्त है और अधिनियम के उद्देश्य से उसका तर्कसंगत सम्बन्ध नहीं है, अतः अधिनियम अनु० 14 का अतिक्रमण करता है और असंवैधानिक है।
        “विवियन जोसेफ फेरोरा बनाम नगरपालिका निगम बृहत्तर मुम्बई " के मामले में बाम्बे बिल्डिंग रिपेयर्स ऐण्ड रीकंस्ट्रक्शन बोर्ड ऐक्ट, 1969 की संवैधानिक विधिमान्यता को चुनौती दी गयी थी। अधिनियम का उद्देश्य मुम्बई शहर में वास - सुविधा में वृद्धि करना और पुरानी इमारतों से उत्पन्न होने वाले जीवन-संकट को दूर करना था। मुम्बई शहर की बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण वास-सुविधा की अत्यन्त कठिनाई उत्पन्न हो गयी है। पुरानी इमारतें जो किराये पर उठाई गई थीं और जीर्ण-शीर्ण हो गई थीं, उनकी उनके मालिक या तो मरम्मत कराते नहीं थे या फिर अपूर्ण मरम्मत कराते थे। ऐसी इमारतें अचानक गिर जाती थीं और दुर्घटनाओं का कारण बन जाती थीं। दुर्घटनाओं से बचने के लिए एवं अच्छी वास-सुविधा उपलब्ध करने की दृष्टि से मुम्बई विधानमण्डल ने उक्त अधिनियम पारित किया। पुरानी इमारतों को गिराने या उनकी मरम्मत कराने में होने वाले व्यय को पूरा करने के लिए अधिनियम की धारा 27 के अधीन निवास-गृहों पर एक उपकर लगाया गया। उपकर की दृष्टि से इमारतों को उनकी आयु एवं बनावट के आधार पर तीन वर्गों में बाँटा गया था। पुरानी इमारतों पर उपकर की मात्रा नई इमारतों की तुलना में अधिक थी। एक वर्ग में आने वाली सभी इमारतों पर, चाहे वे नई हों या पुरानी, उपकर की मात्रा समान दर से लगाई गई थी। लगाये गए उपकर की मात्रा इस बात पर आधारित नहीं थी कि इमारत में मरम्मत की जरूरत है या नहीं। अपीलार्थी ने यह दलील दी कि अधिनियम संविधान के अनु० 14 एवं 19 (1) (च) का अतिक्रमण करता है, अतः वह असंवैधानिक है।
         उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम द्वारा भवनों का वर्गीकरण युक्तियुक्त आधारों पर किया गया है और वह अधिनियम के उद्देश्यों से युक्तियुक्त सम्बद्ध है, अतः यह अनु० 14 का अतिक्रमण नहीं करता है। निवास गृह एवं अन्य गृहों के बीच अन्तर करके निवास-गृहों पर कर अधिरोपित करना विभेदकारी नहीं है। जीवन संकट निवास गृहों के गिरने से अधिक उत्पन्न होता था। यद्यपि निवास गृहों से भिन्न इमारतों से भी ऐसा संकट उत्पन्न हो सकता था। तथापि उसकी गम्भीरता इतनी नहीं थी। अतः पूर्विकता के आधार पर कर लगाना अविधिमान्य या विभेदकारी नहीं है। यदि विधानमण्डल किसी एक पक्ष पर कर लगाना चाहे तो उसके लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह अन्य सभी पक्षों पर भी कर लगाये। न्यायालय ने अपीलार्थी के इस तर्क को भी अस्वीकार कर दिया कि अधिनियम के अधीन मरम्मत कार्य से पुराने मकानों या उपेक्षित इमारतों के स्वामियों को लाभ पहुँचाने के लिये नई इमारतों के या सतर्क एवं कर्त्तव्यरत स्वामियों से कर वसूल किया जाता है। वस्तुतः ऐसा नहीं है। आर्थिक समायोजनों की अन्तर्निहित जटिलताओं को सुलझाने की दृष्टि से यह आवश्यक हो गया है कि विधानमण्डलों को वर्गीकरण सम्बन्धी बातों में अधिक से अधिक स्वविवेक प्रदान किया जाय, अर्थात् वर्गीकरण ऐसे बोधगम्य अन्तर पर आधारित हो जिसका अधिनियम के उद्देश्य से युक्तियुक्त सम्बन्ध हो। ऐसा हो सकता है कि वर्गीकरण के कारण किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में किसी विशिष्ट पक्ष को लाभ हो जाए, किन्तु ऐसा विधान विभेदकारी तभी माना जायेगा जबकि यह साबित कर दिया जाये कि वर्गीकरण का उद्देश्य उस व्यक्ति या वर्ग विशेष को लाभ पहुँचाना मात्र था। वस्तुतः मामले में यह हो सकता है कि नये मकानों के स्वामियों को बिना किसी प्रतिफल के उपकर देना पड़े और पुराने जीर्ण-शीर्ण मकानों के स्वामियों को अपनी ही उपेक्षा के कारण उक्त उपकर की रकम का लाभ प्राप्त हो; किन्तु इस कारण विधान पुराने मकानों के स्वामियों को लाभ पहुँचाने वाला नहीं माना जा सकता है। लोकप्रयोजन की कसौटी यह है कि लाभ किसे प्राप्त होता है, उसकी कसौटी यह है कि किन प्रयोजनों में वह खर्च किया जाता है और उसकी प्रकृति क्या है. धारा 27 के अधीन किया गया वर्गीकरण और उद्देश्य सभी निवास गृहों की मरम्मत करना नहीं हैइसका उद्देश्य इमारतों की मरम्मत करके उन्हें अधिक स्थायित्व प्रदान करना है जिससे वास सुविधा में वृद्धि हो और जन-जीवन आकालिक संकटों से सुरक्षित हो। इन कार्यों के सम्पादन हेतु धन की आवश्यकता स्वाभाविक थी। इसी पूर्ति के लिये ही उपकर लगाया गया है, अतः वह युक्तियुक्त एवं जनोपयोगी है।
         जी० के० कृष्णन बनाम तमिलनाडु राज्य, के मामले में तमिलनाडु सरकार ने एक आदेश जारी करके मद्रास मोटर ह्रीकिल्स टॅक्सेशन ऐक्ट, 1930 के अधीन संविदा पर चलाये जाने वाले वाहनों पर तिमाही 30 रुपये प्रति सीट से बढ़ाकर 100 रुपये प्रति सीट कर दिया। पेटिशनरों ने इस आदेश को इस आधार पर चुनौती दी कि संविदा पर चलाये जाने वाले वाहनों तथा राजकीय वाहनों में कर-अधिरोपण के सम्बन्ध में किया गया वर्गीकरण विभेदकारी है और अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण करता है। यह तर्क दिया गया कि संविदा पर चलाये जाने वाले वाहनों पर राजकीय वाहनों की तुलना में अधिक कर लगाए जाने का कोई समुचित कारण नहीं है, क्योंकि दोनों प्रयोग की दृष्टि से समान परिस्थिति में हैं।
        उच्चतम न्यायालय ने पेटीशनर के तर्क को अस्वीकार करते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि संविदा पर चलाये जाने वाले वाहनों पर लगाया गया कर वैध है और इससे अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण नहीं होता है। संविदा पर चलाये जाने वाले वाहनों और राजकीय वाहनों में किया गया वर्गीकरण युक्तियुक्त है। दोनों प्रकार के वाहनों में वर्गीकरण स्थानीय परिस्थितियों (Local conditions) पर आधारित है जिसके सम्बन्ध में पूरी जानकारी केवल विधानमण्डल को ही हो सकती है, न्यायालय को नहीं। संविदा पर चलाये जाने वाले वाहन अधिक माल और यात्री ढोते हैं, अधिक दूरी तय करते हैं, किसी भी समय वाहनों को चलाते हैं और इस प्रकार राजकीय वाहनों की तुलना में जो निश्चित यात्रियों की संख्या, मार्गों और निश्चित समयों पर चलाये जाते हैं, सड़क का अधिक प्रयोग करते हैं। अतः उन्हें अधिक कर देना चाहिये। वर्गीकरण और अधिनियम के उद्देश्य में वास्तविक सम्बन्ध है। अधिनियम का उद्देश्य संविदा पर चलाये जाने वाले वाहनों तथा राजकीय वाहनों के बीच हानिकारक प्रतिद्वन्द्विता को समाप्त करना है ताकि राजकीय वाहनों को हानि न पहुँचे और सड़कों की मरम्मत एवं निर्माण के लिये आवश्यक धन एकत्र किया जा सके। वर्गीकरण अयुक्तियुक्त है, इस बात को सिद्ध करने का भार उस व्यक्ति पर होता है जो उसे चुनौती देता है। इस बात की सदैव उपधारणा (Presumption) की जाती है कि वर्गीकरण वैध होगा, विशेषकर कर लगाने वाले अधिनियम में। वाणिज्यिक विनियमन के सन्दर्भ में अनुच्छेद 14 का अतिलंघन केवल तभी होगा जब वर्गीकरण ऐसे आधारों पर आधारित है जो अधिनियम के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये बिल्कुल असम्बद्ध हैं।
         इन्कम टॅक्स आफिसर, शिलांग बनाम एन० टी० आर० रेमबाय' के मामले में प्रत्यर्थी एक आदिवासी जाति का सदस्य है और मेघालय के खासी जयन्तिया पहाड़ी जिले का निवासी है। वह सन् 1970-71 में आसाम राज्य के सचिव के रूप में शिलांग में पदासीन था। आसाम सचिवालय शिलांग नगरपालिका के क्षेत्र में शामिल है और यह उस क्षेत्र में नहीं आता है जो संविधान में छठा अनुसूचित जाति क्षेत्र घोषित किया गया है। आयकर अधिकारियों ने यह दलील दी कि उसकी उक्त वर्ष की वेतन के रूप में हुई आय अनुसूचित जाति के क्षेत्र से नहीं हुई है, अतः उसे आयकर अधिनियम की धारा 10 में विमुक्ति नहीं प्राप्त है। इस धारा के अधीन उक्त वर्गों की उसी आय को आयकर से छूट प्राप्त है जो आदिवासी क्षेत्र से प्राप्त होती हो। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि आयकर के प्रयोजन के लिये आयकर अधिनियम की धारा 10 में किया गया वर्गीकरण बोधगम्य अन्तरक पर आधारित है और वह अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण नहीं करता है। आदिवासी जाति के सदस्यों की केवल उसी आय को आयकर से छूट प्राप्त है जिसे वे उस क्षेत्र में किसी स्रोत से प्राप्त करते हैं। यदि उस क्षेत्र से बाहर किसी स्रोत से कोई आय प्राप्त होती है तो उस पर कर लगाया जा सकता है। ऐसे वर्ग के लोग जो अपने क्षेत्र से निकल कर देश के सामान्य नागरिकों के साथ सफलतापूर्वक प्रतिद्वन्द्विता कर सरकारी सेवा में या व्यापार के क्षेत्र में अच्छी आय प्राप्त करते हैं, वे समाज के 'कमजोर वर्ग' नहीं रह जाते हैं। धारा 10 के अधीन आयकर ह से विमुक्ति प्राप्त करने के लिये तीन आवश्यक शर्तें हैं - (1) वह संविधान के अनु० 366 (25) के अन्तर्गत पारिभाषित आदिवासी वर्ग का सदस्य हो; (2) वह संविधान की छठी अनुसूची में उल्लिखित क्षेत्र में का निवासी हो; (3) आय, जिसके सम्बन्ध में विमुक्ति का दावा किया जाए, वह उसे उसी क्षेत्र में मौजूद किसी स्रोत से प्राप्त होती हो । चूंकि प्रत्यर्थी की प्रश्नास्पद वर्ष में हुई आय इस क्षेत्र से बाहर के स्रोत से प्राप्त होती है, अतः वह आयकर से विमुक्ति का हकदार नहीं है।

4- विशेष न्यायालय और विशेष प्रक्रिया:

        अनुच्छेद 246 के और समवर्ती सूची की प्रविष्टि 11- क के अधीन संसद् को विधि बनाकर विशिष्ट न्यायालयों की स्थापना करने की शक्ति प्राप्त है तथा संसद् ऐसे न्यायालयों में कुछ निश्चित अपराधों या 'अपराधों के वर्गों' के परीक्षण के लिये विशिष्ट प्रक्रिया भी विहित कर सकती है। ऐसे कानूनों से अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण नहीं होगा, यदि ऐसी विधि विशिष्ट न्यायालयों के परीक्षण के लिए "अपराधों के वर्गों' या 'मामलों के वर्गों' के वर्गीकरण के समुचित मार्गदर्शन के लिये नियम विहित करती है। ऐसी विधि द्वारा विहित प्रक्रिया साधारण विधि के अधीन विहित प्रक्रिया से साधारण रूप से भिन्न नहीं होनी चाहिये।
        स्टेट आफ बंगाल बनाम अनवर अली का मामला इस विषय पर प्रथम प्रमुख मामला है। इस मामले में वेस्ट बंगाल स्पेशल कोर्ट ऐक्ट 1950 की धारा 5 (1) की वैधता को चुनौती दी गयी थी। उक्त अधिनियम की धारा 5 (1) राज्य सरकार को यह शक्ति प्रदान करती है कि वह कुछ प्रकार के अपराधों, जिनका उल्लेख अधिनियम की प्रस्तावना में किया गया था, के शीघ्रतर परीक्षण के लिये, जैसा कि वह उचित समझे, विशेष न्यायालयों की स्थापना कर सकती है। अधिनियम में ऐसे मामलों में न्यायालय द्वारा अनुसरण करने के लिए विशेष प्रक्रिया भी निर्धारित की गयी थी। राज्य सरकार ने अनवर अली और अन्य के मामले में 49 अभियुक्तों के मामलों को परीक्षण के लिए ऐसे ही एक न्यायालय को सौंप दिया जिसने उन्हें जुर्म का दोषी ठहराया और कारावास का दण्ड दिया। अभियुक्तों ने धारा 5 (1) की वैधता पर आपत्ति उठायी और कहा कि वह असंवैधानिक एवं शून्य है, क्योंकि वह उन्हें विधि के समक्ष समता के अधिकार से वंचित करती है। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि उक्त धारा अनु० 14 का अतिक्रमण करती है और इसलिये शून्य है। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम ने कोई ऐसा आधार नहीं निर्धारित किया है कि जिस पर वर्गीकरण किया जा सके और न तो यही स्पष्ट किया है कि सरकार किस तरह के मामलों को परीक्षण के लिये लिये विशेष न्यायालयों को निर्दिष्ट कर सकती है। विशेष न्यायालयों द्वारा परीक्षण के लिये जो प्रक्रिया विहित की गयी थी, वह दण्ड प्रक्रिया संहिता में विहित प्रक्रिया से सारतः सिद्ध थी। अधिनियम की प्रस्तावना में यह कहा गया था, अधिनियम  "कुछ अपराधों के शीघ्रतर परीक्षण" के उद्देश्य से बनाया गया था। न्यायालय के अनुसार यह उद्देश्य इतना स्पष्ट और अनिश्चित है कि यह युक्तियुक्त वर्गीकरण का आधार नहीं हो सकता है। अनु० 14 प्रक्रिया विधि द्वारा किये जाने वाले विभेद को भी निषिद्ध करता है, इसलिए यह आवश्यक है कि समान परिस्थिति वाले सभी व्यक्तियों को समान प्रक्रिया का संरक्षण प्रदान किया जाए।
        काठी रेनिंग बनाम स्टेट आफ सौराष्ट्र " के मामले में सौराष्ट्र स्टेट पब्लिक सेफ्टी ऑर्डिनेन्स की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। यह अध्यादेश राज्य सरकार को कुछ निश्चित वर्ग के अपराधों के संक्षिप्त और सरल प्रक्रिया के अनुसार परीक्षण (trial) के लिये आपराधिक क्षेत्राधिकार के विशेष न्यायालयों की स्थापना करने की शक्ति प्रदान करता था। अध्यादेश के जारी करने का उद्देश्य राज्य में "लोक-सुरक्षा एवं लोक-व्यवस्था को कायम रखना और शान्ति को बनाये रखना था।" राज्य सरकार ने अध्यादेश के अन्तर्गत प्राप्त अपनी शक्ति के प्रयोग में एक अधिसूचना द्वारा ऐसे न्यायालयों की स्थापना की और उन्हें उपर्युक्त निश्चित वर्ग के अपराधों के परीक्षण की शक्ति प्रदान की। अपीलार्थी का मामला, जिसके ऊपर भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं 302, 307 और 392 के अन्तर्गत वर्णित अपराधों के करने का आरोप लगाया गया था, ऐसे विशेष न्यायालय द्वारा परीक्षण करने के लिये सौंपा गया। अपीलार्थी ने यह दलील दी कि अध्यादेश विभेदकारी है क्योंकि यह कार्यपालिका को असीमित विवेकाधिकार की शक्ति प्रदान करता है कि वे किसी भी मामले या निश्चित वर्ग के अपराधों को विशेष न्यायालय को एक विशेष प्रक्रिया द्वारा परीक्षण करने के लिये सौंप सकते हैं जो सामान्य प्रक्रिया की तुलना में कम हितकारी हैं।
         उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अध्यादेश अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण नहीं करता है और विधिमान्य है। न्यायालय ने कहा कि अध्यादेश में उन उद्देश्यों का स्पष्ट उल्लेख है जिनके आधार पर युक्तियुक्त वर्गीकरण किया गया है और राज्य सरकार ऐसे न्यायालयों के परीक्षण हेतु केवल उन्हीं अपराधों या मामलों का चुनाव कर सकती है जो "लोक सुरक्षा, लोक- व्यवस्था तथा राज्य में शान्ति व्यवस्था को प्रभावित करते हैं।" अध्यादेश केवल उपर्युक्त प्रकार के मामलों के परीक्षण के लिये विशेष प्रक्रिया की व्यवस्था करता है। अपीलार्थी के इस तर्क को कि अध्यादेश कार्यपालिका को अनियन्त्रित शक्ति प्रदान करता है, अस्वीकार करते हुए न्यायालय ने यह बात व्यक्त किया कि यदि अधिनियम में विधायी नीति निश्चित और सुस्पष्ट है और उस नीति के संचालन को प्रभावी बनाने के लिए प्रशासकों या कार्यपालिका अधिकारियों को विवेकाधिकार की शक्ति प्रदान की जाती है जिससे वे उस विधि को व्यक्तियों के किसी निश्चित वर्ग या समूह पर लागू कर सकें तो उस अधिनियम को विभेदकारी नहीं कहा जा सकता है। ऐसे मामलों में कार्यपालिका-अधिकारियों से अपेक्षा की जाती है कि वे विधान की विषय-वस्तु का वर्गीकरण अधिनियम में निर्दिष्ट उद्देश्यों के अनुसार ही करेंगे। ऐसी परिस्थिति में अधिकारियों को दी हुई विवेकाधिकार की शक्ति अनियन्त्रित शक्ति नहीं होती, वरन् उन्हें उनका प्रयोग विधान में विहित नीति के अनुसार ही करना होता है और उनके द्वारा किये गये वर्गीकरण के औचित्य को विधान में उल्लिखित उद्देश्य के आधार पर ही जांचा जाना चाहिये।
         अपीलार्थी ने अध्यादेश के विरोध में यह भी तर्क दिया था कि वह बंगाल अधिनियम के समान ही है जिसे न्यायालय द्वारा अनवर अली के वाद में अवैध घोषित कर दिया गया। न्यायाधिपति श्री फजल अली ने यह कहा कि यद्यपि बंगाल ऐक्ट और सौराष्ट्र अध्यादेश दोनों में एक से उपबंध हैं, किन्तु उनमें एक महत्वपूर्ण अन्तर है। पहले में अधिकारियों की विवेकाधिकार की शक्तियों के प्रयोग के लिए कोई मार्गदर्शक सिद्धान्त निर्धारित नहीं किया गया है, जबकि सौराष्ट्र अध्यादेश में उन मार्गदर्शक सिद्धान्तों का स्पष्ट उल्लेख है जिनके अनुसार उन्हें अपनी विवेकाधिकार की शक्तियों का प्रयोग करना है। देखना यह है कि क्या विभेद का कोई युक्तियुक्त आधार है या नहीं। वेस्ट बंगाल अधिनियम में विभेद करने के लिए कोई विवेकपूर्ण या तर्कपूर्ण आधार नहीं दिया गया है। अधिनियम की प्रस्तावना में यह कहा गया है कि अधिनियम कुछ अपराधों के "शीघ्रतर परीक्षण" के उद्देश्य से बनाया गया है। न्यायालय के अनुसार 'शीघ्रतर परीक्षण' पदावली इतनी अस्पष्ट और अनिश्चित है कि वह युक्तियुक्त वर्गीकरण का कोई आधार नहीं प्रस्तुत करती है कि किस प्रकार के मामलों को शीघ्रतर परीक्षण के लिए चुना जायेगा, जबकि सौराष्ट्र अध्यादेश में एक निश्चित उद्देश्य का उल्लेख है और अधिकारीक्षण केवल ऐसे मामलों को विशेष न्यायालयों द्वारा परीक्षण के लिए चुन सकते हैं जो "लोक-सुरक्षा, लोक व्यवस्था और राज्य में शांति व्यवस्था को प्रभावित करते हैं।”
        स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल बनाम अनवर अली सरकार के विनिश्चय के पश्चात् बंगाल विधान मण्डल ने वेस्ट बंगाल ट्रिब्युनल्स ऑफ क्रिमिनल जूरिस्डिक्शन ऐक्ट, 1952 पारित किया। इस ऐक्ट के अन्तर्गत राज्य सरकार को विशेष न्यायालयों को स्थापित करने की शक्ति प्रदान की गयी थी। ऐक्ट की प्रस्तावना में ऐसे न्यायालयों की स्थापना "राज्य की सुरक्षा, लोक-शांति को कायम रखना तथा व्यापार एवं उद्योग की सुरक्षा के उद्देश्य से की गई थी और इस प्रयोजन के लिए अशांत इलाकों में उपरिलिखित अपराधों के शीघ्रतर परीक्षण का भी प्रावधान था। ऐक्ट में ऐसे मामलों के परीक्षण के लिए जो प्रक्रिया विहित की गई थी, वह भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता से सारतः भिन्न थी। उच्चतम न्यायालय ने इस आधार पर मान्यता दे दी कि इसके द्वारा किया गया वर्गीकरण युक्तियुक्त वर्गीकरण है क्योंकि ऐक्ट की प्रस्तावना में विधान-नीति स्पष्ट रूप से दी हुई थी और जिस आधार पर अपराधियों का वर्गीकरण विशेष न्यायालयों के परीक्षण के लिए किया गया था, वह अधिनियम के उद्देश्य से एक तर्कसंगत सम्बन्ध रखता था। देखिये - के० हल्दर बनाम वेस्ट बंगाल स्टेट' का विनिश्चय
        इन-री स्पेशल कोर्ट बिल के महत्वपूर्ण मामले में उच्चतम न्यायालय के विचारार्थं यह प्रश्न था कि क्या स्पेशल कोर्ट बिल, 1978 संवैधानिक है। विधेयक संसद् में एक प्राइवेट सदस्य ने पेश किया था। विधेयक का उद्देश्य, जैसा कि उसकी प्रस्तावना में उल्लिखित था, उच्च पद धारण करने वाले व्यक्तियों द्वारा आपात् के दौरान किये गये अपराधों के परीक्षण के लिए सरकार को विशेष न्यायालयों की स्थापना करने के लिये शक्ति प्रदान करना था। संविधान के अधीन स्थापित संसदीय लोकतन्त्र के सुचारु रूप से कार्य करने के लिए ऐसे व्यक्तियों के अपराधों का एक निष्पक्ष न्यायालय द्वारा परीक्षण किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। विधेयक का खण्ड (2) सरकार को ऐसे न्यायालयों की स्थापना करने की शक्ति प्रदान करता है। खण्ड 10 (1) इन न्यायालयों से उच्चतम न्यायालय में अपील का उपबन्ध करता है। विधेयक की विधि- मान्यता को निम्नलिखित आधारों पर चुनौती दी गयी-
        1- संसद् को उक्त विधेयक पारित करने की शक्ति नहीं है क्योंकि संविधान के भाग 5 (संघ न्यायपालिका) में न्यायालयों के लिये पूर्ण व्यवस्था की गयी है, अतएव अन्य न्यायालयों की स्थापना नहीं की जा सकती है।
        2- विधेयक के उपबन्ध अनु० 14 और 21 का अतिक्रमण करते हैं क्योंकि इसके द्वारा किया गया वर्गीकरण ( उच्च पद धारण करने वाले व्यक्ति) अयुक्तियुक्त है। विधेयक में मामलों के वर्गों को चुनने के लिये कोई समुचित मार्गदर्शन नहीं है। विधेयक द्वारा विहित प्रक्रिया अनु० 21 का अतिक्रमण करती है क्योंकि यह न्यायपूर्ण नहीं है।
        उच्चतम न्यायालय की सात न्यायाधीशों की पीठ ने एकमत से यह अभिनिर्धारित किया कि संसद् को उपर्युक्त विधेयक पारित करने की पूर्ण शक्ति प्राप्त है। समवर्ती सूची की प्रविष्टि 11 में उच्चतम तथा उच्च न्यायालयों के अतिरिक्त अन्य न्यायालयों के संगठन और न्याय-प्रशासन का उपबन्ध है। अनु० 246 के अधीन संसद् ऐसे न्यायालयों की स्थापना कर सकती है। भाग 5 के उपबन्ध अन्य न्यायालयों की स्थापना और उच्चतम न्यायालय के क्षेत्राधिकार को बढ़ाने की संसद् की शक्ति पर कोई परिसीमा नहीं लगाते हैं। भाग 5 के उपबन्धों को संविधान के अन्य उपबन्धों के साथ सामंजस्यपूर्ण तरीके से पढ़ा जाना चाहिये ताकि दोनों को प्रभाव दिया जा सके। संसद् विधेयक के खण्ड 10 (1) के अधीन विशेष न्यायालयों से उच्चतम न्यायालय में अपील का उपबन्ध करने के लिए सक्षम है। संसद् प्रथम सूची की प्रविष्टि 77 के अधीन उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता को बढ़ा सकती है।
न्यायालय ने विधेयक की धारा 4 द्वारा किये गये वर्गीकरण को भी विधिमान्य घोषित किया। विधेयक 'अपराध के वर्ग' और 'अपराधियों के वर्गो' दोनों का सुनिश्चित वर्गीकरण करता है। अधिनियम 27 फरवरी, 1975 से 25 जून तक की अवधि में किये गये अपराधों के तथा उच्च पद धारण करने वाले लोक अधिकारियों या राजनीतिक पद धारण करने वाले व्यक्तियों द्वारा किये गये अपराधों तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा किये अपराधों में वर्गीकरण करता है। उपर्युक्त शर्तों के पूरी होने पर ही मामले विशेष न्यायालयों में परीक्षण के लिए भेजे जा सकते हैं। आपात्काल में किये गये अपराध एक विशिष्ट वर्ग के अपराध हैं। इसी प्रकार इन अपराध के करने वाले व्यक्ति भी एक विशेष वर्ग के हैं जिन्हें आपात्काल में उपर्युक्त अपराधों के करने का अवसर मिला था जो अवसर अन्य व्यक्तियों को नहीं मिल सकता था। आपात्काल ने ऐसे व्यक्तियों को अपने उच्च पदों के दुरुपयोग करने और इस प्रकार विधि-शासन को नष्ट करने तथा समाज पर विभिन्न राजनीतिक अपराधों के करने का अनोखा अवसर प्रदान किया था। इस प्रकार वर्गीकरण के आधार और विधेयक के उद्देश्य (शीघ्रतर परीक्षण) में गहरा सम्बन्ध है। विधेयक कार्यकारिणी द्वारा 'अपराध' और 'अपराधियों' के मामलों में विशेष न्यायालय द्वारा परीक्षण के लिए चयन करने के लिये समुचित मार्गदर्शक सिद्धान्त विहित करता है। विशेष न्यायालयों के परीक्षण के लिए केवल वे ही मामले सौंपे जा सकते हैं जिनके विषय में खण्ड (4) के अधीन सरकार घोषणा करती है। ऐसी घोषणा तभी की जायेगी जब ऐसे व्यक्तियों द्वारा आपात्काल में अपराध करने के विषय में प्रथम- दृष्ट्या प्रमाण मिल गया है।
        यद्यपि न्यायालय ने उपर्युक्त वर्गीकरण को विधिमान्य घोषित किया, किन्तु आपात्काल की अवधि को जून से बढ़ा कर फरवरी 1975 से करने के उपबन्ध को अविधिमान्य घोषित किया। विधेयक में आपात् घोषणा लागू करने की “तैयारी" को भी शामिल करने का उपबन्ध था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि जब वर्गीकरण वैध है तो प्रक्रिया पर आपत्ति नहीं की जा सकती कि वह सामान्य विधि के अधीन विहित प्रक्रिया से कठोर या अहितकर है।
न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यद्यपि विधेयक अनु० 14 की शर्तों को पूरी करता है, किन्तु यही पर्याप्त नहीं है; उसे संविधान के अन्य उपबन्धों की कसौटी पर भी विधिमान्य होना चाहिये। विधेयक में विहित प्रक्रिया अनु० 21 के अनुसार होनी चाहिये, अर्थात् न्यायपूर्ण होनी चाहिये। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि विधेयक में विहित प्रक्रिया निम्नलिखित तीन कारणों से अन्यायपूर्ण है-
        1- विधेयक एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय को मामलों के अन्तरण का उपबन्ध नहीं करता है।
        2- उच्च न्यायालय के निवर्तमान न्यायाधीशों की नियुक्ति का उपबन्ध करता है।

        3- विधेयक भारत के मुख्य न्यायाधिपति के “परामर्श" से नियुक्ति का उपबन्ध करता है।

        न्यायालय ने निर्णय दिया कि यदि उपर्युक्त प्रक्रिया-सम्बन्धी दोषों को विधेयक से निकाल दिया जाये तो विधेयक संवैधानिक हो जायगा।
         प्रथम, केवल कार्यरत उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति विशेष न्यायालय में की जायेगी,
     द्वितीय, ऐसी नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधिपति की “सहमति” (concurrence) से न कि "परामर्श" (consultation) से की जायेगी,
      तृतीय, अभियुक्त को अपने मामले को एक विशेष न्यायालय से दूसरे विशेष न्यायालय में हस्तान्तरण का अधिकार होना चाहिये।
        उपर्युक्त तीनों प्रक्रिया-सम्बन्धी संशोधनों के समाविष्ट कर लेने पर विधेयक द्वारा विहित प्रक्रिया न्यायपूर्ण, उचित तथा सम्यक् ( fair and just ) हो जायेगी और अनु० 21 का अतिक्रमण नहीं होगा। चूँकि केन्द्र सरकार उपर्युक्त तीनों संशोधनों को करने के लिए सहमत है, अतएव विधेयक वैध तथा संवैधानिक है।
        न्यायाधीश पी० एन० सिंघल ने केवल एक विषय पर अपना विसम्मत निर्णय दिया। उन्होंने यह अभिनिर्धारित किया कि विधेयक का खण्ड 5 और 7 असंवैधानिक है क्योंकि यह सरकार को यह निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करता है कि इसके द्वारा कौन से नामजद किये गये न्यायाधीश किस अभियुक्त के मामले का परीक्षण करेंगे। उन्होंने वर्तमान उच्च न्यायालय को ही ऐसे न्यायालयों की शक्ति देने का विचार व्यक्त किया।

5- प्रशासनिक प्राधिकारियों की वैवेकिक (discretionary) शक्ति:

         कभी-कभी ऐसा होता है कि अधिनियम स्वयं वर्गीकरण करने के बजाय इस कार्य को सरकार या प्रशासनिक अधिकारियों पर छोड़ देता है। प्रायः उनकी शक्तियाँ बड़ी विस्तृत होती हैं और उनके प्रयोग में वे मनमाने ढंग से कार्य कर सकते हैं जो अनुच्छेद 14 में विहित समता के सिद्धान्त के विपरीत है। प्रशासनिक अधिकारी अपनी वैवेकिक शक्तियों का प्रयोग सही ढंग से करें, इसके लिए यह आवश्यक है कि अधिनियम में उनके मार्गदर्शन के लिए नीति-निर्धारण किया जाये। वैवेकिक शक्तियों को नियन्त्रित और उनके ठीक-ठीक सम्पादन कराने के लिए न्यायालयों ने समय-समय पर अनु० 14 की सहायता ली है। ऐसे मामलों में यह आवश्यक है कि अधिनियम में उन मार्गदर्शक सिद्धान्तों का उल्लेख किया जाए जिनके अनुसार वैवेकिक शक्तियों का प्रयोग किया जाना है। यदि प्रशासनिक अधिकारियों को दी गई शक्तियाँ सही रूप से परिभाषित और सुनिश्चित हैं और उनका प्रयोग अधिनियम में विहित सीमाओं के अन्दर किया जाता है तो ऐसा अधिनियम अनुच्छेद 14 का अतिलंघन नहीं करता। किन्तु यदि वैवेकिक शक्तियों के प्रयोग के लिए अधिनियम में कोई निश्चित नीति निर्धारित नहीं है तो उसे न्यायालय अवैध घोषित कर सकते हैं। कोई भी कानून अपने प्रशासनिक अधिकारियों को भेदभाव करने की शक्ति नहीं प्रदान कर सकता है। उपधारणा (presumption) सदैव विधि की विधिमान्यता की होती है जब तक कि यह न सिद्ध हो जाय कि अधिनियम में वैवेकिक शक्तियों के प्रयोग की कोई निश्चित नीति निर्धारित नहीं को गई है और उसके दुरुपयोग की संभावना प्रबल है। इसके सिद्ध करने का भार उस व्यक्ति पर होता है जो अधिनियम की विधिमान्यता को चुनौती देता है। लेकिन यदि वह अधिकारी, जिसे विवेकाधिकार दिया जाता है, उसके प्रयोग में मनमाने ढंग से कार्य करता है तो ऐसी दशा में उस अधिनियम को रद्द नहीं किया जाता है, बल्कि सम्बन्धित अधिकारी के कार्य को रद्द कर दिया जाता है। प्रशासन अपने अधिकारियों से इस विवेकाधिकार का ईमानदारी से और उचित रूप से प्रयोग करने की अपेक्षा करता है। देखिये - रामकृष्ण डालमिया बनाम जस्टिस टेन्डोलकर 1 का विनिश्चय।
        उपर्युक्त वर्णित दोनों मुकदमे अनवर अली और काठी रेनिंग इस विषय पर अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। अनवर अली के मामले में वेस्ट बंगाल अधिनियम को उच्चतम न्यायालय ने इसी आधार पर अभिखंडित कर दिया था क्योंकि इसमें प्रशासनिक अधिकारियों की दी हुई वैवेकिक शक्तियों के प्रयोग के लिये कोई निश्चित नीति या मार्गदर्शन का सिद्धान्त विहित नहीं किया गया था। 'शीघ्रतर परीक्षण' पदावली इतनी अस्पष्ट और अनिश्चित थी कि वह युक्तियुक्त वर्गीकरण का आधार नहीं प्रस्तुत करती थी। ऐसी दशा में सरकार और उसके अधिकारियों को मनमानी करने की छूट थी जो अनु० 14 में विहित समता के अधिकार के प्रतिकूल था। इसके विपरीत काठी रेनिंग के मामले में इसी प्रकृति के एक कानून (सौराष्ट्र अधिनियम) को उच्चतम न्यायालय ने वैध घोषित किया क्योंकि सौराष्ट्र अधिनियम में उन नीतियों और मार्गदर्शक सिद्धान्तों का स्पष्ट उल्लेख किया गया था जिसके अनुसार सरकार और उसके अधिकारी अपनी वैवेकिक शक्तियों का प्रयोग करेंगे। सरकार वर्गीकरण के लिए केवल उन्हीं अपराधों के मामलों को चुनेगी और उनको विशेष न्यायालय के परीक्षण के लिये भेजेगी जो 'लोक-सुरक्षा, लोक व्यवस्था और राज्य की शान्ति व्यवस्था' को प्रभावित करते हैं।
        “इन-रि केरल एजुकेशन बिल" के मामले में बिल द्वारा सरकार को प्राइवेट स्कूलों के ऊपर बड़ी शक्ति प्रदान की गयी थी। सरकार को नये स्थापित किये गये स्कूलों को मान्यता देने, न देने या उन स्कूलों को अधिगृहीत करने की शक्ति दी गयी थी। इस अधिनियम को उच्चतम न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि यह सरकार को बड़ी विस्तृत विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है जो अनु० 14 के प्रतिकूल है, अतः इसे अमान्य घोषित कर दिया जाना चाहिये। उच्चतम न्यायालय ने इस दलील को अस्वीकार कर दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि इसकी प्रस्तावना और शीर्षक में अधिनियम की सामान्य नीति का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। स्कूलों को ले लेने की सरकार को दी गयी शक्ति का प्रयोग केवल अधिनियम में उल्लिखित नीतियों के कार्यान्वयन में ही किया जा सकता है, इसलिये यह अनु० 14 के प्रतिकूल नहीं है, बशर्ते कि उस नीति को कार्यान्वित करने में कोई विभेद न किया जाये।

6-एक व्यक्ति स्वयं एक वर्ग माना जा सकता है:

         कोई अधिनियम, जो युक्तियुक्त वर्गीकरण करता है, केवल इस आधार पर अवैध नहीं हो जाता कि वह वर्ग जिसको वह लागू होता है, उसमें केवल एक ही व्यक्ति है, यदि किन्हीं विशेष परिस्थितियों के कारण वह केवल एक व्यक्ति को लागू होता है और दूसरों को नहीं, तो उस एक व्यक्ति को ही वर्ग माना जा सकता है। चिरंजीत लाल बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया का वाद इस विषय पर एक प्रमुख वाद है। इस बाद में शोलापुर कम्पनी कपड़े की एक बहुत बड़ी मिल थी जिसमें 2000 मजदूर कार्य करते थे। कम्पनी में कुव्यवस्था व्याप्त हो जाने के कारण प्रबन्धकों ने कम्पनी को बन्द करने का निर्णय किया। संसद् ने शोलापुर स्पिनिंग ऐण्ड वीविंग कं० (इमर्जेंसी प्राविजंस ) ऐक्ट पारित किया जिसने केन्द्रीय सरकार को यह शक्ति दी कि वह सरकारी निदेशकों को नियुक्त करके कम्पनी के प्रबन्ध एवं सम्पत्ति को सरकारी नियंत्रण में ले ले। कम्पनी के एक अंशधारी ने इस अधिनियम की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी कि केवल उसी कम्पनी के साथ विभेदकारी व्यवहार किया जा रहा है जबकि अन्य कम्पनियों में भी ऐसी कुव्यवस्था व्याप्त है और इस तरह उसे अनुच्छेद 14 में विहित समता के अधिकार से वंचित किया जा रहा है। उच्चतम न्यायालय ने बहुमत से शोलापुर स्पिनिंग ऐण्ड वीविंग अधिनियम को विधिमान्य घोषित किया। न्यायालय ने कहा कि कोई अधिनियम, जो युक्तियुक्त वर्गीकरण करता है, इस आधार पर असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता है कि वह केवल एक ही व्यक्ति को लागू होता है, दूसरों को नहीं। यदि किसी विशेष परिस्थिति के कारण, जो केवल एक व्यक्ति को लागू होता है, दूसरों को नहीं तो उस एक व्यक्ति को ही एक वर्ग माना जा सकता है। उपधारणा (Presumption) सर्वदा अधिनियम की संवेधानिकता के पक्ष में की जाती है और यह सिद्ध करने का भार कि कानून "अयुक्तियुक्त और निरंकुशतापूर्ण" है, पिटीशनर पर होता है। न्यायालय ने कहा कि शोलापुर कम्पनी के प्रबन्ध में गड़बड़ी हो जाने के कारण एक आवश्यक पदार्थ (कपड़ा) का उत्पादन होना बन्द हो गया है और उसमें काम करने वाले मजदूर बेकार हो गये हैं। यह असाधारण परिस्थिति है जो केवल शोलापुर कम्पनी से सम्बन्धित है। ऐसी स्थिति में शोलापुर कम्पनी को स्वयं एक वर्ग के रूप में माना जाना सर्वथा न्यायोचित है। न्यायालय के अनुसार पिटीशनर इसमें यह सिद्ध करने में भी असफल रहा है कि देश में अन्य कम्पनियाँ भी हैं जो समान परिस्थितियों में स्थित हैं। किन्तु न्यायालय के अल्पमत के अनुसार अधिनियम अमान्य है क्योंकि वह कोई वर्गीकरण नहीं करता है और स्पष्ट रूप से एक विभेदकारी कानून है। स्टेट ऑफ जम्मू ऐण्ड काश्मीर बनाम बख्शी गुलाम मुहम्मद' का निर्णय देखिये।
        “अमीरुन्निशा बनाम महबूब बेगम' के वाद में हैदराबाद के निजाम की मृत्यु हो जाने पर बहुत से लोगों ने अपने को उनके उत्तराधिकारी होने का दावा किया और उनकी सम्पत्ति में हक पाने के लिए मुकदमे दायर किये। फलतः मुकदमेबाजी ने दीर्घकालीन रूप धारण कर लिया। इस दीर्घकालीन मुकदमेबाजी को समाप्त करने के उद्देश्य से हैदराबाद के विधानमंडल ने एक वलीउद्दौला उत्तराधिकार अधिनियम, 1950 पारित किया। इस अधिनियम के अन्तर्गत एक पक्ष के दावे को स्वीकार किया गया था और दूसरे पक्ष के दावे को अस्वीकार कर दिया गया था। पीड़ित पक्ष ने अधिनियम की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी कि अधिनियम के फलस्वरूप उन्हें अपने दावे को न्यायालय द्वारा प्रचलित कराने के अधिकार से इन्कार करके एक अमूल्य अधिकार से वंचित किया जा रहा है जिसे कानून सभी व्यक्तियों को समान रूप से प्रदान करता है। सरकार ने अधिनियम द्वारा किये गये वर्गीकरण को दो आधारों पर उचित बताया। एक यह कि उक्त व्यक्तियों के विरुद्ध राज्य के वकील ने प्रतिकूल रिपोर्ट दिया है और दूसरा यह कि विवाद एक दीर्घकालीन विवाद बन गया है जिसको समाप्त करना आवश्यक है। उच्चतम न्यायालय ने वलीउद्दौला उत्तराधिकार अधिनियम, 1950 को अवैध घोषित कर दिया और कहा कि सरकार द्वारा पेश किये गये दोनों आधार कानून द्वारा किये गये वर्गीकरण के लिए कोई युक्तिसंगत आधार नहीं प्रस्तुत करते और वह एक पक्ष को न्यायालय द्वारा प्रवर्तित कराने के उस दावे के अधिकार से वंचित करके उनके और उसी समुदाय के शेष व्यक्तियों में एक अमूल्य अधिकार के सम्बन्ध में विभेदकारी व्यवहार करता है। कोई भी कानून किसी व्यक्ति को बिना किसी विवेकपूर्ण आधार के उसके विधिक अधिकारों से वंचित नहीं कर सकता है। न्यायालय ने वर्गीकरण के पक्ष में दिये दूसरे तर्क को भी अस्वीकार कर दिया और कहा कि लम्बे अर्से से चलने वाली मुकमेबाजी को समाप्त करने का उद्देश्य एक ही समुदाय के व्यक्तियों में विभेद करने के लिए कोई विवेकपूर्ण आधार नहीं प्रस्तुत करता है। एक निजी व्यक्ति की सम्पत्ति के दो विरोधी दावेदारों में एक लम्बे अर्से से चलने वाला विवाद, चाहे वह कितना ही दीर्घकालीन क्यों न हो, कोई ऐसी असाधारण परिस्थिति नहीं है जिसके आधार पर कुछ व्यक्तियों को स्वयं एक वर्ग माना जाय और उस समुदाय के अन्य दावेदारों और उनके बीच किए गये विभेद को न्यायोचित माना जाय। वस्तुतः अधिनियम के उद्देश्य और उसके द्वारा किये गये वर्गीकरण में कोई तर्कपूर्ण सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता है। चिरंजीतलाल के मामले में जो असाधारण परिस्थिति थी, वह इस मामले में नहीं है। जहाँ कानून का प्रभाव पूरे समाज के हित को प्रभावित करता है, वहीं न्यायालय यह मान लेता है कि वर्गीकरण के लिए कोई विवेकपूर्ण आधार मौजूद है। चिरंजीतलाल के मामले में कम्पनी के बन्द हो जाने से पूरे समुदाय के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया था। प्रस्तुत मामले में विवाद कुछ निजी पक्षकारों के बीच विवाद था जिससे समाज के हित के लिए कोई खतरा नहीं था।
        राम प्रसाद बनाम बिहार राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अमीरुन्निसा बेगम के निर्णय के आधार पर बिहार लॅण्ड्स (रेस्टोरेशन) ऐक्ट, 1950 को अवैध घोषित कर दिया। इस मामले में अपीलार्थी ने सन् 1946 में कोर्टस ऑफ वार्ड की कुछ जमीन का पट्टा लिया। उस क्षेत्र के अन्य काश्तकारों में इस पट्टे के दिये जाने से बड़ा क्षोभ उत्पन्न हो गया और वे इसके विरुद्ध आन्दोलन पर उतारू हो गये। सरकार के विचार से पट्टा गैरकानूनी था, इसलिए अपीलार्थी को वह जमीन खाली करने को कहा गया जिसे उसने इन्कार कर दिया। इसके पश्चात् बिहार विधान- मण्डल ने बिहार लेण्ड्स (रेस्टोरेशन) ऐक्ट, 1950 पारित करके अपीलार्थी के पट्टे को रद्द कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम को अवैध घोषित कर दिया, क्योंकि यह केवल अपीलार्थी को लागू होता था जब कि उसी परिस्थिति में रहने वाले अन्य लोगों पर नहीं लागू होता था। विवाद निजी पक्षकारों के बीच था और उन्हें अपने अधिकारों को न्यायालय द्वारा प्रवर्तित कराने का पूरा अधिकार प्राप्त था। यह अधिकार प्रत्येक नागरिक को समान रूप से प्राप्त है। प्रस्तुत वाद में अधिनियम एक समुदाय के कुछ लोगों को इस अधिकार से वंचित करके अनु० 14 में गारण्टी किये गये समता के अधिकार का उल्लंघन करता है, अतः वह असंवैधानिक है। स्थानीय काश्तकारों द्वारा अपीलार्थी की भूमि के पट्टे का विरोध करना मात्र कोई ऐसा विवेकपूर्ण आधार नहीं है जिसके आधार पर उसके विरुद्ध विभेद का व्यवहार किया जाय। जहाँ तक अधिनियम की संवैधानिकता का प्रश्न है, न्यायालय ने कहा कि यह सामान्य नियम है कि उपधारणा हमेशा संवैधानिकता के पक्ष में ही की जाती है, किन्तु जब प्रत्यक्षतः अधिनियम में कोई वर्गीकरण नहीं किया गया है, और न ही यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि चुने हुए व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूह में ऐसी विशिष्टता है जिसके आधार पर उन्हें अन्य व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूह से भिन्न व्यवहार के लिये चुना गया है जो अन्य में नहीं है, तो अधिनियम की संवैधानिकता की उपधारणा का लाभ सरकार को नहीं मिल सकता है। संक्षेप में, उपधारणा को इस सीमा तक नहीं ले जाया जा सकता है कि कुछ निश्चित व्यक्तियों या निगम को शत्रुतापूर्ण या विभेदकारी विधान के अधीन करने के लिए अवश्य ही कोई अप्रकट और अज्ञात कारण है।

सामान्य दृष्टान्त

        बैंक नेशनलाइजेशन का मामला 1969 में संसद् ने बैङ्क नेशनलाइजेशन ऐक्ट पारित किया जिसके द्वारा देश के 14 प्रमुख बैंकों जिनकी कुल जमा धनराशि 50 करोड़ रुपये से अधिक थी, का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
        प्रत्यर्थी ने जिन आधारों पर अधिनियम को सांविधानिकता को चुनौती दी थी, उनमें से एक यह था कि वह अनुच्छेद 14 में प्रदत्त उसके समता के अधिकार का हनन करता है । उसके अनुसार यह विभेदकारी वर्गीकरण करता है, क्योंकि इसके अन्तर्गत उक्त बैंकों को अधिगृहीत करके उन्हें बैंकिग व्यापार करने से रोक दिया गया है जब कि अन्य बैंकों को इस प्रकार के व्यापार करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। यही नहीं, वे बैङ्किग व्यापार के अलावा अन्य व्यापार भी नहीं कर सकते हैं क्योंकि उसके लिये उनके पास कोई साधन नहीं है। उन्हें तत्काल मुआवजे की कुछ धनराशि भी नहीं दी गयी है। भारत सरकार ने अधिनियम की सांविधानिकता के पक्ष में यह तर्क प्रस्तुत किया कि यह अधिनियम युक्तियुक्त वर्गीकरण करता है और अधिनियम के उद्देश्य और वर्गीकरण के बीच एक विवेकपूर्ण सम्बन्ध है।
        उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यह अधिनियम असंवैधानिक है क्योंकि अधिनियम गृहीत किये गये बैंकों तथा अन्य बैंकों के बीच अन्यायपूर्ण विभेद करता है। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम ने उक्त बैकों की सारी परिसम्पत्ति, कारोबार, संगठन-व्यवस्था और ख्याति- लाभ को अधिग्रहण करके उन्हें बैङ्किग व्यापार करने से रोक दिया है, जबकि अन्य बैकों को इसी प्रकार के व्यापार करने की छूट है। न्यायालय के अनुसार यह खुल्लम-खुल्ला एक अन्यायपूर्ण भेद- भाव है जो अनुच्छेद 14 द्वारा वर्जित है। यही नहीं, बल्कि उक्त बैंकों को दूसरे व्यापार करने से भी अक्षम कर दिया गया है, क्योंकि एक तो उनके सारे कारोबार को ले लिया गया है और दूसरे उन्हें अन्य कारोबार करने के लिए आवश्यक धनराशि भी नहीं दी गयी है। यह स्पष्टतः प्रत्यर्थी के समता के अधिकार पर आघात है, अतः असंवैधानिक और अवैध है।
        के० ए० अब्बास बनाम भारत संघ' के वाद में पिटीशनर ने चलचित्र अधिनियम, 1952 की संवैधानिक विधि से मान्यता को इस आधार पर चुनौती दी थी कि वह अयुक्तियुक्त वर्गीकरण करता है जिससे अनु० 14 में उसके अधिकार पर अतिक्रमण होता है, अतः वह असंवैधानिक है। अधिनियम के अन्तर्गत चलचित्रों को दो वर्गों में विभाजित किया गया था, जैसे 'यू' और 'अ' । 'यू' वर्ग के चलचित्रों का प्रदर्शन अप्रतिबन्धित किया जाता है जबकि "अ" वर्ग के चलचित्रों का प्रदर्शन केवल बालिगों के लिये ही किया जा सकता है। पिटीशनर ने यह दलील दी कि चलचित्र भी अभिव्यक्ति का एक माध्यम है और उसे अन्य अभिव्यक्ति के माध्यमों के साथ समान व्यवहार के संरक्षण का अधिकार प्राप्त है। चलचित्रों पर पूर्ण अवरोध लगाया गया है जब कि अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों पर ऐसा प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया है। पिटीशनर ने दावा किया कि चलचित्रों के साथ कला और अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों से भिन्न प्रकार का व्यवहार करना अयुक्तियुक्त वर्गीकरण है।
        उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि चलचित्रों के साथ कला और अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों से भिन्न व्यवहार करना एक युक्तियुक्त वर्गीकरण है। चलचित्रों के साथ कला की अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों से अवश्य ही भिन्न व्यवहार किया जाना चाहिए। ऐसा चलचित्रों के तात्कालिक प्रभाव, बहुमुखी प्रतिभा, यथार्थवाद और दृष्टिक एवं कर्णीय इन्द्रियों के साथ-साथ प्रभावित होने के कारण उत्पन्न होता है। चलचित्र कला के अन्य साधनों की तुलना में हमारी भावनाओं को अत्यन्त तेजी से जागृत करने सक्षम है। विशेष रूप से बच्चों और किशोरों पर इसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है क्योंकि वे चलचित्रों में होने वाले अभिनयों को याद रखते हैं और उनका अनुकरण करने का प्रयास करते हैं। इसके विपरीत, एक व्यक्ति, जो एक पुस्तक या अन्य लेख पढ़ता है या भाषण सुनता है या चित्रकला या मूर्तिकला देखता है, उतनी तेजी से उद्वेलित नहीं होता है जितना कि एक चलचित्र देखने वाला व्यक्ति उद्वेलित हो जाता है। उपर्युक्त कारणों से चलचित्रों को 2 वर्गों में बाँटा गया है जो सर्वथा युक्तियुक्त वर्गीकरण है और विधिमान्य है।
        केरल राज्य बनाम टी० पी० रोशना' के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि विभिन्न विश्वविद्यालयों को एक इकाई मानकर उनको छात्र संख्या के आधार पर उनके अधीन मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए पदों का आबंटन अनु० 14 का अतिक्रमण करता है, अतएव असंवैधानिक है।
        एयर इण्डिया बनाम नरगेस मिर्जा के मामले में उच्चतम न्यायालय ने एयर इण्डिया और इण्डियन एयर लाइन्स द्वारा बनाये गये विनियमों को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया कि उनके अधीन वायुयान परिचारिकाओं की भी सेवा शर्तों को विनियमित करने वाली शर्तें अयुक्तियुक्त और विभेदकारी हैं। विनियम 46 यह उपबन्धित करता है कि वायुयान परिचारिकाएं कारपोरेशन की सेवा से 35 वर्ष की आयु में या विवाह करने पर, यदि वह सेवा के 4 वर्षों के अन्दर होता है, या पहली बार गर्भवती होने पर, जो पहले घटित हो, अवकाश प्राप्त करेंगी। विनियम 47 के अधीन प्रबन्ध निदेशक को अवकाश प्राप्त करने की अवधि को एक बार में एक वर्ष करके अधिकतम 45 वर्ष तक अपनी मर्जी से बढ़ाने की शक्ति प्राप्त है यदि वायु परिचारिका चिकित्सीय परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाती है। निर्णय दिया गया कि पहली बार गर्भवती होने पर सेवा से पदमुक्ति की शर्त अत्यन्त अयुक्तियुक्त और विभेदकारी है और अनु० 14 का सरासर अतिक्रमण करती है। विनियम सेवा में आने के 4 वर्ष बाद विवाह करने का निषेध नहीं करता है किन्तु यदि कोई वायु परिचारिका यदि इस पहली शर्त को पूरा करने के पश्चात् गर्भवती हो जाती है तो उसे सेवा से पदमुक्त करने की शर्त अत्यन्त अयुक्तियुक्त है क्योंकि इसके परिणामस्वरूप वह बच्चा पैदा न करने के लिए बाध्य हो जाती है। इस प्रकार यह मानव जीवन के साधारण प्रवाह को ही बदल देता है। ऐसी परिस्थिति में वायु परिचारिका की सेवा से पदमुक्ति न केबल निर्दयतापूर्ण कृत्य है वरन् भारतीय नारी का खुला अपमान है। प्रबन्ध निदेशक की वायु परिचारिकाओं की अवकाश प्राप्त करने की अवधि को अपनी मर्जी से वृद्धि प्रयोग करने का प्रावधान किसी मार्गदर्शक सिद्धान्त के विहित किए बिना विवेकीय (Discretionary) शक्ति प्रदान करता है जो सर्वथा असंवैधानिक है क्योंकि इसका प्रयोग किसी के पक्ष में किया जा सकता है और किसी के विपक्ष में
        जीवन बीमा निगम अति बोनस अधिनियम, 1981 के मामले में जीवन बीमा निगम संशोधन अधिनियम, 1981 और उसके अधीन निर्मित नियमों को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि वह अनु० 14 का अतिक्रमण करता है क्योंकि वह प्रशासनिक प्राधिकारियों को अत्यधिक शक्ति का प्रत्यायोजन (delegation) करता है। इस अधिनियम के अधीन बने नियमों द्वारा सरकार ने जीवन बीमा निगम के चतुर्थ और तृतीय श्रेणी के कर्मचारियो को भत्ते और बोनस देने के आधार में परिवर्तन कर दिया है। 1974 में सरकार और बीमा निगम के बीच हुए करार के अन्तर्गत उक्त कर्मचारियों को वार्षिक वेतन का 15 प्रतिशत बोनस देने का प्रावधान किया गया था। उक्त नियम को भूतलक्षी (retrospective) प्रभाव से लागू किया गया था। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि उक्त अधिनियम और उसके अधीन निर्मित नियम संवैधानिक रूप से वैध हैं किन्तु उनको भूतलक्षी प्रभाव नहीं दिया जा सकता है। वे 2 फरवरी, 1981 जिस दिन इन नियमों को जारी किया गया था, से ही लागू किए जा सकते हैं। अतः इस तिथि के पूर्व कर्मचारियों के भत्ते और बोनस 1974 के समझौते की शर्तों के अनुसार दिये जायेंगे। न्यायालय ने कहा कि 1974 के समझौते को नये समझौते, या कारखाना पंचाट अथवा विधायन के द्वारा बदला जा सकता है किन्तु यह परिवर्तन केवल भविष्यलक्षी ही हो सकता है, भूतलक्षी नहीं। पिटीशनरों ने कोई ऐसा तथ्य नहीं प्रस्तुत किया है जिसके आधार पर यह कहा जाये कि उक्त नियम अनु० 14 का अतिक्रमण करते हैं। सरकार विधान द्वारा 1974 के समझौते की शर्तों को परिवर्तित कर सकती है। इस नियम के अधीन नये भत्ते और बोनस की दरों के निर्धारित करने के लिए समुचित मार्गदर्शक सिद्धान्त विहित किये गये हैं अतएव इसमें अत्यधिक प्रत्यायोजन का प्रश्न निराधार है।